चैप्टर 10 देवदास : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 10 Devdas Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 10 Devdas Novel In Hindi

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Chapter 10 Devdas Novel In Hindi

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दो वर्ष हुए, पार्वती महेंद्र का विवाह करके निश्चिन्त हुई है। जलदबाला बुद्धिमती और कार्य-पटु है।

अब पार्वती के बदले गृहस्थी का बहुत-कुछ काम-काज वही करती है। पार्वती ने अब अपना मन दूसरी ओर लगाया है। आज पांच वर्ष हुए, उसका विवाह हुआ था; किन्तु अभी तक उसके कोई संतान नहीं हुई। अपने लड़की-लड़के के न रहने के कारण वह दूसरों के लड़की-लड़कों को बहुत ह्रश्वयार करती है।

गरीब-गुरबे की बात को छोड़िये जिनके पास कुछ रुपये पैसे भी है, उनके पुत्र-पुत्रियों का भी अधिकांश भार वही वहन करती है। इसके अतिरिक्त ठाकुरबाड़ी के काम-काज, साधु-सन्यासियो की सेवा, लंगड़े-लूलो की शुश्रूषा में अपना सारा दिन बिता देती थी। इसका व्यसन स्वामी को लगाकर पार्वती ने एक और अतिथिशाला भी निर्माण किया है। उससे निराश्रय और असहाय लोग अपनी इच्छा के अनुकूल रह सकते है। जमीदार के घर से उन लोगों को खाना-पीना मिलता है। और एक काम पार्वती बहुत छिपाकर करती है, स्वामी को भी नहीं जानने देती। वह ऊँचे घराने के दरिद्र लोगो को गुप्त रूप से रुपये-पैसे से सहायता देती है। यही उसका निजी खर्च है। स्वामी के पास से प्रति मास जो कुछ उसको मिलता है, सब इसी में खर्च कर देती है। किन्तु चाहे जिस तरह से जो कुछ व्यय होता था, वह सदर कचहरी के नायब और गुमाश्ता से नहीं छिपा रहता था। वे लोग आपस मे इस विषय पर बक-बक, झक-झक किया करते थे। दासियाँ लुक-छिपकर सुन आती है कि गृहस्थी का व्यय आजकल पहले की अपेक्षा दूना हो गया है; तहवील खाली पड़ गई, कुछ भी बचने नहीं पाता। गृहस्थी के बेजा खर्च बढ़ने से दास-दासियो को मर्मन्तक पीड़ा होती है। वे लोग ये सब बाते जलदबाला को सुना आती है। एक दिन रात में उसने स्वामी से कहा-‘तुम क्या इस घर के कोई नहीं हो?’

महेन्द्र ने कहा-‘क्यों, क्या बात है?’

स्त्री ने कहा-‘दास-दासियाँ जानती हैं और तुम नहीं जानते? ससुर को तो नई माँ प्राणों से बढ़कर है, वे तो कुछ कहेगे ही नहीं, परन्तु तुम्हें तो कहना उचित है!’

महेन्द्र ने बात नहीं समझी, परन्तु उत्सुक हो पूछा-‘किसकी बात कहती हो?’

जलदबाला गंभीर भाव से स्वामी को मंत्रणा देने लगी-‘नयी माँ के कोई लड़की-लड़का तो है ही नहीं, फिर उन्हे गृहस्थी से क्यों प्रेम होने लगा, देखते ही नहीं हो, सब उड़ाये डालती है?’

जलदबाला ने भू-कुंचित करके कहा-‘क्यों कैसे?’

जलदबाला ने कहा-‘तुम्हारे आँखें होती तो देखते! आजकल गृहस्थी का खर्च दूना हो गया, सदाव्रत, दान-खैरात, अतिथि-फकीर आदि के ऊपर अंधाधुंध व्यय चढ़ रहा है। अच्छा, वे तो अपना परलोक सुधार रही हैं, किन्तु तुम्हारे लड़की-लड़के है? तब वे लोग क्या खायेंगे? अपनी पूंजी बिकवाकर अंत में भीख मांगोगे क्या?’

महेन्द्र ने शैया पर बैठकर कहा-‘तुम किसकी बात कहती हो, माँ की?’

जलदबाला ने कहा-‘मेरा भाग्य जल गया, जो ये सब बातें तुमसे मुझे कहनी पड़ती है।’

महेन्द्र ने कहा-‘इसीलिए तुम माँ के नाम नालिश करने आई हो?’

जलदबाला ने क्रोध से कहा-‘मुझे नालिश-मुकदमे से काम नहीं, केवल भीतर की बातें जता दी, नहीं तो मुझी को दोष देते।’

महेन्द्र बहुत देर तक चुपचाप बैठे रहे, फिर कहा-‘तुम्हारे बाप के घर तो रोज हांडी भी नहीं चढ़ती, तुम जमीदार के घर के काम को क्या जानोगी?’

इस बार जलदबाला ने भी क्रोध करके कहा-‘तुम्हारे माँ-बाप के घर कितनी अतिथि-शालायें है, जरा मैं सुनूं तो?’

महेन्द्र ने तर्क-वितर्क नहीं किया, चुपचाप सो गये। सुबह उठकर पार्वत के पास आकर कहा-‘कैसा विवाह किया माँ, इसको साथ लेकर गृहस्थी चलाना कठिन है। मैं कलकत्ता जाऊंगा।’

पार्वती ने अवाक्‌ होकर कहा-‘क्यों?’

‘तुम लोगो को कड़ी बातें कहती है, इसलिए मैंने उसका त्याग किया।’

पार्वती कुछ दिन से बड़ी बहू के आचरण देखती आती है, किन्तु उसने उस बात को छिपा के हँसकर कहा-छिः! वह तो बहुत अच्छी लड़की है, ऐसा न कहो!’ इसके बाद जलदबाला ने एकांत में बुलाकर पूछा-‘बहू! झगड़ा हुआ है क्या?’

सुबह से स्वामी के कलकत्ता जाने की तैयारी देख जलदबाला मन-ही-मन डरती थी, सास की बात सुनकर रोते-रोते कहा-‘मेरा दोष नहीं है माँ! किन्तु यही दासी सब खरच-वरच की बातें करती है।’

पार्वती ने तब सभी बातें सुनी और आप ही लज्जित होकर बहू की आँखें पोछकर कहा-‘बहू, तुम ठीक कहती हो। किन्तु मैं वैसी गृहस्थिन नहीं हूँ, इसीलिए खर्च की ओर ध्यान नहीं रहा।’

फिर महेन्द्र को बुलाकर कहा-‘महेन्द्र, बिना किसी अपराध के क्रोध नहीं करना चाहिए। तुम स्वामी हो, तुम्हारी मंगल-कामना के सामने स्त्री के लिए सब-कुछ तुच्छ है। बहू लक्ष्मी है।’ किन्तु उसी दिन से पार्वती ने हाथ मोड़ लिया। अनाथ, अंधे, फकीर आदि कितने ही लोग लौटने लगे। मालिक ने यह सुन पार्वती को बुलाकर कहा-‘क्या लक्ष्मी का भंडार खाली हो गया?’

पार्वती ने साहस के साथ उत्तर दिया-‘केवल देने से ही नहीं चलता, कुछ दिन जमा भी करना चाहिए। देखते नहीं, खर्च कितना बढ़ गया है?’

‘इससे क्या मतलब, मुझे कै दिन रहना है, पुण्य-कर्म करके परलोक तो बनाना ही चाहिए?’

पार्वती ने हँसकर कहा-‘यह तो बिल्कुल स्वार्थ की बात है। अपना ही देखोगे और लड़की-लड़कों को क्या बहा दोगे? कुछ दिन तक चुप रहो फिर सब उसी तरह चलेगा। मनुष्य के काम का कभी अंत नहीं होता।’

अस्तु, चौधरी जी चुप हो रहे।

पार्वती को कोई काम नहीं रहा, इसी से चिंता कुछ बढ़ गयी। किन्तु सारी चिंता रहती है, जिसकी आशा नहीं रहती, उसकी दूसरे प्रकार की चिंता रहती है। पूर्वोक्त चिंता में सजीवता है, सुख है, तृप्ति है, दुख है और उत्कंठा है। इसी से मनुष्य श्रान्त हो जाते है-अधिक काल तक चिंता नहीं करते। किन्तु नैराश्य में सुख नहीं है, दुख नहीं, उत्कंठा नहीं है, केवल तृप्ति है। नेत्र से जल झरता है, गंभीरता भी रहती है, किन्तु नित्य नवीन मर्म-वेदना नहीं होती। हल्के बादल के समान इधर-उधर मंडराती है। जब तक हवा नहीं लगती, तब तक स्थिरता रहती है और ज्यों ही हवा लगती है, गायब हो जाती है। तन्मय मन उद्वेगहीन चिंता में एक सार्थक लाभ करता है। पार्वती की भी आजकल ठीक यही दशा है। पूजा-पाठ करने के समय अस्थिर, उद्देश्यहीन और हताश-सी रहती है; मन चटपट तालसोनापुर के बंसीवाड़ी, आम के बगीचे, पाठशाला, घर, बांध के तीर आदि स्थानो में घूम आती है। इसके बाद वह किसी ऐसे स्थान में जा छिपती है कि पार्वती स्वयं अपने आपको ढूंढकर बाहर नहीं निकाल सकती।

पहले होंठ पर कुछ हँसी की रेखा दिखाई पड़ती है, फिर तत्काल ही आँख से एक बूंद आँसू टपककर पंचपात्र के जल से मिल जाता है। तब भी दिन कटता ही है। काम-काज में, मधुर-मधुर बातचीत में, परोपकार और सेवा शुश्रुषा में दिन कटता था और अब उसे छोड़ ध्यानमग्ना योगिनी की भांति भी कटता है। कोई लक्ष्मी-स्वरूपा अन्नपूर्णा कहता था और कोई अन्यमनस्का, उन्मादिनी कहता था। किन्तु कल सुबह से कुछ और ही परिवर्तन देखा जाता है। वह कुछ तीव्र और कठोर हो गयी है। ज्वार की गंगा में हठात्‌ भाटा का आरंभ हुआ। घर में कोई इसका कारण नहीं जानता, केवल हम लोग जानते हैं।

मनोरमा ने गाँव से एक चिट्ठी लिखी है। वह निम्न भांति है –

‘पार्वती, बहुत दिन हुए, हम दोनों में से किसी ने किसी को चिट्ठी नहीं लिखी; अतएव दोनों ही का दोष है। मेरी इच्छा है कि इसे मिटा दिया जाये। हम दोनों को दोष स्वीकार कर अभिमान कम करना चाहिए। किन्तु मैं बड़ी हूँ, इसीलिए मैं ही मान की भिक्षा मांगती हूँ। आशा है, शीघ्र उत्तर दोगी। आज प्रायः एक महीना हुआ, मैं यहाँ आयी हूँ। हम लोग गृहस्थ-घर की लड़कियाँ है, शारीरिक दुख-सुख पर उतना ध्यान नहीं देती। मरने पर कहती है गंगा-लाभ हुआ और जीते रहने पर कहती है कि अच्छी है।

मैं भी उसी प्रकार अच्छी हूँ। किन्तु यह तो हुई अपनी बात; अब रही दूसरों की बात। यद्यपि कुछ ऐसे काम की बात नहीं है, फिर भी एक संवाद सुनाने की बड़ी इच्छा होती है। कल से ही सोच रही हूँ कि तुम्हे सुनाऊं कि नहीं। सुनाने से तुम्हें क्लेश होगा और सुनाये बिना मैं रह नहीं सकती-ठीक मारीच की दशा हुई है। देवदास की दशा को सुनकर तुम्हें तो क्लेश ही होगा, पर मैं भी तुम्हारी बातों को स्मरण कर पाने से नहीं बच सकती। भगवान ने बड़ी रक्षा की, नहीं तो तुम सरीखी अभिमानिनी उनके हाथ मे पड़कर, इतने दिन के भीतर या तो गंगा में डूब मरती या विष खा लेती! उनकी बात यदि आज सुनोगी, तब भी सुनना है और चार दिन बाद भी सुनना है; उसे दबाने-छिपाने से लाभ ही क्या?

आज प्रायः छः-सात दिन हुए, वह यहाँ पर आये है। तुम तो जानती हो कि द्विज की माँ काशीवास करती है और देवदास कलकत्ता में रहते है, घर पर केवल भाई के साथ कलह करने और रुपया लेने आते है। सुनती हूँ कि ऐसे ही वह बीच-बीच में आया करते है। जितने दिन रुपया इकट्ठा नहीं होता, उतने दिन रहते है; रुपया पाने पर चले जाते है।

उनके पिता को मरे आज ढाई बरस हुए। सुनकर आश्चर्य होता है कि इसी थोड़े समय में ही अपनी आधी संपत्ति फूंक दी, देवदास अपने हिसाब-किताब से रहते है, इसी से किसी भांति अपने पिता की संपत्ति को अपने ही पास बचा के रखा, नहीं तो आज दूसरे लोग लूट खाते। शराब और वेश्या के पीछे सारा धन स्वाहा हो रहा है, कौन उसकी रक्षा कर सकता है? एक हम कर सकते है और उसमें भी देरी नहीं है। बड़ी रक्षा हुई जो तुम्हारा उनसे विवाह नहीं हुआ।

हाय-हाय! दुख भी होता है। वह सोने-जैसा वर्ण नहीं, वह रूप नहीं, वह श्री नहीं, मानो वह देवदास नहीं, कोई दूसरे ही है। रूखे सिर के बाल हवा मे उड़ा करते है। आँखें भीतर घुस गयी है और नाक खड़ग्‌ की भांति बाहर निकली हुई है। कितना कुत्सित रूप हो गया है, यह तुमसे कहाँ तक कहूं?

देखने से घृणा होती है, डर मालूम होता है। सारे दिन नदी के किनारे-किनारे और बांध के ऊपर हाथ में बंदूक लिये चिड़िया मारा करते है। धूप मे सिर चक्कर आने से वह बांध के ऊपर उसी बेर के पेड़ के साये में नीचा सिर किये बैठे रहते है। संध्या होने के बाद घर पर जाकर शराब पीते है, रात मे सोते है या घूमते है, यह भगवान जाने!

उस दिन संध्या के समय मैं नदी से जल लेने गयी थी। देखा, देवदास का मुँह सूखा हुआ है, बंदूक हाथ में लिये इधर-उधर घूम रहे है। मुझे पहचानकर, पास आकर खड़े हुए, मैं डर से मर गयी।

घाट पर कोई नहीं था, मैं उस दिन अपने आपे में नहीं थी। ईश्वर ने रक्षा की कि उन्होंने किसी किस्म की बुरी छेड़खानी नहीं की, केवल सज्जनोचित शांत भाव से कहा-‘मनो, अच्छी तरह तो हो?’

मैं और क्या करती, डरते-डरते सिर नीचा किये हुए कह-‘हाँ।’

तब उन्होंने एक दीर्घ निःश्वास फेंककर कहा-‘सुखी रहो बहिन, तुम्हें देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई।’

फिर धीरे-धीरे चले गये। मैं गिरते-पड़ते वहाँ से बड़े जोर से भागी। बाप रे! भाग्य से उन्होंने हाथ आदि कुछ नहीं पकड़ा। रहने दो इन बातों को-इस सब दुर्वृत्ति की बातों के लिखने की जगह चिट्ठी में नहीं है।

बड़ा कष्ट दिया, क्यों बहिन? आज भी यदि उन्हें नहीं भूली होगी, तो अवश्य ही कष्ट होगा, किन्तु लाचारी है। और यदि असावधानतावश कोई अपराध हुआ हो, तो अपने सहज गुण से इस स्नेहाकांक्षिणी-मनो बहिन को क्षमा करना।’

कल चिट्ठी आयी है। आज उसने महेन्द्र को बुलाकर कहा-‘दो पालकी और बत्तीस कहारों को बुला दो, मैं अभी तालसोनापुर जाऊंगी।’

महेन्द्र ने आश्चर्य से पूछा-‘पालकी और कहार तो मैं बुलाये देता हूँ; किन्तु दो क्यों माँ?’

पार्वती ने कहा-‘तुम साथ चलोगे। रास्ते मे अगर मर जाऊंगी, तो मुँह मे आग देने के लिए बड़े लड़के की ज़रूरत पड़ेगी।’

महेन्द्र ने और कुछ नहीं कहा। पालकी आने पर दोनों आदमियों ने प्रस्थान किया।

चौधरी जी यह सुनकर व्यग्र हो उठे, दास-दासियों से पूछा, किन्तु कोई ठीक कारण नहीं बता सका।

तब उन्होंने अपनी बुद्धि से पाँच दरबान, दास-दासियाँ भेज दी।

एक सिपाही ने पूछा-‘रास्ते में भेंट होने पर पालकी लौटा लावे कि नहीं?’

उन्होंने कुछ सोचकर कहा-‘नहीं, लौटा लाने का कोई काम नहीं है। तुम लोग साथ जाना, जिससे कोई तकलीफ न हो।’

उसी दिन संध्या के बाद दोनो पालकियाँ तालसोनापुर पहुँची। किन्तु देवदास गाँव में नहीं थे, उसी दिन दोपहर में कलकत्ता चले गये थे।

पार्वती ने सिर पीटकर कहा-‘दुर्भाग्य!’ और फिर मनोरमा के साथ भेंट की।

मनोरमा ने पूछा-‘क्या देवदास को देखने आयी थी?’

पार्वती ने कहा-‘नहीं, साथ ले जाने के लिए आयी थी। उनका यहाँ पर अपना कोई नहीं है।’

मनोरमा अवाक्‌ हो रही, कहा-‘क्या कहती हो? ज़रा भी लज्जा नहीं करती?’

‘लज्जा, और फिर किससे? अपनी चीज अपने साथ ले जाऊंगी! इसमें लज्जा क्या है?’

‘छिः-छिः! क्या कहती हो? जिससे ज़रा भी संपर्क नहीं-ऐसी बात मुँह पर न लाओ।’

पार्वती ने मलिन हँसी हँसकर कहा-‘मनो बहिन, ज्ञान होने के बाद से जो बात मेरे हृदय में बस रही है, जब-तब वही मुख से बाहर निकल जाती है, तुम बहिन हो, इसी से इन बातों को सुन लेती हो।’

दूसरे दिन पार्वती माता-पिता के चरणों में प्रणाम करके फिर पालकी पर सवार होकर चली गयी।

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