Chapter 6 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri
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सुखानन्द : देवांगना
सुखदास की स्त्री का नाम सुंदरी था। वह यों तो भली स्त्री थी पर मिजाज की जरा चिड़चिड़ी थी। सुखदास घर-बार से बेपरवाह था। उसे अपने वेतन की भी चिंता न थी। वह नौकरी नहीं बजाता था, सेठ के घर को अपना घर समझता था।
जिस दिन कुमार दिवोदास की दीक्षा हुई, उससे एक दिन प्रथम सुखदास और उसकी पत्नी में खूब वाग्युद्ध हुआ था। वाग्युद्ध का मूल कारण यह था कि सुखदास ने तेईस वर्ष पूर्व सुंदरी से उसके लिए एक जोड़ा नूपुर बनवा देने का वादा किया था। वे नूपुर उसने अभी तक बनवाकर नहीं दिए थे। तेईस वर्षों के इस अन्तर ने सुन्दरी को अधेड़ बना दिया था, प्राय: प्रतिदिन ही वह सुखदास से नूपुर का तकाजा करती थी और प्रतिदिन सुखदास उसे कल पर टाल देता था। इसी प्रकार कल करते-करते तेईस वर्ष बीत चुके थे। कल रात इस मामले ने बहुत गहरा रंग पकड़ा था। सुंदरी को इसके लिए आँसू गिराने पड़े थे। और सुखदास ने प्रणबद्ध होकर वचन दिया था कि कल नूपुर नहीं बनवा दूं, तो घर-बार छोड़कर भिक्षु हो जाऊँगा। सुन्दरी को नूपुर पहनने की बड़ी अभिलाषा थी, वार्धक्य आने से भी वह कम नहीं हुई थी। उसने कहा “भिक्षु हो जाओगे तो संतोष कर लूंगी। पर यदि कल नूपुर न लाये, तो देखना मैं कुएं-तालाब में डूब मरूंगी।”
सुखदास – “अच्छा, समझ गया।” कहकर घर से बाहर चला गया था।
आज सुखदास को एक साहस करना पड़ा। दिवोदास का भिक्षु होना वह सहन न कर सका। बौद्धों के पाखण्ड से वह खूब परिचित था। उसने चुपचाप दिवोदास की सहायता करने के लिए भिक्षु वेश धारण कर लिया। दाढ़ी-मूँछों का सफाया कर लिया और पीत कफनी पहन ली। उसने चुपचाप संघाराम में दिवोदास के पास रहने की ठान ली थी।
सुन्दरी आज बहुत क्रोध में थी। उसने निश्चय किया था, आज जैसे भी हो वह नूपुर बिना मंगाये न रहेगी। जब देखो झूठा बहाना। बहाने ही बहाने में खाने-पहनने के दिन बीत गए। आज वह नहीं या मैं नहीं।
वह बड़बड़ाती हुई बाहरी कक्ष में आई। उसका इरादा कल के युद्ध को फिर से जारी करके पति को परास्त कर डालने का था। कक्ष में देखा——वहाँ सुखदास के स्थान पर कोई भिक्षु पीत कफनी पहिने बैठा है। सुखदास की भांति सुंदरी भी भिक्षुओं को एक आँख नहीं देख सकती थी। उसने भिक्षु को देखते ही आग बबूला होकर कहा :
“यह कौन मूड़ीकाटा बैठा है, अरे तू कौन है?”
“यह मैं हूँ प्रेमप्यारी जी, तुम्हारा दास सुखदास। पर अब तुम इसे भिक्षु सुखानंद कहना।”
सुन्दरी का कलेजा धक से रह गया। उसने घबड़ाकर कहा :
“क्या भांग खा गए हो? मूँछों का एकदम सफाया कर दिया?”
“तुम्हीं तो इन्हें कोसा करती थी? कहो अब यह मुँह कैसा लगता है?”
“आग लगे इस मुँह में, यह भिक्षु का बाना क्यों पहना है?”
“तुम्हीं ने तो कहा था कि साधु होकर घर से निकल जाओ, मैं सन्तोष कर लूंगी। लो अब जाता हूँ।”
सुखदास ने जाने का उपक्रम किया तो सुंदरी ने बढ़कर उसके पीत वस्त्र का पल्ला पकड़ लिया। रोते-रोते कहा–”हाय-हाय, यह क्या करते हो, अरे ठहरो, कहाँ जाते हो?”
“जाता हूँ।”
“अरे मुझे भरी जवानी में छोड़ जाते हो निर्दयी।”
“अरे, वाह रे भरी जवानी! कब तक जवान रहेगी!”
“जाने दो, मैं नूपुर नहीं मागूंगी।”
“अब तुम नूपुर लेकर ही रहना। मुझसे तुम्हारा क्या वास्ता! मैं चला।”
“अरे लोगो, देखो। मैं लुट गई। नहीं, मैं नहीं जाने दूंगी।” वह रोती हुई सुखदास से लिपट गई।
“तब क्यों कहा था?”
“वह तो झूठमूठ कहा था।”
“तो प्रेमप्यारी जी, मैं भी झूठमूठ का भिक्षु बना हूँ, कोई सचमुच थोड़े ही!”
“अरे, यह क्या बात है!”
“किसी से कहना नहीं, गुपचुप की बात है।”
“अरे, तो तुम झूठमूठ क्यों मूँछ मुड़ा बैठे?”
“तब क्या करता, मालिक की अकिल तो पिलपिली हो गई है। जवान बेटे को बैठे- बिठाए मूँछ मुड़ाकर घर से निकाल दिया। भिक्षु बड़े पाजी होते हैं। और वह सबका गुरु घंटाल पूरा भेड़िया है। उसके दांत सेठ की दौलत पर हैं। भैया पर न जाने कैसी बीते; मेरा उनके साथ रहना बहुत जरूरी है, समझी प्रेम-प्यारी जी!”
“पर मेरी क्या गत होगी यह कभी सोचा, नूपुर नहीं थे तो क्या तुम तो थे। इसी से संतोष था, अब तो तुम भी दूर हो जाओगे। आज झूठमूठ के साधु बने हो, कल सचमुच के बनने में क्या देर लगेगी।”
“नहीं प्रेमप्यारी जी, कहीं ऐसा भी हो सकता है? तुम्हें छोड़कर भला सुखदास की गत कहाँ है। पर भैया की सेवा करना भी मेरा धर्म है। लो अब मैं जाता हूँ।”
“तो फिर मुझे क्या कहते हो?”
“बस, इस झमेले से बेबाक हुआ कि मुझे नूपुर बनवाने हैं।”
“भाड़ में जाए नूपुर! मेरे लिए तुम बने रहो।”
“मैं तो पक्का बना-बनाया हूँ, चिंता मत करो।”
“फिर कब आओगे?”
“रोज ही आयेंगे, आने में क्या है! सभी भिक्षु भिक्षा के लिए आते हैं। हम यहीं मिला करेंगे। अच्छा साध्वी, तेरा कल्याण हो, यह भिक्षु सुखानंद चला।”
“हाय-हाय, निर्मोही न बनो!”
“सब झूठमूठ का धंधा है। प्यारी, झूठमूठ का धंधा!”
“पर तनिक तो ठहरो!”
“अब नहीं, देखू भैया को वहाँ कैसे रखा गया है।”
“तो जाओ फिर।”
“जाता हूँ।”
सुखदास धीरे-धीरे घर से बाहर चला गया। सुन्दरी आँखों में आँसू भरे एकटक देखती रही।
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