Chapter 3 Devdas Novel In Hindi
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पानी मे डूबने से मनुष्य जिस प्रकार जमीन को पकड़ लेता है और फिर किसी भांति छोड़ना नही चाहता, ठीक उसी भांति पार्वती ने अज्ञानवत देवदास के दोनो पांवो को पकड़ रखा था। उसके मुख की ओर देखकर पार्वती ने कहा- ‘मैं कुछ नहीं जानना चाहती हूँ, देव दादा!’
‘पत्तो, माता-पिता की अवज्ञा करे?’
‘दोष क्या है?’
‘तब तुम कहाँ रहोगी?’
पार्वती ने रोते-रोते कहा-‘तुम्हारे चरणों में…।’
फिर दोनों व्यक्ति स्तब्ध बैठे रहे। घड़ी में चार बज गये। ग्रीष्मकाल की रात थी; थोड़ी ही देर में भोर होता हुआ जानकर देवदास ने पार्वती का हाथ पकड़ कर कहा-‘चलो, तुम्हें घर पहुँचा आवे।’
‘मेरे साथ चलोगे?’
‘हानि क्या है? यदि बदनामी होगी, तो कुछ उपाय भी निकल आयेगा।’
‘तब चलो।’
दोनों धीरे-धीरे बाहर चले गये।
दूसरे दिन पिता के साथ देवदास की थोड़ी देर के लिए कुछ बातचीत हुई। पिता ने उससे कहा-‘तुम सदा से मुझे जलाते आ रहे हो, जितने दिन इस संसार में जीवित रहूंगा, उतने दिन यों ही जलाते रहोगे।
तुम्हारे मुँह से ऐसी बात का निकलना कोई आश्चर्य नहीं है।’
देवदास चुपचाप मुँह नीचे किए बैठे रहे।
पिता ने कहा-‘मुझे इससे कोई संबंध नहीं है, जो इच्छा हो, तुम अपनी माँ से मिलकर करो।’
देवदास की माँ ने इस बात को सुनकर कहा-‘अरे, क्या यह भी नौबत मुझे देखनी बदी थी?’
उसी दिन देवदास माल-असबाब बांधकर कलकत्ता चले गये। पार्वती उदासीन भाव से कुछ सूखी हँसी हँसकर चुप रही। पिछली रात की बात को उसने किसी से नहीं जताया। दिन चढ़ने पर मनोरमा आकर बैठी और कहा-‘पत्तो, सुना है कि देवदास चले गये?’
‘हाँ।’
‘तब तुमने क्या सोचा है?’
उपाय की बात वह स्वयं नहीं जानती थी, फिर दूसरे से क्या कहेगी? आज कई दिनों से वह बराबर इसी बात को सोचती रहती है, किंतु किसी प्रकार यह स्थिर नहीं कर सकी कि उसकी आशा कितनी और निराशा कितनी है। जब मनुष्य ऐसे दुख के समय मे आशा-निराशा का किनारा नहीं देखता, तो उसके दुर्बल हृदय बड़े भय से आशा का पल्ला पकड़ता है। जिसमें उसका मंगल रहता है, उसी बात की आशा करता है। इच्छा व अनिच्छा से उसी ओर नितांत उत्सुक नयन से देखता है।
पार्वती को अपनी इस दशा में यह पूरी आशा थी कि कल रात को व्यापार के कारण वह निश्चय ही विफल-मनोरथ न होगी। विफल होने पर उसकी अवस्था क्या होगी, यह उसके ध्यान के बाहर की बात है। इसी से सोचती थी देवदास फिर आयेंगे फिर मुझे बुलाकर कहेगे- पत्तो, तुम्हें मैं शक्ति रहते किसी तरह दूसरे के हाथ न जाने दूंगा।’
किंतु दो दिन बाद पार्वती ने निम्नलिखित पत्र आया –
‘पार्वती,
आज दो दिन से बराबर तुम्हारी बातें सोच रहा हूँ। माता-पिता की भी यह इच्छा नहीं है कि हमारी तुम्हारे साथ विवाह हो। तुमको सुखी करने में उन लोगों को ऐसी कठिन वेदना पहुँचानी होगी, जो मुझसे नहीं हो सकती। अतएव उनके विरुद्ध यह काम कर कैसे सकता हूँ? तुम्हें संभवतः अब आगे पत्र न लिख सकूंगा, इसलिए इस पत्र में सब बातें खोलकर लिखता हूँ। तुम्हारा घराना नीच है। कन्या बेचने और खरीदने वाले घर की लड़की माँ किसी भी घर में नहीं ला सकती। फिर घर के पास ही तुम्हारा कुटुंब ठहरा, यह भी उनके मत से ठीक नहीं है। रही बाबू जी की बात, वह तो तुम सभी जानती हो। उस रात की बात सोचकर मुझे बहुत ही दुख होता है। तुम्हारी, जैसी अभिमानिनी लड़की ने वह काम कितनी बड़ी व्यथा पाने पर किया होगा, यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ। और भी एक बात है। तुमको मैंने कभी ह्रश्वयार किया हो, यह बात मेरे मन में नहीं उठती। आज भी तुम्हारे लिए मेरे हृदय में कुछ अत्यधिक क्लेश नहीं है। केवल इसी का मुझे दुख है कि तुम मेरे लिए कष्ट पा रही हो। मुझे भूल जाने की चेष्टा करो। यही मेरा आंतरिक आशीर्वाद है कि तुम इसमें सफल हो।’
देवदास-’
जब तक देवदास ने पत्र डाक-घर में नहीं छोड़ा था, तब तक केवल एक बात सोचते रहे, किंतु पत्र रवाना करने के बाद ही दूसरी बात सोचने लगे। हाथ का ढेला फेंककर वे एकटक उसी ओर देखते रहे।
किसी अनिष्ट की आशंका उनके मन में धीरे-धीरे उठने लगी। वे सोचते थे कि यह ढेला उसके सिर पर जाकर कैसा लगेगा? क्या जोर से लगेगा? जिंदा तो बचेगी? उस रात मेरे पांव पर अपना सिर रखकर वह कितनी रोती थी। पोस्ट ऑफिस से मैस लौटते समय रास्ते में पद-पद पर देवदास के मन में यही भाव उठने लगा। यह काम क्या अच्छा नहीं हुआ? और सबसे बड़ी बात देवदास यह सोचते थे कि पार्वती में जब कोई दोष नहीं है, तो फिर माता-पिता क्यों निषेध करते हैं? उम्र बढ़ने के साथ और कलकत्ता निवास से उन्होंने एक बात यह सीखी थी कि केवल लोगों को दिखाने के लिए कुल-मर्यादा और एक क्षुद्र विचार के ऊपर होकर निरर्थक एक प्राण का नाश करना ठीक नहीं। यदि पार्वती हृदय की ज्वाला को शांत करने के लिए जल में डूब मरे, तो क्या विश्व-पिता के पांव में इस महापातक का एक काला धब्बा नहीं पड़ेगा?
मैस में आकर देवदास अपनी चारपाई पर पड़ रहे। आजकल वे एक मैस में रहते थे। कई दिन हुए, मामा का घर छोड़ दिया- वहाँ उन्हें कुछ असुविधायें होती थी। जिस कमरे में देवदास रहते हैं, उसी के बगल वाले कमरे में चुन्नीलाल नामक एक युवक आज नौ बरस से निवास करते हैं। उनका यह दीर्घ कलकत्ता-निवास बी.ए. पास करने के लिए हुआ था, किंतु आज तक सफल मनोरथ नहीं हो सके। यही कहकर वे अब यहाँ पर रहते है। चुन्नीलाल अपने दैनिक-कर्म-संध्या-भ्रमण के लिए बाहर निकले हैं।
लगभग भोर होने के समय फिर लौटेंगे। बासा के और लोग भी अभी नहीं आये। नौकर दीपक जलाकर चला गया, देवदास किवाड़ लगाकर सो रहे।
धीरे-धीरे एक-एक करके सब लोग लौट आए। खाने के समय देवदास को बुलाया गया, किंतु वे उठे नहीं। चुन्नीलाल किसी दिन भी रात को लौटकर बासा में नहीं आए थे, आज भी नहीं लौटे।
रात को एक बजे का समय हो गया। बासा में देवदास को छोड़ कोई भी नहींजागता है। चुन्नीलाल ने बासा मे लौटकर देवदास के कमरे के सामने खड़े होकर देखा, किवाड़ लगा है, किंतु चिराग जल रहा है, बुलाया- ‘देवादास, क्या अभी जागते हो?’ देवदास ने भीतर से कहा- ‘जागता हूँ। तुम आज इस समय कैसे लौट आये?’
चुन्नीलाल ने थोड़ा हँसकर कहा- ‘देवदास, क्या एक बार किवाड़ खोल सकते हो?’
‘क्यों नहीं?’
‘तुम्हारे यहाँ तमाखू का प्रबंध है?’
‘हाँ, है।’ – कहकर देवदास ने किवाड़ खोल दिये। चुन्नीलाल ने तमाखू भरते-भरते कहा- ‘देवदास, अभी तक क्यों जागते हो?’
‘क्या रोज-रोज नींद आती है?’
‘नहीं आती?’ कुछ उपहास करके कहा – ‘आज तक मैं यही समझता था कि तुम्हारे जैसे भले लड़के ने आधी रात का कभी मुख न देखा होगा, किन्तु आज मुझे एक नयी शिक्षा मिली।’
देवदास ने कुछ नहीं कहा। चुन्नीलाल ने तमाखू पीते-पीते कहा – ‘तुम इस बार जब से अपने घर से यहाँ आये हो, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं रहती, तुम्हें कौन सा क्लेश है?’
देवदास अनमने से हो रहे थे। उन्होंने कुछ जवाब नहीं दिया।
‘तबीयत अच्छी नहीं है?’
देवदास सहसा बिछौना से उठ बैठे। व्यग्र भाव से उनके मुख की ओर देखकर पूछा- ‘अच्छा चुन्नी बाबू, तुम्हारे हृदय में किसी बात का क्लेश नहीं है?’
चुन्नीलाल ने हँसकर कहा- ‘कुछ नहीं।’‘जीवन पर्यन्त कभी क्लेश नहीं हुआ?’
‘यह क्यों पूछते हो?’
‘मुझे सुनने की बड़ी इच्छा है।’
‘ऐसी बात है, तो किसी दूसरे दिन सुनना।’
देवदास ने पूछा- ‘अच्छा चुन्नी, तुम सारी रात कहाँ रहते हो?’
चुन्नीलाल ने एक मीठी हँसी हंसकर कहा- ‘यह क्या तुम नहीं जानते?’
‘जानता हूँ, लेकिन अच्छी तरह नहीं।’
चुन्नीलाल का मुंह उत्साह से उज्ज्वल हो उठा। इन सब आलोचनाओ में और कुछ रहे या न रहे, किन्तु एक आँख की ओट की लज्जा रहती है। दीर्घ अभ्यास के दोष से वह चली गई। कौतुक से आँख मूंदकर पूछा- ‘देवदास यदि अच्छी तरह से जानना चाहते हो, तो ठीक मेरी तरह बनना पड़ेगा। कल मेरे साथ चलोगे?’
देवदास ने कुछ सोचकर कहा- ‘सुनता हूँ, वहाँ पर बड़ा मनोरंजन होता है। क्या यह सच है?’
‘बिल्कुल सच है।’
‘यदि ऐसी बात है तो मुझे एक बार ले चलो, मैं भी चलूंगा।’
दूसरे दिन संध्या के समय चुन्नीलाल ने देवदास के कमरे मे आकर देखा कि वे व्यस्त भाव से अपना सब माल-असबाब बांध-छान रहे है। विस्मित होकर पूछा- ‘क्या नहीं जाओगे?’
देवदास ने किसी ओर न देखकर कहा- ‘हाँ, जाऊंगा।’
‘तब यह सब क्या करते हो?’
‘जाने की तैयारी कर रहा हूँ।’
चुन्नीलाल ने कुछ हंसकर सोचा, अच्छी तैयारी है! कहा – ‘क्या तुम सब घर-द्वार वहाँ पर उठा ले चलोगे?’
‘तब किसके पास छोड़ जाऊंगा?’
चुन्नीलाल समझ नहीं सके, कहा ‘मैं अपनी चीज-वस्तु किसी पर छोड़ जाता हूँ? सभी तो बासे में पड़ी रहती है।’
देवदास ने सहसा सचेत होकर आँखें ऊपर को उठायी, लज्जित होकर कहा -चुन्नी बाबू, आज मैं घर जा रहा हूँ।
‘यह क्यों, कब आओगे?’
देवदास ने सिर हिलाकर कहा- ‘अब मैं फिर नहीं आऊंगा।’
विस्मित होकर चुन्नीलाल उनके मुंह की ओर देखने लगे।
देवदास ने कहा- ‘यह रुपये लो, मुझ पर जो कुछ उधार हो उसे इससे चुकती कर देना। यदि कुछ बचे तो दास-दासियो में बांट देना। अब मैं फिर कभी कलकत्ता नहीं लौटूंगा।’
देवदास मन-ही-मन कहने लगे- कलकत्ता आने से मेरा बड़ा खर्च पड़ा।
आज यौवन के कुहिराच्छन्न अंधेरे का उनकी दृष्टि भेद कर गई। वही उस दुर्दांत, दुर्विनीत कैशोर-कालीन अयाचित पद-दलित रत्न समस्त कलकत्ता की तुलना मे बहुत बड़ा, बहुत मूल्यवान जंचने लगा।
चुन्नीलाल के मुख की ओर देखकर कहा- ‘चुन्नी! शिक्षा, विद्या, बुद्धि, ज्ञान, उन्नति आदि जो कुछ है, सब सुख के लिए ही है। जिस तरह से चाहो, देखो, इन सबका अपने सुख के बढ़ाने को छोड़ और कोई प्रयोजन नहीं है।’
चुन्नीलाल ने बीच में ही बात काटकर कहा- ‘तब क्या अब तुम लिखना-पढ़ना छोड़ दोगे?’
‘हाँ, लिखने-पढ़ने से मेरा बड़ा नुकसान हुआ। अगर मैं पहले यह जानता कि इतने दिन में इतना रुपया खर्च करके इतना ही सीख सकूंगा, तो मैं कभी कलकत्ता का मुंह नहीं देखता।’
‘देवदास, तुम्हें क्या हो गया है?’
देवदास बैठकर सोचने लगे। कुछ देर बार कहा- ‘अगर फिर कभी भेट हुई तो सब बाते कहूंगा।’
उस समय प्रातः नौ बजे रात का समय था। बासे के सब लोगो तथा चुन्नीलाल ने अत्यंत विस्मय के साथ देखा कि देवदास गाड़ी पर माल-असबाब लादकर मानो सर्वदा के लिए बासा छोड़कर घर चले गये। उनके चले जाने पर चुन्नीलाल ने क्रोध से बासे के अन्य लोगो से कहा- ‘ऐसे रंगे सियार के समान आदमी किसी भी तरह नहीं पहचाने जा सकते।’
बुद्धिमान तथा दूरदर्शी मनुष्यों की यह रीति होती है कि तत्काल ही किसी विषय पर अपनी दृढ़ सम्मति प्रकट नहीं करते, एक ही पक्ष को लेकर विचार नहीं करते, एक ही पक्ष को लेकर अपनी धारणा स्थिर नहीं करते, वरन दोनों पक्षों को तुलनात्मक दृष्टि से परीक्षा करते हैं और तब कोई अपना गंभीर मत प्रकट करते हैं। ठीक इसके विपरीत एक श्रेणी के और मनुष्य होते हैं, जिनमें किसी विषय पर विशेष विचार करने का र्धर्य नहीं रहता। ये एकाएक अपनी भली-बुरी सम्मति स्थिर कर लेते है। किसी विषय में डूबकर विचार करने का श्रम ये लोग स्वीकार नहीं करते, केवल विश्वास के बल चलते हैं। ये लोग संसार में किसी कार्य को न कर कसते हो, यह बात नहीं है, वरन् काम पड़ने पर समय-समय पर ये लोग औरो की अपेक्षा अधिक कार्य करते है। ईश्वर की कृपा होने से ये लोग उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर प्रायः देखे जाते है और न होने से अवनति की गंभीर कन्दरा मे आजन्म के लिए पड़े रहते है, न उठ सकते है, न बैठ सकते है, और न प्रकाश की ओर देख सकते है, निश्चल, मृत, जलपिंड की भांति पड़े रहते है। देवदास भी इस श्रेणी के मनुष्य थे। दूसरे दिन प्रातः काल वे घर पहुँचे।
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