चैप्टर 8 देवदास : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 8 Devdas Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 8 Devdas Novel In Hindi

Table of Contents

Chapter 8 Devdas Novel In Hindi

Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | | | | || 10 | 11 | 12 | 13

Prev | Next | All Chapters

दोनो भाई-द्विजदास और देवदास-तथा गाँव के बहुत-से लोग जमीदार मुखोपाध्याय की अंतेष्टिक्रिया समाप्त कर घर लौट आये। द्विजदास चिल्ला-चिल्लाकर रोते-रोते पागल की भांति सो गये, गांव के पांच-पांच, छः-छः आदमी उनको पकड़कर रख नहीं सकते थे और देवदास शांत भाव से खंभे को पास बैठे थे। मुख में एक शब्द नहीं था, आँखों में एक बिंदु जल नहीं था, कोई उनको पकड़ने भी नहीं जाता था, कोई सान्त्वना भी नहीं देता था। केवल मधुसूदन घोष ने एक बार पास आकर कहा‘भाई, यह सब ईश्वर के अधीन की बात है। इसमें….।’

देवदास ने द्विजदास की ओर हाथ से दिखाकर कहा-‘वहाँ…’

घोष महाशय ने अप्रतिभ होकर कहा-‘हाँ-हाँ, उनको तो बहुत शोक…।’

इत्यादि कहते-कहते चले गये। और कोई पास नहीं आया। दोपहर बीतने पर देवदास मूर्च्छिता माता के पांव के पास जाकर बैठे। वाहन पर बहुत-सी स्त्रियाँ उनको घेरकर बैठी थी। पार्वती की दादी भी उन्हीं मीन बैठी थी। टूटे-टूटे स्वर से शोकार्त विधवा माता से कहा-‘बहू, देखो, देवदास आया है।’

देवदास ने बुलाया-‘माँ!’

उन्होंने केवल एक बार देखकर कहा-‘देवदास!’ फिर डबडबायी हुई आँखों से झर-झर आँसू गिरने लगे। स्त्रियाँ भी चिल्ला उठी। देवदास कुछ देर तक माता के चरणों में अपना मुख ढके रहे, फिर उठकर चले गये-पिता के सोने के कमरे में। आँखों में जल नहीं था। मुख गंभीर तथा शांत था। लाल-लाल आँखों को ऊपर चढ़ाये हुए जाकर भूमि पर बैठ गये। उस मूर्ति को यदि कोई देखता, तो संभवतः भयभीत हो जाता। दोनो कनपटियाँ फूली हुई थी। बड़े-बड़े रूखे केश ऊपर की ओर खड़े थे।

तपाये हुए सोने के समान शरीर का रंग काला पड़ गया। कलकत्ता के जघन्य अत्याचार में रातों का दीर्घ जागरण हुआ था-और उस पर पिता की मृत्यु हुई। एक वर्ष पहले अगर उनको कोई देखे होता; तो संभवतः एकाएक को पहचान न सकता। कुछ देर के बाद पार्वती की माता उन्हे ढूंढती हुई दरवाजा ठेलकर भीतर आई और पुकारा-‘देवदास!’

‘क्या है छोटी चाची?’

‘ऐसा करने से तो नहीं चलेगा।’

देवदास ने उनके मुँह की ओर देखकर कहा-‘क्या करता हूँ चाची?’

चाची सब समझती थी, किंतु कह नहीं सकी। देवदास के सिर पर हाथ फेरते-फेरते कहा-‘देवता मेरा!’

‘क्या चाची?’

‘देवता-’

इस बार देवदास ने उसकी गोद मे अपना मुख छिपा लिया, आँखों से दो बूंद गरम-गरम आँसू गिर पड़े।

शोकार्त परिवार की दिन भी किसी भांति बीता। नियमित रूप से प्रभावित हुआ, रोना-धोना बहुत कम हो गया। द्विजदास धीरे-धीरे अपने आपे मे आये। उनकी माता भी कुछ संभल कर बैठी। आँख पोंछते-पोंछते आवश्यक काम करने लगी। दो दिन बाद द्विजदास ने देवदास को बुलाकर कहा-देवदास, पिता के श्राद्व-कर्म के लिए कितना रुपया खर्च करना उचित है?’

देवदास ने भाई के मुख की ओर देखकर कहा-‘जो आप उचित समझे, करे।’

‘नहीं भाई, केवल मेरे ही उचित समझने से काम नहीं चलेगा, अब तुम भी बड़े हुए तुम्हारी सम्मति भी लेना आवश्यक है।’

देवदास ने पूछा-‘कितना नकद रुपया है।’

‘बाबूजी की तहवील मे डेढ़ लाख रुपया जमा है। मेरी सम्मति से दस हजार रुपये खर्च काफ़ी होगा, क्या कहते हो?’

‘मुझे कितना मिलेगा?’

द्विजदास ने कुछ इधर-उधर करके कहा-‘तुम्हे भी आधा मिलेगा, दस हजार खर्च होने से सत्तर हजार तुम्हें और सत्तर हजार मुझे मिलेगा।’

‘माँ नकद रुपया लेकर क्या करेगी? वे तो घर की मालकिन ही है। हम लोग उनका खर्च संभालेगे।’

देवदास ने कुछ सोचकर कहा-‘मेरी सम्मति है कि आपके भग से पांच हजार रुपया खर्च हो और मेरे भाग से पच्चीस हजार रुपया खर्च हो, बाकी पच्चीस हजार माँ के नाम जमा रहेगा। आपकी क्या सम्मति है?’

पहले द्विजदास कुछ लज्जित हुए। फिर कहा-‘अच्छी बात है। किंतु यह तो जानते ही हो कि मेरे स्त्रीपुत्र और कन्या है। उनके यज्ञोपवीत, विवाह आदि में बहुत खर्च पड़ेगा। इसलिए यही सम्मति ठीक है।’

फिर कुछ ठहर कर कहा-‘तो क्या ज़रा-सी इसकी लिखा-पढ़ी कर दोगे?’

‘लिखने-पढ़ने का क्या काम है? यह काम अच्छा नहीं मालूम होगा। मेरी इच्छा है कि रुपये पैसे की बात इस समय छिपी-छिपाई रहे।’

‘तो अच्छी बात है; किंतु क्या जानते हो भाई…?’

‘अच्छा मैं लिखे देता हूँ।’ उसी दिन देवदास ने लिख-पढ़ दिया।

दूसरे दिन दोपहर के समय देवदास सीढ़ी से नीचे उतर रहे थे। बीच मे पार्वती को देखकर रुक गए।

पार्वती ने मुख की ओर देखा-देखकर पहचानते हुए उसे क्लेश हो रहा था। देवदास ने गंभीर और शांत मुख से आकर कहा-‘कब आयी पार्वती?’

वही कंठ-स्वर आज तीन वर्ष बाद सुना। सिर नीचा किये हुए पार्वती ने कहा-‘आज सुबह आयी।’

‘बहुत दिन से भेंट नहीं हुई, अच्छी तरह से तो रही?’ पार्वती सिर नीचा किये रही।

‘चौधरी महाशय अच्छी तरह से है? लड़के-लड़की सब अच्छी तरह से है?’

‘सब अच्छी तरह से है।’ पार्वती ने एक बार मुख की ओर देखा, पर एक भी बात पूछ नहीं सकी, वे कैसे है, क्या करते है, इत्यादि वह कुछ भी पूछ नहीं सकी।

देवदास ने पूछा-‘अभी तो यहाँ कुछ दिन रहना होगा?’

‘हाँ।’

‘तब फिर क्या’-कह कर देवदास चले।

श्राद्ध समाप्त हो गया। उसका वर्णन करने में बहुत कुछ लिखना पड़ेगा, इसी से उसके कहने की आवश्यकता नहीं है। श्राद्ध के दूसरे दिन पार्वती ने धर्मदास को अकेले मे बुलाकर उसके हाथ में एक सोने का हार देकर कहा-‘धर्म, अपनी कन्या को यह पहना देना।’

धर्मदास ने मुँह की ओर देखकर आर्द्र नेत्र और करूण कंठ-स्वर से कहा-‘अहा! तुमको बहुत दिनो से नहीं देखा, सब कुशल तो है?’

‘सब कुशल है। तुम्हारी लड़की-लड़के तो अच्छे हैं?’

‘हाँ पत्तो, सब अच्छे हैं।’

‘तुम अच्छे हो?’

इस बार दीर्घ निःश्वास खीचकर धर्मदास ने कहा-‘क्या अच्छा हूँ? अब यह जीवन भार-सा मालूम होता है-मालिक ही चले गये…।’ धर्मदास शोक के आवेग में कुछ और कहना चाहता था, किंतु पार्वती ने बाधा दी। इस सब बातो को सुनने के लिए उसने हार नहीं दिया था।

पार्वती ने कहा-‘यह क्यो धर्मदास, तुम्हारे जाने से देव दादा को कौन देखेगा?’

धर्मदास ने माथा ठोककर कहा-‘जब छोटे लड़के थे, तब देखने की ज़रूरत थी। अब नहीं देखने से ही अच्छा है।’

पार्वती ने और पास आकर कहा-‘धर्म, एक बात सच-सच बताओगें?’

‘क्यों नहीं बताऊंगा, पत्तो?’

‘तब सच-सच कहो कि देवदास इस समय अभी क्या कर रहे है?’

‘मेरा सिर कर रहे है, और क्या करेगे?’

‘धर्मदास, साफ-साफ क्यों नहीं कहते?’

धर्मदास ने फिर सिर पीटकर कहा-‘साफ-साऊ क्या कहूं? भला यह कुछ कहने की बात है। अब मालिक नहीं है। देवदास के हाथ अगाध रुपया लग गया है, अब क्या रक्षा हो सकेगी?’

पार्वती का मुख एकबारगी मलिन पड़ गया। उसने आभास और संकेत से कुछ सुना था। दुखित होकर पूछा-‘क्या कहते हो धर्मदास?’ वह मनोरमा के पत्रों से जब कोई समाचार पाती थी,, तो उस पर विश्वास नहीं करती थी। धर्मदास सिर नीचा करके कहने लगा-‘खाना नहीं, पीना नहीं, सोना नहीं, केवल बोतल पर बोतल शराब, तीन-तीन, चार-चार दिन तक न जाने कहाँ रहते है, कुछ पता नहीं। कितने ही रुपये फूंक दिए। सुनता हूँ, कई हजार रुपये का गहना बनवा दिया।’

पार्वती सिर से पैर तक सिहर उठी-‘धर्मदास, यह क्या कहते हो? क्या यह सब सच है?’

धर्मदास ने अपने मन में ही कहा-शायद तुम्हारी बात सुने, तुम एक बार मनाकर देखो। कैसा शरीर था, कैसा हो गया? ऐसे असंयम और अत्याचार से कितने दिन जियेंगे? किससे यह बात कहूं माँ, बाप, भाई से ऐसी बात नहीं कही जाती। धर्मदास ने फिर सिर ठोक कर कहा-‘इच्छा होती है, जहर खाकर मर जाऊं पत्तो, अब आगे जीने की साध नहीं है।’

पार्वती उठकर चली गई। नारायण बाबू के मरने का समाचार पाकर वह चली आई थी। सोचा था, इस विपत्ति के समय देवदास के पास जाना आवश्यक है। किंतु उसके परमप्रिय देवदास की यह अवस्था है!

कितनी ही बाते उसके मन में उठने लगी, जिनका अंत नहीं । जितना धिक्कार उसने देवदास को दिया, उसका हजार गुना अपने को दिया। हजार बार उसके मन में उठा कि क्या उसके होने पर वह ऐसे बिगड़ सकते? पहले ही उसने अपने पांव मे आप कुठार मारा, किंतु वह कुठार उसके सिर पर गिरा। उसके देव दादा ऐसे हो रहे हाँ।-इस प्रकार नष्ट हो रहे हैं, और वह दूसरे की गृहस्थी के बनाने मे लगी हुई है, दूसरे को अपना समझकर नित्य अन्न बांट रही है, और उसके सर्वस्व-आज भूखो मर रहे है! पार्वती ने प्रतिज्ञा की आज वह देवदास के पांव में माथा पटक कर प्राण त्याग देगी।

अभी भी संध्या होने मे कुछ देर है। पार्वती ने देवदास के कमरे में प्रवेश किया। देवदास चारपाई पर बैठे हुए हिसाब देख रहे थे, इधर देखा-पार्वती धीरे-धीरे किवाड़ बंद कर फर्श पर बैठ गई। देवदास ने सिर उठाकर, हँसकर उसकी ओर देखा, उनका मुख विषण्ण, किंतु शांत था। हठात कौतुक से पूछा-‘यदि मैं अपवाद उठाऊं तो?’

पार्वती ने अपनी सलज्ज, श्याम कमलवत दोनों आँखों से एक बार उनकी ओर देखा, फिर नजर नीची कर ली। देवदास की इस बात ने भली-भांति जता दिया कि वह बात उनके हृदय मे आजन्म के लिए अंकित हो गई है। वह देवदास से कितनी ही बातें कहने के लिए आयी थी, किंतु सब भूल गई, एक भी बात न कह सकी। देवदास ने फिर हँसकर कहा-‘समझता हूँ, समझता हूँ! लज्जा लगती है न?’ तब भी पार्वती कोई बात न कह सकी। देवदास ने कहा-‘इसमें लज्जा की क्या बात है? हम तुम दोनो ही लड़कपन में बराबर एक साथ उठते-बैठते और खेलते थे। इसी बीच में एक गड़बड़ी हो गई। क्रोध करके जो तुम्हारे जी में आया कहा, और मैंने भी तुम्हारे सिर में यह दाग दे दिया। कैसा हुआ?’

देवदास की बात में श्लेष व विद्रूप का लेश भी नहीं था; हँसते-ही-हँसते पहले की बीती दुख की कहानी कह सुनाई। पार्वती का हृदय भी सुनकर फटने लगा। मुँह में आंचल देकर एक गहरी सांस खीचकर मन-ही-मन कहा-देव दादा, यह दाग ही मेरे ढाढस का कारण है, एकमात्र यही मेरा साथी है।

तुम मुझे ह्रश्वयार करते थे, इसी से दया करके, हम लोगो के बाल्य-इतिहास को इस रूप में, इस ललाट में अंकित कर दिया है। इससे मुझे लज्जा नहीं, कलंक नहीं, यह मेरे गौरव का चिह्न है।

‘पत्तो!’

मुख से आंचल न हटाकर ही पार्वती ने कहा-‘क्या?’

‘तुम्हारे ऊपर मुझे बड़ा क्रोध आता है।’

इस बार देवदास का कंठ-स्वर विकृत हो गया-‘बाबूजी नहीं है, आज मेरे विपत्ति का समय है, किंतु तुम्हारे रहने से कोई चिंता न रहती! बड़ी भाभी को जानती ही हो, भाई साहब का स्वभाव भी तुमसे कुछ छिपा नहीं है; और तुम्ही सोचो, माँको इस समय लेकर मै क्या करूं, और मेरा कुछ ठिकाना ही नहीं कि क्या होगा? तुम्हारे रहने से मैं सब-कुछ तुम्हारे हाथ मे सौपकर निश्चिंत हो जाता-‘क्यो पत्तो?’

पार्वती फफककर रो पड़ी। देवदास ने कहा-‘रोती हो क्या? अब और कुछ नहीं कहूंगा।’

पार्वती ने आंख पोछते-पोछते कहा-‘पत्तो, अब तो तुम खूब पक्की घरनी हो गई हो न?’

घूंघट के भीतर-ही-भीतर होठ चबाकर, मन-ही-मन उसने कहा-घरनी क्या हुई हूँ! क्या सेमल का फूल कभी देव-सेवा में लगता है?

देवदास ने हँसते-हँसते कहा-‘बड़ी हँसी आती है! तुम कितनी छोटी थी और अब कितनी बड़ी हो गर्इं। बड़ा मकान, बड़ी जमीदारी है, बड़े-बड़े लड़की-लड़के है और सबसे बड़े चौधरी जी,क्यों पत्तो?’

चौधरी जी पार्वती के लिए बड़ी हँसी की चीज है; उनके ध्यान मात्र आने से उसे हँसी आ जाती है।

इतने कष्ट मे भी इसी से उसे हँसी आ गई। देवदास ने बनावटी गंभीरता से कहा-‘क्या एक उपकार कर सकती हो?’

पार्वती ने मुख उठाकर कहा-‘क्या?’

‘तुम्हारे गाँव में कोई अच्छी लड़की मिल सकती है?’

पार्वती ने खांसकर कहा-‘अच्छी लड़की! क्या करोगे?’

‘मिलने पर विवाह करूंगा। एक बार गृहस्थी बनने की साध होती है।’

पार्वती ने गंभीरतापूर्वक पूछा-‘खूब सुंदरी न?’

‘हाँ, तुम्हारी तरह।’

‘और खूब शांत?’

‘नहीं, खूब शांत से काम नहीं है; वरन्‌ कुछ दुष्ट हो, तुम्हारी तरह मुझसे झगड़ा कर सके।’

पार्वती ने मन-ही-मन कहा-यह तो कोई नहीं कर सकेगी देव दादा, क्योंकि इसके लिए मेरे समान प्रेम चाहिए। प्रकट में कहा-‘मैं अभागिन क्या हूँ, मेरे ऐसी न जाने कितनी हजार तुम्हारे पांव की धूलि लेकर अपने को धन्य मानेगी?’

देवदास ने मजाक से हँसकर कहा-‘क्या अभी एक ऐसी ला सकती हो?’

‘देव दादा, क्या सचमुच विवाह करोगे?’

‘वैसा ही, जैसा मैंने बतलाया है।’

केवल यही खोलकर नहीं कहा कि उसे छोड़ इस संसार मे उनके जीवन की कोई सहवासिनी नहीं हो सकती!

‘देवदास, एक बात बताओगे?’

‘क्या?’

पार्वती ने अपने के बहुत संभालकर कहा-‘तुमने शराब पीना कैसे सीखा?’

देवदास ने हँसकर कहा-‘पीना भी क्या कहीं सीखना होता है?’

‘यह नहीं तो अभ्यास कैसे किया?’

‘किसने कहा-धर्मदास ने?’

‘कोई भी कहे; क्या यह बात सच है?’

देवदास ने छिपाया नहीं, कहा-‘कुछ है?’

पार्वती ने कुछ देर स्तब्ध रहने के बाद पूछा-‘और कितने हजार रुपये का गहना गढ़ा दिया है?’

देवदास ने गंभीरता से कहा-‘दिया नहीं है; गढ़ाकर रखा है। तुम लोगो?’

पार्वती ने हाथ फैलाकर कहा-‘दो, यह देखो, मुझ पर एक भी गहना नहीं है।’

‘चौधरी जी ने तुम्हें नहीं दिया?’

‘दिया था; पर मैने सब उनकी बड़ी लड़की को दे दिया।’

‘जान पड़ता है, अब तुम्हें ज़रूरत नहीं है।’

पार्वती ने मुख हिलाकर सिर नीचा कर लिया। देवदास की आँखों में आँसू भर आया। देवदास ने मन-ही-मन सोचा कि साधारण दुःख से स्त्रियाँ अपने गहने खोलकर नहीं देती। किंतु आँख से निकलते हुए आँसुओं को रोककर धीरे-धीरे कहा-‘झूठी बात है; किसी स्त्री से मैने प्रेम नहीं किया। किसी को मैंने गहना नहीं दिया।’

पार्वती ने दीर्घ निःश्वास फेंककर मन-ही-मन कहा-ऐसा ही मुझे भी विश्वास है।

कुछ देर तक दोनों ही चुप रहे। फिर पार्वती ने कहा-‘किंतु प्रतिज्ञा करो कि अब शराब नहीं पीऊंगा।’

‘यह नहीं कर सकता। तुम क्या प्रतिज्ञा कर सकती हो कि तुम मुझे भुला दोगी?’

पार्वती ने कुछ नहीं कहा। इसी समय बाहर से संध्या की शंख-ध्वनि हुई। देवदास ने खिड़की से बाहर देखकर कहा-‘संध्या हो गई है, अब घर जाओ पत्तो!’

‘मैं नहीं जाऊंगी, तुम प्रतिज्ञा करो।’

‘क्यों, मैं नहीं कर सकता।’

‘क्यों नहीं कर सकते?’

‘क्या सभी सब कामों को कर सकते है?’

‘इच्छा करने से अवश्य कर सकते है।’

‘तुम मेरे साथ आज रात में भाग सकती हो?’

पार्वती का हृदय-स्पंदन सहसा बंद हो गया। अनजाने में धीरे से निकल गया-‘यह क्या हो सकता है?’

देवदास ने जरा चारपाई के ऊपर बैठक कहा-‘पार्वती, किवाड़ खोल दो।’

देवदास खड़े होकर धीमे भाव से कहने लगे-‘पत्तो, क्या जोर देकर प्रतिज्ञा कराना अच्छा है? उससे क्या कोई विशेष लाभ है? आज की हुई प्रतिज्ञा कल शायद न रहेगी। क्यों मुझे झूठा बनाती हो?’

और भी कुछ क्षण यों ही निःशब्द बीत गये। इसी समय न जाने किस घर मे टन-टन करके नौ बजा।

देवदास भाव से कहने लगे-‘पत्तो, द्वार खोल दो।’ पार्वती ने कुछ नहीं कहा।

‘जा पत्तो!’

‘मैं किसी तरह नहीं जाऊंगी।’-कहकर पार्वती अकस्मात पछाड़ खाकर गिर पड़ी। बहुत देर तक फूट-फूटकर रोती रही। कमरे के भीतर इस समय गाढ़ा अंधकार था, कुछ दिखायी नहीं पड़ता था। देवदास ने केवल अनुमान से समझा कि पार्वती जमीन में पड़ी रो रही है, धीरे-धीरे बुलाया-‘पत्तो!’

‘देव दादा, मैं मर भी जाऊंगी, किन्तु कभी तुम्हारी सेवा नहीं कर सकी, यह मेरे आजन्म की साध है।’

अंधेरे में आँख पोंछते-पोंछते देवदास ने कहा-‘वह भी समय आयेगा।’

‘तब मेरे साथ चलो। यहाँ पर तुम्हे कोई देखने वाला नहीं है।’

‘तुम्हारे मकान पर चलूंगा, तो खूब सेवा करोगी?’

‘यह मेरे बचपन की ही साध है। हे स्वर्ग के देवता! मेरी इस साध को पूर्ण करो इसके बाद यदि मर भी जाऊं, तो भी दुख नहीं है।’

इस बार देवदास की आँखों में पानी भर आया। पार्वती ने फिर कहा-‘देवदास, मेरे यहाँ चलो!’

देवदास ने आँखें पोंछकर कहा-‘अच्छा चलूंगा।’

‘मेरे सिर पर हाथ रखकर कहो कि चलोगे।’

देवदास ने अनुमान से पार्वती का पांव छूकर कहा-‘यह बात मैं कभी नहीं भूलूंगा। अगर मेरे जाने से ही तुम्हारा दुख दूर हो, तो मैं अवश्य आऊंगा। मरने के पहले भी मुझे यह बात याद रहेगी।’

Prev | Next | All Chapters

Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | | | | || 10 | 11 | 12 | 13

अन्य उपन्यास :

बिराज बहू  ~ शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास

प्रेमा ~ मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

वापसी ~ गुलशन नंदा का उपन्यास 

Leave a Comment