चैप्टर 16 देवांगना : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 16 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 16 Devangana Novel By Acharya Chatursen Shastri

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एकान्त मिलन : देवांगना

वैसा ही मनोरम प्रभात था। दिवोदास उसी पुष्करिणी के तीर पर उसी वृक्ष की छाया में बैठा, निर्मल जल में खेलती लहरों को देख रहा था। वह कोई गीत गा रहा था। और उसका मन प्रफुल्ल था। उसने प्रेमविभोर हो आप ही आप कहा—प्रेम-प्रेम-प्रेम, प्रेम के स्मरण से ही आत्मा कैसी हरी हो जाती है! हृदय में हिलोरें उठती हैं, जैसे नये प्राण शरीर में आ गए हों। वह जैसे प्रत्यक्ष मंजु की रूप-माधुरी को देखने लगा। उसके मुँह से निकला—”वाह, कैसी रूप-माधुरी है, कैसी चितवन है, वीणा झंकार के समान उसकी स्वरलहरी रक्त की बूँदों को उत्मत्त कर डालती है। परन्तु खेद है, मुझे और कदाचित् उसे भी इस विषय पर चिन्तन करने का अधिकार नहीं है। मैं भिक्षु हूँ और वह देवदासी। मेरे लिए संसार मिट्टी का ढेला है और उसके लिए अन्धेरा कुआँ।” वह कुछ देर चुपचाप एकटक लहरों को देखता रहा। फिर उसने आप ही आप असंयत होकर कहा—”क्या यही धर्म है? परन्तु इस धर्म का तो जीवन के साथ कुछ भी सहयोग नहीं दीखता? वह धर्म कैसा? जो जीवन से है-जीवन का विरोधी है, जो जीवन का पातक है। नहीं, नहीं, वह धर्म नहीं है––पाखण्ड है। प्यार ही सब धर्म से बढ़कर धर्म है।”

उसे दूर से मंजु की स्वर-लहरी सुनाई दी। वह उठकर इधर-उधर देखने लगा। मंजु फूलों से भरी टोकरी लिए उसी ओर गुनगुनाती आ रही थी। दिवोदास ने कहा—”आहा, वही स्वर्ग की सुंदरी है। कैसी अपार्थिव इसकी सुषमा है! वन सज गया, संसार सुन्दर हो गया।” उसने आगे बढ़कर कहा…

“मंजु!”

“क्या तुम? भिक्षु धर्मानुज!”

“हाँ मंजु! किस शक्ति ने मुझसे तुम्हें इस समय यहाँ मिला दिया, कहो तो?”

“प्रेम की शक्ति ने प्रिय भिक्षु, क्या तुम प्रेम के विषय में कुछ जानते हो?”

“ओह, कुछ-कुछ, किन्तु तुम्हारा वह गान कैसा हृदय को उन्मत्त करने वाला था।”

“तुम्हें प्रिय लगा?”

“बहुत-बहुत, उसने मेरे हृदय की वीणा के तारों को छेड़ दिया है, वे अब मिलना ही चाहते हैं। देवी, कैसा सुन्दर यह संसार है, कैसा मनोहर यह प्रभात है, और उनसे अधिक तुम, केवल तुम।”

“क्या तुमसे भी अधिक भिक्षुराज?”

“मैं क्या तुम्हें सुन्दर दीख पड़ता हूँ?”

“तुम बहुत ही सुन्दर हो प्रिय,” मंजु ने निकट आकर उसका उत्तरीय छू लिया।

दिवोदास ने उसका आँचल पकड़कर कहा—”मंजु, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ––प्राणों से भी अधिक-क्या तुम जानती हो!”

मंजु का कण्ठ सूख गया––उसने भयभीत स्वर में कहा—”प्यार, नहीं-नहीं, यह असंभव है।”

“नहीं प्रिये, यह खूब सम्भव है।”

मंजु ने दिवोदास का चीवर छूकर कहा—”भिक्षुराज, अपना यह चीवर देखो और मेरे कण्ठ का यह गलग्रह!” उसने कण्ठ में लटकती देवता की मूर्ति की ओर संकेत किया। फिर उसने टूटते स्वर में कहा—”हम दोनों नष्ट जीव हैं प्रिय, प्रेम के अधिकारी नहीं।”

दिवोदास ने आवेश में आकर कहा—”मेरा यह वेश और तुम्हारा गलग्रह झूठा आडम्बर है। सच्ची वस्तु हमारा हृदय है, और वह प्रेम से परिपूर्ण है। यदि हृदय-हृदय को खींचता है तो मैं कहूंगा, मेरी तरह तुम भी प्रेम का घाव खा गई हो।”

मंजु सिर नीचा किए खड़ी रही—दिवोदास ने कहा—”बोलो, क्या तुम भी मुझसे प्रेम करती हो?”

“यह प्रश्न तो भिक्षु के पूछने योग्य नहीं है प्रिय, और…।”

“और क्या?”

“अभागिनी देवदासी के सुनने योग्य भी नहीं। इसी से कहती हूँ, मुझे जाने दो-मैं जाती हूँ।”

“जाना नहीं। मेरे प्रश्न का उत्तर दो।”

परन्तु मंजु ने उत्तर नहीं दिया। वह भूमि पर दृष्टि गड़ाए खड़ी रही। दिवोदास ने आवेशित होकर कहा—”कहो, कहो, सच बात कहो।”

“कहती हूँ।” इन शब्दों के साथ ही मंजु की आँखों से टप-टप आँसू टपक पड़े। उसने कुछ कहना चाहा, पर उसके मुँह से बोल नहीं फूटा। वह वहाँ से चलने लगी। दिवोदास ने बाधा देकर कहा—”तब जाती कहाँ हो प्रिये, इस पृथ्वी पर कोई शक्ति नहीं, जो हमें पृथक् कर सके। आओ हम पति-पत्नी के पवित्र सूत्र में बँध जायँ। यह उर्ध्वोन्मुख सूर्य और यह पतित पावनी गंगा हमारी साक्षी रहेंगे।” उसने कसकर मंजु को आलिंगन-पाश में बांध लिया।

मंजु ने छटपटाकर कहा—”भिक्षुराज!”

“कौन भिक्षुराज, मैं विक्रमशिला के महा सेट्ठि धनंजय का इकलौता पुत्र दिवोदास हूँ,” उसने अपना चीवर चीर-चारकर फेंक दिया।

मंजु हक्की-बक्की खड़ी देखती रह गई। उसके मुँह से बड़ी देर तक बोली न निकली। फिर उसने कहा—”प्यारे, जानते हो इस अपराध का दण्ड केवल मृत्यु है।”

“क्या मृत्यु से तुम डरती हो प्रिये?”

“मुझे मृत्यु से भय नहीं। मैं तुम्हारे लिए डरती हूँ, प्रिये।”

“मैं निर्भय हूँ। और सारे संसार के सामने मैं श्रेष्ठिराज धनंजय का पुत्र, आज से धर्मत: तुम्हारा पति हुआ।”

मंजु ने पुलकित गात होकर अस्त-व्यस्त स्वर में कहा—”और श्रेष्ठि पुत्र, मैं लिच्छविराज कुमारी भगवती मंजुघोषा आज से धर्मपूर्वक तुम्हारी पत्नी हुई।”

दिवोदास ने आश्चर्य से उछलकर कहा—”क्या कहा? फिर कहो? राजकुमारी भगवती मंजुघोषा?”

“किन्तु तुम्हारी चिरकिंकरी प्रियतमा।” उसने दिवोदास की छाती में सिर छिपा लिया। दिवोदास ने उसे कसकर छाती से लगा उसके मुख पर प्रथम चुम्बन अंकित किया। मंजुघोषा ने अपने आँचल से एक भव्य माला निकालकर कहा—”इसे मैंने नित्य की भाँति अपने देवता के लिए बनाई थी, सो उसे अपनी हार्दिक अभिलाषाओं के साथ हृदय के देवता को अर्पण करती हूँ।”

माला उसने दिवोदास के कण्ठ में डाल दी। दिवोदास ने माला को चूम कर और हँसकर कहा—”यह देव प्रसाद तो भगवान् ही पा सकता है। देखो, यह माला ही हमको एक कर देगी।”

उसने वही माला कण्ठ से उतारकर मंजुघोषा के गले में डाल दी। दोनों खिल- खिलाकर हँस पड़े, और गाढ़ालिंगन में बद्ध हो गये।

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