Chapter 2 Devdas Novel In Hindi
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एक दिन बैसाख के दोपहर में, जबकि चिलचिलाती हुई कड़ी धूप पड़ रही थी और गर्मी की सीमा नहीं थी, ठीक उसी समय मुखोपाध्याय का देवदास पाठशाला के एक कमरे के कोने मे स्लेट लिये हुए पांव फैलाकर बैठा था। सहसा वह अंगड़ाई लेता हुआ अत्यंत चिंताकुल हो उठा और पल-भर मे यह स्थिर किया कि ऐसे सुहावने समय में मैदान में गुल्ली उड़ाने के बदले पाठशाला मे कैद रहना अत्यंत दुखदायी है। उर्वर मस्तिष्क से एक पाय भी निकल आया। वह स्लेट हाथ मे लेकर उठ खड़ा हुआ।
पाठशाला मे अभी जलपान की छुट्टी हुई थी। लड़को का दल तरह-तरह का खेल-कूद और शोरगुल करता हुआ पास के पीपल के पेड़ के नीचे गुल्ली-डंडा खेलने लगा। देवदास ने एक बार उस ओर देखा।
जलपान की छुट्टी उसे नहीं मिलती थी; क्योकि गोविंद पंडित ने कई बार यह देखा है कि एक बार पाठशाला के बाहर जाने पर फिर लौट आना देवदास बिलकुल पसंद नहीं करता था। उसके पिता की भी आज्ञा नहीं थी। अनेक कारणों से यही निश्चय हुआ था कि इस समय से वह छात्र-सरदार भूलो की देख-भाल में रहेगा।
एक कमरे मे पंडितजी दोपहर की थकावट दूर करने के लिए आँख मूंदकर सोये थे। और छात्र सरदार भूलो एक कोने मे हाथ पांव फैलाकर एक बेंच पर बैठा था और बीच-बीच में कड़ी उपेक्षा के साथ कभी लड़को के खेल को और कभी देवदास और पार्वती को देखता जाता था। पार्वती को पंडितजी के आश्रय और निरीक्षण में आये अभी कुल एक महीना हुआ है। पंडितजी ने संभवतः इसी थोड़े समय में उसका खूब जी बहलाया था, इसी से एकाग्र मन से धैर्यपूर्वक सोये हुए पंडितजी का चित्र ‘बोधोदय’ के अंतिम पृष्ठ पर स्याही से खींच रही थी और दक्ष चित्रकार की भांति विविध भाव से देखती थी कि उसके बड़े यत्न का वह चित्र आदर्श से कहाँ तक मिलता है। अधिक मिलता हो, ऐसी बात नहीं थी, पर पार्वती को इसी से यथेष्ट आनंद और आत्मा-संतुष्टि मिलती थी।
इसी समय देवदास स्लेट हाथ में लेकर उठ खड़ा हुआ और भूलो को लक्ष्य करके कहा – ‘सवाल हल नहीं होता।’
भूलो ने शांत और गंभीर मुख से कहा – ‘कौन सा सवाल?’
‘इबारती…!’
‘स्लेट तो देखूं।’
उसके सब काम स्लेट हाथ मे लेने मात्र से हो जाते थे। देवदास उसके हाथ में स्लेट देकर पास में खड़ा हुआ। भूलो यह कहकर लिखने लगा कि एक मन तेल का दाम अगर चौदह रुपये, नौ आने,
तीन पाई होता है तो…?
इसी समय एक घटना घटी। हाथ-पांव से हीन बेंच के ऊपर छात्र-सरदार अपनी पद-मर्यादा के उपयुक्त आसन चुनकर यथानियम आज तीन वर्ष से बैठता आता है। उसके पीछे एक चूने का ढेर लगा हुआ था। इसे किसी समय पंडितजी ने सस्ती दर से खरीदकर रखा था। सोचा था कि दिन लौटने पर इससे एक पक्का मकान बनवायेंगे। कब वह दिन लौटेगा, यह मैं नहीं जानता, परंतु उसे सफेद चूने को वे बड़े यत्न और सावधानी के साथ रखते थे। संसार से अनभिज्ञ, अपरिणामदर्शी कोई दरिद्र बालक इसका एक क्षण भी नष्ट नहीं करने पाता था। इसीलिए प्रिय-पात्र और अपेक्षाकृत व्यस्त भोलानाथ को इस सयत्न वस्तु की सावधानी-पूर्वक रक्षा करने का भार मिला था, और इसी से वह बेंच पर बैठकर उसे देखा करता था।
भोलानाथ लिखता था, एक मन तेल का दाम अगर चौदह रुपये, नौ आने, तीन पाई है तो…? ‘अरे बाप रे बाप’ इसके बाद बड़ा शोर-गुल मचा। पार्वती जोर से ठहाका मारकर ताली बजाकर जमीन पर लोट गई। सोये हुए गोविंद पंडित अपनी लाल-लाल आँखें मीचते हुए घबराकर उठ खड़े हुए; देखा कि पेड़ के नीचे लड़कों का दल कतार बांधकर एक साथ ‘हो-हो’ शब्द करता हुआ दौड़ा चला जा रहा है और इसी समय दिखाई पड़ा कि टूटे बेंच के ऊपर एक जोड़ा पांव नाच रहा है; और चूने में ज्वालामुखी का विस्फोट-सा हो रहा है।
चिल्लाकर पूछा – ‘क्या है? क्या है? क्या है रे?’ उत्तर देने के लिए केवल पार्वती थी। पर वह उस समय जमीन पर लेटी हुई ताली बजा रही थी। पंडितजी का विफल प्रश्न क्रोध मे परिवर्तित हो गया – ‘क्या है? क्या है? क्या है रे?’ इसके बाद श्वेत मूर्ति भोलानाथ चूना ठेलकर खड़ा हुआ। पंडितजी ने और चिल्लाकर कहा – ‘शैतान का बच्चा, तू ही है, तू ही उसके भीतर है?’
‘आं..आं…आं!’
‘फिर?’
‘देवा साले ने ठेलकर….आं….आं….इबारती….’
‘फिर हरामजादा?’
परंतु क्षण-भर मे सारा व्यापार समझकर चटाई पर बैठकर पूछा – ‘देवा तुझे धक्के से गिराकर भागा है?’
भूलो अब और रोने लगा – ‘आं…आं…आं…’ इसके बाद कुछ क्षण चूने की झाड़, पोंछ हुई, किंतु श्वेत और श्याम के मिल जाने के कारण छात्र-सरदार भूत की भांति मालूम पड़ने लगा और तब भी उसका रोना बंद नहीं हुआ।
पंडितजी ने कहा – ‘देवा धक्के से गिराकर चला गया, अच्छा।’
पंडितजी ने पूछा – ‘लड़के कहाँ है?’
इसके बाद लड़कों के दल ने रक्त-मुख हांफते-हांफते लौटकर खबर दी कि ‘देवा को हम लोग नहीं पकड़ सके। उफ! कैसा ताक के ढेला मारता है!’
‘पकड़ नहीं सके?’
एक और लड़के ने पहले कही हुई बात को दुहराकर कहा – ‘उफ! कैसा!’
‘थोड़ा चुप हो!’
वह दम घोटकर बगल में बैठ गया। निष्फल क्रोध से पहले पंडितजी ने पार्वती को खूब धमकाया, फिर भोलानाथ का हाथ पकड़कर कहा -‘चल एक बार जमींदार की कचहरी में कह आवे।’
इसका तात्पर्य यह है कि जमीदार मुखोपाध्यायजी के निकट उनके पुत्र के आचरण की नालिश करेंगे।
उस समय अंदाजन तीन बजे थे। नारायण मुखोपाध्यायजी बाहर बैठकर गड़गड़े पर तमाखू पीत थे और एक नौकर हाथ मे पंखा लेकर हवा झल रहा था। छात्र के सहित असमय मे पंडितजी के आगमन से विस्मित होकर उन्होने कहा – ‘क्या गोविंद है?’
गोविंद जाति के कायस्थ थे, सो झुककर प्रणाम किया और भूलो को दिखाकर सारी बाते सविस्तार वर्णन की। मुखोपाध्यायजी ने विरक्त होकर कहा – ‘ तब दो देवदास को हाथ से बाहर जाता हुआ देखता
हूँ।’
‘क्या करूं, अब आप ही आज्ञा दें!’
‘क्या जानूं? जो लोग पकड़ने गए, उनको ढेलों से मार भगाया।’
वे दोनो आदमी कुछ क्षण तक चुप रहे। नारायण बाबू ने कहा -‘घर आने पर जो कुछ होगा, करूंगा।’
गोविंद छात्र का हाथ पकड़कर पाठशाला लौट आये तथा मुख और आँख की भाव-भंगिमा से सारी पाठशाला को धमकाकर प्रतिज्ञा की कि यद्यपि देवदास के पिता उस गाँव के जमीदार है, फिर भी वे उसको अब पाठशाला में नहीं घुसने देंगे। उस दिन की छुट्टी समय से कुछ पहले ही हो गयी। जाने के समय लड़कों में अनेकों प्रकार की आलोचनायें और प्रत्यालोचनायें होती रही।
एक ने कहा – ‘उफ! देवा कितना मजबूत है!’
दूसरे ने कहा – ‘भूलो को अच्छा छकाया!’
‘उफ! कैसा ताककर ढेला मारता था!’
एक दूसरे ने भूलो का पक्ष लेकर कहा – ‘भूलो इसका बदला लेगा, देखना!’
‘हिश्! वह अब पाठशाला मे थोड़े ही आएगा, जो कोई बदला लेगा।’
इसी छोटे दल के एक ओर पार्वती भी अपनी पुस्तक और स्लेट लेकर घर आ रही थी। पास के एक लड़के का हाथ पकड़ पूछा -‘मणि, देवदास को क्या सचमुच ही अब पाठशाला नहीं आने देंगे?’
मणि ने कहा – ‘नहीं, किसी तरह नहीं आने देगे।’ पार्वती हट गई, उसे यह बातचीत बिलकुल नहीं सुहायी। पार्वती के पिता का नाम नीलकंठ चक्रवर्ती है। चक्रवर्ती महाशय जमीदार के पड़ोसी है, अर्थात
मुखोपाध्याय जी के विशाल भवन के बगल में ही उनका छोटा-सा पुराने किते का मकान है। उनके बारह बीघे खेती-बारी है, दो चार घर जजमानी है, जमीदार के घर से भी कुछ-न-कुछ मिल जाया करता है। उनका परिवार सुखी है और दिन अच्छी तरह से कट जाता है।
पहले धर्मदास के साथ पार्वती का सामना हुआ। वह देवदास के घर का नौकर था! एक वर्ष की अवस्था से लेकर आठ वर्ष की उम्र तक वह उसके साथ है; पाठशाला पहुँचा आता है और छुट्टी के समय घर पर ले आता है, यह कार्य वह यथानियम प्रतिदिन करता है तथा आज भी इसीलिए पाठशाला गया। पार्वती को देखकर उसने कहा -‘पत्तो, तेरा देव दादा कहाँ है?’
‘भाग गये।’
धर्मदास ने बड़े आश्चर्य से कहा – ‘भाग! क्यों?’
फिर पार्वती ने भोलानाथ की दुर्दशा की कथा को नये ढंग से स्मरण कर हँसना आरंभ किया – ‘देव दादा-हि-हि-हि-एक बार ही चूने की ढेर मे हि-हि-हूं-हूं-एकबागी धर्म, चित्त कर दिया..’
धर्मदास ने सब बाते न समझकर भी हँसी देखकर थोड़ा-सा हँस दिया, फिर हँसी रोककर कहा, “कहती क्यों नहीं पत्तो, क्या हुआ?’
‘देवदास ने भूलो को धक्का देकर चूने में गिरा…हि-हि-हि!’
धर्मदास इस बार सब समझ गया और अत्यंत चिंतित होकर कहा -‘पत्तो, वह इस वक्त कहाँ है, तुम जानती हो?’
‘तू जानती है, कह दे। हाय! हाय उसे भूख लगी होगी।’
‘भूख लगी होगी, पर मैं कहूंगी नहीं ।’
‘क्यों नहीं कहेगी?’
‘कहने से मुझे बहुत मारेगे। मैं खाना दे आऊंगी।’
धर्मदास ने कुछ असंतुष्ट होकर कहा – ‘तो दे आना और संझा के पहले ही घर भुलावा देकर ले आना।’
‘ले आंऊंगी।’
घर पर आकर पार्वती ने देखा कि उसकी माँ और देवदास की माँ ने सारी कथा सुन ली है। उससे भी सब बाते पूछी गयी। हँसकर, गंभीर होकर उससे जो कुछ कहते बना, उसने कहा। फिर आंचल में फरूही बांधकर वह जमीदार के एक बगीचे मे घुसी। बगीचा उन लोगो के मकान के पास था और इसी मे एक ओर एक बंसवाड़ी थी। वह जानती थी कि छिपकर तमाखू पीने के लिए देवदास ने इसी बंसवाड़ी के बीच एक स्थान साफ कर रखा है। भागकर छिपने के लिए यही उसका गुप्त स्थान था। भीतर जाकर पार्वती ने देखा कि बांस की झाड़ी के बीच में देवदास हाथ मे एक छोटा-सा हुक्का लेकर बैठा है और बड़ो की तरह धूम्रपान कर रहा है। मुख बड़ा गंभीर था, उससे यथेष्ट दुर्भावना का चिन्ह प्रकट हो रहा था। वह पार्वती को आयी देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ, किंतु बाहर प्रकट नहीं किया। तमाखू पीते-पीते कहा ‘आओ।’
पार्वती पास आकर बैठ गयी। आंचल में जो बंधा हुआ था, उस पर देवदास की दृष्टि तत्क्षण पड़ी।
कुछ भी न पूछकर उसने पहले उसे खोलकर खाना आरंभ करते हुए कहा – ‘पत्तो पंडितजी ने क्या किया?’
‘बड़े चाचा से कह दिया।’
देवदास ने हुंकारी भरकर, आँख तरेरकर कहा – ‘बाबूजी से कह दिया?’
‘हाँ ।’
‘उसके बाद?’
तुमको अब आगे से पाठशाला नहीं जाने देगे।
‘मैं भी पढ़ना नहीं चाहता।’
इसी समय उसका खाद्य-द्रव्य प्रायः समाप्त हो चला। देवदास ने पार्वती के मुख की ओर देखकर कहा, ‘संदेश दो।’
‘संदेश तो नहीं लायी हूँ।’
‘पानी कहाँ पाऊंगी?’
देवदास ने विरक्त होकर कहा – ‘कुछ नहीं है, तो आयी क्यों? जाओ, पानी ले आओ।’
उसका रूखा स्वर पार्वती को अच्छा नहीं लगा। उसने कहा ‘मैं नहीं जा सकती, तुम जाकर पी आओ।’
‘मैं क्या अभी जा सकता हूँ?’
‘तब क्या यहीं रहोगे?’
‘यही पर रहूंगा, फिर कहीं चला जाऊंगा।’
पार्वती को यह सब सुनकर बड़ा दुख हुआ। देवदास का यह आपत्य वैराग्य देखकर और बातचीत सुनकर उसकी आँखों में जल भर आया – ‘कहा मैं भी चलूंगी!
‘कहाँ?’ मेरे साथ? भला यह क्या हो सकता है? पार्वती ने फिर सिर हिलाकर कहा – ‘चलूंगी’
‘नहीं, यह नहीं हो सकता। तुम पहले पानी लाओ।’
पार्वती ने फिर सिर हिलाकर कहा – ‘’चलूंगी!”
पहले पानी ले आओ।
‘मैं नहीं जाऊंगी, तुम भाग जाओगे।’
‘नहीं, भागूंगा नहीं।’
परंतु पार्वती इस बात पर विश्वास नहीं कर सकी, इसी से बैठी रही। देवदास ने फिर हुक्म दिया, ‘जाओ, कहता हूँ।’
‘मैं नहीं जा सकती।’
क्रोध से देवदास ने पार्वती का केश खींचकर धमकाया। ‘जाओ, कहता हूँ।’
पार्वती चुप रही। फिर उसने उसकी पीठ पर एक घूंसा मारकर कहा -‘नहीं जाओगी।‘
पार्वती ने रोते-रोते कहा – ‘मैं किसी तरह नहीं जा सकती।’
देवदास एक ओर चला गया। पार्वती भी रोते-रोते सीधी देवदास के पिता के सम्मुख आकर खड़ी हो गयी। मुखोपाध्यायजी पार्वती को बहुत प्यार करते थे। उन्होंने कहा – ‘पत्तो, रोती क्यों है।’
‘देवदास ने मारा है।’
‘वह कहाँ है?’
‘इसी बंसीवाड़ी मे बैठकर तमाखू पी रहे है।’
एक तो पंडितजी के आगमन से वह क्रोधित होकर बैठे थे, अब यह खबर पाकर वे एकदम आग-बबूला हो गये। कहा – ‘देवा तमाखू भी पीता है?’
‘हाँ, पीते है, बहुत दिनों से पीते है। बंसवाड़ी के बीच मे उनका हुक्का छिपाकर रखा हुआ है।’
‘इतने दिन तक मुझसे क्यों नहीं कहा?’
‘देव दादा मारने को कहते थे।’
वास्तव मे यह बात सत्य नहीं थी। कह देने से देवदास मार खाता, इसी से उसने यह बात नहीं कही थी। आज वही बात केवल क्रोध के वशीभूत होकर उसने कह दी। इस समय उसी आयु केवल आठ वर्ष की थी। क्रोध अभी अधिक था; किंतु इसी से उसकी बुद्धि-विवेचना नितांत अल्प नहीं थी। घर जाकर वह बिछौने पर लेट गई और बहुत देर तक रोने-धोने के बाद सो गयी। उस रात को उसने खाना भी नहीं खाया।
दूसरे दिन देवदास ने बड़ी मार खायी। उसे दिन भर घर मे बंद रखा गया। फिर जब उसकी माता बहुत रोने-धोने लगी, तब देवदास को छोड़ दिया गया। दूसरे दिन भोर के समय उसने भागकर पार्वती के घर की खिड़की के नीचे आकर खड़े होकर उसे बुलाया – ‘पत्तो, पत्तो!’
पार्वती ने खिड़की खोलकर कहा – ‘देव दादा!’
देवदास ने इशारे से कहा – ‘जल्दी आओ।’
दोनो के एकत्र होने पर देवदास ने कहा ‘तुमने तमाखू पीने की बात क्यों कह दी’
‘तुमने मारा क्यों?’
‘तुम पानी लेने क्यों नहीं गयी?’
पार्वती चुप रही। देवदास ने कहा – ‘तुम बड़ी गदही हो, अब कभी मत कहना।’
पार्वती ने सिर हिलाकर कहा – ‘नहीं कहूंगी’
‘तब चलो, बांस से बंसी काट लाये। आज बांध मे मछली पकड़नी होगी।’
बंसवाड़ी के निकट एक नोना का पेड़ था, देवदास उस पर चढ़ गया। बहुत कष्ट से बांस की एक नाली नवाकर, पार्वती को पकड़ने के लिए देकर कहा – ‘देखो, इसे छोड़ना नहीं, नहीं तो मै गिर पडूंगा ।’
पार्वती उसे प्राणपण से पकड़े रही। देवदास उसे पकड़कर, नोना की एक डाल पर पांव रखकर बंसी काटने लगा। पार्वती ने नीचे से कहा -‘देव दादा, पाठशाला नहीं जाओगे?’
‘नहीं।’
‘बड़े चाचा तुम्हें भेजेंगे तब?’
‘बाबू जी ने खुद ही कहा है कि अब मैं वहाँ नहीं पढ़ूंगा। पंडितजी ही मकान पर आवेगे।’
पार्वती कुछ चिंतित हो उठी। फिर कहा – ‘कल से गरमी की वजह से पाठशाला सुबह की हो गयी है, अब मै जाऊंगी।’
देवदास ने ऊपर से आँख लाल करके कहा – ‘नहीं, यह नहीं हो सकता।’
इस समय पार्वती थोड़ा अन्यमनस्क-सी हो गई और नोना की डाल ऊपर उठ गयी, साथ-ही-साथ देवदास नोना की डाल से नीचे गिर पड़ा। डाल अधिक ऊंची नहीं थी, इससे ज्यादा चोट नहीं आयी, किंतु शरीर के अनेक स्थान छिल गए। नीचे आकर क्रुद्ध देवदास ने एक सूखी कइन लेकर पार्वती की पीठ के ऊपर, गाल के ऊपर और जहाँ-तहाँ जोर से मारकर कहा – ‘जा, दूर हो जा।’
पहले पार्वती स्वयं ही लज्जित हुई थी, पर जब छड़ी-पर-छड़ी क्रम से पड़ने लगी, तो उसने क्रोध और अभिमान से दोनो आँखें अग्नि की भांति लाल-लाल कर रोते हुए कहा – ‘मैं अभी बड़े चाचा के पास जाती हूँ।’
देवदास ने क्रोधित होकर और एक बार मारकर कहा – ‘जा, अभी जाकर कह दे, मेरा कुछ नहीं होगा।’
पार्वती चली गई। जब वह दूर चली गई, तब देवदास ने पुकारा -‘पत्तो।’ पार्वती ने सुनी-अनसुनी कर दी और भी जल्दी-जल्दी चलने लगी। देवदास ने फिर बुलाया – ‘ओ पत्तो, जरा सुन जा!’
पार्वती ने जवाब नहीं दिया। देवदास ने विरक्त होकर थोड़ा चिल्लाकर आप-ही-आप कहा- ‘जाकर मरने दो।‘
पार्वती चली गई। देवदास ने जैसे-तैसे करके दो-एक बंसी काट ली। उसका मन खराब हो गया था।
रोते-रोते पार्वती मकान पर लौट आई। उसके गाल के ऊपर छड़ी के नीले दाग की सांट उभर आई थी, पहले ही उस पर दादी की नजर पड़ी। वे चिल्ला उठी – ‘बार बे बाप! किसने ऐसा मारा है, पत्तो?’
आँख मीचते-मीचते पार्वती ने कहा – ‘पंडितजी ने।’
दादी ने उसे लेकर अत्यंत कु्रद्ध होकर कहा – ‘चल तो, एक बार नारायण के पास चले, वह कैसा पंडित है। हाय-हाय! बच्ची के एकदम मार डाला!’
पार्वती ने पितामही के गले से लिपटकर कहा – ‘चल!’
मुखोपाध्यायजी के निकट आकर पितामही ने पंडितजी के मृत पुरखा-पुरखनियो को अनेकों प्रकार से भला-बुरा कहकर तथा उनकी चौदह पीढ़ियो के नरक मे डालकर, अंत मे स्वयं गोविंद को बहुत तरह से गाली-गुफते देकर कहा – ‘नारायण, देखो तो उसकी हिम्मत को! शूद्र होकर ब्राह्मण की कन्या के शरीर पर हाथ उठाता है! कैसा मारा है, एक बार देखो! यह कहकर वृद्धा गाल के ऊपर पड़े हुए नीले दाग को अत्यंत वेदना के साथ दिखाने लगी।’
नारायण बाबू ने तब पार्वती से पूछा – ‘किसने मारा है, पत्तो?’
पार्वती चुप रही। तब दादी ने और एक बार चिल्लाकर कहा – ‘और कौन मारेगा सिवा उस गंवार पंडित के!’
‘क्यों मारा है?’
पार्वती ने इस बार भी कुछ नहीं कहा। मुखोपाध्याय महाशय ने समझा कि किसी कुसूर पर मारा है, लेकिन इस तरह मारना उचित नहीं । प्रकट में भी यही कहा। पार्वती ने पीठ खोलकर कहा – ‘यहाँ भी मारा है।’
पीठ के दाग और भी स्पष्ट तथा गहरे थे। इस पर वे दोनो ही बड़े क्रोधित हुए। ‘पंडितजी के बुलाकर कैफियत तलब की जाएगी।’ मुखोपाध्यायजी ने यही अपनी राय जाहिर की। इस प्रकार स्थिर हुआ कि ऐसे पंडित के निकट लड़के-लड़कियो को भेजना उचित नहीं।
यह निश्चित सुनकर पार्वती प्रसन्नतापूर्वक दादी की गोद मे चढ़कर घर लौट आयी। घर पहुँचे पर पार्वती माता की जिरह में पड़ी। उन्होंने बैठकर पूछा – ‘क्यों मारा है?’
पार्वती ने कहा – ‘झूठ-ही-मूठ मारा है।’
माता ने कन्या का कान खूब जोर से मलकर कहा – ‘झूठ-मूठ कोई मार सकता है?’
उसी समय दालान से सास जा रही थी, उन्होंने घर की चौखट के पास आकर कहा – ‘बहू, माँ होकर भी तुम झूठ-मूठ मार सकती हो और वह निगोड़ा नहीं मार सकता?’
बहू ने कहा – ‘झूठ-मूठ कभी नहीं मारा है। बड़ी भली लड़की है, जो कुछ नहीं किया और उन्होंने मारा!’
सास ने विरक्त होकर कहा – ‘अच्छा यही सही, पर इसे मैं पाठशाला नहीं जाने दूंगी।’
‘लिखना-पढ़ना नहीं सीखेगी?’
‘क्या होगा सीखकर बहू? एक-आध चिट्ठी-पत्री लिख लेना, रामायण-महाभारत पढ़ लेना ही काफी है। फिर तुम्हारी पत्तो को न जजी करनी है और न वकील होना है।’
अंत में बहू चुप हो गई। उस देवदास ने बहुत डरते-डरते घर मे प्रवेश किया। पार्वती ने आदि अंत तक सारी घटना अवश्य ही कह दी होगी, इसमे उसे कोई संदेह नहीं था। परंतु घर आने पर उसका लेशमात्र भी आभास न मिला, वरन माँ से सुना कि आज गोविंद पंडितजी ने पार्वती के खूब मारा है, इसी से अब वह भी पाठशाला नहीं जाएगी। इस आनंद की अधिकता से वह भली-भांति भोजन भी नहीं कर सका। किसी तरह झटपट खा-पीकर दौड़ा हुआ पार्वती के पास आया और हांफते-हांफते कहा – ‘तुम अब पाठशाला नहीं जाओगी?’
‘नहीं।’
‘कैसे?’
‘मैने कहा कि पंडितजी मारते है।
देवदास एक बार हँसा, उसकी पीठ ठोककर कहा कि उसके समान बुद्धिमती इस पृथ्वी पर दूसरी नहीं है। फिर उसने धीरे-धीरे पार्वती के गाल पर पड़े हुए नीले दाग ही सयत्न परीक्षा कर, निःश्वास फेककर कहा – ‘अहा!’
पार्वती ने थोड़ा हँसकर उसके मुख की ओर देखकर कहा – ‘क्यों?’
‘बड़ी चोट लगी न पत्तो?’
पार्वती ने सिर हिलाकर कहा – ‘हूं!’
‘तुम क्यों ऐसा करती हो? इसी से तो क्रोध आता है और इसीलिए मारता भी हूँ।’
पार्वत की आंखों में जल भर आया। मन मे आया कि पूछे कि क्या करे परंतु पूछ नहीं सकी।
देवदास ने उसके माथे पर हाथ रखकर कहा – ‘अब ऐसा कभी नहीं करना-अच्छा!’
पार्वती ने सिर हिलाकर कहा – ‘नहीं करूंगी।’
देवदास ने और बार पीठ ठोककर कहा – ‘अच्छा, तब मैं कभी तुमको नहीं मारूंगा।’
दिन पर दिन बीतता जाता था और इन दोनो बालक-बालिकाओं के आनंद की सीमा नहीं थी। सारे दिन वे इधर-उधर घूमा करते थे, संध्या के समय लौटने पर डांट-डपट के अतिरिक्त मार-पीट भी खूब पड़ती थी। फिर सुबह होते ही घर से निकल भागते थे और रात को आने पर मारपीट और घुड़की सहते थे। रात मे सुख की नींद सोते; फिर सवेरा होते ही भागकर खेल-कूद में जा लगते। इसका दूसरा कोई संगी-साथी न था, जरूरत भी नहीं थी। गाँव में उपद्रव और अत्याचार करने के लिए यही दोनो काफी थे। उस दिन आँखे लाल किए सारे तालाब को मथकर पंद्रह मछलियाँ पकड़ी और योग्यतानुसार आपस मे हिस्सा लगाकर घर लौटे। पार्वती की माता ने कन्या को मार-पीठकर घर मे बंद कर दिया। देवदास के विषय में ठीक नहीं जानता; क्योंकि वह इन सब बातों को किसी प्रकार प्रकट नहीं करता। जब पार्वती रो रही थी, उस समय दो या ढाई बजे थे। देवदास ने आकर एक बार खिड़की के नीचे से बहुत मीठे स्वर से बुलाया – ‘पत्तो, ओ पत्तो! पार्वती ने संभवतः सुना, किंतु क्रोधवश उत्तर नहीं दिया। तब उसने एक निकटवर्ती चम्पा के पेड़ पर बैठकर सारा दिन बीता दिया। संध्या के समय धर्मदास समझा-बुझाकर बड़े परिश्रम से उसे उतारकर घर पर लाया।’
यह केवल उस दिन हुआ। दूसरे दिन पार्वती भोर से ही देव दादा के लिए बेचैन हो रही थी, लेकिन देवदास नहीं आया। वह पिता के साथ पास के गाँव में निमंत्रण में गया हुआ था। देवदास जब नहीं आया, तो पार्वती उदासीन मन से घर से बाहर निकली। कल ताल में उतरने के समय देवदास ने पार्वती को तीन रुपये रखने के लिए दिये थे कि कही खो न जायें। उन तीनो रुपयो को उसने आंचल की छोर मे बांध लिया था। उसने आंचल को हिरा-फिराकर और स्वयं इधर-उधर घूमकर कई क्षण बिताए। कोई संगी-साथी नहीं मिला, क्योकि उस समय प्रातःकाल की पाठशाला थी। पार्वती तब दूसरे गाँव में गई।
वहाँ मनोरमा का मकान था। मनोरमा पाठशाला में पढ़ती थी, उसकी उम्र कुछ बड़ी थी। परंतु वह पार्वती की सखी थी। बहुत दिनों से आपस में भेंट नहीं हुई थी। आज पार्वती ने अवकाश पा उसके घर पर जाकर पुकारा – ‘मनो घर में है?’
‘पत्तो?’
‘हाँ, मनो कहाँ है बुआ?’
‘वह पाठशाला गई है, तुम नहीं जाती?’
‘मैं पाठशाला नहीं जाती, देव दादा भी नहीं जाते।’
मनोरमा की बुआ ने हँसकर कहा – ‘तब तो अच्छा है, तुम भी पाठशाला नहीं जाती और देव दादा भी नहीं।’
‘नहीं, हम लोग कोई नहीं जाते।’
‘अच्छी बात है, पर मनो पाठशाला गई है।’
बुआ ने बैठने के लिए कहा, पर वह बैठी नहीं, लौट आयी। रास्ते मे रसिकपाल की दुकान के पास तीन वैष्णवी तिलक-मुदा लगाये, हाथ मे खंजड़ी लिये भिक्षा मांग रही थी। पार्वती ने उन्हें बुलाकर कहा – ‘ओ वैष्णवी तुम लोग गाना जानती हो?’
एक ने फिरकर देखा और कहा – ‘जानती हूँ, क्या है बेटी?’
‘तब गाओ!’ तीनो खड़ी हो गयी। एक ने कहा – ‘ऐसे कैसे गाना होगा, भिक्षा देनी होगी। चलो तुम्हारे घर पर चलकर गायेंगे।’
‘नहीं, यहीं गाओ।’
‘पैसा देना होगा!’
पार्वती ने अपना आंचल दिखाकर कहा – ‘पैसा नहीं रुपया है।’
आंचल मे बंधा रुपया देखकर वे लोग दुकान से कुछ दूर पर जाकर बैठी। फिर खंजड़ी बजाकर, गले से गला मिलाकर तीनों ने गाना गाया। क्या गाया, उसका अर्थ था, यह सब पार्वती ने कुछ भी नहीं समझा। इच्छा करने पर भी वह नहीं समझ सकती थी। लेकिन उसी क्षण उसका मन देव दादा के पास खिंच गया।
गाना समाप्त करके एक वैष्णवी ने कहा – ‘क्या अब भिक्षा दोगी, बेटी?’
पार्वती ने आंचल की गांठ खोलकर उन लोगो को ती रुपये दे दिये। तीनो आवक् होकर उसके मुख की ओर कुछ क्षण देखती रही।
एक ने कहा – ‘किसका रुपया है, बेटी?’
‘देव दादा का।’
‘वे तुम्हें मरेंगे नहीं?’
पार्वती ने थोड़ा सोचकर कहा – ‘नहीं।’
एक ने कहा – ‘जीती रहो।’
पार्वती ने हँसकर कहा – ‘तुम तीनों जने का ठीक-ठीक हिस्सा लग गया न?’
तीनो ने सिर हिलाकर कहा – ‘हाँ, मिल गया। राधारानी तुम्हारा भला करें।’ यह कहकर उन लोगो ने आंतरिक कामना की कि इस दानशीलता छोटी कन्या को कोई दंड-भोग न करना पड़े। पार्वती उस दिन जल्दी ही मकान लौटी। दूसरे दिन प्रातःकाल देवदास से उसकी भेट हुई। उसके हाथ मे एक परेता था, पर गुड्डी नहीं थी, वह खरीदनी होगी। पार्वती से कहा – ‘पत्तो रुपया दो!’
पार्वती ने सिर झुकाकर कहा – ‘रुपया नहीं है।’
‘क्या हुआ?’
‘वैष्णवी को दे दिया, उन लोगों ने गाना गया था।’
‘सब दे दिया?’
‘हाँ। सब तीन ही रुपये तो थे!’
‘दुर पगली, क्या सब दे देना था?’
‘वाह! वे लोग जो तीन जनी थी, तीन रुपये न देती तो तीनों का कैसे ठीक हिस्सा लगता?’
देवदास ने गंभीर होकर कहा – ‘मैं होता,, तो दो रुपये से ज्यादा न देता।’ यह कहकर उसने परेता की मुठिया से मिट्टी के ऊपर चिन्हाटी खींचते-खींचते कहा – ‘ऐसा होने से उनमें प्रत्येक को दस आना, तेरह गंडा एक कौड़ी का हिस्सा पड़ता।’
पार्वती ने इबारती तक सवाल सीखे है। पार्वती की इस बात से प्रसन्न होकर कहा – ‘यह ठीक है।’
पार्वती ने देवदास का हाथ पकड़कर कहा – ‘मैंने सोचा था कि तुम मुझे मारोगे देव दादा!’
देवदास ने विस्मित होकर कहा – ‘मारूंगा क्यों?’
‘वैष्णवी लोगो ने कहा था कि तुम मारोगे।’
यह बात सुनकर देवदास ने खूब प्रसन्न हो पार्वती के कंधे पर भार देकर कहा – ‘दुर! कभी अपराध करने से क्या में मारता हूँ?’
देवदास ने संभवतः मन मे सोचा था कि पार्वती का यह काम उसके पीनल कोड के अंतर्गत नहीं है, क्योंकि तीन रुपये तीन आदमियों के बीच ठीक-ठीक तकसीम कर दिये। विशेषतः जिन वैष्णवी लोगों ने पाठशाला मे इबारती सवाल नहीं पढ़ा है, उन्हें तीन रुपये के बदले दो रुपये देना उनके प्रति भारी अत्याचार करना था। फिर वह पार्वती का हाथ पकड़कर छोटे बाजार की ओर गुड्डी खरीदने के लिए चला गया। परेता को वहीँ एक झाड़ी में छिपा दिया।
इसी तरह एक वर्ष कट गया, किंतु अब और नहीं कटना चाहता। देवदास की माता ने शोर-गुल मचाया।
स्वामी को बुलाकर कहा – ‘कि देवा तो एकदम मूर्ख हरवाहा हो गया, इसका कोई बहुत जल्द उपाय करो।’
उन्होने सोचकर कहा – ‘देवा को कलकत्ता जाने दो। नगेन्द्र के घर रहकर वह खूब अच्छी तरह लिख-पढ़ सकेगा।’
नगेन्द्र बाबू संबंध मे देवदास के मामा है। यह बात सबने सुनी। पार्वती यह सुनकर बहुत चिंतित हुई। देवदास को अकेले मे पाकर उसका हाथ पकड़कर हिलाते-हिलाते पूछा – ‘देव दादा, क्या अब तुम कलकत्ता जाओगे?’
‘किसने कहा?’
‘बड़े चाचा कहते थे।’
‘नहीं, मैं किसी तरह नहीं जाऊंगा।’
‘और अगर जबरदस्ती भेजेंगे?’
‘जबरदस्ती!’
इस समय देवदास ने अपने मुख का भाव ऐसा बनाया, जिससे पार्वती अच्छी तरह समझ गई कि उससे इस पृथ्वी-भर मे कोई जबरदस्ती से काम नहीं करा सकता। यही तो वह चाहती भी थी। अस्तु, बड़े आनंद के साथ एक बार और उसका हाथ पकड़कर इधर-उधर हिलाया और उसके मुँह की ओर देखकर कहा – ‘देखो कभी मत जाना, देव दादा!’
‘कभी नहीं।’
किन्तु उसकी यह प्रतिज्ञा नहीं रही। उसके माता-पिता ने उसे डांट डपटकर और मार-पीटकर धर्मदास के साथ कलकत्ता भेज दिया। जाने के दिन देवदास के हृदय मे बड़ा दुख हुआ। नये स्थान में जाने के लिए उसे कुछ भी कौतुहल और आनंद नहीं हुआ। पार्वती उस दिन उसे किसी तरह छोड़ना नहीं चाहती थी। कितना ही रोई, परंतु इसे कौन सुनता है। पहले अभिमान मे कुछ देर तक देवदास से बातचीत नहीं की; लेकिन अंत में जब देवदास ने बुलाकर उससे कहा – ‘पत्तो, मैं जल्दी ही लौट आऊंगा; अगर न आने देंगे, तो भाग आऊंगा।’ तब पार्वती ने संभलकर अपने हृदय की अनेक आंतरिक बातें देवदास को कह सुनायी। इसके बाद घोड़ा-गाड़ी पर चढ़कर, पौर्टमॉन्टो लेकर, माता का आशीर्वाद और आँखों का जल बिंदु कपाल पर टीके की भांति लगाकर वह चला गया, उस समय पार्वती को बहुत कष्ट हुआ; आँखों से कितनी ही जल धारायें गालों पर बहकर नीचे गिरी। उसका हृदय अभिमान से फटने लगा।
…..
पहले कितने ही दिन उसके ऐसे कटे। इसके बाद एक दिन प्रातःकाल उठकर उसने सोचा कि सारे दिन उसके पास कोई काम करने को नहीं है, इसके पहले पाठशाला छोड़ने के बाद प्रातःकाल से संध्या तक झूठ-मूठ ही खेल-कूद मे कट जाता था; कितने ही काम उसे करने को रहते थे, किंतु समय नहीं मिलता था। पर अब सारे दिन यों ही पड़ी रहती है, एक काम भी खोजने पर नहीं मिलता। प्रातःकाल उठकर किसी दिन चिट्ठी लिखने बैठी-दस बज गए। माता झुंझला उठी, पितामही ने सुनकर कहा – ‘उसे लिखने दो। सुबह इधर-उधर न दौड़कर लिखते-पढ़ते रहना अच्छा है।’
जिस दिन देवदास का पत्र आता, वह पार्वती के लिए बड़े सुख का दिन होता है। सीढ़ी की देहली ऊपर बैठकर वही कागज हाथ मे लेकर सारे दिन पढ़ती रहती है। इसी भांति दो महीने बीत गये। पत्र लिखना अथवा पाना अब उतना जल्दी-जल्दी नहीं होता, उत्साह भी कुछ कम हो गया।
एक दिन प्रातःकाल पार्वती ने माता से कहा – ‘माँ, मैं फिर पाठशाला जाऊंगी।’
‘क्यों?’
पार्वती पहले कुछ विस्मित हुई, फिर सिर हिलाकर बोली – ‘मैं जरूर जाऊंगी।’
‘तो जा, पाठशाला जाने से मैंने कभी तुझे रोका तो नहीं है।’
उसी दिन दोपहर मे पार्वती ने दासी का हाथ पकड़कर, बहुत दिन से छोड़ी हुई स्लेट और पेसिल को ढूंढकर बाहर निकाला और उसी पुराने स्थान पर शांत एवं गंभीर भाव से जा बैठी।
दासी ने कहा – ‘गुरु जी, पत्तो को अब मारना नहीं, यह अपनी इच्छा से पढ़ने आई है, जब तक इसकी इच्छा होगी पढ़ेगी और जब इच्छा न होगी, घर चली जायेगी।’
गुरुजी ने मन-ही-मन कहा, तथास्तु! प्रकट मे कहा – ‘यही होगा।’
एक बार ऐसी इच्छा हुई कि पूछे कि पार्वती कलकत्ता क्यों नहीं भेजी गयी? किंतु यह बात नहीं पूछी। पार्वती ने देखा कि उसी स्थान पर और उसी बेच पर छात्र-सरदार भूलो बैठा है। उसे देखकर पहले एक बार हँसी आयी, लेकिन दूसरे ही क्षण आँखों में आँसू डबडबा आये। फिर उसे भूलो के ऊपर क्रोध आया। मन में सोचा कि केवल उसी ने देवदास को घर से बाहर किया। इस तरह से बहुत दिन बीत गए।
बहुत दिनों के बाद देवदास मकान पर लौटा। जल्दी से पार्वती के पास आया, नाना प्रकार ही बातचीत हुर्इं। उसे अधिक बातचीत नहीं करनी थी – थी भी तो वह कर नहीं सकी। परंतु देवदास ने बहुत सी बाते कही। प्रायः सभी कलकत्ता की बातें थीं । गर्मी की छुट्टी बीत गई, देवदास फिर कलकत्ता गया। इस बार भी रोना धोना हुआ, परंतु पिछली बार-सी उसमे वह गंभीरता नहीं थी। इस तरह चार वर्ष बीत गये।
इन कई वर्षों मे देवदास के स्वभाव मे इतना परिवर्तन हुआ, जिसे देखकर पार्वती ने कई बार छिपे-छिपे आँसू गिराये। इसके पहले देवदास मे जो ग्रामीण दोष थे, वे शहर मे रहने से एकबारगी दूर हो गये।
अब उसे डासन शू, अच्छा सा कोट, पैट, टाई, छड़ी, सोने की चेन और घड़ी, गोल्डन फ्रेम का चश्मा आदि के न होने से बड़ी लज्जा लगती है। गाँव की नदी के तीर पर घूमना अब उसे अच्छा नहीं लगता और बदले मे हाथ मे बंदूक लेकर शिकार खेलने मे विशेष आनंद मिलता है। छोटी मछली पकड़ने के बजाय बड़ी मछलियों को फंसाने की इच्छा है। यही क्यों- सामाजिक बात, राजनीतिक चर्चा, सभासमिति, क्रिकेट, फुटबाल आदि की आलोचनायें होती है। हाय रे! कहाँ वह पार्वती वह उन लोगो का ताल – सोनापुर गाँव! बाल्यकाल की दो-एक सुख की बातो का भी स्मरण न आता हो – ऐसा नही;
किंतु अनेक प्रकार के कार्यभार के कारण वे बातें बहुत देर तक हृदय मे जगह नहीं पाती। फिर गर्मी की छुट्टी हुई। पिछले वर्ष की गर्मी की छुट्टी में देवदास विदेश घूमने चला गया था, घर नहीं गया था। इस बार माता-पिता के बहुत आग्रह करने पर और अनेकों पत्र लिखने पर अपनी इच्छा न रहते हुए भी देवदास बिस्तर बांधकर सोनापुर गाँव के लिए हावड़ा स्टेशन पर आया। जिस दिन वह घर आया, उस दिन उसका शरीर कुछ अस्वस्थ था, तभी से बाहर नहीं निकला। दूसरे दिन पार्वती के घर पर आकर बुलाया –
‘चाची!’
पार्वती की माता ने आदर के साथ कहा – ‘आओ बेटा यहाँ आकर बैठो।’
चाची के साथ कुछ क्षण बातचीत करने पर पूछा – ‘पत्तो कहाँ है, चाची?’
‘वहीँ ऊपर वाली कोठरी में है।’
देवदास ने ऊपर जाकर देखा कि पार्वती संझाबती दे रही है। बुलाया – ‘पत्तो!’
पहले पार्वती चमत्कृत हो उठी, फिर प्रणाम करके बगल मे हटाकर खड़ी हो गई।
‘यह क्या होता है, पत्तो?’
इस बात के कहने की आवश्यकता नहीं थी, इसी से पार्वती चुप रही। फिर देवदास ने लजाकर कहा – ‘जाता हूँ, संध्या हो गयी, शरीर अच्छा नहीं है।’
देवदास चला गया।
पार्वती ने इस साल तेरहवे वर्ष मे पांव रखा है – दादी यह कहती है। इसी उम्र में शारीरिक सौदर्य अकस्मात मानो कहीं से आकर किशोरी से सर्वांग को छा लेता है। आत्मीय स्वजन सहसा एक दिन चमत्कृत होकर देखते है कि उनकी छोटी कन्या अब बड़ी हो गई है। उसके विवाह की तब छटपटी पड़ती है। चक्रवर्ती महाशय के घर मे आज कई दिनो से इन्हीं सब बातों की चर्चा हो रही है। माता इसके लिए बड़ी चिंतित हो रही थी, बात-बात में वह पति को सुनाकर कहती कि अब पत्तो को अधिक दिन तक अविवाहित रखना उचित नही है। वे लोग बड़े आदमी नहीं है; उन लोगो को एकमात्र यही भरोसा है कि कन्या अनुपम सुंदरी है। संसार मे यदि रूप की प्रतिष्ठा है तो पार्वती के लिए अधिक चिंता न करनी पड़ेगी और भी एक बात हैं, , जिसे यही पर कह देना उचित है। चक्रवर्ती परिवार को कन्या के विवाह के लिए आज तक कोई विशेष चिंता नहीं करनी पड़ी है; हाँ पुत्र के विवाह के लिए अवश्य करनी पड़ती है। कन्या के विवाह मे दहेज ग्रहण करते थे, पुत्र के विवाह मे दहेज देकर कन्या घर ले आते थे। किंतु नीलकंठ स्वयं इस प्रथा को बहुत घृणा से देखते थे। उनकी यह तनिक भी इच्छा नहीं थी कि कन्या को बेचकर धनोपार्जन करे। पार्वती की माँ इस बात को जानती थी; इसी से कन्या के विवाह हो। उसे यह स्वह्रश्वन मे भी विश्वास नहीं होता था कि मेरी यह आशा दुराशा मात्र है। वह सोचती थी कि देवदास से अनुरोध करने पर कोई रास्ता निकल आएगा। संभवतः यही सोचकर नीलकंठ की माता ने देवदास की माँ से इस प्रकार यह चर्चा छेड़ी- ‘आहा! बहू, देवदास और मेरी पत्तो मे जैसा स्नेह है, वह ढूंढे से भी कहीं नहीं मिल सकता।’
देवदास की माँ ने कहा – ‘भला ऐसा क्यों न होगा चाची, वे दोनो भाई-बहिन की तरह पलकर इतने बड़े हुए है।’
‘हां बहू, यह मैं भी समझती हूँ। देखो न, जब देवदास कलकत्ता गया था तो पत्तो सिर्फ आठ बरस की थी, पर उसी अवस्था में वह उसकी चिंता करते-करते सूखकर कांटा हो गयी। देवदास की यदि कभी एक भी चिट्ठी आती थी, तो वह उसे बड़े चाव से दिन-रात बारम्बार पढ़ा करती थी। यह हम लोग अच्छी तरह जानती हैं ।’
देवदास की माँ ने मन-ही-मन सब-कुछ समझ लिया था। थोड़ी मुस्करायी। उस मुस्कराहट में कितने छुपे हुए भाव गुंथे थे, वह मैं नहीं कह सकता, किन्तु वेदना बहुत थी। वे सभी बातें जानती थी, साथ ही पार्वती को ह्रश्वयार भी करती थी। किंतु वह कन्याओं के बेचने और खरीदने वाले घर की लड़की थी, फिर घर के पास ही कुटुंब था। अतएव ऐसे के साथ विवाह संबंध होना ठीक नहीं था। उसने कहा –
‘चाची, वे इतनी छोटी उम्र मे लड़के का ब्याह नहीं करेंगे; खासकर पढ़ने लिखने के दिनों में । इसी से वे मुझसे कहते थे कि बड़े लड़के द्विजदास का बचपन में ब्याह कर देने से बड़ी हानि हुई। लिखना पढना एकबारगी छूट गया।’
पार्वती की दादी का मुख्य यह सुनकर बिलकुल उतर गया। लेकिन फिर भी कहा – ‘यह तो मैं भी जानती हूँ बहू, लेकिन क्या तुम यह नहीं जानती कि पत्तो अब बड़ी हुई! उसके देह की गठन भी लम्बी है, इसी से यदि नारायण इस बात को…।’
देवदास की माँ ने बात काटकर कहा – ‘नहीं चाची, मैं यह बात उनसे नहीं कह सकूंगी। तुम्हीं कहो मैं किस मुँह से इस वक्त उनसे यह बात कहूं?’
यह बात यही समाप्त हो गयी। परन्तु स्त्रियो के पेट मे भला कभी बात पचती है! जब स्वामी भोजन करने के लिए बैठे, तो देवदास की माँ ने कहा – ‘पार्वती की दादी उसके ब्याह की बातचीत करती थी।’
स्वामी ने मुँह ऊपर उठाकर कहा – ‘हां, अब पार्वती भी इस योग्य हो गयी है, अब उसका विवाह कर देना ही उचित है।’
‘यही तो आज वह कह रही थी कि अगर देवदास ने साथ उसका…।’
स्वामी ने भौ चढ़ाकर कहा – ‘तो तुमने क्या कहा?’
‘मैं क्या कहती? दोनो में बड़ा स्नेह है; पर इसी से क्या कन्या के बेचने-खरीदने वाले चक्रवर्ती घराने की लड़की लाऊंगी? फिर घर के पास ही घर ठहरा। छिः! छिः!’
स्वामी ने सन्तुष्ट होकर कहा-‘ठीक है, क्या घराने का नाम हँसाऊंगा? इन सब बातों पर कान नहीं देना।’
गृहिणी ने एक सूखी हँसी हँस कर कहा – ‘नहीं, मैं इन सब बातों पर कान नहीं देती। पर तुम भी यह मत भूल जाना।’
स्वामी ने गम्भीर मुख से भात का कौर उठाते हुए कहा-‘ऐसा होता तो इतनी बड़ी जमीदारी कभी की फुंक गयी होती।’
जब वैवाहिक प्रस्ताव के अस्वीकृति की बात नीलकंठ के कानों में पहुँची , तो उन्होंने माँ को बुलाकर बड़े तिरस्कार के साथ कहा-‘माँ, तुम क्यों ऐसी बात कहने गयी?’
माँ चुप रही। नीलकंठ ने कहा – ‘कन्या के ब्याह के लिए हम लोग किसी के पांव नहीं पड़ते, बल्कि कितने ही लोग हम लोगो के पांव पड़ते है। मेरी लड़की कुरूपा नहीं है! देखो, तुम लोगो से कहे देता हूँकि एक हफ्ते के भीतर ही संबंध ठीक कर लूंगा। ब्याह के लिए क्या सोच करना!’
किन्तु जिसके लिए पिता ने इतनी बड़ी बात कही थी; उससे उसके सिर पर बिजली-सी गिरी।
लड़कपन ही से यही धारणा थी कि देवदास पर एकमात्र उसी का अधिकार है। अधिकार किसी ने उसके हाथ में सौंपा हो, यह बात नहीं थी। पहले स्वयं भी इसे अच्छी तरह समझ नहीं सकी, अनजाने में ही उसके अधीर मन से दिनों-दिन इस अधिकार को अति नीरवता एवं दृढ़ता के साथ अपनाकर प्रतिष्ठित किया था। अब तक यद्यपि उसका बाहरी रूप आँखों से वह नहीं देख सकी, तथापि आज उसको बेहाथ होते देखकर उसके सारे हृदय मे एक भारी तूफान-सा उठने लगा।
किन्तु देवरदास के संबंध में यह बात कहना ठीक नहीं । लड़कपन में पार्वती के ऊपर जो दखल पाया था, उसका उसने पूर्ण रूप से उपभोग किया। परन्तु कलकत्ता जाकर काम-काज की भीड़ और अन्याय और आमोद-प्रमोद मे फंसकर वह पार्वती को बहुत-कुछ भूल गया। लेकिन वह यह नहीं जानता कि पार्वती अपने उसी अपरिवर्तित ग्राम्य-जीवन मे निश-दिन केवल उसी का ध्यान किया करती है। केवल इतना ही नहीं, उसने यह स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि बाल्य-काल से जिसे हर तरह से अपना जाना, एवं सब सुख-दुख मे जिसका बराबर साथ दिया, यौवन की पहली सीढ़ी पर पांव रखते ही उसे इस तरह फिसलना पड़ेगा। किन्तु उस समय विवाह की बात कौन सोचता था? कौन जानता था कि किशोर-बंधन विवाह-बंधन के बिना किसी तरह चिर-स्थायी नहीं रह सकता। ‘इसीलिए विवाह नहीं हो सकता’ यह संवाद उसकी सारी आशा-पिपासा को छिन्न-भिन्न करने के लिए उसके हृदय से खींचातानी करने लगा। देवदास का प्रातःकाल का समय पढ़ने-लिखने मे बीतता है। दोपहर मे बड़ी गरमी पड़ती है, घर से बाहर निकलना कठिन है, केवल सांयकाल में यदि इच्छा होती तो वह बाहर हवा खाने के लिए जाया करता है। इस समय किसी दिन वह धोती-कुरता और एक अच्छा-सा जूता पहनकर, हाथ में छड़ी लेकर टहलने के लिए निकलता। जाते समय वह चक्रवर्ती के मकान के नीचे से होकर जाता था। पार्वती ऊपर बंगले से आँसू पोंछती हुई उसे देखती थी। कितनी ही बातें उसके मन मे उठती थी। मन में उठता था कि दोनो बड़े हुए। बहुत दिन परदेस मे रहने के कारण दोनो एक-दूसरे से बड़ी लज्जा करते है। देवदास उस दिन इसी तरह चला गया, लज्जा के कारण इच्छा रहते हुए भी वह कोई बात नहीं कर सका। यह बात पार्वती भी समझने से नहीं चूकी।
देवदास भी प्रायः इसी भांति सोचता था। बीच-बीच मे उसके साथ बातचीत करने और देखने के लिए इच्छा भी होती थी, किन्तु साथ ही यह भी ख़याल होता था कि क्या यह अच्छा दिखेगा?
यहाँ कलकत्ता का वह कोलाहल नहीं है, वह आमोद-प्रमोद, थियेटर और गाना-बजाना नहीं है।
इसीलिए उसे केवल उसके बचपन की बातें याद आती है। मन में प्रश्न उठता था कि क्या यह पार्वती वही पार्वती है? पार्वती मन में सोचती कि क्या यह देवदास बाबू वही देवदास है? देवदास अब प्रायः
चक्रवर्ती के मकान की ओर नहीं जाता। किसी दिन वह आंगन में खड़ा होकर बुलाता -‘छोटी चाची, क्या करती हो?’
छोटी चाची कहती है – ‘यहाँ आकर बैठो।’
देवदास कहता – ‘नहीं , रहने दो चाची, मैं थोड़ा घूमने जा रहा हूँ।’
पार्वती किसी दिन ऊपर रहती और किसी दिन देवदास के सामने पड़ जाती थी। वह जब छोटी चाची के साथ बातचीत करने लगता, तो पार्वती धीरे से खिसक जाती थी। सायंकाल के बाद देवदास के घर में दिया जलता था। ग्रीष्म काल की खुली हुई खिड़की से पार्वती बहुत देर तक उसी ओर देखा करती थी, किन्तु सिवा उस दीप-प्रकाश के और कुछ नहीं देख पाती थी। पार्वती सदा से आत्माभिमानी है।
वह जो यंत्रणा सहन कर रही है, उसके तिल-मात्र की भी किसी को थाह न देने की उसकी आंतरिक चेष्टा रहती है। और फिर किसी से कहने-सुनने मे लाभ ही क्या? सहानुभूति सहन नहीं हो सकती; और तिरस्कार लांछना! इससे तो मर जाना ही अच्छा है। पिछले वर्ष मनोरमा का विवाह हुआ, किन्तु वह ससुराल नहीं गयी। इसी से बीच-बीच में वह पार्वती से मिलने आ जाया करती थी। पहले दोनो सखियो में ये सभी बातें घुल-घुलकर होती थी, पर अब वह बात नहीं है। पार्वती उसका साथ नहीं देती। वह या तो ऐसी बातों के छिड़ने पर चुप ही रहती है या टालमटोल कर जाती है।
पार्वती के पिता कल रात घर लौटे। इधर कई दिनो से वह वर ढूंढने गये थे। अब विवाह की सब बातचीत पक्की करके घर लौटे है। प्रायः बीस-पच्चीस कोस की दूरी पर बर्दवान जिला के हाथीपोता गाँव के जमीदार के साथ विवाह का होना स्थिर कर आये है। उसकी आर्थिक दशा अच्छी है, उम्र चालीस वर्ष से कुछ कम ही है। गत वर्ष पहली स्त्री का स्वर्गवास हुआ है, इसीलिए दूसरा विवाह कर रहे है। इस समाचार से कुटुम्बियो मे किसी को आनंद नहीं हुआ, वरन् दुख ही पहुँचा। फिर भी भुवन चौधरी से सब मिलाकर दो-तीन हजार रुपये की प्राप्ति थी, इसी से सब स्त्रियाँ चुप ही रही।
एक दिन दोपहर के समय जब देवदास चौके मे भोजन करने को बैठा, तो माँ ने पास बैठकर कहा ‘पत्तो का विवाह है।’
देवदास ने मुँह उठाकर पूछा – ‘कब?’
‘इसी महीन में। कल वर खुद आकर कन्या को देख गया है।’
देवदास ने कुछ विस्मित होकर कहा – ‘क्या, मैं तो कुछ नहीं जानता माँ!’
‘तुम कैसे जानोगे? वर दुहेजू है-अवस्था कुछ अधिक है, पर घर का धनी है। पत्तो खाने-पीने से सुखी रहेगी।’
देवदास गर्दन नीची कर भोजन करने लगा। उसकी माँ ने फिर कहना आरंभ किया – ‘उन लोगों की इच्छा थी कि इसी घर मे ब्याह हो।’
देवदास ने मुँह उठाकर कहा – ‘फिर?’
माँ ने कहा – ‘छिः! ऐसा कभी हो सकता है? एक तो वे लोग कन्या बेचने-खरीदने वाले, दूसरे, घर के पड़ोस में; फिर ऐसे छोटे घराने में! छिःछिः!’ यह कहकर माँ ने ओंठ सिकोड़ा। देवदास ने भी इसे देखा।
कुछ देर चुप रहने के बाद माँ ने फिर कहा – ‘तुम्हारे बाबूजी से भी मैंने कहा था।’
देवदास ने पूछा – ‘बाबूजी ने क्या कहा?’
‘और क्या कहेंगे? यही कहा कि क्या इतने बड़े वंश का सिर नीचा करेंगे।’
देवदास ने फिर कोई बात नहीं पूछी। इसी दिन दोपहर मे मनोरमा और पार्वती की बातचीत हुई।
पार्वती की आँखों में जल देखकर मनोरमा की आँखें भी डबडबा आयी। उसने उन्हें पोंछकर पूछा – ‘तब कौन-सा उपाय है बहिन?’
पार्वती ने आँखें पोंछकर कहा – ‘क्या तुमने अपने वर को पसंद करके विवाह किया था?’
‘मेरी बात दूसरी है। मुझे पसंद भी नहीं था और नापसंद भी नहीं है, इसी से मुझे कोई कष्ट भी नहीं है। पर तुम अपने पांव मे आप कुठार मारती हो, बहिन!’
पार्वती ने जवाब नहीं दिया, वह मन-ही-मन कुछ सोचने लगी।
मनोरमा कुछ सोचकर हँसी। पूछा – ‘पत्तो, वर की उम्र क्या है?’
‘किसके वर ही?’
‘तुम्हारे!’
पार्वती ने हँसकर कहा – ‘संभवतः उन्नीस।’
मनोरमा ने विस्मित होकर कहा – ‘यह क्या मैंने तो सुना है कि चालीस?’
इस बार भी पार्वती ने हँसकर कहा – ‘मनो बहिन, कितने आदमियों की उम्र उन्नीस-बीस वर्ष की है, मैं क्या सबका हिसाब रखती हूँ? मेरे वर ही उम्र उन्नीस-बीस वर्ष की है-यह मैं जानती हूँ।’
उसके मुँह की ओर देखकर मनोरमा ने फिर पूछा – ‘क्या नाम है?’
‘सो तो तुम जानती ही हो।’
‘मैं कैसे जानूंगी?’
‘तुम नहीं जानती? अच्छा लो, मैं कह देती हूँ।’
जरा हँसकर गंभीरता के साथ पार्वती ने उसके कान के पास अपना मुँह लगाकर कहा – ‘नहीं जानती-श्री देवदास!’
मनोरमा पहले तो चमक उठी। फिर थोड़ा धक्का देकर कहा – ‘इस ठट्ठे से काम नहीं चलेगा। यह कहो कि नाम क्या है? अगर नहीं कह सकती हो तो…।
‘वही तो मैंने कहा।’
मनोरमा ने पूछा – ‘यदि देवदास नाम है, तो फिर इतना रोती क्यों हो?’
पार्वती का चेहरा सहसा उतर गया। कुछ सोचने के बाद उसने कहा -‘यह ठीक है; अब मैं नहीं रोऊंगी।’
‘पत्तो!’
‘क्यों?’
‘सब बातें खोलकर क्यों नहीं कहती बहिन, मैं कुछ भी नहीं समझ पाती हूँ।’
पार्वती ने कहा – ‘जो कुछ कहना था, सभी तो मैंने कह दिया।’
‘परन्तु कुछ भी तो समझ में नहीं आता।’
‘न आता होगा।’ यह कहकर पार्वती दूसरी ओर देखने लगी।
मनोरमा ने सोचा कि पार्वती बात छिपाती है, उसकी कुछ कहने की इच्छा नहीं है। उसे बड़ा गुस्सा आया, दुखित होकर उसने कहा – ‘पत्तो, जिसमें तुम्हें दुख है, उसमे मुझे भी दुख है। तुम सुखी रहो, यही मेरी आंतरिक प्रार्थना रहती है। यदि तुम किसी से कोई बात न कहना चाहती हो, तो मत कहो, किन्तु इस तरह ठढा करना ठीक नहीं है।’
पार्वती ने दुखित होकर कहा – ‘ठट्टा नहीं करती हूँ बहिन, जितना मैं जानती हूँ,उतना तुम्हे बता दिया है। मैं यही जानती हूँ कि मेरे स्वामी का नाम श्री देवदास है। उम्र उन्नीस या बीस वर्ष है, यही बात तुमसे भी कही है।’
‘किन्तु मैंने तो सुना है कि तुम्हारा संबंध दूसरे से स्थिर हुआ है?’
‘स्थिर और क्या होगा? दादा का तो अब किसी के साथ ब्याह होगा। नहीं होगा, तो मेरे साथ न, मैंने तो ऐसी कोई खबर नहीं सुनी है।’
मनोरमा ने जो कुछ सुना था, वह कहने लगी। पार्वती ने बाधा देकर कहा -‘यह सब मैंने भी सुना है।’
‘तब क्या देवदास तुमको…?’
‘क्या मुझको?’
मनोरमा ने हँसी दबाकर कहा – ‘तब जान पड़ता है, स्वयंवर हुआ है! छिपे-छिपे सब बातचीत पक्की हो गयी है!’
‘कच्ची-पक्की यहाँ कुछ नहीं हुई है।’
मनोरमा ने व्यथित स्वर में कहा – ‘तू क्या कहती है, पत्तो कुछ भी समझ में नहीं आता।’
पार्वती ने कहा – ‘तब देवदास से पूछकर मैं तुमको समझा दूंगी।’
‘क्या पूछोगी? वह तुमसे ब्याह करेगे कि नहीं?’
पार्वती ने सिर हिलाकर कहा – ‘हाँ, यही।’
मनोरमा ने बड़े आश्चर्य के साथ पूछा – ‘क्या कहती हो पत्तो, क्या तुम स्वयं पूछोगी?’
‘इसमें क्या दोष है, बहिन?’
मनोरमा अवाक् हो गयी, बोली – ‘क्या कहती हो? स्वयं?’
‘हाँ, स्वयं नहीं तो और मेरी ओर से कौन पूछेगा?’
‘लाज नहीं लगेगी?’
‘लाज क्यों लगेगी? तुमसे कहने में क्या मैंने लज्जा की है?’
‘मैं स्त्री हूँ-तुम्हारी सखी हूँ, किन्तु वे तो पुरुष हैं, पत्तो!’
इस पर पर्वती हँस पड़ी; कहा – ‘तुम सखी हो, तुम अपनी हो, किन्तु वे क्या दूसरे है? जो बात तुमसे कह सकती हूँ, क्या वही बात उनसे नहीं कह सकती?’
मनोरमा अवाक् होकर उसके मुँह की ओर देखने लगी।
पार्वती ने हँस कर कहा – ‘मनो बहिन, तुम झूठ ही माथे में सिंदूर पहनती हो। यह भी नहीं जानती कि किसको स्वामी कहते है। वे मेरे स्वामी न होने पर भी मेरी लज्जा के स्वामी है। उनसे ऐसा करने के पहले ही मैं मर न जाऊंगी! इसे छोड़, जो मनुष्य मरने पर उतारू है, क्या वह यह देखता है कि विष कड़वा है या मीठा। उनसे मेरा कोई भी परदा नहीं है।’
मनोरमा उसके मुँह की ओर देखती रही। कुछ देर बाद पूछा – ‘उनसे क्या कहोगी? यह कहोगी कि मुझे अपने चरणो में स्थान दो?’
पार्वती ने सिर हिलाकर कहा – ‘ठीक यही कहूंगी, बहिन?’
‘और यदि वे स्थान न दे?’
इसके बाद पार्वती कुछ देर तक चुप रही, फिर कहा – ‘उस समय की बात नहीं जानती।’
घर लौटते समय मनोरमा ने मन-ही-मन सोचा, धन्य साहस, धन्य हृदय-बल! यदि मैं मर भी जाऊं, तो भी यह बात मुँह से कभी निकाल नहीं सकती।
बात सत्य है। इसी से तो पार्वती ने कहा कि यह माथे में सिंदूर और हाथ में चूड़ी पहनना व्यर्थ है।
लगभग एक बजे रात का समय है, तब भी मलिन ज्योत्स्ना आकाश के अंग से लिपटी हुई है। पार्वती चादर से सिर से पैर तक अपने अंग को ढककर दबे पाँच सीढ़ी से नीचे उतर आयी। चारो ओर आँख खोलकर देखा-कोई जाग तो नहीं रहा है। फिर दरवाजा खोलकर नीरव-पथ में आकर खड़ी हुई। गाँव का मार्ग एकदम निस्तब्ध, एकदम निर्जन था-किसी से भेट होने की आशंका नहीं थी। वह बिना किसी रूकावट के जमीदार के मकान के सामने आकर खड़ी हुई। ड्योढ़ी पर वृद्ध दरबान कृष्णसिंह खाट बिछा, तुलसीकृत रामायण पड़ रहे थे। पार्वती को प्रवेश करते देखकर उसने नेत्र नीचे किये ही पूछा – ‘कौन है?’
पार्वती ने कहा – ‘मैं।’
दरबानजी ने समझा कि कोई स्त्री है। दासी समझकर फिर कोई प्रश्न नहीं किया और गा-गाकर रामायण पढ़ने मे निमग्न हो गये। पार्वती चली गयी। गरमी के कारण बाहरी आंगन मे कई नौकर सो रहे थे; उनमें से कितने ही पूर्ण-निद्रित और कितने ही अर्द्ध-जाग्रत थे। नींद की झोंक में एकाध ने पार्वती को जाते देखा, लेकिन दासी समझकर किसी ने कुछ रोक-टोक नहीं की। पार्वती निर्विध्न सीढ़ी से होकर ऊपर कोठे पर चली गयी। इस घर का एक-एक कमरा और एक-एक कोना उसका जाना हुआ था। देवदास के कमरे को पहचानने में उसे जरा भी देर नहीं लगी। किवाड़ खुला हुआ था और भीतर एक दीपक जल रहा था। पार्वती ने भीतर आकर देखा, देवदास पलंग पर सो रहे है। सिर के पास उस समय भी एक पुस्तक खुली पड़ी थी, इससे जान पड़ता है कि वह अभी ही सोये है। दिये की टेम को तेज कर चुपचाप देवदास के पांव के पास आकर बैठ गयी। केवल दीवाल पर टंगी हुई घड़ी ‘टन-टन’ शब्द करती है; इसे छोड़कर सभी सो रहे है, सभी जगह सन्नाटा छाया हुआ है। पांव के ऊपर हाथ रखकर पार्वती ने धीरे से कहा – ‘देव दादा…!’
देवदास ने नींद की झोंक में सुना कि कोई उसे बुला रहा है। उसने उसी तरह लेटे हुए बिना आँख खोले कहा – ‘हूं!’
‘देव दादा!’
इस बार देवदास आँख मीचते हुए उठ बैठे। पार्वती के मुँह पर घूंघट नहीं था, घर मे दीपक तीव्र ज्योति से जल रहा था, देवदास ने सहज ही पहचान लिया। किन्तु फिर भी उसे पहले विश्वास नहीं हुआ। पूछा – ‘यह क्या, पत्तो?’
देवदास ने घड़ी की ओर देखा। विस्मय पर विस्मय बढ़ता गया-‘इतनी रात में!’
पार्वती ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह मुँह नीचे किये बैठे रही। देवदास ने फिर पूछा – ‘इतनी रात में क्या घर से अकेली आयी हो?’
पार्वती ने कहा – ‘हाँ।’
देवदास ने उद्विग्न, आशंकित और कलंकित होकर पूछा – ‘कहो, क्या रास्ते मे डर भी नहीं मालूम हुआ?’
पार्वती ने मीठी हँसी हँसकर कहा – ‘मुझे भूत का भय नहीं लगता।’
‘भूत का भय नहीं करती, तो आदमी का भय तो करती हो; क्यों आयी?’
पार्वती ने कोई उत्तर नहीं दिया, किन्तु मन-ही-मन कहा कि इस समय मुझे उसका भी डर नहीं है।
‘मकान में कैसे आई? क्या किसी ने देखा नहीं?’
‘दरबान ने देखा है।’
देवदास ने आँख फाड़कर देखा कहा – ‘दरबान ने देखा’ ‘और किसी ने?
‘आंगन में नौकर लोग सो रहे थे, शायद उनमें से किसी ने देखा हो।’
देवदास ने बिछौना से कूदकर किवाड़ बंद कर दिये – ‘किसी ने पहचाना भी?’
पार्वती ने कोई भी उत्कंठा प्रकट न की। सहज भाव से उत्तर दिया – ‘वे सभी लोग मुझे जानते हैं, शायद किसी ने पहचाना हो।’
‘क्या कहती हो? ऐसा काम क्यों किया, पत्तो?’
पार्वती ने मन ही मन कहा कि यह तुम किसी तरह समझ सकते हो? किंतु प्रकट मे कुछ नहीं कहा – ‘माथा नबाये बैठी रही।’
‘इतनी रात में, छिः! छि! कल तुम कौन-सा मुँह दिखाओगी?’
पार्वती ने मुंह नीचे किए हुए ही कहा-‘वह साहस मुझमे है।’
देवदास ने क्रोध नहीं किया, किंतु बड़ी उत्कंठा से कहा – ‘छिः! छिः! अब भी क्या तुम लड़की हो?
यहां पर इस तरह आते हुए क्या तुम्हे कुछ लज्जा मालूम नहीं हुई।’
पार्वती ने सिर हिलाकर कहा – ‘कुछ भी नहीं!’
‘क्या लज्जा से तुम्हारा सिर नीचा न होगा?’
यह प्रश्न सुनकर पार्वती ने तीव्र किंतु करुण-दृष्टि से देवदास के मुख की ओर कुछ क्षण देखकर निस्संकोच होकर कहा – ‘सिर तो तब नीचा होता, अगर मैं यह अच्छी तरह से न जानती होती कि तुम मेरी सारी लज्जा को ढंक दोगे।’
देवदास ने विस्मित एवं हतबुद्धि होकर कहा – ‘मैं! किंतु मैं कैसे मुँह दिखा सकूंगा?’
पार्वती ने उसी भांति अविचलित कंठ से कहा – ‘तुम? किंतु तुम्हारा क्या हो सकता है, देव दादा?’
थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने फिर कहा – ‘तुम पुरुष हो! आज नहीं तो कल तुम्हारे कलंक की बात सब अवश्य भूल जायेंगे। दो दिन के बाद किसी से इसका ध्यान भी नहीं रहेगा कि कब, किस रात में हतभागिनी पार्वती सब-कुछ तुच्छ समझकर तुम्हारे पद-रज मेंलीन होने आई थी।’
‘यह क्या पत्तो?’
‘और मैं?’
मंत्र-मुग्ध की भांति देवदास ने कहा – ‘और तुम?’
‘मेरे कलंक की बात कहते हो? नहीं, मुझे कलंक नहीं लगेगा। तुम्हारे पास मैं छिपे-छिपे आई, यदि यह कहकर मेरी निंदा होगी, तो वह निंदा मुझे नहीं लग सकती।’
‘यह क्या पत्तो, रोती हो?’
‘देव दादा, नदी में इतना जल भरा हुआ है! क्या इतने जल में भी मेरा कलंक नहीं धुल सकता?’
सहसा देवदास ने पार्वती के दोनो हाथ पकड़ लिये और कहा –‘पावर्ती!’
पार्वती ने देवदास के पांव के ऊपर सिर रखकर अवरुद्ध कंठ से कहा – ‘यहीं पर थोड़ा सा स्थान दो, देव दादा!’
इसके बाद दोनों ही चुप रहे। देवदास के पांव पर से बहकर अनेकों अश्रुकण शुभ्र-शैया को भिगोने लगे।
बहुत देर के बाद देवदास ने पार्वती के मुख को ऊपर उठाकर कहा -‘पत्तो, क्या मुझे छोड़कर तुम्हें और कोई उपाय नहीं है?’
पार्वती ने कुछ नहीं कहा। उसी भांति पांव पर सिर रखे हुए पड़ी रही। निस्तब्धता के भीतर एकमात्र वही लंबी-लंबी उसासे भर रही थी। टन-टन करके घड़ी मे दो बज गये। देवदास ने कहा – ‘पत्तो!’
पार्वती ने रुद्ध कंठ से कहा – ‘क्या?’
‘पिता-माता बिलकुल सहमत नहीं है, यह सुना है?’ पार्वती ने सिर हिलाकर जवाब दिया – ‘सुना है।’
फिर दोनों चुप रहे। बहुत देर बाद देवदास ने दीर्घ निःश्वास फेंककर कहा – ‘तब फिर?’
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