चैप्टर 12 देवांगना : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 12 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 12 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

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Chapter 12 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

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गूढ़ योजना : देवांगना

मन्त्री के जाते ही महानन्द ने सम्मुख आकर कहा :

“अब आचार्य की मुझे क्या आज्ञा है?”

“वाराणसी चलना होगा भद्र, साथ कौन जायेगा?”

“क्यों, मैं?”

“नहीं, तुम्हें मेरा सन्देश लेकर अभी लिच्छविराज के पास जाना होगा।”

“तब?”

“धर्मानुज, और ग्यारह भिक्षु और, कुल बारह।”

“धर्मानुज क्यों?”

“उसमें कारण है, उसे मैं यहाँ अकेला नहीं छोडूंगा। संभव है यज्ञ ही युद्धक्षेत्र हो जाय।”

“यह भी ठीक है, परन्तु उसका प्रायश्चित्त।”

“उसे मैं अपने पवित्र वचनों से अभी दोषमुक्त कर दूंगा।”

महानन्द ने हँसकर कहा—”आप सर्वशक्तिमान् पुरुष हैं।”

वज्रसिद्धि भी हँस दिए। उन्होंने कहा—”ग्यारह शिष्य छाँटो, मैं धर्मानुज को देखता हूँ।”

“जैसी आचार्य की आज्ञा।”

अंधेरे और गंदे तलगृह में धर्मानुज काष्ठफलक पर बैठा कुछ सोच रहा था। वह सोच रहा था—”जीवन के प्रभात में महल-अटारी, सुख-साज त्याग कर क्या पाया? यह गंदी, घृणित और अंधेरी कोठरी? बाहर कैसा सुन्दर संसार है, धूप खिल रही है। मन्द पवन के झोंके चल रहे हैं। पत्ती भाँति-भाँति के गीत गा रहे हैं। परन्तु धर्म के लिए इन सबको त्यागना पड़ता है। यह धर्म क्या वस्तु है? यहाँ जो कुछ है-यदि यही धर्म है, तब तो वह मनुष्य का कट्टर शत्रु दीख पड़ता है।”

इसी समय सुखदास ने वहाँ पहुँचकर झरोखे से झांककर देखा। भीतर अंधेरे में वह सब कुछ देख न सका। परन्तु उसे दिवोदास के उद्‌गार कुछ सुनाई दिए। उसका हृदय क्रोध और दुःख से भर गया।

उसने बाहर से खटका किया।

धर्मानुज ने खिड़की की ओर मुँह करके कहा—“कौन है भाई?”

“भैयाजी, क्या हाल है? अभी आत्मा पवित्र हुई या नहीं?”

“धीरे-धीरे हो रही है, किन्तु तुम कौन हो?”

“मैं…मैं! सुखदास?”

“पितृव्य? अरे, तुम यहाँ कहाँ?”

“चुप! मैं सुखानन्द भिक्षु हूँ, तुम्हारी कल्याण कामना से यहाँ आया हूँ।”

“उसके लिए तो संघस्थविर ही यथेष्ट थे, इस अन्ध नरक में मेरी यथेष्ट कल्याण कामना हो रही है।”

“आज इस नरक से तुम्हारा उद्धार होगा, आशीर्वाद देता हूँ।”

“किन्तु अभी तो प्रायश्चित्त की अवधि भी पूरी नहीं हुई है।”

“तो इससे क्या? भिक्षु सुखानंद का आशीर्वाद है यह?”

“पहेली मत बुझाओ यहाँ, बात जो है वह कहो।”

“तो सुनो, संघस्थविर जा रहे हैं काशी, उनके साथ 12 भिक्षु जायेंगे। उनमें तुम्हें भी चुना गया है।”

“काशी क्यों जा रहे हैं आचार्य?”

“समझ सकोगे? काशिराज और अपने महाराज का सर्वनाश करने का षड्यंत्र रचने।”

“सर्वत्यागी भिक्षुओं को इससे क्या मतलब?”

“महासंघस्थविर वज्रसिद्धि त्यागी भिक्षु नहीं हैं। वे राज मुकुटों के मिटाने और बनाने वाले हैं।”

“फिर यह धर्म का ढोंग क्यों?”

“यही उनका हथियार है, इसी से उनकी विजय होती है।”

“और पवित्र धर्म का विस्तार!”

“वह सब पाखण्ड है।”

“तुम यहाँ क्यों आए पितृव्य?”

“तब कहाँ जाता? जहाँ बछड़ा वहाँ गाय।”

“समय क्या है? इस अन्धकार में तो दिन-रात का पता ही नहीं चलता।”

“पूर्व दिशा में लाली आ गई है, सूर्योदय होने ही वाला है। संघस्थविर आ रहे हैं। मैं चलता हूँ।”

“संघस्थविर इस समय क्यों आ रहे हैं?”

“तुम्हें पाप-मुक्त करने, आज का मनोरम सूर्योदय तुम देख सकोगे––यह भिक्षु सुखानंद का आशीर्वाद है।”

सुखानन्द का मुँह खिड़की पर से लुप्त हो गया। इसी समय एक चीत्कार के साथ भूगर्भ का मुख्य द्वार खुला। आचार्य वज्रसिद्धि ने भीतर प्रवेश किया। उनके पीछे नंगी तलवार हाथ में लिए महानंद था। आचार्य ने कहा :

“वत्स धर्मानुज, क्या तुम जाग रहे हो?”

“हाँ आचार्य, अभिवादन करता हूँ।”

“तुम्हारा कल्याण हो, धर्म में तुम्हारी सद्गति रहे। आओ, मैं तुम्हें पापमुक्त करूं।”

उन्होंने मन्त्र पाठकर पवित्र जल उसके मस्तक पर छिड़का, और कहा—”तुम पाप मुक्त हो गए, अब बाहर जाओ।”

“यह क्या आचार्य, अभी तो प्रायश्चित्त काल पूरा भी नहीं हुआ?”

“मैंने तुम्हें पवित्र वचन से शुद्ध कर दिया। प्रायश्चित्त की आवश्यकता नहीं रही।”

“नहीं आचार्य, मैं पूरा प्रायश्चित्त करूंगा।”

“वत्स, तुम्हें मेरी आज्ञा का पालन करना चाहिए।”

“आपकी आज्ञा से धर्म की आज्ञा बढ़कर है।”

“हमीं धर्म को बनाने वाले हैं धर्मानुज, हमारी आज्ञा ही सबसे बढ़कर है।”

“आचार्य, मैंने बड़ा पातक किया है।”

“कौन-सा पातक वत्स?”

“मैंने सुन्दर संसार को त्याग दिया, यौवन का तिरस्कार किया, ऐश्वर्य को ठोकर मारी, उस सौभाग्य को कुचल दिया जो लाखों मनुष्यों में एक पुरुष को मिलता है।”

“शान्तं पापं। यह अधर्म नहीं धर्म किया। तथागत ने भी यही किया था पुत्र।”

“उनके हृदय में त्याग था। वे महापुरुष थे। किन्तु मैं तो एक साधारण जन हूँ। मैं त्यागी नहीं हूँ।”

“संयम और अभ्यास से तुम वैसे बन जाओगे।”

“यह बलात् संयम तो बलात् व्यभिचार से भी अधिक भयानक है!”

“यह तुम्हारे विकृत मस्तिष्क का प्रभाव है, वत्स!”

“आपके इन धर्म सूत्रों में, इन विधानों में, इस पूजा-पाठ के पाखण्ड में, इन आडम्बरों में मुझे तो कहीं भी संयम-शान्ति नहीं दीखती और न धर्म दीखता है। धर्म का एक कण भी नहीं दिखता।”

“पुत्र, सद्धर्म से विद्रोह मत करो, बुरा मत कहो।”

“आचार्य, आप यदि जीवन को स्वाभाविक गति नहीं दे सकते तो संसार को सद्धर्म का संदेश कैसे दे सकते हैं?”

“पुत्र, अभी तुम इन सब धर्म की जटिल बातों को न समझ सकोगे। मेरी आज्ञा का पालन करो। इस महातामस से बाहर आओ। और स्नान कर पवित्र हो देवी वज्रतारा का पूजन करो, तुम्हें मैंने अपने बारह प्रधान शिष्यों का प्रमुख बनाया है। हम वाराणसी चल रहे हैं।”

आचार्य ने उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की। वे बाहर निकले। सम्मुख होकर सुखानन्द ने साष्टांग दण्डवत् किया।

आचार्य ने कहा—”अरे भिक्षु!” जा उस धर्मानुज को महा अंध तामस के बाहर कर, उसे स्नान करा, शुद्ध वस्त्र दे और देवी के मंदिर में ले आ।”

सुखदास ने मन की हँसी रोककर कहा—”जो आज्ञा आचार्य।”

उसने तामस में प्रविष्ट होकर कहा—”भैया, जो कुछ करना-धरना हो पीछे करना। अभी इस नरक से बाहर निकलो। और इन पाखण्डियों के भण्डाफोड़ की व्यवस्था करो।”

दिवोदास ने और विरोध नहीं किया। वह सुखदास की बाँह का सहारा ले धीरे-धीरे महातामस से बाहर आया। एक बार फिर सुंदर संसार से उसका सम्पर्क स्थापित हुआ।

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