चैप्टर 13 देवदास : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 13 Devdas Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 13 Devdas Novel In Hindi

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Chapter 13 Devdas Novel In Hindi

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एक वर्ष बीत गया। भादो का महीना था। एक दिन प्रातःकाल देवदास धर्मदास के कंधे के सहारे से बम्बई-अस्पताल से बाहर आकर गाड़ी में बैठे। धर्मदास ने कहा-‘देवता, मेरी सलाह से इस समय माँ के पास चलना अच्छा होगा।’

देवदास की दोनों आँखें डबडबा आयी। आज कई दिन से वे भी माँ को स्मरण कर रहे थे। अस्पताल में पड़े-पड़े वे जब-तब यही सोचते थे कि इस संसार में उनके सभी है और कोई भी नहीं है। उनके माँ है, बड़ा भाई है, बहिन से बढ़कर पार्वती है, चंद्रमुखी भी है। उनके सभी है, पर वे किसी के नहीं है। धर्मदास रोने लगा, कहा-‘भाई, इससे अच्छा है कि माँ के पास चलो।’

देवदास ने मुँह फेरकर आँसू पोछकर कहा-‘नहीं धर्मदास, माँ को मुँह दिखाने लायक नहीं हूँ। जान पड़ता है, अभी मेरा समय नहीं आया।’

वृद्ध धर्मदास फूट-फूट कर रोने लगा, कहा-‘भैया, अभी तो माँ जीती ही है।’

इस बात में कितना भाव भरा हुआ था-इसका उन्हीं दोनों की अतंरात्माअनुभव कर सकी। देवदास की अवस्था इस समय बड़ी शोचनीय थी। सारे पेट की ह्रश्वलीहा और फेफड़े ने छेक लिया था, उस पर ज्वर और खांसी का प्रबल प्रकोप था। शरीर का रंग एकदम काला पड़ गया था, केवल ठठरी मात्र बच रही थी। आँखें भीतर की ओर घुस गयी थी, उनमें एक प्रकार की अस्वाभाविक उज्ज्वलता चमका करती थी। सिर के बाल बड़े रूखे-रूखे हो रहे थे, संभवतः चेष्टा करने से गिने भी जा सकते थे। हाथ की उंगलियों को देखने से घृणा उत्पन्न होती थी-एक तो वे नितान्त दुबली-पतली, दूसरे कुत्सित रोगों के दाग से खराब हो गयी थी। स्टेशन पर आकर धर्मदास ने पूछा-‘कहाँ का टिकट कटाया जायेगा देवता?’

देवदास ने कुछ सोचकर कहा-‘चलो पहले घर चले, फिर देखा जायेगा।’

गाड़ी ह्रश्वलेटफार्म पर आयी। वे लोग हुगली का टिकट खरीदकर बढ़ गये। धर्मदास देवदास के पास हो रहा। संध्या के कुछ पहले ही देवदास की आँखों से चिंगारियाँ निकलने लगी। धीरे-धीरे धुआंधार बुखार चढ़ आया। उन्होंने धर्मदास को बुलाकर कहा-‘धर्मदास आज ऐसा मालूम पड़ता है कि घर भी पहुँचना कठिन होगा।’

धर्मदास ने डरकर कहा-‘क्यों भैया?’

देवदास ने हँसने की चेष्टा करके कहा-‘फिर बुखार चढ़ आया धर्मदास!’

काशी को गाड़ी पार कर गयी, तब तक देवदास अचेत थे। पटना के पास आकर जब उन्हें होश हुआ, तो कहा-‘तब तो धर्मदास, माँ के पास सचमुच नहीं जा सके।’

धर्मदास ने कहा-चलो, भैया, पटना में उतरकर हम डॉक्टर को दिखा लें।’

उत्तर में देवदास ने कहा-‘रहने दो, अब हम लोग घर पर ही चलकर उतरेंगे।’

गाड़ी जब पंडुआ स्टेशन पर आकर खड़ी हुई, तब पौ फट चुकी थी। रात-भर खूब वर्षा हुई थी,अभी थोड़ी देर से थमी हुई है। देवदास उठ खड़े हुए। नीचे धर्मदास सोया हुआ था। धीरे से उसके सिर पर हाथ रखा, किन्तु लज्जावश जगा नहीं सके। फिर द्वार खोलकर धीरे से नीचे ह्रश्वलेटफार्म पर उतर गये।

गाड़ी सोये हुए धर्मदास का लेकर चली गयी। कांपते-कांपते देवदास स्टेशन के बाहर आये। एक गाड़ीवान को बुलाकर पूछा-‘क्या हाथीपोता चल सकता है?’

उसने एक बार मुँह की ओर, फिर एक बार इधर-उधर देखकर कहा-‘नहीं बाबू, रास्ता अच्छा नहीं है।

घोड़े की गाड़ी ऐसे कीचड़ पानी में उधर नहीं जा सकेगी।’

देवदास ने उद्विग्न होकर पूछा-‘क्या पालकी मिल सकती है?’

गाड़ीवान ने कहा-‘नहीं।’

देवदास इसी आशंका में धप्‌ से बैठ गये कि क्या तब जाना नहीं होगा? उनके मुख से उनकी अंतिम अवस्था के चिन्ह सुस्पष्ट प्रकट हो रहे थे। एक अंधा भी उसे भली-भांति देख सकता था।

गाड़ीवान ने दयार्द्र होकर पूछा-‘बाबूजी, एक बैलगाड़ी ठीक कर दें?’

देवदास ने पूछा-‘कब पहुँचूंगा?’

गाड़ीवान ने कहा-‘रास्ता अच्छा नहीं है, इससे शायद दो दिन लग जायेंगे।’

देवदास ने मन-ही-मन हिसाब लगाने लगे कि दो दिन जीते रहेगे या नहीं। पर पार्वती के पास जाना ज़रूरी है। इस समय उनके मन में पिछले दिनों के बहुत-से झूठे आचार-व्यवहार और बहुत-सी झूठी बातें एक-एक करके स्मरण आने लगी। किन्तु अंतिम दिन की इस प्रतिज्ञा को सच करना ही होगा।

चाहे जिस तरह से हो, एक बार उसे दर्शन देना ही होगा। पर अब इस जीवन की अधिक मियाद बाकी नहीं है, इसी की विशेष चिंता है।

देवदास जब बैलगाड़ी में बैठ गये, तो उन्हें माता का ध्यान आया। वे व्याकुल होकर रो पड़े। जीवन के इस अंतिम समय में एक और स्नेहमयी पवित्र प्रतिमा की छाया दिखायी पड़ी-यह छाया चंद्रमुखी की थी। जिसे पापिष्ठा कहकर सर्वदा घृणा की, आज उसी को जननी की बगल मे गौरवमय आसन पर आसीन देख उनकी आँखों से झर-झर जल झरने लगा। अब इस जीवन में उससे फिर कभी भेंट नहीं होगी और तो क्या वह बहुत दिन तक उनके विषय में कोई खबर तक न पायेगी! तब भी पार्वती के पास चलना होगा। देवदास ने प्रतिज्ञा की थी कि एक बार वे और भेंट करेगे। आज उस प्रतिज्ञा को पूर्ण करना होगा। रास्ता अच्छा नहीं है। वर्षा के कारण कहीं-कहीं जल जमा हो गया है और कही अगलब गल की पगडंडी कटकर गिर पड़ी है। सारा रास्ता कीचड़ से भरा हुआ है। बैलगाड़ी हचक-हचक कर चलती है। कही उतर कर चक्का ठेलना पड़ता है, कही बैलों को बेरहमी के साथ मारना पड़ता है-चाहे जिस तरह से हो, यह सोलह कोस का रास्ता तय करना ही होगा। हर-हर करके ठंडी हवा बह रही थी।

आज भी उन्हे संध्या के बाद विषम ज्वर चढ़ आया। उन्होंने डरकर पूछा-‘गाड़ीवान, और कितना चलना होगा?’

गाड़ीवान ने जवाब दिया-‘बाबू, अभी आठ-दस कोस और चलना है।’

‘जल्दी से चलो, तुम्हें अच्छा इनाम मिलेगा।’-जेब में सौ रुपये का नोट था, उसी को दिखलाकर कहा-‘जल्दी चलो, सौ रुपये इनाम दूंगा।’

इसके बाद कब और किस भांति सारी रात बीत गयी-देवदास को इसकी खबर नहीं। बराबर अचेत रहे। सुबह जब ज्ञान हुआ तो कहा-‘अरे अभी कितनी दूर है? क्या इस रास्ते का अंत नहीं होगा?’

गाड़ीवान ने कहा-‘अभी छः कोस है।’ देवदास ने एक गहरी सांस लेकर कहा-‘ज़रा जल्दी चलो, अब समय नहीं है।’

गाड़ीवान इसे समझ न सका, किन्तु नये उत्साह से बैलों को ठोक-ठाककर और गाली-गलौज देकर हांकने लगा। प्राणपण से गाड़ी चल रही थी, भीतर देवदास छटपटा रहे थे। एकमात्र यही विचार चक्कर लगा रहा था कि भेट होगी या नहीं? पहुँच सकेगे या नहीं? दोपहर के समय गाड़ीवान ने बैलों को भूसी खाने को दी, स्वयं भी दाना पानी किया। फिर पूछा-‘बाबू, आप कुछ अन्न-जल नहीं करेगे?’

‘नहीं, बड़ी ह्रश्वयास लगी है, थोड़ा पानी दे सकते हो?’

उसने पास की पोखरी से पानी ला दिया। आज संध्याके बाद बुखार के साथ देवदास की नाक की राह बूंद-बूंद खून गिरने लगा। उन्होंने भर-जोर नाक को दबाया। फिर मालूम हुआ कि दांत के पास से खून बाहर आ रहा है। सांस लेने में भी कष्ट होने लगा। हांफते-हांफते कहा-‘और कितनी दूर…?’

गाड़ीवान ने कहा-‘दो कोस और है। रात को दस बजे पहुँचेगे।’

देवदास ने बड़े कष्ट के साथ रास्ते की ओर देखकर कहा-भगवन!’

गाड़ीवान ने पूछा-‘बाबू, कैसी तबीयत है?’

देवदास इस बात का जवाब नहीं दे सके। गाड़ी चलने लगी, पर दस बजे नहीं पहुँची। लगभग बारह बजे रात को गाड़ी हाथीपोता के जमींदार के मकान के सामने पीपल के पेड़ के नीचे आकर खड़ी हुई।

गाड़ीवान ने बुलाकर कहा-‘बाबू, नीचे उतरिये।’

कोई उत्तर नहीं मिला। तब उसने डरकर मुँह के पास दिया लाकर देखा, कहा-‘बाबू, क्या सो गये हैं?’

देवदास देख रहे थे, होंठठ हिलाकर कुछ कहा, किन्तु कोई शब्द नहीं हुआ। गाड़ीवान ने फिर बुलाया‘बाबू!’

देवदास ने हाथ उठाना चाहा, किन्तु उठा नहीं सके। केवल दो बूंद आँसू उनकी आँखों के कोण से बाहर ढुलक पड़े। गाड़ीवान ने तब अपनी बुद्धि के अनुसार बांसो को बांधकर एक पलंग बनाया, उसी पर बिस्तर बिछाकर बड़े कष्ट से देवदास को लाकर सुला दिया। बाहर एक मनुष्य भी दिखायी नहीं पड़ता था। जमींदार के घर में सब लोग सो रहे थे। देवदास ने अपनी जेब से बड़े कष्ट से सौ रुपये का एक नोट बाहर निकाला। लालटेन की रोशनी में गाड़ीवान ने देखा कि बाबू उसी की ओर देख रहे है, परन्तु कुछ कह नहीं सकते हैं। उसने अवस्था देखकर नोट लेकर चादर में बांध लिया। शाल से देवदास का सारा शरीर ढंका था, सामने लालटेन जल रही थी और पास में नया साथी गाड़ीवान था।

पौ फटी। सुबह के समय जमींदार के घर से लोग बाहर निकले। एक आश्चर्यमय दृश्य! पेड़ के नीचे एक आदमी मर रहा था। देखने से सद्‌कुल का जान पड़ता था। शरीर पर शाल, पांव में चमकता हुआ जूता, हाथ में अंगूठी पडी़ हुई थी। एक-एक करके बहुत-से लोग जमा हो गये। क्रम से भुवन बाबू के कान तक यह बात पहुँची, वे डॉक्टर को साथ लेकर स्वयं आये। देवदास ने सबकी ओर देखा; किन्तु उनका कंठ रूद्ध हो गया था-एक बात भी नहीं कह सके केवल आँखों से जल बहता रहा। गाड़ीवान जो कुछ जानता था, कह सुनाया, परन्तु उससे कुछ विशेष बातें नहीं मालूम हुई। डॉक्टर ने कहा-‘ऊर्ध्व श्वास चल रहा है, अब शीघ्र ही मृत्यु होगी।’

सबने कहा-‘आह!’

घर में ऊपर बैठी हुई पार्वती ने यह दयनीय कहानी सुनकर कहा-‘आह!’

किसी एक आदमी ने तरस खाकर दो बूंद जल और तुलसी की पत्ती मुँह में छोड़ दी। देवदास ने एक बार उसकी ओर करूण-दृष्टि से देखा, फिर आँखें मूंद ली। कुछ क्षण सांस चलती रही, फिर सर्वदा के लिए सब शांत हो गया। अब कौन दाह-कर्म करेगा, कौन छुएगा, कौन जाति है आदि विविध प्रश्नो को लेकर तर्क-वितर्क होने लगा। भुवन बाबू के पास के पुलिस स्टेशन में इसकी खबर दी।

इंसपेक्टर आकर जांच-पड़ताल करने लगे। ह्रश्वलीहा और फेफड़े के बढ़ने के कारण मृत्यु हुई है, नाक और मुख में खून के दाग लगे है। जेब से दो पत्र निकले। एक तालसोनापुर के द्विजदास मुखोपाध्याय ने बम्बई के देवदास को लिखा था कि रुपये का इस समय प्रबंध नहीं हो सकता। और एक काशी से हरिमती देवी ने उक्त देवदास को लिखा था कि कैसे हो?

बायें हाथ में अंग्रेजी में नाम का पहला अक्षर गुदा हुआ था। इंसपेक्टर ने निश्चित करके कहा-‘यह मनुष्य देवदास है।’

हाथ मे नीलम की अंगूठी थी-दाम अंदाज़न डेढ़ सौ था। शरीर पर एक जोड़ा शाल था-दाम अंदाज़न दो सौ था। कोट, कमीज, धोती आदि सब लिखे गये। चौधरी और महेन्द्रनाथ दोनो ही वहाँ पर उपस्थित थे। तालसोनापुर का नाम सुनकर महेन्द्र ने कहा-‘छोटी माँ के मायके के तो नहीं…!’

चौधरी जी ने तुरन्त बात काटकर कहा-‘वह क्या यहाँ पर शिनाख्त करने आवेगी?’

दारोगा साहब ने हँसकर कहा-‘कुछ पागल तो नहीं हो।’

ब्राह्मण का मृत-देह होने पर भी गाँव के किसी ने स्पर्श करना स्वीकार नहीं किया, अतएव चांडाल आकर बांध ल गये। फिर किसी सूखे हुए पोखरे के किनारे आधे झुलसे हुए शरीर को फेंक दिया, कौवे और गिद्ध उस पर आकर बैठ गये, सियार और कुत्ते परस्पर कलह मे प्रवृत हुए। तब भी जिस किसी ने सुना, कहा-‘आह!’ दास-दासी भी जहाँ-तहाँ भी उसकी चर्चा करने लगे-‘कोई बड़े आदमी थे! दो सौ रुपये का शाल, डेढ़ सौ रुपये की अंगूठी, सब दारोगा के पास जमा है; दो चिट्ठी थी वे भी उन्हीं लोगों ने रख ली है।’

यह सब समाचार पार्वती के कान तक भी पहुँचे; किन्तु वह आजकल बड़ी अनमनी रहती है, किसी विषय पर विशेष ध्यान नहीं देती। अस्तु, इस व्यापार के विषय में भी कुछ ठीक नहीं समझ सकी। पर जब सभी के मुख पर इस चर्चा को पाया, तो पार्वती ने भी इसके विषय में कुछ विशेष जानने की इच्छा से एक दासी से पूछा-‘क्या हुआ है? कौन मरा है?’

दासी ने कहा-‘आह, यह कोई नहीं जानता माँ! पिछले जन्म का कोई यहाँ की मिट्टी का धरता था, वही यहाँ केवल मरने आया था। कल सारी रात यहीं पर पड़ा रहा। आज सुबह मर गया।’

पार्वती ने एक लंबी सांस लेकर कहा-‘क्या उसके बारे में कोई कुछ नहीं जानता?’

दासी ने कहा-‘महेन्द्र बाबू जानते होंगे, मैं कुछ नहीं जानती।’

महेन्द्र की बुलाहट हुई। उन्होंने कहा-‘तुम्हारे देश के देवदास मुखोपाध्याय थे।’

पार्वती महेन्द्र के अत्यंत निकट सरक आयी, एक तीव्र दृष्टि से देखकर पूछा-‘क्या देव दादा? कैसे जाना?’

‘जेब में दो चिट्ठियाँ थी। एक द्विजदास की…’

पार्वती ने बाधा देकर कहा-‘हाँ, उनके बड़े भाई की।’

‘और एक काशी से हरिमती देवी ने लिखा था…’

‘हाँ, वे माँ हैं।’

‘हाथ पर नाम गुदा था…’

पार्वती ने कहा-‘हाँ, जब पहले-पहल कलकत्ता गये थे, तो लिखाया था।’

‘एक नीलम की अंगूठी थी…’

‘पिता के समय में उसे बड़े चाचा ने दिया…मैं जाऊंगी…’

कहते-कहते पार्वती दौड़ पड़ी। महेन्द्र ने हत्बुद्धि होकर कहा-‘ओ माँ, कहाँ जाओगी?’

‘देवदास के पास।’

‘वे अब नहीं है, डोम ले गये।’

‘अरे, बाप रे बाप!’-कहकर रोती-रोती पार्वती दौड़ी।

महेन्द्र ने दौड़कर सामने आकर बाधा दी। कहा-‘क्या पागल हुई हो, माँ! कहाँ जाओगी?’

पार्वती ने महेन्द्र की ओर एक तीव्र दृष्टि से देखकर कहा-‘महेन्द्र, क्या मुझे सचमुच पागल समझ रखा है? रास्ता छोड़ो।’

उसकी ओर देखकर महेन्द्र ने रास्ता छोड़ दिया, चुपचाप पीछे-पीछे चलने लगा। बाहर तब भी नायब-गुमाश्ता आदि काम कर रहे थे। वे लोग देखने लगे। चौधरी जी ने चश्मा लगाकर पूछा-‘कौन जा रहा है?’

महेन्द्र ने कहा-‘छोटी माँ।’

‘यह क्यों? कहाँ जाती है?’

महेन्द्र ने कहा-‘देवदास को देखने।’

भुवन चौधरी ने चिल्लाकर कहा-‘तुम सभी की बुद्धि मारी गयी है! पकड़ो-पकड़ो, पकड़कर उसे ले आओ। सब पागल हो गये! ओ महेन्द्र, जल्दी करो, दौड़ो!’

इसके बाद नौकर-नौकरानियो ने मिलकर पार्वती को पकड़ा और उसकी मूर्च्छित देह को भीतर ले गये। दूसरे दिन उसकी मूर्च्छा टूटी, पर उसने कोई बात नहीं कही, केवल एक दासी को बुलाकर पूछा‘रात को वे आते थे या नहीं? सारी रात…!’

इसके बाद पार्वती चुप हो रही।

अब इतने दिनो बाद पार्वती का क्या हुआ, वह कैसी है, यह हम नहीं जानते; जानने की इच्छा भी नहीं होती। केवल देवदास के लिए हृदय बहुत क्षुब्ध रहता है। आप लोगो में से भी जो कहानी को पढ़ेगे, संभवतः मेरे ही समान क्षुब्ध होगे। फिर भी यदि देवदास के समान हत्‌भाग्य, असंयमी और पापिष्ठ के साथ किसी का परिचय हो, तो वह उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करें, प्रार्थना करें कि और चाहे जो हो, पर उनकी जैसी मृत्यु किसी की न हो! मृत्यु होने में कोई हानि नहीं है, किन्तु उस समय एक स्नेहमयी हाथ का स्पर्श सिर पर अवश्य रहे, एक करूणार्द्र मुख को देखते-देखते इस जीवन का अंत हो। जिससे मरने के समय किसी की आँखों का दो बूंद जल देखकर वह शांति से मर सके।

**समाप्त**

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