चैप्टर 5 देवदास शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 5 Devdas Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay
Chapter 5 Devdas Novel In Hindi
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और देवदास? उन्होंने उस दिन कलकत्ता के ईडन गार्डन की एक बेंच पर बैठे-बैठे सारी रात बिता दी। उन्हें अत्यंत क्लेश आथवा मार्मिक वेदना हुई हो, यह बात नहीं है। उनके हृदय में न जाने कैसा एक शिथिल-उदासीन भाव धीरे-धीरे जमा हो रहा था। निद्रित अवस्था में हठात् शरीर के किसी एक अंग में पक्षपात हो जाने से नींद टूटने पर जैसे उसके ऊपर ढूंढने पर भी अपना कोई अधिकार नहीं पाने से विस्मित और स्तम्भित मन को ठीक नहीं कर पाते, क्योंकि उसका आजन्म का साथी, सर्वदा का विश्वासी अंग उसके आह्वान का कोई प्रत्युत्तर नहीं देता; धीरे-धीरे समझ आती है और धीरे-धीरे ज्ञान उत्पन्न होता है कि अब उस पर अपना कोई अधिकार नहीं है। देवदास भी ठीक उसी भांति धीरे-धीरे समझ रहे थे कि समय और संसार मे अकस्मात पक्षाघात होने से वे उनसे सर्वदा के लिए विलग हो गये। अब उनके ऊपर मिथ्या, क्रोध और अभिमान करके कुछ नहीं किया जा सकता। अधिक अधिकार की बात सोचने से भी भारी भूल होगी। उस समय सूर्योदय हो रहा था। देवदास ने खड़े होकर सोचा, कहा चलूं? हठात स्मरण हुआ कि कलकत्ता के उसी मैस में, वहाँ पर चुन्नीलाल है। देवदास उसी ओर चलने लगे। रास्ते में दो बार धक्का खाया, ठोकर खाने से अंगुली लहू-लुहान हो गयी। धक्का लगने से एक आदमी के शरीर पर गिर रहे थे, उसने मतवाला कहकर ढकेल दिया। इसी भांति भटकते-भटकते संध्या के समय मैस के दरवाजे पर आकर खड़े हुए। उस समय चुन्नीलाल सज-धजकर बाहर जा रहे थे- ‘यह क्या, देवदास?’
देवदास चुपचाप देखते रहे। ‘कब आये? मुँह सूखा हुआ हुआ है। नहाना खाना क्या अब तक कुछ नहीं हुआ?’ देवदास रास्ते में ही बैठ गये। चुन्नीलाल हाथ पकड़कर भीतर ले गये। अपनी शैया पर बैठकर शांत करके पूछा- ‘क्या मामला है देवदास?’
‘कल मकान से आया हूँ?’
‘कल सारे दिन कहाँ थे? रात भी कहाँ थे?’
‘ईडन गार्डन में।’
‘पागल तो नहीं हो! क्या हुआ है।’
‘सुनकर क्या करोगो?’
‘नहीं कहो, अभी खाओ-पियो। तुम्हारा सामान कहाँ है?’
‘कुछ भी साथ नहीं लाया हूँ।’
‘अच्छा रहने दो, अभी चलकर खाओ-पियो।’
तब चुन्नीलाल ने जोर देकर खिलाया-पिलाया; शैया पर सोने का आदेश देकर दरवाजा बंद करते-करते कहा – ‘अभी थोड़ी सोने की चेष्टा करो, मैं रात को आकर तुम्हें उठाऊंगा।’ यह कहकर वे उस समय तक के लिए चले गये। रात को दस बजे उन्होंने लौटकर देखा कि देवदास उनके बिछौने पर गाढ़ी नींद में सो रहे है। उन्हेंजगाया नहीं। एक कंबल ओढ़कर नीचे चटाई पर सो रहे। रात-भर देवदास की नीद नहीं टूटी और प्रातः काल में भी सोते ही रहे। दस बजे उठकर बैठे। पूछा- ‘चुन्नी बाबू, कब आये?’
‘अभी आया हूँ।’
‘तुम्हे किसी तरह का कष्ट तो नहीं हुआ?’
‘कुछ भी नहीं हुआ।’
देवदास ने कुछ देर तक उनके मुँह की ओर देखकर कहा- ‘चुन्नीलाल बाबू, मेरे पास कुछ नहीं है, क्या तुम मुझे आश्रय दोगे?’
चुन्नीलाल कुछ हँसे। वे जानते थे कि देवदास के पिता बड़े धनवान व्यक्ति है। इसी से हँसकर कहा‘मैं आश्रय दूंगा? अच्छी बात है, तुम्हारी जितने दिन इच्छा हो, यहाँ पर रहो, कोई चिन्ता नहीं।’
‘चुन्नीबाबू, तुम्हारी आमदनी कितनी है?’
‘भाई, मेरी आमदनी मामूली है। मकान पर कुछ जमीदारी है। उसे भाई साहब को सौंपकर मैं यहाँ रहता हूँ। वे हर महीने सत्तर रुपये के हिसाब से भेज देते हैं। इतने में तुम्हारा और मेरा खर्च अच्छी तरह से चल जायेगा।’
‘तुम मकान क्यों नहीं जाते?’
चुन्नीलाल ने उधर मुँह फिराकर कहा- ‘बहुत सी बातें हैं।’
देवदास ने और कुछ नहीं पूछा। धीरे-धीरे भोजन आदि की बुलाहट आई। इसके बाद दोनों भोजनादि समाप्त करके फिर घर में आकर बैठे। चुन्नीलाल ने पूछा- ‘देवदास क्या बाप के साथ कुछ झगड़ा हो गया है।’
‘नहीं।’
‘और किसी के साथ?’
देवदास ने उसी भांति जवाब दिया- ‘नहीं।’
इसके बाद चुन्नीलाल को सहसा दूसरी बात का स्मरण आया। कहा- ‘ओहो, तुम्हारा तो अभी ब्याह नहीं हुआ है!’
इसी समय देवदास दूसरी ओर मुँह फेरकर सो रहे। थोड़ी ही देर मे चुन्नीलाल ने देखा कि देवदास सो गये। इसी भांति सोते-सोते और भी दो दिन बीत गये। तीसरे दिन प्रातः काल देवदास स्वस्थ होकर बैठे थे। मुख से ऐसा जान पड़ता था मानो वह घनी छाया बहुत कुछ हट गई हो। चुन्नीलाल ने पूछा- ‘आज तबीयत कैसी है?’
‘पहले से अच्छी जान पड़ती है। अच्छा चुन्नी बाबू, रात में तुम कहाँ जाते हो?’
आज चुन्नीलाल ने लज्जित होकर कहा- ‘हाँ, मैं जाता हूँ, पर उसकी कौन बात है?’ अच्छा, आज कॉलेज जाओगे न?’
‘नहीं, लिखना-पढ़ना छोड़ दिया।’
‘छिः! ऐसा भी हो सकता है, दो महीने बाद तुम्हारी परीक्षा होगी! पढ़ना भी तुम्हारा ख्वाब नहीं है।
इस साल परीक्षा दो न!’
‘नहीं, पढ़ना छोड़ दिया।’
चुन्नीलाल चुप ही रहे। देवदास ने फिर पूछा- ‘कहाँ”
चुन्नीलाल ने देवदास के मुँह की ओर देखकर कहा- ‘उसे जानकर क्या करोगे, मैं कुछ अच्छी जगह नहीं जाता।’
देवदास ने अपने मन-ही-मन मे कहा- ‘अच्छी हो या बुरी इससे क्या मतलब- ‘चुन्नी बाबू, मुझे साथ ले चलोगे या नहीं।’
‘ले चल सकता हूँ, किन्तु मत चलो।’
‘नहीं, मैं चलूंगा। अगर अच्छा नही लगेगा, तो मैं फिर नहीं जाऊंगा। पर तुम जिस सुख की आशा से नित्य उन्मुख रहते हो…। जो हो चुन्नीबाबू, मैं निश्चित चलूंगा।’
चुन्नीलाल ने मुँह फेर, कुछ हँस के मन-ही-मन कहा- ‘मेरी दशा! प्रकट में कहा- ‘अच्छा, चलना।’
सन्ध्या के कुछ पहले ही धर्मदास चीज-वस्तु आ पहुँचा। देवदास को देखकर रोते-रोते कहा‘देवदास आज तीन-चार दिन हुए,माँ कितना रो रही है।’
‘क्यों रोती है?’
‘बिना किसी से कहे-सुने एकाएक चले आये।’ एक पत्र बाहर निकालकर हाथ में देकर कहा- ‘माँ की चिट्ठी है।’
चुन्नीलाल भीतर-ही-भीतर खबर जानने के लिए उत्सुक भाव से देख रहे थे। देवदास ने पत्र पढ़कर रख दिया। माँ ने घर पर आने के लिए बड़े अनुरोध के साथ बुलाया है। घर मे ही वे केवल देवदास के मानसिक कष्ट का कुछ-कुछ अनुमान कर सकी थी। धर्मदास के हाथ छिपाकर बहुत सा रूपया भी भेज दिया था। धर्मदास ने वह सब देवदास के हाथ मे देकर कहा- ‘देवदास, घर चलो।’
‘मैं नहीं जाऊंगा। तुम लौट जाओ!’
रात में दोनो मित्र सज-धज के बाहर निकले। देवदास की इन सबकी ओर प्रवृत्ति नहीं थी; किंतु चुन्नीलाल साधारण पोषाक पहनकर बाहर चलने को राजी नहीं हुए। रात के नौ के समय एक किराये की गाड़ी चितपुर के एक दो तल्ले मकान के सामने आकर खड़ी हुई। चुन्नीलाल देवदास का हाथ पकड़े हुए भीतर चले गये। गृहस्वामी का नाम चन्द्रस्वामी है- उन्होंने आकर अभ्यर्थना की। इस समय देवदास का सारा शरीर जल उठा। वे इधर कई दिनो से अपनी अज्ञानता में नारी-देह की छाया के ऊपर भी विद्वेष करने लगे थे, यह सब वह स्वयं नहीं जानते थे। चन्द्रमुखी को देखते ही हृदय की संचित घृणा दावानल की भांति प्रज्ज्वलित हो उठी। चुन्नीलाल के मुख की ओर देखकर भौ चढ़ाकर कहा- ‘चुन्नीलाल, यह किस मनहूस जगह में ले आये?’ उनके तीव्र कंठ और आँख की दृष्टि देखकर चन्द्रमुखी और चुन्नीलाल दोनो ही हत्बुद्धि से हो गये। दूसरे ही क्षण चुन्नीलाल ने अपने को संभालकर देवदास का एक हाथ पकड़कर कोमल कंठ से कहा- ‘चलिये, भीतर चलकर बैठिये।’
देवदास कुछ नहीं बोले, कमरे में जाकर बिछौने पर गर्दन झुका के विपन्न-मुख बैठ गये। पास ही चन्द्रमुखी भी चपचाप बैठ गई। दासी तमाखू भरकर चांदी से मढ़ा हुआ नारियल लाई। देवदास ने स्पर्श भी नहीं किया। चुन्नीलाल गंभीर-मुख बैठे रहे। दासी क्या करे, यह निश्चय न कर कर सकी। अंत में चन्द्रमुखी के हाथ में नारियल देकर चली गई। दो-एक फूंक खींचने के समय देवदास ने उसके मुख की ओर देखा और एकाएक अत्यंत घृणा से कह उठे-‘कितने असभ्य और श्रीहीना है?’
इसके पहले चन्द्रमुखी को बातचीत में कोई हरा नहीं सका था। उसको अप्रतिभ करना जरा टेढ़ी खीर थी। देवदास की इस आंतरिक घृणा की सरल और कठिन उक्ति उसके हृदय में बिंध गई। किंतु कुछ देर बाद ही उसने अपने को संयत कर लिया। परंतु चन्द्रमुखी के मुख से धुंआ नहीं निकला। तब चुन्नीलाल के हाथ मे हुक्का देकर उसने फिर एक बार देवदास के मुख की ओर देखा और फिर निःशब्द बैठी रही।
तीनो ही निर्विकार हो रहे थे। केवल बीच-बीच मे गड़-गड़ करके हुक्के का शब्द होता था, वह भी मानो डरते-डरते। मित्र मंडली मे तर्क उठने पर एकाएक निरर्थक कलह हो जाने से जैसे प्रत्येक अपने मन-ही-मन फूले रहते और क्षुब्ध अंतकरण से कहते है कि- ‘यही तो!’ ,उसी भांति तीनों आदमी मन-ही-मन कह रहे थे- ‘यही तो, यह कैसा हुआ?’
जो हो, तीनों में से किसी को भी आनंद नैन मिला। चुन्नीलाल तो हुक्का रखकर नीचे उतर आये, शायद उन्हें कोई दूसरा काम नहीं मिला। इसलिए कमरे मे अब केवल दो आदमी रह गये। देवदास ने मुख उठाकर पूछा- ‘तुम अपनी दर्शनी लेती हो?’
चन्द्रमुखी ने सहसा कोई उत्तर नहीं दिया। इस समय उसकी उम्र छब्बीस वर्ष की थी। इन नौ-दस वर्ष के बीच मे उसका कितने ही विभिन्न प्रकृति के मनुष्योंके साथ घनिष्ठ परिचय हो चुका था, किन्तु इस प्रकार के अद्भुत मनुष्य से एक दिन भी भेंट नहीं हुई थी। कुछ इधर-उधर करके उसने कहा‘आपके पांव की धूल जब पड़ी है…!’
देवदस ने बात समाप्त नहीं’ होने दी, बीच में ही कह उठे- ‘पांव की धूल की बात नहीं रूपया लेती हो?’
‘उसके न लेने से हम लोगो का काम कैसे चलेगा?’
‘बस- यही सुनना चाहता हूँ।’ यह कहकर उन्होंने पॉकेट से एक नोट निकाला और चन्द्रमुखी के हाथ में देकर चलने की तैयारी की। एक बार देखा भी नहीं कि कितना रूपया दिया?
चन्द्रमुखी ने विनीत भाव से कहा- ‘इतनी जल्दी जायेंगे?’
देवदास ने कुछ नहीं कहा, बरामदे में आकर चुपचाप खड़े हो गये।
चन्द्रमुखी की एक बार इच्छा हुई कि रुपया लौटा दे, किन्तु किसी तीव्र संकोच के कारण लौटा न सकी। संभवतः उसे कुछ डर भी मालूम हुआ था। इसे छोड़ उसे अनेको लांछना, भर्त्सना और अपमान सहने का अभ्यास है, इसीलिए निर्वाक्, निस्पन्द चौखट के ऊपर खड़ी रही। देवदास सीढ़ी से नीचे उतर गये।
सीढ़ी पर ही चुन्नीलाल से भेंट हुई। उन्होंने आश्चर्य से पूछा- ‘कहाँ जाते हो?’
‘बासे को जाता हूँ।’
‘यह क्यों?’
देवदास और दो-तीन सीढ़ी उतर गये।
चुन्नीलाल ने कहा- ‘मैं भी चलता हूँ।’
देवदास के पास आकर उनका हाथ पकड़कर कहा- ‘चलो, थोड़ा यही पर खड़े रहो, मैं ऊपर से होकर अभी आता हूँ।’
‘नहीं, मैं जाता हूँ, तुम फिर आना।’ – यह कहकर देवदास चले गये।
चुन्नीलाल ने ऊपर आकर देखा, चन्द्रमुखी तब भी उसी भांति चौखट पर खड़ी है।
उसे देखकर पूछा- ‘वह चले गये?’
‘हाँ।’
चन्द्रमुखी ने हाथ का नोट दिखाकर कहा- ‘यह देखो, अच्छा होगा इसे ले जाओ, अपने मित्र को लौटा दो।’
चुन्नीलाल ने कहा- ‘वे अपनी इच्छा से दे गये है, फिर मैं क्यों लौटा ले जाऊं?’
इतनी देर बाद चन्द्रमुखी थोड़ा हँसी, किंतु हँसी में आनंद का लेश नहीं था। उसने कहा- ‘इच्छा से नहीं; मैं रूपया लेती हूँ, इसी से क्रोध करके दे गये है। हाँ चुन्नी बाबू, वह क्या पागल है?’
‘कुछ भी नहीं। आज कई दिन से शायद उनका मन ठीक नहीं है।’
‘क्यों नहीं मन ठीक है, कुछ जानते हो?’
‘मैं नहीं जानता, शायद मकान पर कुछ हुआ है।’
‘तब यहाँ पर क्यों लाये?’
‘मैं नहीं लाता था, वे खुद ही जोर देकर आये थे।’
चन्द्रमुखी इस बार यथार्थ में विस्मित हुई। कहा- ‘खुद जोर देकर आये! सब जानकर!’
चुन्नीलाल ने कुछ सोचकर कहा- ‘और नहं तो क्या? वे सभी जानते है। मैं भुलवाकर नहीं लाया।’
चन्द्रमुखी कुछ देर तक चुप रही, फिर न जाने क्या सोचकर कहा-‘चुन्नी, मेरा एक उपकार करोगे?’
‘क्या?’
‘तुम्हारे मित्र कहाँ रहते है?’
‘मेरे ही साथ।’
‘एक दिन उन्हें और ला सकते हो?’
‘यह मैं नहीं कर सकता। इसके पहले वे किसी ऐसी जगह पर नहीं गये थे और भविष्य में भी अब किसी ऐसी जगह पर जाने की उम्मीद नहीं है। किन्तु क्यों, यह तो बताओ?’
चन्द्रमुखी ने एक मलिन हँसी हँसकर कहा- ‘चुन्नी, चाहे जैसे हो, एक बार उन्हें और लिवा लाओ।’
चुन्नी ने मुस्करा तथा आँख मारकर कहा- ‘धमकी पाने से कही प्रेम उत्पन्न हुआ है क्या?’
चन्द्रमुखी भी मुस्करायी, कहा- ‘नहीं देखा, नोट दे गये है, इतना भी नहीं समझते!’
चुन्नी चन्द्रमुखी को कुछ पहचानते थे, सिर हिलाकर कहा- ‘नहीं-नहीं नोट वाली दूसरी होती है, तुम वैसी नहीं हो। सच बात कहो, क्या है?’
चन्द्रमुखी ने कहा- ‘सच बात तो यह है कि उनकी ओर कुछ मन का खिंचाव हो रहा है।’
चुन्नी ने विश्वास नहीं किया। हँसकर कहा- ‘इतनी देर में?’
इस बार चन्द्रमुखी भी हँस पड़ी। कहा- ‘यह होने दो। चित्त स्वस्थ होने पर एक बार और लिवा लाना, फिर एक बार देखूंगी। लिवा लाओगे न?’
‘कह नहीं सकता।’
‘मेरे सिर की सौगंध है।’
‘अच्छा, कोशिश करूंगा।’
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