चैप्टर 3 गोदान : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 3 Godan Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 3 Godan Novel By Munshi Premchand

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Chapter 3 Godan Novel By Munshi Premchand

 

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होरी अपने गाँव के समीप पहुँचा, तो देखा, अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ रहा है और दोनों लड़कियाँ भी उसके साथ काम कर रही हैं। लू चल रही थी, बगूले उठ रहे थे, भूतल धधक रहा था। जैसे प्रकृति ने वायु में आग घोल दिया हो। यह सब अभी तक खेत में क्यों हैं? क्या काम के पीछे सब जान देने पर तुले हुए हैं?

वह खेत की ओर चला और दूर ही से चिल्लाकर बोला – “आता क्यों नहीं गोबर, क्या काम ही करता रहेगा? दोपहर ढल गया, कुछ सूझता है कि नहीं?”

उसे देखते ही तीनों ने कुदालें उठा लीं और उसके साथ हो लिये। गोबर सांवला, लंबा, एकहरा युवक था, जिसे इस काम से रुचि न मालूम होती थी। प्रसन्नता की जगह मुख पर असंतोष और विद्रोह था। वह इसलिये काम में लगा हुआ था कि वह दिखाना चाहता था, उसे खाने-पीने की कोई फ़िक्र नहीं है।

बड़ी लड़की सोना लज्जा-शील कुमारी थी, सांवली, सुडौल, प्रसन्न और चपल। गाढ़े की लाल साड़ी जिसे वह घुटनों से मोड़ कर कमर में बांधे हुए थी, उसके हलके शरीर पर कुछ लदी हुई सी थी, और उसे प्रौढ़ता की गरिमा दे रही थी। छोटी रूपा पाँच-छः साल की छोकरी थी, मैली, सिर पर बालों का एक घोंसला-सा बना हुआ, एक लंगोटी कमर में बांधे, बहुत ही ढीठ और रोनी।

रूपा ने होरी की टांगों में लिपट कर कहा – “काका! देखो, मैने एक ढेला भी नहीं छोड़ा। बहन कहती है, जा पेड़ तले बैठ। ढेले न तोड़े जायेंगे काका, तो मिट्टी कैसे बराबर होगी।“

होरी ने उसे गोद में उठाकर प्यार करते हुए कहा – “तूने बहुत अच्छा किया बेटी, चल घर चलें।“

कुछ देर अपने विद्रोह को दबाये रहने के बाद गोबर बोला – “यह तुम रोज़-रोज़ मालिकों की ख़ुशामद करने क्यों जाते हो? बाक़ी न चुके तो प्यादा आकर गालियाँ सुनाता है, बेगार देनी ही पड़ती है, नज़र-नज़राना सब तो हमसे भराया जाता है। फिर किसी की क्यों सलामी करो!”

इस समय यही भाव होरी के मन में भी आ रहे थे; लेकिन लड़के के इस विद्रोह-भाव को दबाना ज़रूरी था। बोला – “सलामी करने न जायें, तो रहें कहाँ। भगवान् ने जब ग़ुलाम बना दिया है, तो अपना क्या बस है? यह इसी सलामी की बरकत है कि द्वार पर मड़ैया डाल ली और किसी ने कुछ नहीं कहा। घूरे ने द्वार पर खूंटा गाड़ा था, जिस पर कारिन्दों ने दो रुपए डाँड़ ले लिये थे। तलैया से कितनी मिट्टी हमने खोदी, कारिन्दा ने कुछ नहीं कहा। दूसरा खोदे तो नज़र देनी पड़े। अपने मतलब के लिए सलामी करने जाता हूँ, पाँव में सनीचर नहीं है और न सलामी करने में कोई बड़ा सुख मिलता है। घंटों खड़े रहो, तब जाके मालिक को ख़बर होती है। कभी बाहर निकलते हैं, कभी कहला देते हैं कि फ़ुरसत नहीं है।“

गोबर ने कटाक्ष किया – “बड़े आदमियों की हाँ-में-हाँ मिलाने में कुछ-न-कुछ आनंद तो मिलता ही है। नहीं लोग मेम्बरी के लिए क्यों खड़े हों?

“जब सिर पर पड़ेगी तब मालूम होगा बेटा, अभी जो चाहे कह लो। पहले मैं भी यही सब बातें सोचा करता था; पर अब मालूम हुआ कि हमारी गरदन दूसरों के पैरों के नीचे दबी हुई है अकड़ कर निबाह नहीं हो सकता।“

पिता पर अपना क्रोध उतारकर गोबर कुछ शांत हो गया और चुपचाप चलने लगा। सोना ने देखा, रूपा बाप की गोद में चढ़ी बैठी है, तो ईर्ष्या हुई। उसे डाँटकर बोली – “अब गोद से उतरकर पाँव-पाँव क्यों नहीं चलती, क्या पाँव टूट गये हैं?”

रूपा ने बाप की गरदन में हाथ डालकर ढिठाई से कहा – “न उतरेंगे जाओ। काका, बहन हमको रोज़ चिढ़ाती है कि तू रूपा है, मैं सोना हूँ। मेरा नाम कुछ और रख दो।“

होरी ने सोना को बनावटी रोष से देखकर कहा – “तू इसे क्यों चिढ़ाती है सोनिया? सोना तो देखने को है। निबाह तो रूपा से होता है। रूपा न हो, तो रुपये कहाँ से बनें, बता।“

सोना ने अपने पक्ष का समर्थन किया – “सोना न हो मोहन कैसे बने, नथुनियाँ कहाँ से आयें, कंठा कैसे बने?”

गोबर भी इस विनोदमय विवाद में शरीक हो गया। रूपा से बोला – “तू कह दे कि सोना तो सूखी पत्ती की तरह पीला है, रूपा तो उजला होता है जैसे सूरज।“

सोना बोली – “शादी-ब्याह में पीली साड़ी पहनी जाती है, उजली साड़ी कोई नहीं पहनता।“

रूपा इस दलील से परास्त हो गयी। गोबर और होरी की कोई दलील इसके सामने न ठहर सकी। उसने क्षुब्ध आँखों से होरी को देखा।
होरी को एक नयी युक्ति सूझ गयी। बोला – “सोना बड़े आदमियों के लिए है। हम ग़रीबों के लिए तो रूपा ही है। जैसे जौ को राजा कहते हैं, गेहूँ को चमार; इसलिए न कि गेहूँ बड़े आदमी खाते हैं, जौ हम लोग खाते हैं।“

सोना के पास इस सबल युक्ति का कोई जवाब न था। परास्त होकर बोली – “तुम सब जने एक ओर हो गये, नहीं रुपिया को रुलाकर छोड़ती।“

रूपा ने उंगली मटकाकर कहा – “ए राम, सोना चमार — ए राम, सोना चमार।“

इस विजय का उसे इतना आनंद हुआ कि बाप की गोद में रह न सकी। ज़मीन पर कूद पड़ी और उछल-उछलकर यही रट लगाने लगी – “रूपा राजा, सोना चमार — रूपा राजा, सोना चमार!”

ये लोग घर पहुँचे, तो धनिया द्वार पर खड़ी इनकी बाट जोह रही थी। रुष्ट होकर बोली – “आज इतनी देर क्यों की गोबर? काम के पीछे कोई परान थोड़े ही दे देता है।“

फिर पति से गर्म होकर कहा – “तुम भी वहाँ से कमाई करके लौटे, तो खेत में पहुँच गये। खेत कहीं भागा जाता था!”

द्वार पर कुआँ था। होरी और गोबर ने एक-एक कलसा पानी सिर पर उंडेला, रूपा को नहलाया और भोजन करने गये। जौ की रोटियाँ थीं; पर गेहूँ-जैसी सुफ़ेद और चिकनी। अरहर की दाल थी जिसमें कच्चे आम पड़े हुए थे। रूपा बाप की थाली में खाने बैठी। सोना ने उसे ईष्यार्-भरी आँखों से देखा, मानो कह रही थी, वाह रे दुलार!

धनिया ने पूछा – “मालिक से क्या बात-चीत हुई?”

होरी ने लोटा-भर पानी चढ़ाते हुए कहा – “यही तहसील-वसूल की बात थी और क्या। हम लोग समझते हैं, बड़े आदमी बहुत सुखी होंगे; लेकिन सच पूछो, तो वह हमसे भी ज़्यादा दुःखी हैं। हमें अपने पेट ही की चिंता है, उन्हें हज़ारों चिंतायें घेरे रहती हैं।“

राय साहब ने और क्या-क्या कहा था, वह कुछ होरी को याद न था। उस सारे कथन का ख़ुलासा-मात्र उसके स्मरण में चिपका हुआ रह गया था।

गोबर ने व्यंग्य किया – “तो फिर अपना इलाक़ा हमें क्यों नहीं दे देते! हम अपने खेत, बैल, हल, कुदाल सब उन्हें देने को तैयार हैं। करेंगे बदला? यह सब धूर्तता है, निरी मोटमरदी। जिसे दुःख होता है, वह दरजनों मोटरें नहीं रखता, महलों में नहीं रहता, हलवा-पूरी नहीं खाता और न नाच-रंग में लिप्त रहता है। मज़े से राज का सुख भोग रहे हैं, उस पर दुखी हैं!”

होरी ने झुंझला कर कहा – “अब तुमसे बहस कौन करे भाई! जैजात किसी से छोड़ी जाती है कि वही छोड़ देंगे। हमीं को खेती से क्या मिलता है? एक आने नफ़री की मजूरी भी तो नहीं पड़ती। जो दस रुपये महीने का भी नौकर है, वह भी हमसे अच्छा खाता-पहनता है, लेकिन खेतों को छोड़ा तो नहीं जाता। खेती छोड़ दें, तो और करें क्या? नौकरी कहीं मिलती है? फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है। खेती में जो मरजाद है, वह नौकरी में तो नहीं है। इसी तरह ज़मींदारों का हाल भी समझ लो! उनकी जान को भी तो सैकड़ों रोग लगे हुए हैं, हाकिमों को रसद पहुँचाओ, उनकी सलामी करो, अमलों को ख़ुश करो। तारीख़ पर मालगुज़ारी न चुका दें, तो हवालात हो जाये, कुड़की आ जाये। हमें तो कोई हवालात नहीं ले जाता। दो-चार गलियाँ-घुड़कियाँ ही तो मिलकर रह जाती हैं।“

गोबर ने प्रतिवाद किया – “यह सब कहने की बातें हैं। हम लोग दाने-दाने को मुहताज हैं, देह पर साबित कपड़े नहीं हैं, चोटी का पसीना एड़ी तक आता है, तब भी गुज़र नहीं होता। उन्हें क्या, मज़े से गद्दी-मसनद लगाये बैठे हैं, सैकड़ों नौकर-चाकर हैं, हज़ारों आदमियों पर हुकूमत है। रुपये न जमा होते हों; पर सुख तो सभी तरह का भोगते हैं। धन लेकर आदमी और क्या करता है?”

“तुम्हारी समझ में हम और वह बराबर हैं?”

“भगवान् ने तो सबको बराबर ही बनाया है।“

“यह बात नहीं है बेटा, छोटे-बड़े भजवान के घर से बनकर आते हैं। संपत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। उन्होंने पूर्वजन्म में जैसे कर्म किये हैं, उनका आनंद भोग रहे हैं। हमने कुछ नहीं संचा, तो भोगें क्या?”

‘यह सब मन को समझाने की बातें हैं। भगवान सबको बराबर बनाते हैं। यहाँ जिसके हाथ में लाठी है, वह ग़रीबों को कुचलकर बड़ा आदमी बन जाता है।’

“यह तुम्हारा भरम है। मालिक आज भी चार घंटे रोज़ भगवान का भजन करते हैं।“

“किसके बल पर यह भजन-भाव और दान-धर्म होता है?”

“अपने बल पर।“

“नहीं, किसानों के बल पर और मज़दूरों के बल पर। यह पाप का धन पचे कैसे? इसीलिए दान-धर्म करना पड़ता है, भगवान का भजन भी इसीलिए होता है, भूखे-नंगे रहकर भगवान का भजन करें, तो हम भी देखें। हमें कोई दोनों जून खाने को दे तो हम आठों पहर भगवान का जाप ही करते रहें। एक दिन खेत में ऊख गोड़ना पड़े तो सारी भिक्त भूल जाये।“

होरी ने हार कर कहा – “अब तुम्हारे मुँह कौन लगे भाई, तुम तो भगवान की लीला में भी टांग अड़ाते हो।“

तीसरे पहर गोबर कुदाल लेकर चला, तो होरी ने कहा – “ज़रा ठहर जाओ बेटा, हम भी चलते हैं। तब तक थोड़ा-सा भूसा निकालकर रख दो। मैंने भोला को देने को कहा है। बेचारा आजकल बहुत तंग है।“

गोबर ने अवज्ञा-भरी आँखों से देखकर कहा – “हमारे पास बेचने को भूसा नहीं है।“

“बेचता नहीं हूँ भाई, यों ही दे रहा हूँ। वह संकट में है, उसकी मदद तो करनी ही पड़ेगी।“

“हमें तो उन्होंने कभी एक गाय नहीं दे दी।“

“दे तो रहा था; पर हमने ली ही नहीं।“

धनिया मटक्कर बोली – “गाय नहीं वह दे रहा था। इन्हें गाय दे देगा! आँख में अंजन लगाने को कभी चिल्लू-भर दूध तो भेजा नहीं, गाय देगा!”

होरी ने क़सम खायी – “नहीं, जवानी क़सम, अपनी पछाई गाय दे रहे थे। हाथ तंग है, भूसा-चारा नहीं रख सके। अब एक गाय बेचकर भूसा लेना चाहते हैं। मैंने सोचा, संकट में पड़े आदमी की गाय क्या लूंगा। थोड़ा-सा भूसा दिये देता हूँ, कुछ रुपये हाथ आ जायेंगे, तो गाय ले लूंगा। थोड़ा-थोड़ा करके चुका दूंगा। अस्सी रुपए की है; मगर ऐसी कि आदमी देखता रहे।“

गोबर ने आड़े हाथों लिया – “तुम्हारा यही धमार्त्मापन तो तुम्हारी दुर्गत कर रहा है। साफ़-साफ़ तो बात है। अस्सी रुपये की गाय है, हमसे बीस रुपये का भूसा ले लें ओर गाय हमें दे दें। साठ रुपये रह जायँगे, वह हम धीरे-धीरे दे देंगे।“

होरी रहस्यमय ढंग से मुस्कुराया – “मैंने ऐसी चाल सोची है कि गाय सेंत-मेंत में हाथ आ जाये। कहीं भोला की सगाई ठीक करनी है, बस। दो-चार मन भूसा तो ख़ाली अपना रंग जमाने को देता हूँ।“

गोबर ने तिरस्कार किया – “तो तुम अब सब की सगाई ठीक करते फिरोगे?”

धनिया ने तीखी आँखों से देखा – “अब यही एक उद्यम तो रह गया है। नहीं देना है हमें भूसा किसी को। यहाँ भोली-भाली किसी का करज़ नहीं खाया है।“

होरी ने अपनी सफ़ाई दी – “अगर मेरे जतन से किसी का घर बस जाये, तो इसमें कौन-सी बुराई है?”

गोबर ने चिलम उठाई और आग लेने चला गया। उसे यह झमेला बिल्कुल नहीं भाता था।

धनिया ने सिर हिला कर कहा – “जो उनका घर बसायेगा, वह अस्सी रुपये की गाय लेकर चुप न होगा। एक थैली गिनवायेगा।“

होरी ने पुचारा दिया – “यह मैं जानता हूँ; लेकिन उनकी भलमनसी को भी तो देखो। मुझसे जब मिलता है, तेरा बखान ही करता है — ऐसी लक्ष्मी है, ऐसी सलीके-दार है।“

धनिया के मुख पर स्निग्धता झलक पड़ी। मनभाय मुड़िया हिलाये वाले भाव से बोली – “मैं उनके बखान की भूखी नहीं हूँ, अपना बखान धरे रहें।“

होरी ने स्नेह-भरी मुस्कान के साथ कहा – “मैंने तो कह दिया, भैया, वह नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देती, गालियों से बात करती है; लेकिन वह यही कहे जाये कि वह औरत नहीं लक्षमी है। बात यह है कि उसकी घरवाली ज़बान की बड़ी तेज़ थी। बेचारा उसके डर के मारे भागा-भागा फिरता था। कहता था, जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह सबेरे देख लेता हूँ, उस दिन कुछ-न-कुछ ज़रूर हाथ लगता है। मैंने कहा — तुम्हारे हाथ लगता होगा, यहाँ तो रोज़ देखते हैं, कभी पैसे से भेंट नहीं होती।“

“तुम्हारे भाग ही खोटे हैं, तो मैं क्या करूं।“

लगा अपनी घरवाली की बुराई करने – “भिखारी को भीख तक नहीं देती थी, झाड़ू लेकर मारने दौड़ती थी, लालचिन ऐसी थी कि नमक तक दूसरों के घर से मांग लाती थी!”

“मरने पर किसी की क्या बुराई करूं। मुझे देखकर जल उठती थी।“

“भोला बड़ा ग़मख़ोर था कि उसके साथ निबाह कर दिया। दूसरा होता, तो ज़हर खाके मर जाता। मुझसे दस साल बड़े होंगे भोला; पर राम-राम पहले ही करते हैं।“

“तो क्या कहते थे कि जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह देख लेता हूँ, तो क्या होता है?”

‘उस दिन भगवान कहीं-न-कहीं से कुछ भेज देते हैं।“

“बहुयें भी तो वैसी ही चटोरिन आयी हैं। अबकी सबों ने दो रुपये के ख़रबूज़े उधार खा डाले। उधार मिल जाये, फिर उन्हें चिंता नहीं होती कि देना पड़ेगा या नहीं।“

“और भोला रोते काहे को हैं?”

गोबर आकर बोला – “भोला दादा आ पहुँचे। मन दो मन भूसा है, वह उन्हें दे दो, फिर उनकी सगाई ढूंढने निकलो।“

धनिया ने समझाया – “आदमी द्वार पर बैठा है, उसके लिए खाट-वाट तो डाल नहीं दी, ऊपर से लगे भुनभुनाने। कुछ तो भलमंसी सीखो। कलसा ले जाओ, पानी भरकर रख दो, हाथ-मुँह धोयें, कुछ रस-पानी पिला दो। मुसीबत में ही आदमी दूसरों के सामने हाथ फैलाता है।“

होरी बोला – “रस-वस का काम नहीं है, कौन कोई पाहुने हैं।“

धनिया बिगड़ी – “पाहुने और कैसे होते हैं! रोज़-रोज़ तो तुम्हारे द्वार पर नहीं आते? इतनी दूर से धूप-घाम में आये हैं, प्यास लगी ही होगी। रुपिया, देख डब्बे में तमाखू है कि नहीं, गोबर के मारे काहे को बची होगी। दौड़कर एक पैसे का तमाखू सहुआइन की दुकान से ले ले।“

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