चैप्टर 14 देवांगना : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 14 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 14 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

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मनोहर प्रभात : देवांगना

बड़ा मनोहर प्रभात था। शीतल-मन्द समीर झकोरे ले रहा था। मंजुघोषा प्रातःकालीन पूजा के लिए संगिनी देवदासियों के साथ फूल तोड़ती-तोड़ती कुछ गुनगुना रही थी। उसका हृदय आनंद से उल्लसित था। कोई भीतर से उसके हृदय को गुदगुदा रहा था। एक सखी ने पास आकर कहा :

“बहुत खुश दीख पड़ती हो, कहो, कहीं लड्डू मिला है क्या?”

मंजु ने हँसकर कहा—”मिला तो तुम्हें क्या?”

“बहिन, हमें भी हिस्सा दो।”

“वाह, बड़ी हिस्से वाली आई।”

“इतने में एक और आ जुटी। उसने कहा—”यह काहे का हिस्सा है बहिन!”

पहिली देवदासी ने कहा :

“अरे हाँ, क्या बहुत मीठा लगा बहिन?”

मंजु ने खीजकर कहा—”जाओ, मैं तुमसे नहीं बोलती।”

सबने कहा—”हाँ बहिन, यह उचित भी है। बोलने वाले नये जो पैदा हो गये।”

“तुम बहुत दुष्ट हो गई हो।”

“हमने तो केवल नजरें पहचानी थीं।”

“और हमने देन-लेन भी देखा था।”

“पर केवल आँखों-आँखों ही में।”

“होंठों में नहीं?”

“अरे वाह, इसी से सखी के होंठों में आनंद की रेख फूटी पड़ती है।”

“और नेत्रों से रसधार बह रही है।”

मंजु ने कहा—”तुम न मानोगी?”

एक ने कहा—”अरी, सखी को तंग न करो। हिस्सा नहीं मिलेगा।”

दूसरी ने कहा—”कैसे नहीं मिलेगा, हम उससे मांगेंगी।”

तीसरी बोली––”किससे?”

“भिक्षु से।”

मंजु ने कोप से कहा—”लो मैं जाती हूँ।”

“हाँ-हाँ, जाओ बहिन, बेचारा भिक्षु…”

“कौन भिक्षु? कैसा भिक्षु?”

“अजी वही, जिससे रात में फूल-माला लेकर चुपचाप कुछ दे दिया था।”

“और हमसे पूछा भी नहीं!”

“तुम सब दीवानी हो गई हो।”

“सच है बहिन, हमारी बहिन खड़े-खड़े लुट गई तो हम दीवानी भी न हों।”

मंजु उठकर खड़ी हुई। इस पर उसे सबने पकड़कर कहा :

“रूठ गई रानी, भला हमसे क्या परदा? हम तो एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।”

“और देवताओं की दासियाँ हैं।”

“अजी देवताओं की क्यों? देवताओं के दासों की भी।”

“पर सखी, भिक्षु है एक ही छैला।”

“वाह, कैसी बाँकी चितवन कैसा रूप!”

“भिक्षु है तो क्या है? सैकड़ों नागरों से बढ़-चढ़कर है।”

“चल रहने दे, दुनिया में एक से एक बढ़कर भरे पड़े हैं।”

“अरी जा, हमने देखा है तेरा वह छैला, गधे की तरह रेंकता है।”

“अपने उस भैंसे को देख, सींग भी नापे हैं उसके?”

“अरी लड़ती क्यों हो, भिक्षु है किसी बड़े घर का लड़का।”

“सुना है बड़े सेठ का बेटा है।”

“होगा, अब तो भिक्षु है।”

मंजु ने कहा—”भिक्षु है तो क्या, हृदय का तो वह राजा है!”

सखी ने कहा—”अरे, हमारी सखी मंजु उसके हृदय की रानी है।”

“अच्छा, तो फिर?”

“बस तो फिर, हिस्सा।”

“जाओ-जाओ, मुँह धो रखो।” मंजु भागकर दूसरी ओर चली गई। सखियाँ खिलखिलाकर हँसने लगीं। मंजु एक गीत की कड़ी गुनगुनाती फिर फूल चुनने लगी। चुनते- चुनते वह सखियों से दूर जा पड़ी। उधर उद्यान में एक तालाब था। उसी तालाब के किनारे हरी-हरी घास पर दिवोदास और सुखानंद बैठे बातचीत कर रहे थे। फूल तोड़ते-तोड़ते मंजु वहीं जा पहुँची। दिवोदास को देखा तो वह धक् से रह गई। दिवोदास ने भी उसे देखा। उसने कहा—”पितृव्य, यह तो वही देवदासी आ रही है।”

“तो भैया, यहाँ से भगा चलो, नहीं फंस जाओगे।”

परन्तु दिवोदास ने सुखदास की बात नहीं सुनी। वह उठकर मंजु के निकट पहुँचा और कहा :

“यह तो अयाचित दर्शन हुआ।”

“किसका?”

“आपका।”

“नहीं, आपका।”

“किन्तु आप देवी हैं।”

“नहीं, मैं देवदासी हूँ।”

“भाग्यशालिनी देवी।”

“अभागिनी देवदासी।”

अब सुखदास भी उठकर वहाँ आ गया। उसने पिछली बात सुनकर कहा :

“नहीं, नहीं, ऐसा न कहो देवी।”

दिवोदास ने कहा—”तुम प्रभात की पहिली किरण के समान उज्ज्वल और पवित्र हो।”

“मैं मिट्टी के ढेले के समान निस्सार और निरर्थक हूँ।”

“अरे, आँखों में आँसू? पितृव्य, यह इतना दुःखी क्यों?”

सुखदास ने कहा—”जो कली अभी खिली भी नहीं, सुगन्ध और पराग अभी फूटा भी नहीं, उसमें कीड़ा लग गया है?”

दिवोदास ने कहा—”बोलो, तुम्हें क्या दु:ख है?”

“मैं अज्ञातकुलशीला अकेली, असहाया, अभागिनी देवदासी हूँ, इसमें मेरा सारा दुःख-सुख है।”

“तो मेरे ये प्राण और शरीर तुम्हारे लिए अर्पित हैं।”

“मैं कृतार्थ हुई, किन्तु अब जाती हूँ।”

“इस तरह न जा सकोगी, तुमने अपने आँसुओं में मुझे बहा दिया है, कहो क्या करने से तुम्हारा दुःख दूर होगा। तुम्हारे दुःख दूर करने में मेरे प्राण भी जाएँ, तो यह मेरा अहोभाग्य होगा।”

सुखदास ने कहा—”अपने दिल की गाँठ खोल दो देवी, भैया बात के बड़े धनी हैं।”

“क्या कहूँ, मेरा भाग्य ही मेरा सबसे बड़ा दुःख है। विधाता ने जब देवदासी होना मेरे ललाट में लिख दिया, तो समझ लो कि सब दुःख मेरे ही लिए सिरजे गए हैं। जिस स्त्री का अपने शरीर और प्राणों पर अधिकार नहीं, जिसकी आत्मा बिक चुकी है, जिसके हृदय पर दासता की मुहर है, प्रतिष्ठा, सतीत्व, पवित्रता जिसके जीवन को छू नहीं सकते, जिसका रूप-यौवन सबके लिए खुला हुआ है, जो दिखाने को देवता के लिए श्रृंगार करती है, परन्तु जिसका श्रृंगार वास्तव में देवदर्शन के लिए नहीं, श्रृंगार को देखने आए हुए लम्पट कुत्तों के रिझाने के लिए हैं, ऐसी अभागिनी देवदासी के लिए अपने पवित्र बहुमूल्य प्राणों को दे डालने का संकल्प न करो भिक्षु।”

उसने चलने को कदम बढ़ाया। परन्तु दिवोदास ने आगे आकर और राह रोककर कहा—”समझ गया, परन्तु ठहरो। मुझे एक बात का उत्तर दो। तुम इस नन्हे-से हृदय में इतना दु:ख लिए फिरती हो, फिर तुम उस दिन किस तरह नृत्य करती हुई उल्लास की मूर्ति बनी हुई थीं?”

“इसके लिए हम विवश हैं, यह हमारी कला है, उसका हमने वर्षों अभ्यास किया है।”

उसने हँसने की चेष्टा की। पर उसकी आँखों से झर-झर आँसू गिरने लगे।

दिवोदास ने उसका हाथ थामकर दृढ़ स्वर में कहा—”देवी, मैं तुम्हें प्रत्येक मूल्य पर इस दासता से मुक्त करूँगा, मैं तुम्हारे हृदय को आनन्द और उमंगों से भर दूंगा।”

दिवोदास ने उसके बिल्कुल निकट आ स्नेहसिक्त स्वर में कहा—”मैं तुम्हारे जीवन की कली-कली खिला दूंगा।”

उसने एक बड़ा-सा फूल उसकी डोलची में से उठाकर, उसके जुड़े में खोंस दिया। और उसके कंधे पर हाथ धरकर कहा :

“तुम्हारा नाम?”

“मंजुघोषा, पर तुम ‘मंजु’ याद रखना, और तुम्हारा प्रिय?”

“मैं भिक्षु धर्मानुज हूँ।”

“धर्मानुज?”

एक हास्यरेखा उसके होंठों पर आई और एक कटाक्ष दिवोदास पर छोड़ती हुई वह वहाँ से भाग गई।

सुखदास ने कहा—”भैया, यह बड़ी अच्छी लड़की है।”

“पितृव्य, तुम सदा उस पर नजर रखना, उसकी रक्षा करना, उसे कभी आँखों से ओझल नहीं होने देना, मुझे उसकी खबर देते रहना।”

सुखदास ने हँसकर कहा—”फिकर मत करो भैया, इसी से तुम्हारी सगाई कराऊंगा।”

सुखदास एक गीत की कड़ी गुनगुनाने लगा।

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