चैप्टर 9 देवदास शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 9 Devdas Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

चैप्टर 9 देवदास शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 9 Devdas Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 9 Devdas Novel In Hindi

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Chapter 8 Devdas Novel In Hindi

पिता की मृत्यु के बाद धीरे-धीरे छः महीने बीत गये। देवदास घर में एकदम ऊब गये। सुख नहीं, शांति नहीं, उस पर एक ही तरह की जीवनचर्या से मन बिल्कुल विरक्त हो चला। तिस पर पार्वती की चिंता से चित और भी अव्यवस्थित हो रहा था; फिर आजकल तो उसके एक-एक काम, एक-एक हावभाव के चित्र हर समय आँखों के सामने नाचा करते थे। उस पर भाई-भौजाई के उदासीन व्यवहारों ने देवदास के संताप को और भी दूना कर दिया था।

माता की अवस्था भी देवदास की ही तरह थी। स्वामी की मृत्यु के साथ-ही-साथ उनके सारे सुखो का लोप हो गया। पराधीन होकर इस मकान में रहना उनके लिए भी धीरे-धीरे असह्य होने लगा।

आज कई दिनों से वे काशीवास का विचार कर रही है। केवल देवदास के अविवाहित होने के कारण वे अभी नहीं जा सकती है। जब-जब यही कहती है कि, ‘देवदास, अब तुम विवाह कर लो, मेरी साध पूरी हो जाय।’ किन्तु यह कब संभव था! एक तो पिता की अभी बरसी नहीं हुई, दूसरे अभी कोई इच्छानुकूल कन्या नहीं मिली। इसी से माता आजकल कभी-कभी दुखित हो जाया करती है कि यदि उस समय पार्वती का विवाह हो गया होता, तो अच्छा होता। एक दिन उन्होने देवदास को बुलाकर कहा, ‘अब मैं यहाँ नहीं रहना चाहती, कुछ दिनों के लिए काशी जाके रहने की इच्छा है।’ देवदास की भी यही इच्छा थी, कहा-‘मेरी भी यही सम्मति है। छः महीने के बाद लौट आना।’

‘ऐसा ही करो। फिर लौट के आने पर उनकी क्रिया-कर्म हो जाने के बाद तुम्हारा विवाह कर, तुम्हे गृहस्थ बना देख, मै फिर जाके काशीवास करूंगी।’

देवदास सहमत होकर माता को कुछ दिनों के लिए काशी पहुँचाकर कलकत्ता चले गये।

कलकत्ता आकर देवदास ने तीन-चार दिनों तक चुन्नीलाल को ढूंढा। वे नहीं मिले, उसे मैस को छोड़कर किसी दूसरी जगह चले गये थे। एक दिन संध्या के समय देवदास को चन्द्रमुखी की बात याद आयी। एक बार देख आना अच्छा होगा। इतने दिनों तक कुछ भी स्मरण नहीं आया था। इससे कुछ लज्जा-सी मालूम हुई। एक किराये की गाड़ी करके चले। कुछ संध्या हो जाने पर चन्द्रमुखी के मकान के सामने गाड़ी आ खड़ी हुई। बहुत देर तक बुलाने-चिल्लाने के बाद भीतर से स्त्री के कंठ-स्वर में उत्तर मिला-‘यहाँ नहीं है।’ सामने एक बिजली की रोशनी का खम्भा खड़ा था, देवदास ने उसके पास होकर कहा -‘कह सकती हो, वह कहाँ गयी है?’ खिड़की खोलकर उसने कुछ क्षण देखने के बाद कहा-‘क्या आप देवदास है?’

‘हाँ!’

‘खड़े रहिये-दरवाजा खोलती हूँ।’ दरवाजा खोलकर उसने कहा-‘आइये!’

कंठ-स्वर कुछ परिचित सा जान पड़ा, किन्तु फिर भी पहचान नहीं सके। थोड़ा अंधकार भी हो चला था। संदेह से कहा – ‘चन्द्रमुखी कहाँ रहती है, कुछ कह सकती हो?’

स्त्री ने मीठी हँसी हँसकर कहा-‘हाँ, तुम ऊपर चलो।’

इस बार देवदास ने पहचान लिया-‘हे! तुम्ही हो?’

‘हाँ, मैं ही हूँ। देवदास, मुझे एकदम भूल गये?’

ऊपर जाकर देवदास ने देखा, चन्द्रमुखी एक काले किनारे की मैली धोती पहने है, हाथ में केवल दो कड़ों को छोड़, शरीर पर कोई आभूषण नहीं है, सिर के केश इधर-उधर बिखरे हुए हैं, विस्मित होकर देवदास ने पूछा-‘तुम्ही?’ अच्छी तरह से देखा, चन्द्रमुखी पहले की अपेक्षा बहुत दुबली हो गयी है।

देवदास ने पूछा-‘तुम क्या बीमार थी?’

‘कोई शारीरिक बीमारी नहीं थी, तुम अच्छी तरह से बैठो।’

देवदास ने चारपाई पर बैठकर देखा, घर में पहले की अपेक्षा आकाश-जमीन का अंतर हो गया है।

गृहस्वामिनी की भांति उसकी दुर्दशा की भी सीमा नहीं थी। एक भी सामान नहीं था। अलमारी, टेबिल, कुर्सी आदि सबके स्थान खाली पड़े है। केवल एक शैया पड़ी थी, चादर मैली थी। दीवाल पर से चित्र हटा दिये गये थे। लोहे की कांटियाँ अब भी गड़ी हुई थी। दो-एक लाल फीते भी इधर-उधर लटके हुए थे। पहले की वह घड़ी भी बाकेट पर रखी हुई थी, किन्तु निःशब्द थी। आस-पास मकोड़ों ने अपनी इच्छानुकूल जाला बुन रखा था। एक कोने में एक तेल का दीया धीमी-धीमी रोशनी फैला रहा था, उसी के सहारे से देवदास ने घर की इस नयी सजावट को देखा। कुछ विस्मित और कुछ क्षुब्ध होकर कहा – ‘दुर्दशा!

‘तुमसे किसने कहा? मेरा तो भाग्य प्रसन्न हुआ है।’

देवदास समझ नहीं सके कहा-‘तुम्हारे सब गहने क्या हुए?’

‘बेच डाले।’

‘माल-असबाब?’

‘वह भी बेच डाला।’

‘घर की तस्वीरे भी बेच डाली?’

इस बार चन्द्रमुखी ने हँसकर सामने के एक मकान को दिखाकर कहा-‘उस मकान के मालिक के हाथ बेच दी।’

देवदास ने कुछ देर तक उसके मुँह की ओर देखकर कहा-‘चुन्नी बाबू कहाँ है?’

‘नहीं कह सकती। दो महीने हुए, लड़-झगड़कर चले गये, फिर तब से नहीं आये।’

देवदास को अब और आश्चर्य हुआ। पूछा-‘झगड़ा क्यों हुआ?’

चन्द्रमुखी ने कहा-‘क्या झगड़ा नहीं होता?’

‘होता है,पर क्यों?’

‘दलाली करने आये थे, इसी से हटा दिया।’

‘किसकी दलाली?’

चन्द्रमुखी ने हँससकर कहा-‘पट्‌टू की।’ फिर कहा-‘तुम नहीं समझते? एक बड़े आदमी को पकड़ लाये थे। महीने में दो सौ रुपये, एक सेट गहना और दरवाजे के सामने रहने को एक सिपाही मिलता था, समझे!’

देवदास ने सब समझने के बाद हँसकर कहा-‘वह सब एक भी तो नहीं देखता हूँ।’

‘रहते तब न देखते! मैंने उन लोगो को हटा दिया।’

‘उन लोगों का अपराध?’

‘उन लोगों का अपराध कुछ ज्यादा नहीं था, पर मुझे अच्छा नहीं लगा।’

देवदास ने बहुत सोचकर कहा- ‘उसी दिन से यहाँ और कोई नहीं आया?’

‘नही। उस दिन से क्यों? तुम्हारे जाने के बाद से ही यहाँ कोई नहीं आता। सिर्फ बीच-बीच में चुन्नीलाल आ जाते थे, किन्तु दो मास से वे भी नहीं आते।’

देवदास बिछौने के ऊपर लेट गये। दूसरी ओर देखने लगे, बहुत देर तक चुप रहने के बाद धीरे से कहा-‘चन्द्रमुखी, तब दुकानदारी सब उठा दी?’

‘हाँ, दिवाला निकाल दिया।’

देवदास ने इस बात का उत्तर न देकर कहा-‘लेकिन रोटी-पानी कैसे चलेगा?’

‘इसीलिए तो जो कुछ गहना-पत्तर था, बेच दिया।’

‘उसमें अब कितना बचा है?’

‘ज्यादा नही, कोई आठ-नौ सौ रुपये होगे। उन्हें एक मोदी के पास रख दिया है, वह मुझे महीने में बीस रुपये देता है।’

‘बीस रुपये से तो पहले तुम्हारा काम नहीं चलता था?’

‘नहीं, आज भी अच्छी तरह से नहीं चलता है। तीन महीने से महान का किराया बाकी है, इसी से इच्छा होती है कि इन दोनों कड़ों को बेचकर, सब पटाकर और कहीं चली जाऊं।’

‘कहाँ जाओगी?’

‘यह अभी निश्चय नही किया है। किसी सस्ते देश, गवंई-गांव मे जाऊंगी जिसमे बीस रुपये महीने में निर्वाह हो जाय।’

‘इतने दिन से क्यों नही गयी? अगर सचमुच ही तुम्हारा और कोई मतलब नही था, तो फिर इतने दिन रहकर व्यर्थ कर्ज क्यों बढ़ाया?’

चन्द्रमुखी सिर नीचा करके कुछ सोचने लगी। उसके जीवन-भर मे बातचीत करने का यह पहला अवसर है। देवदास ने पूछा-चुप क्योंहो?’

चन्द्रमुखी ने शैया के एक ओर संकुचित भाव से बैठकर धीरे-ध्धीरे कहा-‘क्रोध मत करना; जाने के पहले सोचा था कि तुमसे भेंट कर लेना अच्छा होगा। आशा करती थी कि एक बार तुम आओगी। आज तुम आये हो, अब कल ही जाने का उद्योग करूंगी। पर कहाँ जाऊं, कुछ कह सकते हो?’

देवदास विस्मित होकर उठ बैठे; कहा-‘सिर्फ मुझे देखने की आशा से रुकी थी। लेकिन क्यों?’

‘एक ख़याल। तुम मुझसे बहुत घृणा करते थे। इतनी घृणा किसी ने मुझसे कभी नही की, शायद इसीलिए। तुम्हें अब याद है या नहीं, यह मैं नहीं कह सकती, पर मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि जिस दिन तुम पहले-पहल यहाँ पर आये थे, उसी दिन मेरी नजर तुम पर पड़ी। तुम धनी की संतान हो, यह मैं जानती थी; पर धन की आशा से मैं तुम्हारी ओर नहीं खिंची थी। तुम्हारे पहले कितने ही लोग यहाँ पर आये और गये, पर किसी मे इतना तेज नहीं पाया। तुमने आने के साथ ही मुझे घायल किया; एक आयाचित, उपयुक्त, परन्तु अनुचित रूढ़ व्यवहार आरंभकिया, घृणा से मुँह फेर लिया और अंत में तमाशे की तरह कुछ देकर चले गये। ये सब बाते क्या तुम्हारे ध्यान में आती है?’

देवदास चुप रहे, चन्द्रमुखी फिर कहने लगी-‘उसी दिन से मेरी तुम्हारे ऊपर नजर पड़ी। मैं न तुमसे प्रेम करती और न घृणा करती थी, एक नयी चीज को देखकर जैसे मन में हमेशा ध्यान बना रहता है, तुमको भी देखकर उसी तरह किसी भांति नहीं भूल सकी। तुम्हारे आने पर बड़े भय और सतर्क के साथ रहती थी, पर न आने से कुछ अच्छा भी नहीं लगता था। फिर जाने कैसा मतिभम्र हुआ कि इन दोनों आँखों को सब ही चीजें एक-सी दिखने लगी। मैं पहले की अपेक्षा बिल्कुल बदल गयी, जो पहले थी वह अब नहीं रही। फिर तुमने शराब पीना शुरू किया; शराब से मुझे बड़ी घृणा है। किसी के मतवाला होने पर मुझे उस पर बड़ा क्रोध आता है। पर तुम्हारे मतवाला होने से क्रोध नहीं होता था, बल्कि बड़ा दुख होता था।’

यह कहकर चन्द्रमुखी ने देवदास के पांव पर हाथ रखकर डबडबायी हुई आँखों से कहा-‘मैं बहुत अधम हूँ, मेरे अपराधो पर ध्यान नहीं देना। तुम जितनी ही बातें कहते थे और घृणा करते थे, मैं उतनी ही तुम्हारे पास आना चाहती थी।’ अंत में सो जाने पर-‘रहने दो, ये बातें नहीं कहूंगी, नहीं तो क्रोध कर बैठोगे।’

देवदास ने कुछ नहीं कहा, नयी तरह बातचीत से उसे कुछ वेदना पहुँचा रही थी। चन्द्रमुखी ने छिपा के आँख पोंछकर कहा-‘एक दिन तुमने कहा कि हम लोग कितना सहन करती है, लांछना, अपमान, जघन्य अत्याचार, उपद्रव की बातें! उसी दिन से मुझे बड़ा अभियान हुआ, मैंने सब बंदकर दिया।’

देवदास ने बैठकर पूछा-‘लेकिन यह जीवन कैसे कटेगा?’

चन्द्रमुखी ने कहा-‘वह तो पहले ही कह चुकी।’

‘और सोचो, यदि उसने तुम्हारा सब रुपया दाब रखा तो?’

चन्द्रमुखी इससे भयभीत नहीं हुई। शांत-सहज भाव से कहा-‘आश्चर्य नहीं, किन्तु इसे भी मैंने सोच रखा है कि विपत्ति पड़ने पर तुमसे कुछ भीख मांग लूंगी।’

देवदास ने सोचकर कहा-‘वह पीछे लेना। अभी और कहीं जाने का उद्योग करो।’

‘कल ही करूंगी। कड़ा बेचकर एक बार मोदी से भेंट करूंगी।’

देवदास ने पॉकेट से सौ-सौ रुपये के पांच नोट निकालकर तकिये के नीचे रखकर कहा-‘कड़ा बेचो, सिर्फ मोदी के साथ भेट कर लेना। पर जाओगी कहाँ, किसी तीर्थ-स्थान में?’

‘नहीं देवदास, तीर्थ और धर्म के ऊपर मेरी अधिक श्रद्धा नहीं है। कलकत्ता से अधिक दूर नहीं जाऊंगी। आस-ही-पास के किसी गांव में जाकर रहूंगी।

‘क्या किसी अच्छे घर मे दासी का काम करोगी?’

चन्द्रमुखी की आँखों में फिर आँसू भर आये। पोंछकर कहा-‘इच्छा नहीं होती। स्वाधीन-भाव से स्वच्छन्द होकर रहूंगी। क्यों दुख करने जाऊं? शारीरिक दुख कभी उठाया नहीं है, अब भी नहीं उठा सकूंगी। और अधिक खींचातानी करने से छिन्न-भिन्न हो जाऊंगी।’

देवदास ने विष्ण्ण मुख से कुछ हँसकर कहा-‘पर शहर के पास रहने से प्रलोभन में पड़ सकती हो।

‘मनुष्य के मन का विश्वास नहीं।’

इस बार चन्द्रमुखी का मुख खिल उठा। हँसकर कहा-‘यह बात सच है, मनुष्य का विश्वास नहीं। पर मैं प्रलोभन में नहीं पडूंगी। स्त्रियों में लोभ अधिक है-यह मानती हूँ, पर जिस चीज का लोभ रहता है जब उसे ही इच्छापूर्वक छोड़ दिया है, तो फिर मेरे लिए कोई भय नहीं है। एकाएक अगर किसी झोंक में आकर छोड़ती, तब सावधान होना आवश्यक था, लेकिन इतने समय में एक दिन भी तो पछतावा नहीं हुआ, मैं बड़े सुख से हूँ।’

देवदास ने सिर हिलाकर कहा-‘स्त्रियों का मन बड़ा चंचल, बड़ा अविश्वासी होता है।’

इस बार चन्द्रमुखी कुछ खिसककर एकदम पास में आकर बैठी, हाथ पकड़कर कहा-‘देवदास!’

देवदास उसके मुँह की ओर देखते रहे। इस बार वे नहीं कह सके कि मुझे मत छुओ।

चन्द्रमुखी ने स्नेह से चक्षु विस्फारित कर, कुछ कम्पित कंठ से उनके हाथों को अपनी गोद में खींचकर कहा-‘आज अंतिम दिन है, आज क्रोध मत करना। एक बात तुमसे पूछने की बड़ी लालसा है।’-यह कहकर कुछ देर देवदास के मुँह की ओर देखकर कहा-‘पार्वती ने क्या तुम्हें बड़ी गहरी चोट पहुँचायी है?’

देवदास ने भ्रू-कुंचित कर कहा-‘यह क्यों पूछती हो?’

चन्द्रमुखी विचलित नहीं हुई। शांतऔर दृढ़ स्वर से कहा-‘मुझे काम है। मैं सच कहती हूँ, तुम्हें दुख पहुँचने से मुझे भी दुख होता है। इसे छोड़ शायद मैं बहुत-सी बातें जानती हूँ। बीच-बीच में नशे के जोर में तुम्हारे मुँह से अनेक ऐसी बातें सुनी है। फिर भी मुझे विश्वास नहीं होता कि पार्वती ने तुम्हें ठगा है; वरन्‌ मन में उठता है कि तुमने अपने-आपको ठगा है। देवदास, मैं तुमसे उम्र में बड़ी हूँ, इस संसार मे बहुत-कुछ देखा सुना है। मेरे मन में क्या बात उठती है, जानते हो? मैं दृढ़ चित्त से कहती हूँ कि इसमें तुम्हारी ही भूल है। मन में आता है, चंचल और अस्थिर-चित्त कहकर स्त्रियों की जितनी निंदा की जाती है, वे उतनी निंदा के योग्य नहीं है। निंदा करने वाले भी तुम्ही हो, प्रशंसा करने वाले भी तुम्ही हो। तुम लोगो के मन में जो कुछ आता है, सहज ही कह देते हो। लेकिन वे ऐसा नहीं कर सकती। अपने मन की बात नहीं कर सकती। प्रकट करने पर भी जब लोग अच्छी तरह नहीं समझते; क्योकि बहुत अस्पष्ट होता है। तुम लोगों के तर्क के सामने वह दब जाता है। फिर वही निंदा के मुँह पर स्पष्ट और स्पष्टतर हो उठती है।’

चन्द्रमुखी ने थोड़ा ठहरकर अपने कंठ-स्वर को और परिष्कृत करकेे कहा-‘इस जीवन में प्रेम का व्यवसाय बहुत दिनों तक किया है, लेकिन प्रेम केवल एक बार किया है। उस प्रेम का मूल्य बहुत बड़ा है, उससे अनेक शिक्षायें मिलती है। जानते हो, प्रेम एक वस्तु है और रूप का मोह दूसरी। इन दोनों में बड़ा गोलमाल है और पुरुष ही अधिक गोलमाल करते है। रूप का मोह तुम लोगों की अपेक्षा हम लोगों में बहुत कम है, इसी से हम लोग तुम लोगों की तरह एकबारगी उन्मत्त नहीं हो उठती। तुम लोग जब आकर अपना प्रेम दिखलाते हो, अनेकों प्रकार के भाव प्रकट करते हो, तब हम लोग चुप हो रहती है। कितनी ही बार तुम लोगो के मन को क्लेश देने में लज्जा मालूम होती है, दुख और संकोच होता है। मुँह देखने से अगर घृणा भी होती है, तब भी अक्सर लज्जा से यह नहीं कह सकती कि मैं तुमको ह्रश्वयार नहीं करती। फिर एक बाह्म प्रणय का अभिनय आरंभ होता है; किसी दिन जब उसका अंत हो जाता है, तो पुरुष अस्थिर होकर कहते है कि कितनी विश्वासघातिनी है। तब सब लोग उसी बात को सुनते हैं और उसी पर विश्वास करने लग जाते हैं। हम लोग तब भी चुप रहती हैं। मन में कितना ही क्लेश होता है, किन्तु उसे कौन देखने जाता है?’

देवदास ने कुछ नहीं कहा। वह भी बहुत देर तक निःशब्द मुँह की ओर देखती रही फिर कहा-‘यदि कुछ होता है, तो शायद थोड़ी-बहुत ममता उत्पन्न होती है, स्त्रियाँ मन में सोचती है कि यही प्रेम है। शांत-धीर भाव से गृहस्थी को काम-काज करती है। दुख के समय प्राणपण से सहायता करती है। जब तुम लोग खूब प्रशंसा करते हो, सब लोगो के मुख से कितनी ही बार धन्य-धन्य निकलता है, लेकिन उस समय तक उसका प्रेम का वर्ण-परिचय भी आरंभ होता है। इसके बाद अगर किसी अशुभ मुहूर्त में अपने हृदय की असह्य वेदना के कारण छटपटाती हुई द्वार के बाहर आकर खड़ी होती है, तो तुम लोग चिल्लाकर कह उठते हो – कलंकिनी!’

‘छिः! छिः!’ अकस्मात देवदास चन्द्रमुखी के मुँह को हाथ से दबाकर कह उठे-‘चन्द्रमुखी, यह क्या?’

चन्द्रमुखी ने धीरे-धीरे हाथ हटाकर कहा-‘डरो नहीं देवदास, मैं तुम्हारी पार्वती की बात नहीं कहती हूँ।’

यह कहकर वह चुप हो रही। देवदास ने कुछ क्षण चुप रहकर अन्यमनस्क होकर कहा-‘किन्तु कर्त्तव्य है।’

‘धर्म-अधर्म तो है?’ चन्द्रमुखी ने कहा-‘हाँ, वह तो है, और इसीलिए देवदास से वह सच्चा प्रेम करती और उसे सहन भी करती है; आंतरिक प्रेम से जो सुख और तृप्ति मिलती है, उसे और बढ़ाने के लिए वह घर में अशांति नहीं लाना चाहती। पर देवदास, मैं सच कहती हूँ, पार्वती ने तुम्हें कुछ भी नहीं ठगा है, तुम्ही ने अपने-आपको ठगा है। आज इस बात को समझने की शक्ति तुममे नहीं है, यह बात मैं जानती हूँ। अगर कभी समय आयेगा, तो तुम देखोगे कि मैं सच कहती थी।’

देवदास की दोनों आँखों में जल भर आया। वे दुखी होकर सोचने लगे कि क्या चन्द्रमुखी की बातें सच है?

आँखों के आँसुओं को चन्द्रमुखी ने देखा, किन्तु पोंछने की चेष्ट नहीं की। मन-ही-मन कहने लगी-तुम्हें मैंने अनेकों रूप में देखा है। इससे तुम्हारे मन की गति को मैं भली-भांति जानती हूँ। साधारण पुरुषों की भांति तुम मांगकर प्रेम प्रकाशित नहीं कर सकते। तब रूप की बात-रूप को कौन नहीं चाहता? किन्तु इसीलिए तुम अपने इतने तेज का, रूप के पांव में आत्म-विसर्जन कर दोगे, यह बात विश्वास में नहीं आती। पार्वती है तो बड़ी रूपवती, लेकिन फिर भी यही विश्वास होता है कि पहले उसी ने प्रेम का द्वार खोला, पहले उसी ने प्रेमालाप प्रारंभ किया।’

मन-ही-मन कहते-कहते सहसा उसके मुख से अस्फुट स्वर से बाहर निकल पड़ा-‘अपने को देखकर यह समझती हूँ कि वह तुमको कितना ह्रश्वयार करती होगी।’

देवदास ने चटपट बैठकर कहा-‘क्या कहती हो?’

चन्द्रमुखी ने कहा-‘कुछ नहीं। कहती थी कि वह तुम्हारा रूप देखकर नहीं भूल सकती। तुम्हारे रूप है, लेकिन उसमे भूल नहीं होती। इस तीव्र-रूक्ष रूप पर सबकी दृष्टि नहीं पड़ती। किन्तु जिसकी पड़ती है, उसकी दृष्टि फिर नहीं हट सकती।’

यह कहकर एक दीर्घ निःश्वास लेकर कहा-‘तुममे न जाने कैसा एक आकर्षण है कि उसे जान सकता है, जिसने तुम्हें ह्रश्वयार किया है। इस स्वर्ग के पाने की इच्छा करके फिर कौन मुड़ सकता है, ऐसी स्त्री इस पृथ्वी पर कौन है?’

और कुछ क्षण नीरव रहने के बाद उसने मुख की ओर देखकर कहा-यह रूप सिर्फ चार दिन की चांदनी है। देखते-देखते ही इसका अंत हो जाता है और चिता के साथ अग्नि में भस्म होकर राख हो जाता है।’

देवदास ने विह्वल दृष्टि से चन्द्रमुखी के मुख की ओर देखकर कहा-‘आज तुम यह सब क्या बक रही हो?’

चन्द्रमुखी ने मधुर हँसी हँसकर कहा-‘इससे बढ़कर और कोई मन को उबाने वाली बात नहीं होती देवदास, कि जिसे हम ह्रश्वयार न करे वही बलपूर्वक प्रेम की बातें सुनाये। लेकिन मैं यह सिर्फ पार्वती के लिए वकालत करती हूँ, अपने लिए नहीं।’

देवदास ने चलने को उद्दत होकर कहा-‘अब मैं चलूंगा।’

‘थोड़ा और बैठो। कभी तुमको संज्ञान नही पाया था। कभी इस तरह दोनो हाथ पकड़कर बातचीत नहीं कर सकी थी। यह कैसी तृप्ति है!’कहकर वह हठात्‌ हँस पड़ी।

देवदास ने आश्चर्य से पूछा-‘हँसी क्यों?’

‘कुछ नहीं । सिर्फ एक पुरानी बात की याद आ गई। आज दस बरस की बात है, जब मैं प्रेम के आवेश मे घर छोड़कर चली आई थी, तब मन में होता था कि कितना ह्रश्वयार करूं-सम्भवतः उस समय प्राण भी दे सकती थी। फिर एक दिन एक तुच्छ गहन के लिए ऐसा झगड़ा हुआ कि फिर किसी का मुँह नहीं देखा, मन को यह कहकर संतोष दिया कि यह मुझे अच्छी तरह ह्रश्वयार नहीं करते, नहीं तो क्या एक गहना न देते?’

चन्द्रमुखी एक बार फिर अपने मन में हँस उठी। दूसरे ही क्षण शांत-गंभीर मुख से धीरे-धीरे कहा‘भाड़ में जाये ऐसा गहना, तब क्या यह जानती थी कि एक मामूली सिर-दर्द के अच्छा करने में प्राण तक को देना पड़ेगा। तब मैं सीता और दमयंती की व्यथा को नहीं समझती थी, जगाई माधव की कथा पर विश्वास नहीं करती थी। अच्छा देवदास, इस संसार में सभी कुछ संभव है?’

देवदास कुछ उत्तर नहीं सके; हत्बुद्धि की भांति कुछ क्षण देखकर कहा-‘मैं जाता हूँ।’

‘डर क्या है, जरा और बैठो। मैं तुमको और भुलावे में नहीं रखना चाहती। मेरे वे दिन अब बीत गये। अब तुम मुझसे जितनी घृणा करते हो, मैं भी अपने से उतनी ही घृणा करती हूँ। लेकिन देवदास, तुम विवाह क्यों नहीं कर लेते?’

अब मानो देवदास में निःश्वास पड़ा। थोड़ा हँसकर कहा-‘उचित है, पर इच्छा नहीं होती।’

‘न होने पर भी करो। स्त्री का मुख देखकर बहुत कुछ शान्ति पाओगे। इसे छोड़ मेरे लिए भी एक राह खुल जायेगी। तुम्हारी गृहस्थी में दासी की भांति रहकर स्वच्छन्द भाव से जीवन व्यतीत करूंगी।’

देवदास ने हँसकर कहा-‘अच्छा, तब मैं तुम्हें बुला लूंगा।’

चन्द्रमुखी ने मानो उनकी हँसी न देखकर कहा-‘देवदास, और एक बात पूछने की इच्छा होती है।’

‘क्या?’

‘तुमने इतनी देर तक मेरे साथ बातचीत क्यों की?’

‘क्या कुछ अनुचित है?’

‘यह नहीं जानती, लेकिन नयी बात है। शराब पीकर ज्ञान न रहने के पहले तुम कभी मुझसे बातचीत नहीं करते थे।’

देवदास ने उस प्रश्न का कोई उत्तर न देकर, विषण्ण मुख से कहा-‘आजकल शराब नहीं छूता, मेरे पिता की मृत्यु हो गयी है।’

चन्द्रमुखी बहुत देर तक उनके मुख की ओर करूणा-भरे नेत्रों से देखती रही, फिर कहा-‘इसके बाद फिर पियोगे क्या?’

‘कह नहीं सकता।’

चन्द्रमुखी ने उनके दोनों हाथो को कुछ खींचकर अश्रुपूर्ण और व्याकुल स्वर से कहा-‘अगर हो सके, तो छोड़ देना। ऐसा अमूल्य जीवन-रत्न को नष्ट मत करो!’

देवदास सहसा उठकर खड़े हो गये, कहा-‘मैं चलता हूँ। तुम जहाँ जाओ वहाँ से खबर देना, और अगर कुछ काम हो, तो लिखना। मुझसे लज्जा मत करना।’

चन्द्रमुखी ने प्रणाम करके पद-धूलि लेकर कहा-‘आशीर्वाद दो, जिससे मैं सुखी होऊं और एक भीख मांगती हूँ, ईश्वर न करे, किन्तु यदि कभी दासी की आवश्यकता हो, तो मुझे स्मरण करना।’

‘अच्छा’ कहकर देवदास चले गये।

चन्द्रमुखी ने दोनों हाथो से मुख ढांपकर रोते-रोते कहा – ‘भगवान! ऐसा करो जिसमें एक बार और दर्शन मिले।’

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