चैप्टर 32 देवांगना : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 32 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 32 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

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धनंजय श्रेष्ठि का परिवार : देवांगना

श्रेष्ठि धनंजय का रंगमहल आज फिर सज रहा था। कमरे के झरोखों से रंगीन प्रकाश छन- छनकर आ रहा था। भाँति-भाँति के फूलों के गुच्छे ताखों पर लटक रहे थे। मंजु उद्यान में लगी एक स्फटिक पीठ पर बैठी थी; सम्मुख पालने में बालक सुख से पड़ा अँगूठा चूस रहा था। दिवोदास पास खड़ा प्यासी चितवनों से बालक को देख रहा था।

मंजु ने कहा—”इस तरह क्या देख रहे हो प्रियतम?”

“देख रहा हूँ कि इन नन्हीं-नन्हीं आँखों में तुम हो या मैं?”

“और इन लाल-लाल ओठों में?”

“तुम।”

“नहीं तुम।”

“नहीं प्रियतम।

“नहीं प्राणसखी।”

“अच्छा हम तुम दोनों।”

पति-पत्नी खिलखिलाकर हँस पड़े। दिवोदास ने मंजु को अंक में भरकर झकझोर डाला।

** समाप्त **

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