चैप्टर 11 देवदास : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 11 Devdas Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 11 Devdas Novel In Hindi

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Chapter 11 Devdas Novel In Hindi

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आज दो वर्ष हुए चंद्रमुखी ने अपने रहने के लिए अशथझूरी गाँव में छोट नदी के तीर पर एक ऊँची जगह में दो छोटे-छोटे मिट्टी के घर बनाये है। पास ही में एक खलियान है, वहाँ पर उसकी एक हृष्ट-पुष्ट काली गाय बंधी रहती है। दो घरों में, एक रसोईघर और भंडार है तथा दूसरे में वह सोती है। सोकर उठने से पहले ही रामवाग्दी की स्त्री सब घर-द्वार झाड़-बुहारकर साफ कर देती है। मकान के चारों ओर सहन बना है, बीच में एक बेर का पेड़ है और एक ओर एक तुलसी की चौतरिया है। सामने नदी की धार है, उसके आस-पास लोगों ने खजूर और केले आदि के वृक्ष लगा रखे हैं। चंद्रमुखी को छोड़, इस घाट का उपयोग और कोई नहीं करता। वर्षा-काल में नदी के फनफनाने पर चंद्रमुखी के मकान के नीचे तक जल आ जाता है। उस समय लोग व्यग्र हो उठते है और कुदाली से मिट्टी खोदकर जगह को ऊँची बनाने के लिए दौड़ आते हैं। गाँव में ऊँची जाति के लोग नहीं रहते। किसान अहीर, कहार, कुर्मी, वाग्दी, दो घर कलवार और दो घर चमार रहते हैं। चंद्रमुखी ने गाँव में आकर देवदास को सूचना दी; उत्तर में उन्होंने कुछ और रुपये भेज दिये। इन रुपयो में से चंद्रमुखी गाँव के लोगों को उधार देती है। आपद-विपद में सभी आकर उससे रुपया उधार ले जाते है। चंद्रमुखी सूद नहीं लेती, उसके बदले कंद-मूल, शाक-भाजी, जिसकी जो इच्छा होती है, दे जाता है। अमल के लिए भी किसी से ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं करती। जो नहीं दे सकते, वे नहीं देते।

चन्द्रमुखी हँसकर कहती-‘अब तुझे कभी न दूंगी।’

वह नम्र भाव से कहता-‘माँ, ऐसा आशीर्वाद दो कि इस बार अच्छी फसल हो।’

चंद्रमुखी आशीर्वाद देती; किन्तु यदि फिर अच्छी फसल न होती, तो वे फिर रोते हुए आकर हाथ पसारते और चंद्रमुखी फिर देती। मन-ही-मन हँसकर वह कहती-‘वे अच्छी तरह से रहें, मुझे रुपये-पैसे की क्या कमी है।’

किन्तु वे कहाँ है? प्रायः छः महीने हुए, उसे कोई खबर नहीं मिली। चिट्ठी लिखी, किन्तु कोई जवाब नहीं मिला। रजिस्ट्री लगायी, वह लौट आयी। चंद्रमुखी ने एक ग्वाले को अपने घर के पास बसा रखा था। उसके लड़के के विवाह मे साढ़े दस गंडे रुपये से सहायता दी थी; एक जोड़ा कड़ा भी खरीद दिया। उसका सारा परिवार चंद्रमुखी का आश्रित और आज्ञाकारी था। एक दिन प्रातःकाल चंद्रमुखी ने भैरव ग्वाला को बुलाकर कहा-‘भैरव, यहाँ से तालसोनापुर कितनी दूर है, जानते हो?’

भैरव ने सोचकर कहा-‘यहाँ से कोई दो धाप पर कचहरी है।’

चंद्रमुखी ने पूछा-‘वहाँ पर जमीदार रहते हैं?’

भैरव ने कहा-‘हाँ, वे भारी जमीदार है। यह गाँव भी उन्हीं का है। आज तीन वर्ष हुए, उनका स्वर्गवास हो गया। उनके श्राद्ध में सारी प्रजा ने एक महीने तक पूरी तरकारी खायी थी। अब उनके दो लड़के हैं; वे लोग बहुत भारी आदमी हैं-राजा हैं।’

चंद्रमुखी ने पूछा-‘भैरव, तुम मुझे वहाँ तक पहुँचा सकते हो?’

भैरव ने कहा-‘क्यों नहीं पहुँचा सकता; जिस दिन इच्छा हो, चलो।’

चंद्रमुखी ने उत्सुक होकर कहा-‘तब चलो न भैरव, मैं आज ही चलूंगी।’

भैरव ने विस्मित होकर कहा-‘आज ही?’ फिर चंद्रमुखी के मुख की ओर देखकर कहा-‘तो तुम जल्दी से रसोई-पानी से निबट लो और मैं भी तब तक थोड़ी फरूही बांधकर आता हूँ।’

चंद्रमुखी ने कहा-‘आज मैं रसोई करूंगी नहीं। भैरव तुम फरूही लेकर आओ।’

भैरव घर पर गया और कुछ फरूही चादर में बांधकर, एक लाठी हाथ मे लेकर तुरन्त लौट आया, कहा-‘तब चलो; पर क्या तुम क्या खाओगी नहीं?’

चंद्रमुखी ने कहा-‘नहीं भैरव, अभी मेरा पूजा-पाठ नहीं हुआ है, अगर समय पाऊंगी, तो वहींपर सब करूंगी।’

भैरव आगे-आगे रास्ता दिखलाता हुआ चला। पीछे-पीछे चंद्रमुखी बड़े कष्ट के साथ पगडंडी के ऊपर चलने लगी। अभ्यास न रहने के कारण दोनो कोमल पांव क्षत-विक्षत हो गये। धूप के कारण सारा मुख लाल हो उठा। खाना-पीना कुछ न होने पर भी चंद्रमुखी खेत-पर-खेत पार करती हुई चलने लगी।

खेतिहर किसान लोग आश्चर्यित होकर उसके मुख की ओर देखते थे।

चंद्रमुखी एक लाल पाढ़ की साड़ी पहने हुई थी, हाथ में दो सोने के कड़े पड़े हुए थे, सिर पर ललाट तक घूंघट था और सारा शरीर एक मोटे बिछौने की चादर से ढंका हुआ था। सूर्यदेव के अस्त होने मे अब और अधिक विलंब नहीं है। उसी समय दोनों गाँव में आकर उपस्थित हुये। चंद्रमुखी ने थोड़ा हँसकर कहा-‘भैरव, तुम्हारा दो धाप इतनी जल्दी कैसे समाप्त हो गया?’

भैरव ने इस परिहास को न समझकर सरल भाव से कहा-‘इस बार तो चली आयीं। पर क्या तुम्हारी सूखी देह आज ही फिर लौटकर चल सकेगी?’

चंद्रमुखी ने मन-ही-मन कहा-‘आज क्या, जान पड़ता है कल भी ऐसे इतना रास्ता नहीं चल सकूंगी।’

प्रकाश ने कहा-‘भैरव, क्या यहाँ गाड़ी नहीं मिलेगी?’

भैरव ने कहा-‘मिलेगी क्यों नहीं, बैलगाड़ी मिलेगी, कहो तो ठीक करके ले आवे?’ गाड़ी ठीक करने का आदेश देकर चंद्रमुखी ने जमीदार के घर में प्रवेश किया।

भैरव गाड़ी का प्रबंध करने दूसरी ओर चला गया। भीतर ऊपरी खंड में, दालान में, बड़ी बहू बैठी थी। एक दासी चंद्रमुखी को वहीं लेकर आयी। दोनों ने एक दूसरे को एक बार ध्यानपूर्वक देखा।

चंद्रमुखी ने नमस्कार किया। बड़ी बहू शरीर पर अधिक अलंकार नहीं धारण करती, किन्तु आँखों के कोण पर अहंकार झलका करता है। दोनों होंठ और दांत पान और मिस्सी से काले पड़ गये है। गाल कुछ ऊपर उठे हुए है और सारा चेहरा भरा-पूरा। केशों को इस प्रकार सजाकर बांधती है कि कपाल जगमगा उठता है। दोनों कानों में मिलाकर कोई बीस-तीस छोटी-बड़ी बालियाँ पड़ी है। नाक के नीचे एक बुलाक लटकता है। नाक के एक ओर लौंग पहने है। जान पड़ता है, यह सुराख नथ पहनने के लिए बना है।

चंद्रमुखी ने देखा, बड़ी बहू बहुत मोटी-सोटी है, रंग विशेष श्याम है, आँखें बड़ी-बड़ी है, गोल गठन का मुख है, काले पाढ़ की साड़ी पहने है और एक नारंगी रंग की कुरती पहने है। यह सब देख चंद्रमुखी के मन मे कुछ घृणा-सी उत्पन्न हुई। बड़ी बहू ने देखा कि चंद्रमुखी के वयस्क होने पर भी उसका सौंदर्य कम नहीं हुआ है। दोनों ही संभवतः समवयस्क है, किन्तु बड़ी बहू ने मन-ही-मन इसे स्वीकार नहीं किया। इस गाँव में पार्वती के अतिरिक्त इतना सौंदर्य और किसी में नहीं देखा।

आश्चर्यित होकर पूछा-‘तुम कौन हो?’

चंद्रमुखी ने कहा-‘मैं आपकी ही एक प्रजा हूँ, खजाने की मालगुजारी कुछ बाकी पड़ गयी थी, उसी को देने आयी हूँ।’

बड़ी बहू ने मन-ही-मन प्रसन्न होकर कहा-‘तो यहाँ क्यों आयी, कचहरी में जाओ।’

चंद्रमुखी ने मीठी हँसी हँसकर कहा-‘माँ, मैं बड़ी दुखिया हूँ, सब रूपया नहीं दे सकती। सुना है कि आप बड़ी दयावती है; इसी से आपके पास आयी हूँ कि कुछ माफ कर दें।’

इस प्रकार की बात बड़ी बहू ने अपने जीवन में पहली ही बार सुनी। उनमें दया है, मालगुजारी माफ कर सकती हैं, आदि कहने के कारण चंद्रमुखी तत्काल ही उनकी प्रिय-पात्री हो गयी। बड़ी बहू ने कहा-‘दिन-भर में कितने ही रुपये मुझे छोड़ने होते हैं, कितने ही लोग मुझे आकर पकड़ते हैं; मैं नहीं नहीं कर सकती, इसलिए सभी मेरेरे ऊपर क्रोध भी करते हैं। तो तुम्हारा कितना रुपया बाकी पड़ता है?’

‘अधिक नहीं, कुल दो रुपये; पर मेरे लिए यही दो रुपये पहाड़ हो रहे है; सारे दिन आज रास्ता चलकर यहाँ आयी हूँ।’

बड़ी बहू ने कहा-‘अहा! तुम दुखिया हो, तुम्हारे ऊपर मुझे दया करनी उचित है। ऐ बिन्दू! इनको बाहर लिये जाओ, दीवानजी से मेरा नाम लेकर कह देना कि दो रुपये माफ कर दें। अच्छा, तुम्हारा घर कहाँ है?’

चंद्रमुखी ने कहा-‘आपके ही राज्य में-अशयझूरी गाँव में। अच्छा माँ, क्या छोटे मालिक नहीं हैं?’

बड़ी बहू ने कहा-‘अभागी! छोटा मालिक कौन है? दो दिन बाद सब मेरा ही तो होगा।’

चंद्रमुखी ने उद्विग्न होकर पूछा-‘क्यों? जान पड़ता है, छोटे बाबू पर खूब कर्ज है?’

बड़ी बहू ने थोड़ा हँसकर कहा-‘मेरे यहाँ कई गाँव बंधक हैं। अब तक तो सब बिक गया होता।’

‘कलकत्ता में शराब और वेश्या के पीछे सारा धन लुटाये डाल रहे हैं, उसका कोई हिसाब नहीं, कोई अंत नहीं।’

चंद्रमुखी का मुख सूख गया, थोड़ा ठहरकर उसने पूछा-‘हाँ माँ, तो छोटे बाबू इसी से घर भी नहीं आते?’

बड़ी बहू ने कहा-‘आते क्यों नहीं हैं! जब रुपये की ज़रूरत पड़ती है, तो आते हैं। उधार काढ़ते हैं, जमीन बंधक रखते हैं, फिर चले जाते हैं। अभी दो महीने हुए आये थे, बाहर हजार रुपये ले गये। बचने की भी तो उम्मीद नहीं है, शरीर में कई-एक बुरे रोग लग गये हैं! छिः! छिः!’

चंद्रमुखी सिहर उठी, मलिन मुख से उसने पूछा-‘वे कलकत्ता में कहाँ रहते हैं?’

बड़ी बहू ने सिर ठोक कर, प्रसन्न मुख से कहा-‘बड़ी बुरी दशा है! यह क्या कोई जानता है कि कहाँ, किस होटल में रहते हैं, किस दोस्त के मकान में पड़े रहते हैं, यह वही जाने या उनका दुर्भाग्य जाने।’

चंद्रमुखी सहसा उठ खड़ी हुई, और बोली-‘अब मैं जाती हूँ।’

बड़ी बहू ने थोड़ा आश्चर्यित होकर कहा-‘जाओगी? अरी ओ बिन्दू…!’

चंद्रमुखी ने बीच में ही बाधा देकर कहा-‘ठहरो माँ, मैं खुद ही कचहरी जाती हूँ।’ यह कहकर वह धीरे-धीरे चली गयी। घर के बाहर देखा, भैरव आसरा देख रहा है, और बैलगाड़ी एक किनारे खड़ी है।’

उसी रात को चंद्रमुखी घर लौट आयी। प्रातःकार भैरव को फिर बुलाकर कहा-‘भैरव, मैं आज कलकत्ता जाऊंगी। तुम तो साथ जा नहीं सकोगे, इसलिए तुम्हारे लड़के को साथ ले जाऊंगी। बोलो, क्या कहते हो?’

भैरव-‘जैसी तुम्हारी इच्छा हो। लेकिन कलकत्ता क्यों जाती हो माँ, क्या कोई खास काम है?’

चंद्रमुखी-‘हाँ भैरव, खास काम है।’

‘भैरव-‘और आओगी कब?’

चंद्रमुखी-‘यह नहीं कह सकती भैरव। अगर हो सका, तो जल्दी ही आऊंगी और नहीं तो देर लगेगी। और अगर नहीं आ सकी, तो घर-द्वार सब तुम्हारा ही होगा।’

पहले तो भैरव अवाक्‌ हो गया, फिर उसकी दोनो आँखों में जल भर आया, कहा-‘यह कैसी बात कहती हो माँ! तुम्हारे न आने से इस गाँव के लोग कैसे रह सकेगे?’

चंद्रमुखी के नेत्र भी सजल हो उठे, थोड़ी मीठी हँसी हँसकर कहा-‘यह क्यों भैरव,मैं तो कुल दो ही वर्ष से आयी हूँ, इसके पहले तुम लोग कैसे रहते थे?’

इसका उत्तर मूर्ख भैरव नहीं दे सकता, किन्तु चंद्रमुखी हृदय में सब-कुछ समझती थी। भैरव का लड़का केवला उसके साथ जायेगा। गाड़ी पर आवश्यक चीज-वस्तु लादकर चलने के समय सभी स्त्री पुरुष देखने आये, देखकर रोने लगे। चंद्रमुखी भी अपनी आँखों के आँसू नहीं रोक सकी। नाश हो ऐसे कलकत्ता का, यदि देवदास न होते, तो कलकत्ता में रानी का पद मिलने पर भी चंद्रमुखी ऐसे प्रेम तृणवत त्यागकर कभी न जा सकती।

दूसरे दिन वह क्षेत्रमणि के घर पर आ उपस्थित हुई। उसके पहले घर में इस समय दूसरे लोग रहते थे। क्षेत्रमणि अवाक्‌ हो गया, पूछा-‘बहिन, इतने दिनो तक कहाँ थी?’

चंद्रमुखी ने सत्य बात को छिपाकर कहा-‘इलाहाबाद थी।’

क्षेत्रमणि ने एक बार अच्छी तरह से सारा शरीर देखकर कहा-‘तुम्हारे सब गहने क्या हुए, बहिन?’

चंद्रमुखी ने हँसकर संक्षेप में उत्तर दिया-‘सब हैं।’

उसी दिन मोदी से भेट करके कहा-‘दयाल, मेरे कितने रुपये चाहिए?’

दयाल बड़ी विपद मे पड़ा, कहा-‘यही कोई साठ-सत्तर रुपये चाहिए। आज नहीं, दो दिनों के बाद दूंगा।’

‘तुम्हें कुछ न देना होगा, यदि मेरा एक काम कर दो।’

‘कौन काम?’

‘दो-तीन दिन के भीतर ही हम लोगों के मुहल्ले में एक किराये का घर ठीक कर दो-समझे?’

दयाल ने हँसकर कहा-‘समझा।’

‘अच्छा घर हो, अच्छे-अच्छे बिछौने-चादर, चारपाई, लैम्प, दो कुर्सियाँ, एक टेबिल हो, समझे?’

दयाल ने सिर नीचा कर लिया।

‘साड़ी, कुरती, श्रृंगारदान, अच्छे गिलट के गहने आदि कहाँ मिल सकते हैं?’

दयाल मोदी ने ठिकाना बता दिया।

चंद्रमुखी ने कहा-‘तब वह सब भी एक सेट अच्छा-सा देखकर खरीदना होगा। मै साथ चलकर पसंद कर लूंगी।’ फिर हँसकर कहा-‘मुझे जो-जो चाहिए, सो तो जानते ही हो, एक दासी भी ठीक करनी होगी।’

दयाल ने कहा-‘कब चाहिए?’

‘जितना जल्द हो सके। दो-तीन दिन के भीतर ही ठीक होने से अच्छा होगा।’ यह कहकर उसके हाथ मे सौ रुपये का नोट रखकर कहा-‘अच्छी-अच्छी चीज़ें ले आना, सस्ती नहीं देखना।’

तीसरे दिन वह नये घर चली गयी। सारा दिन केवलराम को साथ लेकर अपनी इच्छानुसार घर को सजाया एवं संध्या के पहले अपने को सजाने बैठी। साबुन से मुँह धोया, इसके बाद पाउडर लगाया, लाल रंग से पांवो को रंगा और पान खाकर होठ रंगे। फिर सारे अंगो मे आभूषण धारण किये, कुरती और साड़ी पहनी। बहुत दिन बाद आज केश संवारकर सिर मे टीका लगाया। आईने में मुँह देखकर मन-ही-मन कहा-अब और न जाने और क्या-क्या भाग्य में बदा है।

देहाती बालक केवलराम ने यह साज-बाज और पोशाक देखकर भीत भाव से पूछा-‘यह क्या, बहिन?’

चंद्रमुखी ने हँसकर कहा-‘केवल, आज मेरे पति आवेगे।’

केवलराम विस्मय नेत्रों से देखता रहा।

संध्या के बाद क्षेत्रमणि आया, पूछा-‘बहिन, अब यह सब क्या?’

चंद्रमुखी ने मुख नीचा कर, हँसकर कहा-‘क्यों, यह सब अब नहीं चाहिए?’

क्षेत्रमणि कुछ देर चुपचाप देखता रहा, फिर कहा-‘जितनी उम्र बढ़ती जाती है, उतना ही सौंदर्य भी बढ़ता जाता है।’

वह चला गया। चंद्रमुखी आज बहुत दिनों बाद फिर खिड़की पर आकर बैठी। एकटक रास्ते की ओर देखती रही। यही उसका काम है, यही करने वह आयी है। जितने दिन वह यहाँ रहेगी, उतने दिन यही करेगी। कोई-कोई नये आदमी आना चाहते थे, द्वार ठेलते थे, किन्तु उसी समय केवलराम कहता था, ‘यहाँ नहीं आना।’

पुराने परिचित लोगों में से यदि कोई आता, तो चंद्रमुखी बैठकर, हँस-हँसकर बाते करती। बात-ही बात में देवदास की बात पूछता। जब वे न बता सकते, तो उदास मन से विदा कर देती। रात अधिक बीतने पर स्वयं बाहर निकल जाती थी। मुहल्ले-मुहल्ले, द्वार-द्वार घूमती-फिरती छिपकर लोगों की बातें कान देकर सुनती, कुछ लोग अनेकों प्रकार की बातें करते थे, किन्तु वह जो सुनना चाहती थी, वह कही नहीं सुन जाती थी। आते-जाते हुए लोगों में से वह बहुतों को देवदास समझकर पास जाती थी, किन्तु जब किसी दूसरे को देखती थी तो धीरे से लौट आती थी। दोपहर के समय वह अपनी पुरानी साथिनों के घर जाती। बात-ही-बात में पूछती-‘क्यों, देवदास के विषय में भी कुछ जानती हो?’

वह पूछती-‘कौन देवदास?’

चंद्रमुखी उत्सुक भाव से परिचय देने लगती-‘गोरा रंग है, सिर पर घुंघराले बाल है, ललाट के एक ओर चोट का दाग है, धनी आदमी है, बहुत रुपया खर्च करते है, क्या तुम पहचानती हो?’

कोई पता नहीं बता सकता था। हताश होकर उदास मन से चंद्रमुखी घर लौट आती थी। बड़ी रात तक रास्ते की ओर देखती रहती थी। नींद आने पर विरक्त भाव से मन-ही-मन कहती-यह क्या तुम्हारे सोने का समय है?

इस तरह एक महीना बीत गया। केवलराम भी ऊब उठा। चंद्रमुखी को स्वयं पर संदेह होने लगा कि वे यहाँ पर नहीं है। फिर भी आशा-भरोसा में दिन पर दिन बीतने लगे।

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