चैप्टर 17 देवांगना : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 17 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 17 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

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गुरु के सम्मुख : देवांगना

आचार्य वज्रसिद्धि ने एकान्त कक्ष में दिवोदास को बुलाकर कहा—”यह क्या वत्स, मैंने सुना है कि तुमने चीवर त्याग दिया—भिक्षु-मर्यादा भंग कर दी?”

“आपने सत्य ही सुना आचार्य।”

“किन्तु यह तो गर्हित पापकर्म है!”

“आप तो मुझे प्रथम ही पाप मुक्त कर चुके हैं आचार्य, अब भला पाप मुझे कहाँ स्पर्श कर सकता है!”

“पुत्र, तुम अपने आचार्य का उपहास कर रहे हो?”

“आचार्य जैसा समझें।”

“पुत्र, क्या बात है कि तुम मुझसे भयशंकित हो दूर-दूर हो। तुम्हें तो अपने प्रधान बारह शिष्यों का प्रधान बनाया है। तुम्हें क्या चिन्ता है! मन की बात मुझसे कहो। मैं तुम्हारा गुरु हूँ।”

“आचार्य, मुझे आपसे कुछ कहना नहीं है।”

“क्यों?”

“मैं कुछ कह नहीं सकता।”

“तुम्हें कहना होगा पुत्र!”

“तब सुनिए कि मैं भिक्षु नहीं हूँ-विवाहित सद्गृहस्थ हूँ।”

“ऐं, यह कैसी बात?”

“जैसा आचार्य समझें।”

“क्या तुम सद्धर्म पर श्रद्धा नहीं रखते?”

“नहीं।”

“कारण?

“कारण बताऊँगा तो आचार्य, अविनय होगा।”

“मैं आज्ञा देता हूँ, कहो।”

“तो सुनिए, आप धर्म की आड़ में धोखा और स्वार्थ का खेल खेल रहे हैं। बाहर कुछ और भीतर कुछ। सब कार्य पाखण्डमय हैं।”

“बस, या और कुछ?”

“आचार्य, आपने क्यों मेरा सर्वनाश किया? मुझे इस कपट धर्म में दीक्षित किया? आपने संयम, त्याग, वैराग्य और ज्ञान की कितनी डींग मारी थी, वह सब तो झूठ था न?”

“पुत्र, तुम जानते हो कि किससे बातें कर रहे हो?”

दिवोदास ने आचार्य की बात नहीं सुनी। वह आवेश में कहता गया—”मैंने देख लिया कि ये लोभी-कामी-दुष्ट और हत्यारे भिक्षु कितने पतित हैं। अब साफ-साफ कहिए, किसलिए आपने मुझे इस अंधे कुएं में ला पटका है? आपकी क्या दुरभिसन्धि है?”

आचार्य ने कुटिल हास्य हँसते हुए कहा—”तुम्हें सत्य ही पसंद है सत्य ही सुनो- तुम्हारे पिता की अटूट सम्पदा को हड़पने के लिए।”

“यह मेरे जीते-जी आप न कर पाएँगे आचार्य।”

“तो तुम जीवित ही न रहने पाओगे।”

“आपने मुझे निर्वाण का मार्ग दिखाने को कहा था?”

“क्रोध न करो बच्चे, वह मार्ग मैं तुम्हें बताऊँगा। सुनो राजनीति की भाँति धर्मनीति भी टेढ़ी चाल चलती है। तुम जानते हो, हिन्दू धर्म जीव-हत्या का धर्म है। यज्ञ और धर्म के नाम पर बेचारे निरीह पशुओं का वध किया जाता है। यज्ञ के पवित्र कृत्यों के नाम पर मद्यपान किया जाता है। इस हिन्दू धर्म में स्त्रियों और मर्दो पर भी, उच्च जाति वालों ने पूरे अंकुश रख उन्हें पराधीन बनाया है। अछूतों के प्रति तथा छोटी जाति के प्रति तो अन्यायाचरण का अन्त ही नहीं है। वे देवदासियाँ जो धर्म बन्धन में बंधी हैं, पाप का जीवन व्यतीत करती हैं।”

दिवोदास सुनकर और मंजुघोषा का स्मरण करके अधीर हो उठा। परन्तु आचार्य कहते गए—”पुत्र, आश्चर्य मत करो, बौद्ध धर्म का जन्म इसी अधर्म के नाश के लिए हुआ है, किन्तु मूर्ख जनता को युक्ति से ही सीधा रास्ता बताया जा सकता है, उसी युक्ति को तुम छल कहते हो।”

“आचार्य, आपका मतलब क्या है?”

“यही कि मुझ पर विश्वास करो और देखो कि तुम्हें सूक्ष्म तत्त्व का ज्ञान किस भांति प्राप्त होता है।”

“सूक्ष्म तत्त्व का या मिथ्या तत्त्व का?”

“अविनय मत करो पुत्र।”

“आप चाहते क्या हैं?”

“एक अच्छे काम में सहायता।”

“वह क्या है?”

“उस दिन उस देवदासी को तुमने देवी का गंधमाल्य दिया था न?”

“फिर?”

“जानते हो वह कौन है?”

“आप कहिए।”

“वह लिच्छविराज कुमारी मंजुघोषा है।”

“तब फिर?”

“उसकी माता लिच्छवि पट्टराजमहिषी नृसिंह देव की पत्नी, छद्मवेश में यहाँ अपनी पुत्री के साथ, सुनयना नाम धारण करके देवदासियों में रहती थी। उसे सिद्धेश्वर ने अन्धकूप में डलवा दिया है।”

“किसलिए?” दिवोदास ने उत्तेजित होकर कहा।

“लिच्छविराज का गुप्त रत्नागार का पता पूछने के लिए।”

“धिक्कार है इस लालच पर।”

“बच्चा, उसे बचाना होगा। परोपकार भिक्षु का पहला धर्म है।”

“मुझे क्या करना होगा?”

“आज रात को मेरा एक सन्देश लेकर बन्दी गृह में जाना होगा।”

“क्या छिपकर?”

“हाँ!”

“नहीं।”

“सुन लड़के, सिद्धेश्वर उस बालिका पर भी पाप दृष्टि रखता है। उसकी रक्षा के लिए उसकी माता का उद्धार करना आवश्यक है।”

“मैं अभी उस पाखण्डी सिद्धेश्वर का सिर धड़ से पृथक् करता हूँ।”

“किन्तु, पुत्र, बल प्रयोग पशु करते हैं। फिर हमें अपने बलाबल का भी विचार करना है।”

“आपकी क्या योजना है?”

“युक्ति।”

“कहिए।”

“कर सकोगे?”

“अवश्य।”

वज्रसिद्धि ने एक गुप्त पत्र देकर कहा :

“पहले, इसे चुपचाप सुनयना को पहुँचा दो। लेखन सामग्री भी ले जाना-इसके उत्तर आने पर सब कुछ निर्भर है।”

“क्या निर्भर है?”

“सुनयना का सन्देश पाकर लिच्छविराज काशी पर अभियान करेगा।”

“समझ गया, किन्तु प्रहरी?”

“लो, यह सबका मुँह बन्द कर देगी।” आचार्य ने मुहरों से भरी एक थैली दिवोदास के हाथों में पकड़ा दी। साथ ही एक तीक्ष्ण कटार भी।

“इसका क्या होगा?”

“आत्म-रक्षा के लिए।”

“ठीक है।”

यह सुनकर स्वस्थ हो आचार्य ने कहा-“तो पुत्र, तुम जाओ। तुम्हारा कल्याण हो।”

बाहर आकर दिवोदास ने देखा, सुखदास खड़ा है। उसने उसे देखकर प्रसन्न होकर कहा—”सुना?”

“सुना।”

“यह देखो, उसने मुहरों की थैली दी है।”

“देखी, और यह छुरी भी देखी।” सुखदास ने हँस दिया।

“मतलब समझे?”

“पहले ही से समझे बैठा हूँ। तुम चिन्ता न करो, चलो मेरे साथ।” दोनों एक ओर को चल दिए।

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