चैप्टर 26 देवांगना : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 26 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 26 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

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प्रसव : देवांगना

कई मास तक काशिराज का यज्ञानुष्ठान चलता रहा। इस बीच मंजु और देवी सुनयना अन्धकूप में पड़ी रहीं। उन्हें बाहर निकालने का सुयोग सुखदास को नहीं मिला। परन्तु ज्यों ही यज्ञ समाप्त हुआ तथा आचार्य वज्रसिद्धि काशी से विदा हुए, सुखदास की युक्ति और उद्योग से मंजु और देवी सुनयना अन्धकूप से मुक्त होकर भाग निकलीं। परन्तु इस विपत्ति एक दूसरी विपत्ति आ खड़ी हुई। मंजु को प्रसव वेदना होने लगी। देवी सुनयना ने सुखदास से कहा—”अब तो कहीं आश्रय खोजना होगा। चलना सम्भव ही नहीं है।” निरुपाय मंजु को एक वृक्ष के नीचे आश्रय दे सुखदास और वृद्ध चरवाहा दोनों ही आहार और आश्रय की खोज में निकले।

परन्तु इस बीच ही में मंजु शिशु-प्रसव करके मूर्च्छित हो गई। यह दशा देख देवी सुनयना घबरा गईं। उन्होंने साहस करके शिशु की परिचर्या की तथा मंजु की जो भी सम्भव सुश्रूषा हो सकती थी, करने लगी। मंजु की दशा बहुत खराब हो रही थी। थकान, भूख और शोक से वह पले ही जर्जर हो चुकी थी, अब इतना रक्त निकल जाने से उसके मुँह पर जीवन का चिह्न ही न रहा। सुनयना यह देख डर गई। उसने यत्न से उसकी मूर्छा दूर की। होश में आकर मंजु एकटक माँ का मुँह देखने लगी। फिर बोली—”माँ, अब उनके दर्शन तो न हो सकेंगे?”

“क्यों नहीं बेटी!”

“उन्होंने कहा था—’जब पुत्र का जन्म होगा, मैं आऊँगा।'”

कुछ रुककर पुनः बोली—”पर उनके आने के पहले तो हमीं वहाँ चल रहे हैं।”

“नहीं जानती माँ, मैं कहाँ जा रही हूँ, किन्तु मेरा एक अनुरोध रखो माँ।”

“कह बेटी।”

“यदि मेरी मृत्यु हो जाय, और वे न आयें तो, जैसे बने, बच्चे को उनके पास अवश्य पहुँचा देना। और यह सन्देश भी कि तुम्हारे आने की आशा में मंजु अब तक जीवित रही। तुम्हारे निराश प्रेम का फल तुम्हारे लिए छोड़ गई।”

“बेटी, इतना धीरज न छोड़ो।”

“माँ! कदाचित् यह अस्तगत सूर्य की स्वर्ण-किरण मेरी मुक्ति का सन्देश लाई है।”

“अरी बेटी, ऐसी अशुभ बात मत कहो, तुम फलो-फूलो। और मैं इन आँखों से तुम्हें देखूँ। इसलिए न मैंने अब तक अपने जीवन का भार ढोया है।”

“माँ, मैं बहुत जी चुकी, बहुत फली-फूली, और मैंने संसार को अच्छी तरह देखभाल लिया। मेरा जीवन उस फूल की भाँति रहा, जो सूर्य की किरणों को छूकर खिल उठा, और उसी के तेज में झुलसकर सूख गया।”

सुनयना रोने लगी।

मंजु ने कहा—”माँ, दुखी न हो, इस फूल की पंखुड़ियाँ झर जायेंगी, और झंझा वायु उन्हें उड़ाकर कहाँ की कहाँ ले जाएगी। आह! सूर्य आज भी अस्त हो गया। वे न आए, न आए। अन्धकार बढ़ा चला आ रहा है। यह जैसे मेरे जीवन पर पर्दा डाल देगा। कदाचित् मेरे जीवन-दीपक के बुझने का समय आ गया।” वह मूर्च्छित होकर निर्बल हो गई। सुनयना ने घबरा कर कहा—”मंजु, आँखें खोलो बेटी, इस फूल से सुकुमार बच्चे को देखो।”

मंजु ने आँखें खोलकर टूटे-फूटे स्वर में कहा—”नहीं आए, इस अपने नन्हे को देखने भी नहीं आये! आह! कैसा प्यारा है नन्हा, आनन्द की स्थायी मूर्ति, माँ उसे मेरे और पास लाओ।”

“वह तो तुम्हारे पास ही है बेटी।”

“और पास, और पास, और, और…” वह बेसुध हो गई। फिर उसने आँख खोलकर बच्चे को देखकर कहा—”वैसी ही आँखें हैं, वैसे ही होंठ,” उसने बच्चे का मुँह चूम लिया, और हृदय से लगा लिया।

इसके बाद ही उसकी आँखें पथरा गई। और चेहरा सफेद हो गया। श्वास की गति भी रुक गई। सुनयना देवी धाड़ मारकर रो उठीं। उन्होंने कहा—”आह, मेरी बेटी, तू तो बीच मार्ग में ही चली-मेरी सारी तपस्या विफल हो गई।”

परन्तु देवी सुनयना को इस विपत्काल में रोकर जी हलका करने का अवसर भी न मिला। उन्हें निकट ही अश्वारोहियों के आने का शब्द सुनाई दिया। अब वे क्या करें? उनका ध्यान बच्चे पर गया। उसे उठाकर उन्होंने अपनी छाती से लगा लिया। एक बार उन्होंने मंजु के निमीलित नेत्रों की ओर देखा। घोड़ों की पदध्वनि निकट आ रही थी।

उन्हें मंजु का अनुरोध याद आया और हृदय में साहस कर उन्होंने अपना संकल्प स्थिर किया।

उन्होंने कहा—”विदा बेटी तुझे मैं माता वसुन्धरा को सौंपती हूँ, और तेरा अनुरोध पालन करने जा रही हूँ।” उन्होंने वस्त्र से मंजु का मुँह ढाँप दिया और बालक को छाती से लगाकर एक ओर चलकर अन्धकार में विलीन हो गई।

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