चैप्टर 6 देवदास : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 6 Devdas Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 6 Devdas Novel In Hindi

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पार्वती ने आकर देखा, उसके स्वामी की बहुत बड़ी हवेली है। नये साहिबी फैशन की नहीं, पुराने ढंग की है। सदर-महल,अंदर-महल, पूजा का दालान, नाट्‌य-मंदिर, अतिथिशाला, कचहरी घर, तोशाखाना और अनेक दास-दासियों को देखकर पार्वती आवाक्‌ रह गयी। उसने सुना था कि उसके स्वामी बड़े आदमी और जमीदार है। किंतु इतना नहीं सोचा था। अभाव केवल आदमियों का था, अर्थात्‌ आत्मीय कुटुम्ब-कुटुम्बिनी प्रायः कोई नहीं है। इतना बड़ा अंत:पुर जन-शून्य था। पार्वती नववधू है, किन्तु एकदम गृहिणी हो बैठी। परछन करके घर में लाने के लिए केवल एक बूढ़ी फूफी थी, उन्हें छोड़ सब दास-दासियों का दल था।

संध्या के कुछ पहले एक सुंदर सुकान्तिवान बीस वर्षीय नव युवक ने प्रणाम करके पार्वती के निकट खड़े होकर कहा – ‘माँ,मैं बड़ा लड़का हूँ।’

पार्वती ने घूंघट के भीतर से ही देखा, कुछ कहा नहीं। उसने फिर एक बार प्रणाम करके कहा- ‘माँ,मैं आपका बड़ा लड़का हूँ, प्रणाम करता हूँ।’

पार्वती ने लंबे घूंघट को सिर पर उठा, मृदु कंठ से कहा- ‘यहाँ आओ भाई, यहाँ आओ।’

लड़के का नाम महेन्द्र है। वह कुछ देरी तक पार्वती के मुख की ओर अवाक्‌ होकर देखता रहा; फिर पास में बैठकर विनीत स्वर में कहा- ‘आज दो वर्ष हुए, मेरी माँ का स्वर्गवास हो गया। इन दो वर्षों का समय हम लोगो का बड़े दुख और कष्ट से बीता है। आज तुम आयी हो, आर्शीवाद दो कि अब हम लोग सुख से रहे।’

पार्वती खुलकर सरल भाव से बातचीत करने लगी। क्योंकि एकबारगी गृहिणी होने से कितनी ही बातों को जानने ओर कितनी ही बार लोगो से बातचीत करने की जरूरत पड़ती है। किंतु यह कहना कितने ही लोगो को कुछ अस्वाभाविक जंचेगा, पर जिन्होंने पार्वती के स्वभाव को अच्छी तरह से समझा है, वे देखेगे कि अवस्था के इन अनेक परिवर्तनों ने उनकी उम्र की अपेक्षा उसे कहीं अधिक परिपक्व बना दिया है। इसके अतिरिक्त निरर्थक लोक-लज्जा, अकारण जड़ता, संकोच उसमे कभी नहीं था। उसने पूछा- ‘हमारे और सब लड़के कहाँ हैं?’

महेन्द्र ने जरा हँसकर कहा- ‘तुम्हारी बड़ी लड़की- मेरी छोटी बहिन- अपनी ससुराल में है, मैंने उसके पास चिट्‌ठी लिखी थी, पर यशोदा किसी कारणवश नहीं आ सकी।’

पार्वती ने दुखित होकर पूछा- ‘आ नहीं सकी या स्वयं इच्छा से नहीं आयी?’

महेन्द्र ने लज्जित होकर कहा- ‘ठीक नहीं जानता, माँ!’

किन्तु उसकी बात बात और मुख के भाव से पार्वती समझ गयी कि यशोदा क्रोध के कारण नहीं आयी है; कहा- ‘और हमारा छोटा लड़का?’

महेन्द्र ने कहा- ‘वह बहुत जल्दी आयेगा, कलकत्ता मे परीक्षा देकर आयेगा।’

चौधरी महाशय स्वयं ही जमीदारी का काम देखते थे। इसे छोड़ वे नित्य शालिग्राम की बटिया की अपने हाथ से पूजा करते थे; अतिथिशाला मे जाकर साधु संन्यासियों की सेवा करते थे। इन सब कामों में उनका सुबह से लेकर रात के दस-ग्यारह बजे तक का समय लग जाता था। नवीन विवाह के करने से किसी नवीन आमोद-प्रमोद के चिन्ह उनमें नहीं दिखायी पड़ते थे। रात में किसी दिन भीतर आते और किसी दिन नहीं आ सकते थे। आते भी तो बहुत मामूली बातचीत होती थी। चारपाई पर सोकर एक गावतकिया लगाकर आँख मूंदते-मूंदते यदि बहुत कहते तो केवल यही कि ‘देखो, तुम्हीं घर की मालकिन हो, सब अच्छी तरह से देख-सुन के और समझ-बूझ के काम करना।’

पार्वती सिर हिलाकर कहती- ‘अच्छा!’

भुवन बाबू कहते-‘और देखो, ये लड़की-लड़के…हाँ, ये सब तो तुम्हारे ही है।’

स्वामी की लज्जा को देखकर पार्वती की आँख के कोने से हँसी फूट निकलती थी। वे भी थोड़ा हँसकर कहते-‘हाँ, और देखो, यह महेद्र तुम्हारा बड़ा लड़का है। अभी उस दिन बी.ए. पास हुआ है।

इसके समान अच्छा लड़का-इसके समान मोहब्बती-अहा इस…!’

पार्वती हँसी दबाकर कहती-‘मैं जानती हूँ, यह मेरा बड़ा लड़का है।’

यह तुम क्यों जानोगी। ऐसा लड़का कहीं भी नहीं देखने में आया। और मेरी यशोमती लड़की नहीं, एकदम लक्ष्मी की प्रतिमा है। वह अवश्य आयेगी-क्या बूढ़े बाप को देखने नहीं आयेगी? उसके आने से….!’

पार्वती निकट आकर गंजे सिर पर अपने कमलवत कोमल हाथ को रखकर मृदु स्वर से कहती‘तुम को इसकी चिंता नहीं करनी होगी। यशोदा को बुलाने के लिए मैं आदमी भेजूंगी, नहीं तो महेंद्र खुद ही जायेगा।’

‘जायेगा! जायेगा! अच्छा, बहुत दिन बिना देखे हुए। तुम आदमी भेजोगी?’

‘जरूर भेजूंगी। मेरी लड़की है मैं बुलवाऊंगी नहीं?’

वृद्ध इस समय उत्साहित हो उठ बैठते। परस्पर के संबंध को भूलकर पार्वती के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते और कहते-‘तुम्हारा कल्याण हो! मैं आशीर्वाद देता हूँ, तुम सुखी हो, भगवान तुम्हे दीर्घायु करे!’

इसके बाद सहसा न जाने कौन-कौन सी बातें वृद्ध के मन में उठने लगती थी। फिर चारपाई पर आँखें मूंदकर मन-ही-मन कहते-आह! वह मुझे बहुत ह्रश्वयार करती थी।

इसी समय कच्ची मूंछों के पास से बहकर एक बूंद आँख का आँसू तकिये पर गिर पड़ता। पार्वती पोंछ देती थी। कभी-कभी वे भीतर-ही-भीतर कहते-‘अहा! उन सभी लोगो के आ जाने से एक बार फिर घर-द्वार जगमगा उठेगा…अहा! उन सभी लोगो के आ जाने से एक बार फिर घर द्वार जगमगा उठेगा…अहा! पहले कैसी चहल-पहल रहती थी। लड़का-लड़की, घर मे सब कोई थे, नित्य दुर्गोत्सव का आनंद रहता। फिर एक दिन सबका अंत हो गया। लड़के कलकत्ता चले गये, यशो को उसके ससुर ले गये, फिर अंधकार, श्मशान….।’

इसी समय फिर मूँछो के दोनों ओर से आँसू बह-बहकर तकिये को भिगोने लगे। पार्वती कातर होकर आँसू पोंछते- पोंछते कहने लगी-‘महेंद्र का क्यों नहीं विवाह किया?’

बूढ़े कहते-‘अहा, वह मेरे कैसे सुख का दिन होता! यही तो सोचता था। किंतु उसके मन की बात कौन जाने? उसकी जिद को कौन तोड़े? किसी तरह से ब्याह नहीं किया। इसीलिए तो बुढ़ापे में…सारा घर भांय-भांय करता था, सारा घर दुखित था, लक्ष्मी को छोड़ दरिद्र का वास होने लगा था; कोई घर में चिराग जलाने वाला नहीं रहा। यह सब देखा नहीं जाता था इसीलिए तो…।’

यह बात सुन पार्वती बड़ी दुखी होती। करूण-स्वर से, हँसी के साथ सिर हिलाकर कहती-‘तुम्हारे बूढ़े होने से मैं शीघ्र ही बूढ़ी हो जाऊंगी। स्त्रियों को बूढ़ी होने में क्या देरी लगती है?’

भुवन चौधरीजी उठकर बैठते; एक हाथ उसके चिबुक पर रखकर निःशब्द उसके मुख की ओर बहुत देर तक देखते रहते। जिस तरह कारीगर अपनी प्रतिमा को सजाकर, सिर में मुकुट पहनाकर, दाहिने-बाएं घुमाकर बहुत देर तक देखता रहता है-फिर थोड़ा गर्व और अधिक स्नेह का भाव उत्पन्न होता है। ठीक उसी भांति भुवन बाबू को भी होता है। किसी दिन उनके अस्फुट मुख से बाहर निकल पड़ता-‘आहा! अच्छा नहीं किया।’

‘क्या अच्छा नहीं किया?’

‘सोचता हूँ, यहाँ पर तुम्हारी शोभा नहीं है।’

पार्वती हँसकर कहती-‘खूब शोभा है। हम लोगों कि क्या वृद्ध फिर लेटकर मन-ही-मन कहते-मैं समझता हूँ, वह मैं समझता हूँ। तब तुम्हारा भला हो। भगवान तुम्हें देखेंगे।

इसी भांति एक महीना बीत गया। बीच में एक बार चक्रवर्ती महाशय कन्या को लेने आये थे। पार्वती अपनी इच्छा से नहीं गयी। पिता से कहा-‘बाबूजी, बड़ी कच्ची गृहस्थी है, कुछ दिन बाद जाऊंगी।’

वे भीतर-ही-भीतर हँसे और मन-ही-मन कहा स्त्रियों की जाति ही ऐसी है। वे चले गये, पार्वती ने महेंद्र को बुलाकर कहा-‘भाई, एक बार मेरी बड़ी लड़की को बुला लाओ।’

महेंद्र इधर-उधर करने लगा। वह जानता था कि यशोदा किसी तरह नहीं आयेगी। कहा-‘एक बार बाबूजी का जाना अच्छा होगा।’

‘छिः यह क्या अच्छा होगा? इससे तो अच्छा है कि हमीं माँ-बेटे चलकर बुला लावे।’

महेंद्र ने आश्चर्य से कहा-‘क्या तुम जाओगी?’

‘क्या नुकसान है? मुझको इसमे लज्जा नहीं है। मेरे जाने से अगर यशोदा आवे, अगर उसका क्रोध दूर हो जाये, तो मेरा जाना कौन कठिन है?’

अस्तु, महेंद्र दूसरे ही दिन यशोदा को लाने गया। उसने वहाँ जाकर कौन-सा कौशल किया, यह मैं नहीं जानता, किंतु चार ही दिन बाद यशोदा आ गयी। उस दिन पार्वती सारी देह मे विचित्र, नये और बहुत मूल्यवान गहने पहने थी। कुछ ही दिन हुए इन्हें भुवन बाबू ने कलकत्ता से मंगवा लिया था।

पार्वती आज वही सब गहने पहने हुए थी। रास्ते में आते समय यशोदा बहुतेरी क्रोध और अभिमान की बातों को मन-ही-मन दुहरा रही थी। नयी बहू को देखकर वह एकदम अवाक्‌ हो गयी। कोई भी विद्वेष की बात उसके मन में नहीं रही। केवल अस्फुट स्वर से कहा-‘यही!’

पार्वती यशोदा का हाथ पकड़ कर घर ले गयी। पास में बैठकर एक पंखा हाथ मे लेकर कहा‘यशोदा, माँके ऊपर इतना क्रोध करना होता है?’

यशोदा का मुख लज्जा से लाल हो उठा। पार्वती तब सारे गहने एक-एक करके यशोदा के अंग में पहनाने लगी। यशोदा ने विस्मित होकर पूछा-‘यह क्या?’

‘कुछ नहीं, सिर्फ माँ की साथ।’

गहना पहनने से यशोदा का शरीर खिल उठा और पहन चुकने पर उसके अधर पर हँसी की रेखा दिखाई दी। सारे शरीर में आभूषण पहनाकर निराभरण पार्वती ने कहा-‘यशोदा, माँ के ऊपर भला क्रोध करना चाहिए?’

‘नहीं,नहीं क्रोध कैसा? क्रोध किस पर?’

‘सुनो यशोदा, यह तुम्हारे बाप का घर है; इतने बड़े मकान में कितने ही दास-दासियो की जरूरत है।

मैं भी तो एक दासी हूँ। छिः बेटी, तुच्छ दासी के ऊपर इतना क्रोध करना क्या तुम्हें शोभा देता है?’

यशोदा अवस्था में बड़ी है, किंतु बातचीत करने में छोटी है। वह विह्वल हो गयी। पंखा हांकते हांकते पार्वती ने फिर कहा-‘दुखी की लड़की को तुम लोगो की दया से यहाँ पर थोड़ा-सा स्थान मिला है;मैं तो भी उन्हीं में से एक हूँ। आश्रित….।’

यशोदा सब तल्लीन होकर सुनती रही। अब एकाएक आत्म-विस्मरण कर पांव के पास धप्‌ से गिरकर प्रणाम करके कहा-‘तुम्हारे पांच लगती हूँ माँ।’

दूसरे दिन महेंद्र को अकेले में बुलाकर कहा-‘क्यों, क्रोध कम हुआ?’

यशोदा ने भाई के पांच पर हाथ रखकर चटपट कहा-‘भैया, क्रोध के वश, छिः-छिः, कितनी ही बातें कही है, देखो वे सब प्रकट न होने पावे।’

महेंद्र हँसने लगा। यशोदा ने कहा-‘अच्छा भैया, क्या कोई सौतेली माँइतना आदर-भाव करती रख सकती है?’

दो दिन बाद यशोदा ने पिता से आकर आप ही कहा-‘बाबूजी, वहाँ पर चिट्ठी लिख दो कि मैं अभी और दो महीने यहीं पर रहूंगी।’

भुवन बाबू ने कुछ आश्चर्य से कहा-‘क्यों बेटी?’

यशोदा ने कहा-‘मेरी तबीयत कुछ अच्छी नहीं है, इसी से कुछ दिन छोटी माँ के पास रहूंगी।’

आनंद से वृद्ध की आँखों मे आँसू उमड़ आये। संध्या को पार्वती को बुलाकर कहा-‘तुमने मुझे लज्जा से मुक्त कर दिया। जीती रहो, सुखी रहो!’

पार्वती ने कहा-‘वह क्या?’

‘वह क्या, यह तुम्हें नहीं समझा सकूंगा। नारायण ने आज कितनी ही लज्जा से मेरा उद्धार कर दिया।’

संध्या के अंधेरे में पार्वती ने नहीं देखा कि उसके स्वामी की दोनों आँखें जल से डबडबा आयी है। और विनोद लाल-भुवन बाबू का छोटा लड़का, वह परीक्षा देकर घर आया, अभी तक पढ़ने ही न गया।

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