Chapter 1 Devdas Novel In Hindi
Table of Contents
Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13
एक दिन बैसाख के दोपहर में, जबकि चिलचिलाती हुई कड़ी धूप पड़ रही थी और गर्मी की सीमा नहीं थी, ठीक उसी समय मुखोपाध्याय का देवदास पाठशाला के एक कमरे के कोने मे स्लेट लिये हुए पांव फैलाकर बैठा था। सहसा वह अंगड़ाई लेता हुआ अत्यंत चिंताकुल हो उठा और पल-भर मे यह स्थिर किया कि ऐसे सुहावने समय में मैदान में गुल्ली उड़ाने के बदले पाठशाला मे कैद रहना अत्यंत दुखदायी है। उर्वर मस्तिष्क से एक पाय भी निकल आया। वह स्लेट हाथ में लेकर उठ खड़ा हुआ।
पाठशाला में अभी जलपान की छुट्टी हुई थी। लड़को का दल तरह-तरह का खेल-कूद और शोरगुल करता हुआ पास के पीपल के पेड़ के नीचे गुल्ली-डंडा खेलने लगा। देवदास ने एक बार उस ओर देखा।
जलपान की छुट्टी उसे नहीं मिलती थी; क्योकि गोविंद पंडित ने कई बार यह देखा है कि एक बार पाठशाला के बाहर जाने पर फिर लौट आना देवदास बिलकुल पसंद नहीं करता था। उसके पिता की भी आज्ञा नहीं थी। अनेक कारणों से यही निश्चय हुआ था कि इस समय से वह छात्र-सरदार भूलो की देख-भाल में रहेगा।
एक कमरे मे पंडितजी दोपहर की थकावट दूर करने के लिए आँख मूंदकर सोये थे। और छात्र सरदार भूलो एक कोने मे हाथ पांव फैलाकर एक बेंच पर बैठा था और बीच-बीच में कड़ी उपेक्षा के साथ कभी लड़को के खेल को और कभी देवदास और पार्वती को देखता जाता था। पार्वती को पंडितजी के आश्रय और निरीक्षण में आये अभी कुल एक महीना हुआ है। पंडितजी ने संभवतः इसी थोड़े समय में उसका खूब जी बहलाया था, इसी से एकाग्र मन से धैर्यपूर्वक सोये हुए पंडितजी का चित्र ‘बोधोदय’ के अंतिम पृष्ठ पर स्याही से खींच रही थी और दक्ष चित्रकार की भांति विविध भाव से देखती थी कि उसके बड़े यत्न का वह चित्र आदर्श से कहाँ तक मिलता है। अधिक मिलता हो, ऐसी बात नहीं थी, पर पार्वती को इसी से यथेष्ट आनंद और आत्मा-संतुष्टि मिलती थी।
इसी समय देवदास स्लेट हाथ में लेकर उठ खड़ा हुआ और भूलो को लक्ष्य करके कहा – ‘सवाल हल नहीं होता।’
भूलो ने शांत और गंभीर मुख से कहा – ‘कौन सा सवाल?’
‘इबारती…!’
‘स्लेट तो देखूं।’
उसके सब काम स्लेट हाथ मे लेने मात्र से हो जाते थे। देवदास उसके हाथ में स्लेट देकर पास में खड़ा हुआ। भूलो यह कहकर लिखने लगा कि एक मन तेल का दाम अगर चौदह रुपये, नौ आने, तीन पाई होता है तो…?
इसी समय एक घटना घटी। हाथ-पांव से हीन बेंच के ऊपर छात्र-सरदार अपनी पद-मर्यादा के उपयुक्त आसन चुनकर यथानियम आज तीन वर्ष से बैठता आता है। उसके पीछे एक चूने का ढेर लगा हुआ था। इसे किसी समय पंडितजी ने सस्ती दर से खरीदकर रखा था। सोचा था कि दिन लौटने पर इससे एक पक्का मकान बनवायेंगे। कब वह दिन लौटेगा, यह मैं नहीं जानता, परंतु उसे सफेद चूने को वे बड़े यत्न और सावधानी के साथ रखते थे। संसार से अनभिज्ञ, अपरिणामदर्शी कोई दरिद्र बालक इसका एक क्षण भी नष्ट नहीं करने पाता था। इसीलिए प्रिय-पात्र और अपेक्षाकृत व्यस्त भोलानाथ को इस सयत्न वस्तु की सावधानी-पूर्वक रक्षा करने का भार मिला था, और इसी से वह बेंच पर बैठकर उसे देखा करता था।
भोलानाथ लिखता था, एक मन तेल का दाम अगर चौदह रुपये, नौ आने, तीन पाई है तो…? ‘अरे बाप रे बाप’ इसके बाद बड़ा शोर-गुल मचा। पार्वती जोर से ठहाका मारकर ताली बजाकर जमीन पर लोट गई। सोये हुए गोविंद पंडित अपनी लाल-लाल आँखें मीचते हुए घबराकर उठ खड़े हुए; देखा कि पेड़ के नीचे लड़कों का दल कतार बांधकर एक साथ ‘हो-हो’ शब्द करता हुआ दौड़ा चला जा रहा है और इसी समय दिखाई पड़ा कि टूटे बेंच के ऊपर एक जोड़ा पांव नाच रहा है; और चूने में ज्वालामुखी का विस्फोट-सा हो रहा है।
चिल्लाकर पूछा – ‘क्या है? क्या है? क्या है रे?’ उत्तर देने के लिए केवल पार्वती थी। पर वह उस समय जमीन पर लेटी हुई ताली बजा रही थी। पंडितजी का विफल प्रश्न क्रोध मे परिवर्तित हो गया – ‘क्या है? क्या है? क्या है रे?’ इसके बाद श्वेत मूर्ति भोलानाथ चूना ठेलकर खड़ा हुआ। पंडितजी ने और चिल्लाकर कहा – ‘शैतान का बच्चा, तू ही है, तू ही उसके भीतर है?’
‘आं..आं…आं!’
‘फिर?’
‘देवा साले ने ठेलकर….आं….आं….इबारती….’
‘फिर हरामजादा?’
परंतु क्षण-भर मे सारा व्यापार समझकर चटाई पर बैठकर पूछा – ‘देवा तुझे धक्के से गिराकर भागा है?’
भूलो अब और रोने लगा – ‘आं…आं…आं…’ इसके बाद कुछ क्षण चूने की झाड़, पोंछ हुई, किंतु श्वेत और श्याम के मिल जाने के कारण छात्र-सरदार भूत की भांति मालूम पड़ने लगा और तब भी उसका रोना बंद नहीं हुआ।
पंडितजी ने कहा – ‘देवा धक्के से गिराकर चला गया, अच्छा।’
पंडितजी ने पूछा – ‘लड़के कहाँ है?’
इसके बाद लड़कों के दल ने रक्त-मुख हांफते-हांफते लौटकर खबर दी कि ‘देवा को हम लोग नहीं पकड़ सके। उफ! कैसा ताक के ढेला मारता है!’
‘पकड़ नहीं सके?’
एक और लड़के ने पहले कही हुई बात को दुहराकर कहा – ‘उफ! कैसा!’
‘थोड़ा चुप हो!’
वह दम घोटकर बगल में बैठ गया। निष्फल क्रोध से पहले पंडितजी ने पार्वती को खूब धमकाया, फिर भोलानाथ का हाथ पकड़कर कहा – ‘चल एक बार जमींदार की कचहरी में कह आवे।’
इसका तात्पर्य यह है कि जमीदार मुखोपाध्यायजी के निकट उनके पुत्र के आचरण की नालिश करेंगे।
उस समय अंदाजन तीन बजे थे। नारायण मुखोपाध्यायजी बाहर बैठकर गड़गड़े पर तमाखू पीत थे और एक नौकर हाथ मे पंखा लेकर हवा झल रहा था। छात्र के सहित असमय मे पंडितजी के आगमन से विस्मित होकर उन्होंने कहा – ‘क्या गोविंद है?’
गोविंद जाति के कायस्थ थे, सो झुककर प्रणाम किया और भूलो को दिखाकर सारी बाते सविस्तार वर्णन की। मुखोपाध्यायजी ने विरक्त होकर कहा – ‘ तब दो देवदास को हाथ से बाहर जाता हुआ देखता हूँ।’
‘क्या करूं, अब आप ही आज्ञा दें!’
‘क्या जानूं? जो लोग पकड़ने गए, उनको ढेलों से मार भगाया।’
वे दोनों आदमी कुछ क्षण तक चुप रहे। नारायण बाबू ने कहा -‘घर आने पर जो कुछ होगा, करूंगा।’
गोविंद छात्र का हाथ पकड़कर पाठशाला लौट आये तथा मुख और आँख की भाव-भंगिमा से सारी पाठशाला को धमकाकर प्रतिज्ञा की कि यद्यपि देवदास के पिता उस गाँव के जमीदार है, फिर भी वे उसको अब पाठशाला में नहीं घुसने देंगे। उस दिन की छुट्टी समय से कुछ पहले ही हो गयी। जाने के समय लड़कों में अनेकों प्रकार की आलोचनायें और प्रत्यालोचनायें होती रही।
एक ने कहा – ‘उफ! देवा कितना मजबूत है!’
दूसरे ने कहा – ‘भूलो को अच्छा छकाया!’
‘उफ! कैसा ताककर ढेला मारता था!’
एक दूसरे ने भूलो का पक्ष लेकर कहा – ‘भूलो इसका बदला लेगा, देखना!’
‘हिश्! वह अब पाठशाला मे थोड़े ही आएगा, जो कोई बदला लेगा।’
इसी छोटे दल के एक ओर पार्वती भी अपनी पुस्तक और स्लेट लेकर घर आ रही थी। पास के एक लड़के का हाथ पकड़ पूछा -‘मणि, देवदास को क्या सचमुच ही अब पाठशाला नहीं आने देंगे?’
मणि ने कहा – ‘नहीं, किसी तरह नहीं आने देगे।’ पार्वती हट गई, उसे यह बातचीत बिलकुल नहीं सुहायी।
पार्वती के पिता का नाम नीलकंठ चक्रवर्ती है। चक्रवर्ती महाशय जमीदार के पड़ोसी है, अर्थात मुखोपाध्याय जी के विशाल भवन के बगल में ही उनका छोटा-सा पुराने किते का मकान है। उनके बारह बीघे खेती-बारी है, दो चार घर जजमानी है, जमीदार के घर से भी कुछ-न-कुछ मिल जाया करता है। उनका परिवार सुखी है और दिन अच्छी तरह से कट जाता है।
पहले धर्मदास के साथ पार्वती का सामना हुआ। वह देवदास के घर का नौकर था! एक वर्ष की अवस्था से लेकर आठ वर्ष की उम्र तक वह उसके साथ है; पाठशाला पहुँचा आता है और छुट्टी के समय घर पर ले आता है, यह कार्य वह यथानियम प्रतिदिन करता है तथा आज भी इसीलिए पाठशाला गया। पार्वती को देखकर उसने कहा -‘पत्तो, तेरा देव दादा कहाँ है?’
‘भाग गये।’
धर्मदास ने बड़े आश्चर्य से कहा – ‘भाग! क्यों?’
फिर पार्वती ने भोलानाथ की दुर्दशा की कथा को नये ढंग से स्मरण कर हँसना आरंभ किया – ‘देव दादा-हि-हि-हि-एक बार ही चूने की ढेर में हि-हि-हूं-हूं-एकबागी धर्म, चित्त कर दिया..’
धर्मदास ने सब बाते न समझकर भी हँसी देखकर थोड़ा-सा हँस दिया, फिर हँसी रोककर कहा, “कहती क्यों नहीं पत्तो, क्या हुआ?’
‘देवदास ने भूलो को धक्का देकर चूने में गिरा…हि-हि-हि!’
धर्मदास इस बार सब समझ गया और अत्यंत चिंतित होकर कहा -‘पत्तो, वह इस वक्त कहाँ है, तुम जानती हो?’
‘तू जानती है, कह दे। हाय! हाय उसे भूख लगी होगी।’
‘भूख लगी होगी, पर मैं कहूंगी नहीं।’
‘क्यों नहीं कहेगी?’
‘कहने से मुझे बहुत मारेंगे। मैं खाना दे आऊंगी।’
धर्मदास ने कुछ असंतुष्ट होकर कहा – ‘तो दे आना और संझा के पहले ही घर भुलावा देकर ले आना।’
‘ले आऊंगी।’
घर पर आकर पार्वती ने देखा कि उसकी माँ और देवदास की माँ ने सारी कथा सुन ली है। उससे भी सब बाते पूछी गयी। हँसकर, गंभीर होकर उससे जो कुछ कहते बना, उसने कहा। फिर आंचल में फरूही बांधकर वह जमीदार के एक बगीचे मे घुसी। बगीचा उन लोगो के मकान के पास था और इसी में एक ओर एक बंसवाड़ी थी। वह जानती थी कि छिपकर तमाखू पीने के लिए देवदास ने इसी बंसवाड़ी के बीच एक स्थान साफ कर रखा है। भागकर छिपने के लिए यही उसका गुप्त स्थान था। भीतर जाकर पार्वती ने देखा कि बांस की झाड़ी के बीच में देवदास हाथ मे एक छोटा-सा हुक्का लेकर बैठा है और बड़ों की तरह धूम्रपान कर रहा है। मुख बड़ा गंभीर था, उससे यथेष्ट दुर्भावना का चिन्ह प्रकट हो रहा था। वह पार्वती को आयी देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ, किंतु बाहर प्रकट नहीं किया। तमाखू पीते-पीते कहा – ‘आओ।’
पार्वती पास आकर बैठ गयी। आंचल में जो बंधा हुआ था, उस पर देवदास की दृष्टि तत्क्षण पड़ी।
कुछ भी न पूछकर उसने पहले उसे खोलकर खाना आरंभ करते हुए कहा – ‘पत्तो पंडितजी ने क्या किया?’
‘बड़े चाचा से कह दिया।’
देवदास ने हुंकारी भरकर, आँख तरेरकर कहा – ‘बाबूजी से कह दिया?’
‘हाँ ।’
‘उसके बाद?’
तुमको अब आगे से पाठशाला नहीं जाने देगे।
‘मैं भी पढ़ना नहीं चाहता।’
इसी समय उसका खाद्य-द्रव्य प्रायः समाप्त हो चला। देवदास ने पार्वती के मुख की ओर देखकर कहा, ‘संदेश दो।’
‘संदेश तो नहीं लायी हूँ।’
‘पानी कहाँ पाऊंगी?’
देवदास ने विरक्त होकर कहा – ‘कुछ नहीं है, तो आयी क्यों? जाओ, पानी ले आओ।’
उसका रूखा स्वर पार्वती को अच्छा नहीं लगा। उसने कहा ‘मैं नहीं जा सकती, तुम जाकर पी आओ।’
‘मैं क्या अभी जा सकता हूँ?’
‘तब क्या यहीं रहोगे?’
‘यही पर रहूंगा, फिर कहीं चला जाऊंगा।’
पार्वती को यह सब सुनकर बड़ा दुख हुआ। देवदास का यह आपत्य वैराग्य देखकर और बातचीत सुनकर उसकी आँखों में जल भर आया – ‘कहा मैं भी चलूंगी!
‘कहाँ?’ मेरे साथ? भला यह क्या हो सकता है? पार्वती ने फिर सिर हिलाकर कहा – ‘चलूंगी’
‘नहीं, यह नहीं हो सकता। तुम पहले पानी लाओ।’
पार्वती ने फिर सिर हिलाकर कहा – ‘’चलूंगी!”
पहले पानी ले आओ।
‘मैं नहीं जाऊंगी, तुम भाग जाओगे।’
‘नहीं, भागूंगा नहीं।’
परंतु पार्वती इस बात पर विश्वास नहीं कर सकी, इसी से बैठी रही। देवदास ने फिर हुक्म दिया, ‘जाओ, कहता हूँ।’
‘मैं नहीं जा सकती।’
क्रोध से देवदास ने पार्वती का केश खींचकर धमकाया। ‘जाओ, कहता हूँ।’
पार्वती चुप रही। फिर उसने उसकी पीठ पर एक घूंसा मारकर कहा -‘नहीं जाओगी।‘
पार्वती ने रोते-रोते कहा – ‘मैं किसी तरह नहीं जा सकती।’
देवदास एक ओर चला गया। पार्वती भी रोते-रोते सीधी देवदास के पिता के सम्मुख आकर खड़ी हो गयी। मुखोपाध्यायजी पार्वती को बहुत प्यार करते थे। उन्होंने कहा – ‘पत्तो, रोती क्यों है।’
‘देवदास ने मारा है।’
‘वह कहाँ है?’
‘इसी बंसीवाड़ी मे बैठकर तमाखू पी रहे है।’
एक तो पंडितजी के आगमन से वह क्रोधित होकर बैठे थे, अब यह खबर पाकर वे एकदम आग-बबूला हो गये। कहा – ‘देवा तमाखू भी पीता है?’
‘हाँ, पीते है, बहुत दिनों से पीते है। बंसवाड़ी के बीच मे उनका हुक्का छिपाकर रखा हुआ है।’
‘इतने दिन तक मुझसे क्यों नहीं कहा?’
‘देव दादा मारने को कहते थे।’
वास्तव मे यह बात सत्य नहीं थी। कह देने से देवदास मार खाता, इसी से उसने यह बात नहीं कही थी। आज वही बात केवल क्रोध के वशीभूत होकर उसने कह दी। इस समय उसी आयु केवल आठ वर्ष की थी। क्रोध अभी अधिक था; किंतु इसी से उसकी बुद्धि-विवेचना नितांत अल्प नहीं थी। घर जाकर वह बिछौने पर लेट गई और बहुत देर तक रोने-धोने के बाद सो गयी। उस रात को उसने खाना भी नहीं खाया।
दूसरे दिन देवदास ने बड़ी मार खायी। उसे दिन भर घर मे बंद रखा गया। फिर जब उसकी माता बहुत रोने-धोने लगी, तब देवदास को छोड़ दिया गया। दूसरे दिन भोर के समय उसने भागकर पार्वती के घर की खिड़की के नीचे आकर खड़े होकर उसे बुलाया – ‘पत्तो, पत्तो!’
पार्वती ने खिड़की खोलकर कहा – ‘देव दादा!’
देवदास ने इशारे से कहा – ‘जल्दी आओ।’
दोनो के एकत्र होने पर देवदास ने कहा ‘तुमने तमाखू पीने की बात क्यों कह दी?’
‘तुमने मारा क्यों?’
‘तुम पानी लेने क्यों नहीं गयी?’
पार्वती चुप रही। देवदास ने कहा – ‘तुम बड़ी गदही हो, अब कभी मत कहना।’
पार्वती ने सिर हिलाकर कहा – ‘नहीं कहूंगी!’
‘तब चलो, बांस से बंसी काट लाये। आज बांध मे मछली पकड़नी होगी।’
बंसवाड़ी के निकट एक नोना का पेड़ था, देवदास उस पर चढ़ गया। बहुत कष्ट से बांस की एक नाली नवाकर, पार्वती को पकड़ने के लिए देकर कहा – ‘देखो, इसे छोड़ना नहीं, नहीं तो मैं गिर पडूंगा ।’
पार्वती उसे प्राणपण से पकड़े रही। देवदास उसे पकड़कर, नोना की एक डाल पर पांव रखकर बंसी काटने लगा। पार्वती ने नीचे से कहा – ‘देव दादा, पाठशाला नहीं जाओगे?’
‘नहीं।’
‘बड़े चाचा तुम्हें भेजेंगे तब?’
‘बाबू जी ने खुद ही कहा है कि अब मैं वहाँ नहीं पढ़ूंगा। पंडितजी ही मकान पर आवेगे।’
पार्वती कुछ चिंतित हो उठी। फिर कहा – ‘कल से गरमी की वजह से पाठशाला सुबह की हो गयी है, अब मैं जाऊंगी।’
देवदास ने ऊपर से आँख लाल करके कहा – ‘नहीं, यह नहीं हो सकता।’
इस समय पार्वती थोड़ा अन्यमनस्क-सी हो गई और नोना की डाल ऊपर उठ गयी, साथ-ही-साथ देवदास नोना की डाल से नीचे गिर पड़ा। डाल अधिक ऊंची नहीं थी, इससे ज्यादा चोट नहीं आयी, किंतु शरीर के अनेक स्थान छिल गए। नीचे आकर क्रुद्ध देवदास ने एक सूखी कइन लेकर पार्वती की पीठ के ऊपर, गाल के ऊपर और जहाँ-तहाँ जोर से मारकर कहा – ‘जा, दूर हो जा।’
पहले पार्वती स्वयं ही लज्जित हुई थी, पर जब छड़ी-पर-छड़ी क्रम से पड़ने लगी, तो उसने क्रोध और अभिमान से दोनो आँखें अग्नि की भांति लाल-लाल कर रोते हुए कहा – ‘मैं अभी बड़े चाचा के पास जाती हूँ।’
देवदास ने क्रोधित होकर और एक बार मारकर कहा – ‘जा, अभी जाकर कह दे, मेरा कुछ नहीं होगा।’
पार्वती चली गई। जब वह दूर चली गई, तब देवदास ने पुकारा -‘पत्तो।’ पार्वती ने सुनी-अनसुनी कर दी और भी जल्दी-जल्दी चलने लगी। देवदास ने फिर बुलाया – ‘ओ पत्तो, जरा सुन जा!’
पार्वती ने जवाब नहीं दिया। देवदास ने विरक्त होकर थोड़ा चिल्लाकर आप-ही-आप कहा- ‘जाकर मरने दो।‘
पार्वती चली गई। देवदास ने जैसे-तैसे करके दो-एक बंसी काट ली। उसका मन खराब हो गया था।
रोते-रोते पार्वती मकान पर लौट आई। उसके गाल के ऊपर छड़ी के नीले दाग की सांट उभर आई थी, पहले ही उस पर दादी की नजर पड़ी। वे चिल्ला उठी – ‘बार बे बाप! किसने ऐसा मारा है, पत्तो?’
आँख मीचते-मीचते पार्वती ने कहा – ‘पंडितजी ने।’
दादी ने उसे लेकर अत्यंत कु्रद्ध होकर कहा – ‘चल तो, एक बार नारायण के पास चले, वह कैसा पंडित है। हाय-हाय! बच्ची के एकदम मार डाला!’
पार्वती ने पितामही के गले से लिपटकर कहा – ‘चल!’
मुखोपाध्यायजी के निकट आकर पितामही ने पंडितजी के मृत पुरखा-पुरखनियो को अनेकों प्रकार से भला-बुरा कहकर तथा उनकी चौदह पीढ़ियो के नरक मे डालकर, अंत मे स्वयं गोविंद को बहुत तरह से गाली-गुफते देकर कहा – ‘नारायण, देखो तो उसकी हिम्मत को! शूद्र होकर ब्राह्मण की कन्या के शरीर पर हाथ उठाता है! कैसा मारा है, एक बार देखो! यह कहकर वृद्धा गाल के ऊपर पड़े हुए नीले दाग को अत्यंत वेदना के साथ दिखाने लगी।’
नारायण बाबू ने तब पार्वती से पूछा – ‘किसने मारा है, पत्तो?’
पार्वती चुप रही। तब दादी ने और एक बार चिल्लाकर कहा – ‘और कौन मारेगा सिवा उस गंवार पंडित के!’
‘क्यों मारा है?’
पार्वती ने इस बार भी कुछ नहीं कहा। मुखोपाध्याय महाशय ने समझा कि किसी कुसूर पर मारा है, लेकिन इस तरह मारना उचित नहीं । प्रकट में भी यही कहा। पार्वती ने पीठ खोलकर कहा – ‘यहाँ भी मारा है।’
पीठ के दाग और भी स्पष्ट तथा गहरे थे। इस पर वे दोनो ही बड़े क्रोधित हुए। ‘पंडितजी के बुलाकर कैफियत तलब की जाएगी।’ मुखोपाध्यायजी ने यही अपनी राय जाहिर की। इस प्रकार स्थिर हुआ कि ऐसे पंडित के निकट लड़के-लड़कियो को भेजना उचित नहीं।
यह निश्चित सुनकर पार्वती प्रसन्नतापूर्वक दादी की गोद मे चढ़कर घर लौट आयी। घर पहुँचे पर पार्वती माता की जिरह में पड़ी। उन्होंने बैठकर पूछा – ‘क्यों मारा है?’
पार्वती ने कहा – ‘झूठ-ही-मूठ मारा है।’
माता ने कन्या का कान खूब जोर से मलकर कहा – ‘झूठ-मूठ कोई मार सकता है?’
उसी समय दालान से सास जा रही थी, उन्होंने घर की चौखट के पास आकर कहा – ‘बहू, माँ होकर भी तुम झूठ-मूठ मार सकती हो और वह निगोड़ा नहीं मार सकता?’
बहू ने कहा – ‘झूठ-मूठ कभी नहीं मारा है। बड़ी भली लड़की है, जो कुछ नहीं किया और उन्होंने मारा!’
सास ने विरक्त होकर कहा – ‘अच्छा यही सही, पर इसे मैं पाठशाला नहीं जाने दूंगी।’
‘लिखना-पढ़ना नहीं सीखेगी?’
‘क्या होगा सीखकर बहू? एक-आध चिट्ठी-पत्री लिख लेना, रामायण-महाभारत पढ़ लेना ही काफी है। फिर तुम्हारी पत्तो को न जजी करनी है और न वकील होना है।’
अंत में बहू चुप हो गई। उस देवदास ने बहुत डरते-डरते घर मे प्रवेश किया। पार्वती ने आदि अंत तक सारी घटना अवश्य ही कह दी होगी, इसमे उसे कोई संदेह नहीं था। परंतु घर आने पर उसका लेशमात्र भी आभास न मिला, वरन माँ से सुना कि आज गोविंद पंडितजी ने पार्वती के खूब मारा है, इसी से अब वह भी पाठशाला नहीं जाएगी। इस आनंद की अधिकता से वह भली-भांति भोजन भी नहीं कर सका। किसी तरह झटपट खा-पीकर दौड़ा हुआ पार्वती के पास आया और हांफते-हांफते कहा – ‘तुम अब पाठशाला नहीं जाओगी?’
‘नहीं।’
‘कैसे?’
‘मैने कहा कि पंडितजी मारते है।
देवदास एक बार हँसा, उसकी पीठ ठोककर कहा कि उसके समान बुद्धिमती इस पृथ्वी पर दूसरी नहीं है। फिर उसने धीरे-धीरे पार्वती के गाल पर पड़े हुए नीले दाग ही सयत्न परीक्षा कर, निःश्वास फेककर कहा – ‘अहा!’
पार्वती ने थोड़ा हँसकर उसके मुख की ओर देखकर कहा – ‘क्यों?’
‘बड़ी चोट लगी न पत्तो?’
पार्वती ने सिर हिलाकर कहा – ‘हूं!’
‘तुम क्यों ऐसा करती हो? इसी से तो क्रोध आता है और इसीलिए मारता भी हूँ।’
पार्वत की आंखों में जल भर आया। मन मे आया कि पूछे कि क्या करे परंतु पूछ नहीं सकी।
देवदास ने उसके माथे पर हाथ रखकर कहा – ‘अब ऐसा कभी नहीं करना-अच्छा!’
पार्वती ने सिर हिलाकर कहा – ‘नहीं करूंगी।’
देवदास ने और बार पीठ ठोककर कहा – ‘अच्छा, तब मैं कभी तुमको नहीं मारूंगा।’
दिन पर दिन बीतता जाता था और इन दोनो बालक-बालिकाओं के आनंद की सीमा नहीं थी। सारे दिन वे इधर-उधर घूमा करते थे, संध्या के समय लौटने पर डांट-डपट के अतिरिक्त मार-पीट भी खूब पड़ती थी। फिर सुबह होते ही घर से निकल भागते थे और रात को आने पर मारपीट और घुड़की सहते थे। रात मे सुख की नींद सोते; फिर सवेरा होते ही भागकर खेल-कूद में जा लगते। इसका दूसरा कोई संगी-साथी न था, जरूरत भी नहीं थी। गाँव में उपद्रव और अत्याचार करने के लिए यही दोनो काफी थे। उस दिन आँखे लाल किए सारे तालाब को मथकर पंद्रह मछलियाँ पकड़ी और योग्यतानुसार आपस मे हिस्सा लगाकर घर लौटे। पार्वती की माता ने कन्या को मार-पीठकर घर मे बंद कर दिया। देवदास के विषय में ठीक नहीं जानता; क्योंकि वह इन सब बातों को किसी प्रकार प्रकट नहीं करता। जब पार्वती रो रही थी, उस समय दो या ढाई बजे थे। देवदास ने आकर एक बार खिड़की के नीचे से बहुत मीठे स्वर से बुलाया – ‘पत्तो, ओ पत्तो! पार्वती ने संभवतः सुना, किंतु क्रोधवश उत्तर नहीं दिया। तब उसने एक निकटवर्ती चम्पा के पेड़ पर बैठकर सारा दिन बीता दिया। संध्या के समय धर्मदास समझा-बुझाकर बड़े परिश्रम से उसे उतारकर घर पर लाया।’
यह केवल उस दिन हुआ। दूसरे दिन पार्वती भोर से ही देव दादा के लिए बेचैन हो रही थी, लेकिन देवदास नहीं आया। वह पिता के साथ पास के गाँव में निमंत्रण में गया हुआ था। देवदास जब नहीं आया, तो पार्वती उदासीन मन से घर से बाहर निकली। कल ताल में उतरने के समय देवदास ने पार्वती को तीन रुपये रखने के लिए दिये थे कि कही खो न जायें। उन तीनो रुपयो को उसने आंचल की छोर मे बांध लिया था। उसने आंचल को हिरा-फिराकर और स्वयं इधर-उधर घूमकर कई क्षण बिताए। कोई संगी-साथी नहीं मिला, क्योंकि उस समय प्रातःकाल की पाठशाला थी। पार्वती तब दूसरे गाँव में गई।
वहाँ मनोरमा का मकान था। मनोरमा पाठशाला में पढ़ती थी, उसकी उम्र कुछ बड़ी थी। परंतु वह पार्वती की सखी थी। बहुत दिनों से आपस में भेंट नहीं हुई थी। आज पार्वती ने अवकाश पा उसके घर पर जाकर पुकारा – ‘मनो घर में है?’
‘पत्तो?’
‘हाँ, मनो कहाँ है बुआ?’
‘वह पाठशाला गई है, तुम नहीं जाती?’
‘मैं पाठशाला नहीं जाती, देव दादा भी नहीं जाते।’
मनोरमा की बुआ ने हँसकर कहा – ‘तब तो अच्छा है, तुम भी पाठशाला नहीं जाती और देव दादा भी नहीं।’
‘नहीं, हम लोग कोई नहीं जाते।’
‘अच्छी बात है, पर मनो पाठशाला गई है।’
बुआ ने बैठने के लिए कहा, पर वह बैठी नहीं, लौट आयी। रास्ते मे रसिकपाल की दुकान के पास तीन वैष्णवी तिलक-मुदा लगाये, हाथ मे खंजड़ी लिये भिक्षा मांग रही थी। पार्वती ने उन्हें बुलाकर कहा – ‘ओ वैष्णवी तुम लोग गाना जानती हो?’
एक ने फिरकर देखा और कहा – ‘जानती हूँ, क्या है बेटी?’
‘तब गाओ!’ तीनो खड़ी हो गयी। एक ने कहा – ‘ऐसे कैसे गाना होगा, भिक्षा देनी होगी। चलो तुम्हारे घर पर चलकर गायेंगे।’
‘नहीं, यहीं गाओ।’
‘पैसा देना होगा!’
पार्वती ने अपना आंचल दिखाकर कहा – ‘पैसा नहीं रुपया है।’
आंचल मे बंधा रुपया देखकर वे लोग दुकान से कुछ दूर पर जाकर बैठी। फिर खंजड़ी बजाकर, गले से गला मिलाकर तीनों ने गाना गाया। क्या गाया, उसका अर्थ था, यह सब पार्वती ने कुछ भी नहीं समझा। इच्छा करने पर भी वह नहीं समझ सकती थी। लेकिन उसी क्षण उसका मन देव दादा के पास खिंच गया।
गाना समाप्त करके एक वैष्णवी ने कहा – ‘क्या अब भिक्षा दोगी, बेटी?’
पार्वती ने आंचल की गांठ खोलकर उन लोगो को ती रुपये दे दिये। तीनो आवक् होकर उसके मुख की ओर कुछ क्षण देखती रही।
एक ने कहा – ‘किसका रुपया है, बेटी?’
‘देव दादा का।’
‘वे तुम्हें मारेंगे नहीं?’
पार्वती ने थोड़ा सोचकर कहा – ‘नहीं।’
एक ने कहा – ‘जीती रहो।’
पार्वती ने हँसकर कहा – ‘तुम तीनों जने का ठीक-ठीक हिस्सा लग गया न?’
तीनो ने सिर हिलाकर कहा – ‘हाँ, मिल गया। राधारानी तुम्हारा भला करें।’ यह कहकर उन लोगो ने आंतरिक कामना की कि इस दानशीलता छोटी कन्या को कोई दंड-भोग न करना पड़े। पार्वती उस दिन जल्दी ही मकान लौटी। दूसरे दिन प्रातःकाल देवदास से उसकी भेट हुई। उसके हाथ मे एक परेता था, पर गुड्डी नहीं थी, वह खरीदनी होगी। पार्वती से कहा – ‘पत्तो रुपया दो!’
पार्वती ने सिर झुकाकर कहा – ‘रुपया नहीं है।’
‘क्या हुआ?’
‘वैष्णवी को दे दिया, उन लोगों ने गाना गया था।’
‘सब दे दिया?’
‘हाँ। सब तीन ही रुपये तो थे!’
‘दुर पगली, क्या सब दे देना था?’
‘वाह! वे लोग जो तीन जनी थी, तीन रुपये न देती तो तीनों का कैसे ठीक हिस्सा लगता?’
देवदास ने गंभीर होकर कहा – ‘मैं होता,, तो दो रुपये से ज्यादा न देता।’ यह कहकर उसने परेता की मुठिया से मिट्टी के ऊपर चिन्हाटी खींचते-खींचते कहा – ‘ऐसा होने से उनमें प्रत्येक को दस आना, तेरह गंडा एक कौड़ी का हिस्सा पड़ता।’
पार्वती ने इबारती तक सवाल सीखे है। पार्वती की इस बात से प्रसन्न होकर कहा – ‘यह ठीक है।’
पार्वती ने देवदास का हाथ पकड़कर कहा – ‘मैंने सोचा था कि तुम मुझे मारोगे देव दादा!’
देवदास ने विस्मित होकर कहा – ‘मारूंगा क्यों?’
‘वैष्णवी लोगो ने कहा था कि तुम मारोगे।’
यह बात सुनकर देवदास ने खूब प्रसन्न हो पार्वती के कंधे पर भार देकर कहा – ‘दुर! कभी अपराध करने से क्या में मारता हूँ?’
देवदास ने संभवतः मन मे सोचा था कि पार्वती का यह काम उसके पीनल कोड के अंतर्गत नहीं है, क्योंकि तीन रुपये तीन आदमियों के बीच ठीक-ठीक तकसीम कर दिये। विशेषतः जिन वैष्णवी लोगों ने पाठशाला मे इबारती सवाल नहीं पढ़ा है, उन्हें तीन रुपये के बदले दो रुपये देना उनके प्रति भारी अत्याचार करना था। फिर वह पार्वती का हाथ पकड़कर छोटे बाजार की ओर गुड्डी खरीदने के लिए चला गया। परेता को वहीँ एक झाड़ी में छिपा दिया।
इसी तरह एक वर्ष कट गया, किंतु अब और नहीं कटना चाहता। देवदास की माता ने शोर-गुल मचाया।
स्वामी को बुलाकर कहा – ‘कि देवा तो एकदम मूर्ख हरवाहा हो गया, इसका कोई बहुत जल्द उपाय करो।’
उन्होने सोचकर कहा – ‘देवा को कलकत्ता जाने दो। नगेन्द्र के घर रहकर वह खूब अच्छी तरह लिख-पढ़ सकेगा।’
नगेन्द्र बाबू संबंध मे देवदास के मामा है। यह बात सबने सुनी। पार्वती यह सुनकर बहुत चिंतित हुई। देवदास को अकेले मे पाकर उसका हाथ पकड़कर हिलाते-हिलाते पूछा – ‘देव दादा, क्या अब तुम कलकत्ता जाओगे?’
‘किसने कहा?’
‘बड़े चाचा कहते थे।’
‘नहीं, मैं किसी तरह नहीं जाऊंगा।’
‘और अगर जबरदस्ती भेजेंगे?’
‘जबरदस्ती!’
इस समय देवदास ने अपने मुख का भाव ऐसा बनाया, जिससे पार्वती अच्छी तरह समझ गई कि उससे इस पृथ्वी-भर मे कोई जबरदस्ती से काम नहीं करा सकता। यही तो वह चाहती भी थी। अस्तु, बड़े आनंद के साथ एक बार और उसका हाथ पकड़कर इधर-उधर हिलाया और उसके मुँह की ओर देखकर कहा – ‘देखो कभी मत जाना, देव दादा!’
‘कभी नहीं।’
किन्तु उसकी यह प्रतिज्ञा नहीं रही। उसके माता-पिता ने उसे डांट डपटकर और मार-पीटकर धर्मदास के साथ कलकत्ता भेज दिया। जाने के दिन देवदास के हृदय मे बड़ा दुख हुआ। नये स्थान में जाने के लिए उसे कुछ भी कौतुहल और आनंद नहीं हुआ। पार्वती उस दिन उसे किसी तरह छोड़ना नहीं चाहती थी। कितना ही रोई, परंतु इसे कौन सुनता है। पहले अभिमान मे कुछ देर तक देवदास से बातचीत नहीं की; लेकिन अंत में जब देवदास ने बुलाकर उससे कहा – ‘पत्तो, मैं जल्दी ही लौट आऊंगा; अगर न आने देंगे, तो भाग आऊंगा।’ तब पार्वती ने संभलकर अपने हृदय की अनेक आंतरिक बातें देवदास को कह सुनायी। इसके बाद घोड़ा-गाड़ी पर चढ़कर, पौर्टमॉन्टो लेकर, माता का आशीर्वाद और आँखों का जल बिंदु कपाल पर टीके की भांति लगाकर वह चला गया, उस समय पार्वती को बहुत कष्ट हुआ; आँखों से कितनी ही जल धारायें गालों पर बहकर नीचे गिरी। उसका हृदय अभिमान से फटने लगा।
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