Chapter 27 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri
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दुस्सह सम्वाद : देवांगना
दिवोदास को संघाराम के गुप्त बन्दी गृह में लाकर रक्खा गया। उस बन्दीगृह में ऊपर छत के पास केवल एक छेद था, जिसके द्वारा भोजन और जल बन्दी को पहुँचा दिया जाता था। उसी छेद द्वारा चन्द्रमा की उज्ज्वल किरणें बन्दीगृह में आ रही थीं। उसी को देखकर दिवोदास कह रहा था—”आह, कैसी प्यारी है यह चन्द्रकिरण, प्यारी की मुस्कान की भाँति उज्ज्वल और शीतल?”
उसने पृथ्वी पर झुककर वह स्थल चूम लिया—”बाहर चाँदनी छिटक रही होगी। रात दूध में नहा रही होगी। परन्तु मेरा हृदय इस बन्दीगृह के समान अन्धकार से परिपूर्ण है।”
वह दोनों हाथों से सिर थामकर बैठ गया। इसी समय एक खटका सुनकर वह चौंक उठा। बन्दीगृह का द्वार खोलकर पहरेदार ने आकर कहा—”यह स्त्री तुमसे मिलना चाहती है, परन्तु जल्दी करना। भन्ते, मैं अधिक प्रतीक्षा नहीं करूँगा।”
काले वस्त्रों में आवेष्टित एक स्त्री उसके पीछे थी, उसे भीतर करके प्रहरी ने बन्दीगृह का द्वार बन्द कर लिया।
दिवोदास ने कहा—”कौन है?”
“यह अभागिनी सुनयना है।”
“माँ, तुम आई हो?”
“बड़ी कठिनाई से आ पाई हूँ दिवोदास, तुम न आ सके न!”
“न आ सका, किन्तु मेरा पुत्र?”
“पुत्र प्रसव हुआ, किन्तु तुम झूठे हुए बेटे।”
“हाँ माँ, मंजु से कहो, वह मुझे दण्ड दे।”
“उसने दण्ड दे दिया, बच्चे।”
“तो माँ, मैं हँसकर सह लूँगा, कहो क्या दण्ड दिया है?”
“सह न सकोगे।”
“ऐसा दण्ड है?”
“हाँ पुत्र।”
“नहीं, ऐसा हो नहीं सकता, मंजु मुझे दण्ड दे और मैं सह न सकूँ? सहकर हँस न सकूँ तो मेरे प्यार पर भारी कलंक होगा माँ।”
“कैसे कहूँ?”
“कहो माँ?”
“सुन न सकोगे।”
“कहो-कहो।”
“उसने अपने प्राण दे दिए।”
“प्राण दे दिए?” दिवोदास ने पागल की भाँति चीत्कार किया।
“हाँ, पुत्र, हम बन्दीगृह से मुक्त होकर भागे जा रहे थे। मार्ग ही में उसने एक वृक्ष के नीचे पुत्र को जन्म दिया, और फिर मुझसे एक अनुरोध करके वह विदा हुई।”
“क्या अनुरोध था माँ।”
“यही, कि यदि मेरी मृत्यु हो जाय तो मेरे पुत्र को उन तक पहुँचा देना।”
“तो मेरा पुत्र?”
“वह मैंने खो दिया।”
“खो दिया?”
“राह में मैं भूख और प्यास से जर्जर हो सो गई। जब आँख खुली तो शिशु न था, कौन जाने उसे कोई वनपशु उठा ले गया था…” सुनयना आगे कुछ न कहकर फूट-फूटकर रो उठी।
“मेरे पुत्र को तुमने खो दिया माँ, और उसने प्राण दे दिए!! खूब हुआ।” दिवोदास अट्टहास करके हँसने लगा। “हा, हा, हा, प्राण दे दिए, खो दिया।” उसने फिर अट्टहास किया और काष्ठ के कुन्दे की भाँति अचेत होकर भूमि पर गिर गया।
इसी समय प्रहरी ने भीतर आकर कहा—”बस, अब समय हो गया। बाहर आओ।” देवी सुनयना संज्ञाहीन-सी बाहर आईं और एक वृक्ष के नीचे भूमि पर पड़ गई।
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