चैप्टर 7 देवदास : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 7 Devdas Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 7 Devdas Novel In Hindi

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Chapter 7 Devdas Novel In Hindi

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दो-तीन दिवस देवदास ने पागलों की भांति इधर-उधर घूम-घामकर बिताये। धर्मदास कुछ कहने गया, तो उस पर आँखें लाल-लाल कर धमका के भगा दिया। उनका विकृत भाव देखकर चुन्नीलाल को भी कुछ कहने का साहस न हुआ।

धर्मदास ने रोकर कहा-‘चुन्नी बाबू, देवदास ऐसे क्यों  हो गये?’

चुन्नीलाल ने कहा-‘क्या हुआ धर्मदास?’

एक अंधे ने दूसरे अंधे से रास्ता पूछा। दोनों में एक भी हृदय की नहीं जानते, आँखें पोंछते-पोंछते धर्मदास ने कहा-‘चुन्नी बाबू, जिस तरह से हो सके, देवदास को उनकी माँ के पास पहुँचवाओ; अगर अब लिखे पढ़ेंगे नहीं, तो यहाँ रहने की ज़रूरत क्या?’

बात बहुत सच है। चुन्नीलाल सोचने लगे। चार-पांच दिन बाद एक दिन संध्या के ठीक उसी समय चुन्नी बाहर रहे थे। देवदास ने कहीं से आकर उनका हाथ थामकर कहा-‘चुन्नी बाबू, वहीँ जाते हो?’

चुन्नी ने कुंठित होकर कहा-‘हाँ,नहीं कहो, तो न जाऊं।’

देवदास ने कहा-‘नहीं, मैं अपने को मना नहीं करता हूँ; पर यह कहो, किस आशा से तुम वहाँ जाते हो?’

‘आशा क्या है? यों ही जी बहलाने को।’

‘जी बहलाने? मेरा तो जी नहीं बहला। मैं भी जी बहलाना चाहता हूँ।’

चुन्नी बाबू कुछ देर तक उनके मुख की ओर देखते रहे। संभवतः उनके मुख से उनके मन के भाव को जानने की चेष्टा करते थे। फिर कहा-‘देवदास, तुम्हें क्या हुआ है, साफ-साफ कहो?’

‘कुछ भी नहीं हुआ है।’

‘नहीं कहोगे?’

चुन्नीलाल ने बहुत देर बाद नीचा सिर किये हुए कहा-‘देवदास मेरी एक बात रखोगे?’

‘क्या?’

‘वहाँ पर तुमको एक बार और चलना होगा? मैंने वचन दिया है।’

‘जहाँ उस दिन गया था?’

‘हाँ।’

‘छिः! वहाँ मुझे अच्छा नहीं लगता।’

‘जिससे अच्छा लगेगा, मैं वही करूंगा।’

देवदास अन्यमनस्क की भांति कुछ देर चुप रहे; फिर कहा-‘अच्छा चलो, मैं चलूंगा।’

अवनति की एक सीढ़ी नीचे उतरकर चुन्नीलाल न जाने कहाँ चले गये। अकेले देवदास ही चंद्रमुखी के घर के नीचे के खंड में बैठकर शराब पी रहे है। पास ही चंद्रमुखी विषण्ण-मुख से बैठी हुई देख रही है। उसने कहा-‘देवदास, अब मत पियो।’

देवदास ने शराब का ग्लास नीचे रखकर भौ चढ़ाकर कहा-‘क्यों?’

‘अभी थोड़े ही दिन से शराब नहीं पीता हूँ। यहाँ रहने के लिए शराब पीता हूँ।’

यह बात चंद्रमुखी कई बार सुन चुकी है। दो-एक बार उसने सोचा कि कही दीवार से टकराकर वे लहू की नदी बहाकर मर न जाये। देवदास को वह ह्रश्वयार करती थी। देवदास ने शराब के ग्लास को ऊपर के उछाल दिया, कौच के पांव से लगकर चह चूर-चूर हो गया। फिर तकिये के सहारे लेटकर लड़खड़ाती हुई ज़बान से कहा-‘मुझमें उठने का बल नहीं है, इसी से यहाँ पड़ा रहता हूँ, ज्ञान नहीं है, इसी से तुम्हारे मुख की ओर देखकर बात करता हूँ, चंद…र…तब अज्ञानता नहीं रहती, थोड़ा-सा ज्ञान रहता है। तुम्हें छू नहीं सकता, मुझे बड़ी घृणा होती है।’

चंद्रमुखी आँख निकालकर धीरे-धीरे कहा-‘देवदास,यहाँ कितने ही आदमी आते है, किंतु वे लोग शराब छूते तक नहीं।’

देवदास आँख निकालकर उठ बैठे। कुछ झूमते हुए इधर-उधर हाथ फेंककर कहा-‘छूते नहीं? मेरे पास बंदूक होती, तो गोली मार देता, वे लोग मुझसे भी अधिक पापिष्ठ है, चंद्रमुखी!’

कुछ देर सोचने लगे; फिर कहा-‘यदि कभी शराब का पीना छोड़ दूं-यद्यपि छोड़ूगा नहीं-तो फिर यहाँ कभी न आऊंगा। मुझे उपाय मालूम है; पर उन लोगों का क्या होगा?’

थोड़ा रूककर फिर कहने लगे-‘बड़े दुख से शराब को अपनाया है। मेरी विपद और दुख की साथिन! अब तुझे कभी नहीं छोड़ सकता।’ देवदास तकिये के ऊपर मुँह रगड़ने लगे। चंद्रमुखी ने चटपट पास आकर मुख उठा लिया। देवदास ने भौ चढ़ाकर कहा-‘छिः, छूना नहीं, अभी मुझमें ज्ञान है।

चंद्रमुखी, तुम नहीं जानती-केवल मैं जानता हूँ कि मैं तुमसे कितनी घृणा करता हूँ। सर्वदा घृणा करूंगा-तब भी आऊंगा, तब भी बैठूंगा, तब भी बातें करूंगा। इसे छोड़ दूसरा उपाय नहीं है। इसे क्या तुम लोग कोई समझ सकती हो? हा-हा! लोग पाप अंधेरे में करते है, और मैं यहाँ मतवाला हूँ-ऐसा उपयुक्त स्थान जगत में और कहाँ है? और तुम लोग….’

देवदास ने दृष्टि ठीक कर कुछ देर तक उसके विषण्ण मुख की ओर देखकर कहा-‘आहा! सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति! लांछना, भर्त्सना, अपमान, अत्याचार, उपद्रव इस सबको स्त्री सह सकती है-तुम्हीं इसका उदाहरण हो!’

फिर चित होकर गए, धीरे-धीरे कहने लगे-‘चंद्रमुखी कहती है कि वह मुझे बहुत ह्रश्वयार करती है। मैं यह नहीं चाहता-नहीं चाहता-नहीं चाहता-लोग थियेटर करते है, मुख में चूना और कालिख पोतते है, भिक्षा मांगते है – राजा बनते है – ह्रश्वयार करते है, कितनी ही ह्रश्वयार की बातें करते हैं-कितना रोते हैं-मानो सब ठीक है, सत्य है! मेरी चंद्रमुखी थियेटर करती है, मैं देखता हूँ। किंतु वह जो बहुत याद आती है, क्षण भर में सब हो गया। वह कहां चली गई-और किस रास्ते से मैं आया हूँ? अब एक सर्व जीवनव्यापी मस्त अभिनय आरंभ हुआ है, एक घोर तवाला-और यही एक-होने दो, हो-हर्ज़ क्या?

आशा नहीं, है वही भरोसा है-सुख भी नहीं, साध भी नहीं-वाह! बहुत अच्छा!’

इसके बाद देवदास करवट बदलकर न जाने क्यों बक-झक करने लगे। चंद्रमुखी उन्हें नहीं समझ सकी। थोड़ी देर में देवदास सो गये। चंद्रमुखी उनके पास आकर बैठी। आंचल भिगोकर मुख पोंछ दिया और भीगे हुए तकिये को बदल दिया। एक पंख लेकर कुछ देर हवा की, बहुत देर तक नीचा सिर किये बैठी रही। तब रात के एक बज गये थे, वह दीपक बुझा कर द्वार बंद कर दूसरे कमरे में चली गयी।

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