चैप्टर 13 – प्रेमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 13 Prema Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 13 Prema Novel By Munshi Premchand

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प्रेमा भाग – 13 : शोकदायक घटना

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पूर्णा, रामकली और लक्ष्मी तीनों बड़े आनंद से  हिल-मिलकर रहने लगी. उनका समय अब बातचीत, हँसी-दिल्लगी में कट जाता. चिंता की परछाई भी न दिखायी देती. पूर्णा दो-तीन महीने में निखर कर ऐसी कोमलागी हो गयी थी कि पहिचान न जाती थी. रामकली भी खूब रंग-रूप निकाले थी. उसका निखार और यौवन पूर्णा को भी मात करता था. उसकी आँखों में अब चंचलता और मुख पर वह चपलता न थी, जो पहले दिखायी देती थी. बल्कि अब वह अति सुकुमार कामिनी हो गयी थी. अच्छे संग में बैठते-बैठते उसकी चाल-ढाल में गंभीरता और धैर्य आ गया था. अब वह गंगा स्नान और मंदिर का नाम भी न लेती. अगर कभी-कभी पूर्णा उसको छोड़ने के लिए पिछली बातें याद दिलाती, तो वह नाक-भौं चढ़ा लेती, रुठ जाती. मगर इन तीनों में लक्ष्मी का रुप निराला था. वह बड़े घर में पैदा हुई थी. उसके माँ-बाप ने उसे बड़े लाड़-प्यार से पाला था और उसका बड़ी उत्तम रीति पर शिक्षा दी थी. उसका कोमल गत, उसकी मनोहर वाणी, उसे अपनी सखियों में रानी की पदवी देती थी. वह गाने-बजाने में निपुण थी और अपनी सखियों को यह गुण सिखाया करती थी. इसी तरह पूर्णा को अनेक प्रकार के व्यंजन बनाने का व्यसन था. बेचारी रामकली के हाथों में यह सब गुण न थे. हाँ, वह हँसोड़ी थी और अपनी रसीली बातों से सखियों को हँसाया करती थी.

एक दिन शाम को तीनों सखियाँ बैठी बातचीत कर रही थी कि पूर्णा ने मुस्कुराकर रामकली से पूछा — ‘क्यों रम्मन, आजकल मंदिर पूजा करने नहीं जाती हो.”

रामकली ने झेंपकर जवाब दिया — “अब वहाँ जाने को जी नहीं चाहता.”

लक्ष्मी रामकली का सब वृत्तांत सुन चुकी थी. वह बोली — “हाँ बुआ, अब तो हँसने-बोलने का सामान घर ही पर ही मौजूद है.”

रामकली (तिनककर) – “तुमसे कौन बोलता है, जो लगी जहर उगलने. बहिन, इनको मना कर दो, यह हमारी बातों में न बोला करे, नहीं तो अभी कुछ कह बैठूंगी, तो रोती फिरेंगी.”

पूर्णा — “मत लछिमी (लक्ष्मी) सखी को मत छोड़ो.”

लक्ष्मी (मुस्कुराकर) – “मैंने कुछ झूठ थोड़े ही कहा था, जो इनको ऐसा कडुआ मालूम हुआ.”

रामकली — “जैसी आप है, वैसी सबको समझती है.”

पूर्णा — “ लछिमी, तुम हमारी सखी को बहुत दिक किया करती हो. तुम्हारी बला से वह मंदिर में जाती थी.”

लक्ष्मी — “जब मैं कहती हूँ, तो रोती काहे को है.”

पूर्णा — “अब यह बात उनको अच्छी नहीं लगती, तो तुम काहे को कहती हो. खबरदार, अब फिर मंदिर का नाम मत लेना.”

लक्ष्मी — “अच्छा रम्मन, हमें एक बात दो तो, हम फिर तुम्हें कभी न छेड़े — महंतजी ने मंत्र देते समय तुम्हारे कान में क्या कहा? हमारा माथा छुए जो झूठ बोले.”

रामकली (चिटक कर) – “सुना लछिमी, हमसे शरारत करोगी, तो ठीक न होगा. मैं जितना ही तह देती हूँ, तुम उतनी ही सिर चढ़ी जाती हो.”

पूर्णा — “ऐ तो बतला क्यों नहीं देती, इसमें क्या हर्ज है?”

रामकली — “कुछ कहा होगा, तुम कौन होती हो पूछनेवाली? बड़ी आयीं, वहाँ से सीता बन के.”

पूर्णा — “अच्छा भाई, मत बताओ, बिगड़ती काहे को हो?”

लक्ष्मी — “बताने की बात ही नहीं बतला कैसे दें?”

रामकली — “कोई बात भी हो कि यों ही बतला दूं.”

पूर्णा — “अच्छा यह बात जाने दो. बताओ उस तंबोली ने तुम्हें पान खिलाते समय क्या कहा था.”

रामकली — “फिर छेड़खानी की सूझी. मैं भी पते की बात कह दूंगी, तो लजा जाओगी.”

लक्ष्मी — “तुम्हें हमार कसम सखी, जरुर कहो. यह हम लोगों कीबातें तो पूछ लेती है, अपनी बातें एक नहीं कहती.”

रामकली — “क्यों सखी, कहूं?कहती हूँ, बिगड़ना मत.”

पूर्णा – “कहो, साँच को आँच क्या?”

रामकली — “उस दिन घाट पर तुमने किसे छाती से लिपटा लिया था.”

पूर्णा — “तुम्हारा सिर.”

लक्ष्मी —  “समझ गयी. बाबू अमृतराय होंगे. क्यों है न?”

यह तीनों सखियाँ इसी तरह हँस-बोल रहीं थीं कि एक बूढ़ी औरत ने आकर पूर्णा को आशीर्वाद दिया और उसके हाथ में एक खत रख दिया. पूर्णा ने अक्षर पहिचाने, प्रेमा का पत्र था. उसमें यह लिखा था—

‘‘प्यारी पूर्णा तुमसे भेंट करने को बहुत जी चाहता है. मगर यहाँ घर से बाहर पांव निकालने की मजाल नहीं. इसलिए यह ख़त लिखती हूँ. मुझे तुमसे एक अति आवश्यक बात करनी है, जो पत्र में नहीं लिख सकती हूँ. अगर तुम बिल्लो को इस पत्र का जवाब देकर भेजो, तो जबानी कह दूंगी. देखा देर मत करना, नहीं तो अनर्थ हो जाएगा. आठ बजे के पहले बिल्लो यहाँ अवश्य आ जाए.

तुम्हारी सखी
“प्रेमा”

पत्र पढ़ते ही पूर्णा का चित्त व्याकुल हो गया. चेहरे का रंग उड़ गया और अनेक प्रकर की शंकाएं आने लगी. या नारायण अब क्या होने वाला है? लिखती है, देखो देर मत करना, नहीं तो अनर्थ हो जाएगा. क्या बात है?
अभी तक वह कचहरी से नहीं लौटे. रोज तो अब तक आ जाया करते थे. इनकी यही बात तो हम को अच्छी नहीं लगती.
लक्ष्मी और रामकली ने जब उसको ऐसा व्याकुल देखा, तो घबराकर बोलीं—“क्या बहिन, कुशल तो है? इस पत्र में क्या लिखा है?”

पूर्णा — “क्या बताऊं क्या लिखा है? रामकली, तुम ज़रा कमरे में जा के झांकों तो आये या नहीं अभी.”

रामकली ने आकर कहा — “अभी नहीं आये.”

लक्ष्मी — “अभी कैसे आयेंगे? आज तो तीन आदमी व्याख्यान देने गये है.”

इसी घबराहट में आठ बजा. पूर्णा ने प्रेमा के पत्र का जवाब लिखा और बिल्लो को देकर प्रेमा को घर भेज दिया. आधा घंटा भी न बीता था कि बिल्लो लौट आयी. रंग उड़ा हुआ. बदहवास और घबरायी हुई. पूर्णा ने उसे देखते ही घबराकर पूछा — “कहो बिल्लो, कुशल कहो.”

बिल्लो (माथा ठोंककर) – “क्या कहूं बहू कहते नहीं बनता. न जाने अभी क्या होने वाला है?”

पूर्णा — “क्या कहा? कुछ चिट्ठी-पत्री तो नहीं दिया?”

बिल्लो — “चिट्ठी कहाँ से देती? हमको अंदर बुलाते डरती थ. देखते ही रोने लगी और कहा — बिल्लो, मैं क्या करूं, मेरा जी यहाँ बिल्कुल नहीं लगता. मैं पिछली बातें याद करके रोया करती हूँ. वह (दाननाथ) कभी जब मुझे रोते देख लेते हैं, तो बहुत झल्लाते हैं. एक दिन मुझे बहुत जली-कटी सुनायी और चलते-समय धमका कर कहा — एक औरत के दो चाहने वाले कदापि जीते नहीं रह सकते. यह कहकर बिल्लो चुप हो गयी.

पूर्णा के समझ में पूरी बात न आयी. उसने कहा — “चुप क्यों हो गयी? जल्दी कहो, मेरा दम रुका हुआ है.”

बिल्लो — “इतना कहकर वह रोने लगी. फिर मुझको नजदीक बुला के कान में कहा — बिल्लो, उसी दिन से मैं उनके तेवर बदले हुए देखती हूँ. वह तीन आदमियों के साथ लेकर रोज शाम को न जाने कहाँ जाते हैं. आज मैंने छिपकर उनकी बातचीत सुन ली. बारह बजे रात को जब अमृतराय पर चोट करने की सलाह हुई है. जब से मैंने यह सुना है, हाथों के तोते उड़े हुए हैं. मुझ अभागिनी के कारण न जाने कौन-कौन दुख उठायेगा.”

बिल्लो की ज़बानी यह बातें सुनकर पूर्णा के पैर तले से मिट्टी निकल गयी. दनानाथ की तसवीर भयानक रुप धारण किये उसकी आँखों के सामने आकर खड़ी हो गयी.

वह उसी दम दौड़ती हुई बैठक में पहुँची. बाबू अमृतराय का वहाँ पता न था. उसने अपना माथा ठोंक बिल्लो से काह – “तुम जाकर आदमियों से कह दो,  फाटक पर खड़े हो जायें और खुद उसी जगह एक कुर्सी पर बैठकर गुनने लगी कि अब उनको कैसे खबर करूं कि इतने में गाड़ी की खड़खड़ाहट सुनायी दी. पूर्णा का दिल बड़े जोर से धड़-धड़ करने लगा. वह लपक कर दरवाज़े पर आयी और कांपती हुई आवाज़ से पुकारकर बोली — “इतनी देर कहाँ लगायी? जल्दी आते क्यों नहीं?”

अमृतराय जल्दी से उतरे और कमरे के अंदर कदम रखते ही पूर्णा ऐसे लिपट गयी, मानो उन्हें किसी के वार से बचा रही है और बोली — “इतनी जल्दी क्यों आये, अभी तो बहुत सवेरा है.”

अमृतराय — “प्यारी, क्षमा करो. आज ज़रा देर हो गयी.”

पूर्णा — “चलिए रहने दीजिए. आप तो जाकर सैर-सपाटे करते हैं. यहाँ  दूसरों की जान हलकान होती हैं.”

अमृतराय — “क्या बतायें, आज बात ऐसी आ पड़ी कि रुकना पड़ा. आज माफ करो. फिर ऐसी देर न होगी.”

यह कहकर वह कपड़े उतारने लगे. मगर पूर्णा वही खड़ी रही, जैसे कोई चौंकी हुई हरिणी. उसकी आँखें दरवाज़े की तरफ लगी थीं. अचानक उसको किसी मनुष्य की परछाई दरवाज़े के सामने दिखायी पड़ी और वह बिजली कीतरह चमककर दरवाजा रोककर खड़ी हो गयी. देखा तो कहार था. जूता खोलने आ रहा था. बाबू साहब न ध्यान से देखा, तो पूर्णा कुछ घबरायी हुई दिखायी दी. बोले – “प्यारी, आज तुम कुछ घबरायी हुई हो.”

पूर्णा — “सामनेवाला दरवाजा बंद करा दो.”

अमृतराय — “गरमी हो रही हैं. हवा रुक जाएगी.”

पूर्णा — “यहाँ न बैठने दूंगी. ऊपर चलो.”

अमृतराय — “क्यों बात क्या है? डरने की कोई वजह नहीं.”

पूर्णा — “मेरा जी यहाँ नहीं लगता. ऊपर चलो. वहाँ चाँदनी में खूब ठंडी हवा आ रही होगी.”

अमृतराय मन में बहुत सी बातें सोचते-सोचते पूर्णा के साथ कोठे पर गये. खुली हुई छत थी. कुर्सियाँ धरी हुई थी. नौ बजे रात का समय, चैत्र के दिन, चाँदनी खूब छिटकी हुई, मंद-मंद शीतल वायु चल रही थी. बगीचे के हरे-भरे वृक्ष धीरे-धीरे झूम-झूम कर अति शोभायमान हो रहे थे. जान पड़ता था कि आकाश ने ओस की पतली हल्की चादर सब चीजों पर डाल दी गई है. दूर-दूर के धुंधले-धुंधले पेड़ ऐसे मनोहर मालूम होते है, मानो वह देवताओं के रमण करने के स्थान हैं या वह उस तपोवन के वृक्ष हैं, जिनकी छाया में शकुंतला और उसकी सखियाँ भ्रमण किया करती थीं और जहाँ उस सुंदरी ने अपने जान के आधार राजा दुष्यन्त को कमल के पत्ते पर प्रेम-पाती लिखी थी.

पूर्णा और अमृतराय कुर्सियों पर बैठ गये. ऐसे सुखदाय एकांत में चंद्रमा की किरणों ने उनके दिलों पर आक्रमण करना शुरु किया. अमृतराय ने पूर्णा के रसीले अधर चूमकर कहा — “आज कैसी सुहावनी चाँदनी है.”

पूर्णा — “मेरी जी इस घड़ी चाहत है कि मैं चिड़िया होती.”

अमृतराय — “तो क्या करतीं?”

पूर्णा — “तो उड़कर उन दूरवाले पेड़ों पर जा बैठती.”

अमृतराय — “अहा हा देखा लक्ष्मी कैसा अलाप रही है?”

पूर्णा — “लक्ष्मी का-सा गाना मैंने कहीं नहीं सुना. कोयला की तरह कूकती है. सुनो कौन गीत है. सुना – मोरी सुधि जनि बिसरैहो, महराज.”

अमृतराय — “जी चाहता है, उसे यहीं बुला लूं.”

पूर्णा – “नहीं. यहाँ गाते लजायेगी. सुनो – इतनी विनय मैं तुमसे करत हौं, दिन-दिन स्नेह बढ़ैयो महराज.”

अमृतराय — “हाय जी बेचैन हुआ जाता है.”

पूर्णा – “जैसे कोई कलेजे में बैठा चुटकियाँ ले रहा हो. कान लगाओ, कुछ सुना, कहती है – मैं मधुमाती अरज करत हूँ, नित दिन पत्तिया पठैयो, महराज.”

अमृतराय — “कोई प्रेम—रस की माती अपने सजन से कह रही है.”

पूर्णा — “कहती है नित दिन पत्तिया पठैयो, महराज हाय बेचारी प्रेम में डूबी हुई है.”

अमृतराय – “चुप हो गयी. अब वह सन्नटा कैसा मनोहर मालूम होता है.”

पूर्णा – “प्रेमा भी बहुत अच्छा गाती थी.”

मगर नहीं, प्रेमा का नाम जबान पर आते ही पूर्णा यक़ायक चौंक पड़ी और अमृतराय के गले में हाथ डालकर बोली — “क्यों प्यारे तुम उन गड़बड़ी के दिनों में हमारे घर जाते थे, तो अपने साथ क्या ले जाया करते थे?”

अमृतराय (आश्चर्य से) – “क्यों? किसलिए पूछती हो?”

पूर्णा — “यों ही ध्यान आ गया.”

अमृतराय — “अंग्रेजी तमंचा था. उसे पिस्तौल कहते है.”

पूर्णा — “भला किसी आदमी को पिस्तौल की गोली लगे, तो क्या हो?”

अमृतराय — “तुरंत मर जाए.”

पूर्णा — “मैं चलाना सीखूं, तो आ जाए.”

अमृतराय — “तुम पिस्तौल चलाना सीखकर क्या करोगी? (मुसकराकर) क्या नैनों की कटारी कुछ कम है? इस दम यही जी चाहता है कि तुमको कलेजे में रख लूं.”

पूर्णा (हाथ जोड़कर) – “मेरी तुमसे यही विनय है—मेरा सुधि जनि बिसरैहो, महाराज”

यह कहते-कहते पूर्णा की आँखों में नीर भर आया. अमृतराय भी गदगद स्वर हो गये और उसको खूब भेंच-भेंच प्यार किया, इतने में बिल्लो ने आकर कहा — “चलिए रसोई तैयार है.”

अमृतराय तो उधर भोजन पाने गये और पूर्णा ने इनकी अलमारी खोलकर पिस्तौल निकाल ली और उसे उलट-पुलट कर गौर से देखने लगी. जब अमृतराय अपने दोनों मित्रों के साथ भोजन पाकर लौटे और पूर्णा को पिस्तौल लिये देखा, तो जीवननाथ ने मुस्कुराकर पूछा — “क्यों भाभी, आज किसका शिकार होगा?”

पूर्णा – “इसे कैसे छोड़ते है, मेरे तो समझ ही में नहीं आता.”

ज़ीवननाथ — “लाओ मैं बता दूं.”

यह कहकर ज़ीवननाथ ने पिस्तौल हाथ में लीं. उसमें गोली भरी और बरामदे में आये और एक पेड़ के तने में निशान लगा कर दो-तीन फ़ायर किये. अब पूर्णा ने पिस्तौल हाथ में ली, गोली भरी और निशाना लगाकर दागा, मगर ठीक न पड़ा. दूसरा फ़ायर फिर किया, अब की निशाना ठीक बैठा. तीसरा फ़ायर किया, वह भी ठीक. पिस्तौल रख दी और मुस्कुराते हुए अंदर चली गयी. अमृतराय ने पिस्तौल उठा लिया और जीवननाथ से बोले — “कुछ समझ में नहीं आता कि आज इनको पिस्तौल की धुन क्यों सवार है?”

जीवननाथ — “पिस्तौल रक्ख देख के छोड़ने की जी चाहा होगा.”

अमृतराय — “नहीं, आज जब से मैं आया हूँ, कुछ घबराया हुआ देख रहा हूँ.”

जीवननाथ — “आपने कुछ पूछा नहीं?”

अमृतराय — “पूछा तो बहुत, मगर जब कुछ बतलायें भी, हूँ-हाँ कर के टाल गई.”

जीवननाथ — “किसी किताब में पिस्तौल की लड़ाई पढ़ी होगी और क्या?”

प्राणनाथ — “यही मैं भी समझता हूँ.”

जीवननाथ — “सिवाय इसके और हो ही क्या सकता है?”

कुछ देर तक तीनों आदमी बैठे गप-शप करते रहे. जब दस बजने को आये, तो लोग अपने-अपने कमरों में विश्राम करने चले गये. बाबू साहब भी लेटे. दिन-भर के थके थे. अखबार पढ़ते-पढ़ते सो गये. मगर बेचारी पूर्णा की आँखों में नींद कहाँ? वह बारह बजे तक एक कहानी पढ़ती रही. जब तमाम सोता पड़ गया और चारो तरफ सन्नाटा छा गया, तो उसे अकेले डर मालूम होने लगा. डरते ही डरते उठी और चारों तरफ के दरवाजे बंद कर लिये. मगर जवानी की नींद, बहुत रोकने पर भी एक झपकी आ ही गयी. आधी घड़ी भी न बीती थी कि भय में सोने के कारण उसे एक अति भंयकर स्वप्न दिखायी दिया. चौंककर उठ बैठी, हाथ-पांव थर-थर कांपने लगे. दिल में धड़कन होने लगी. पति का हाथ पकड़कर चाहती थी कि जगा दे, मगर फिर यह समझकर कि इनकी प्यारी नींद उचट जाएगी तो तकलीफ होगी, उनका हाथ छोड़ दिया. अब इस समय उसकी जो अवस्था है, वर्णन नहीं की जा सकती. चेहरा पीला हो रहा है, डरी हुई निगाहों से इधर-उधर ताक रही है, पत्ता भी खड़खड़ाता है, तो चौंक पड़ती हैं. कभी अमृतराय के सिरहाने खड़ी होती है, कभी पैताने. लैंप की धुंधली रोशनी में वह सन्नाटा और भी भयानक मालूम हो रहा है. तस्वीरें जो दीवारों से लटक रही है, इस समय उसको घूरते हुए मालूम होती है. उसके सब रोंगटे खड़े हैं. पिस्तौल हाथ में लिये घबरा-घबरा कर घड़ी की तरफ देख रही हैं. यकायक उसको ऐसा मालूम हुआ कि कमरे की छत दबी जाती है. फिर घड़ी की सुइयों को देखा. एक बज गया था, इतने ही में उसको कई आदमियों के पांव की आहट मालूम हुई. कलेजा बांसों उछलने लगा. उसने पिस्तौल सम्हाली. यह समझ गयी कि जिन लोगों के आने का खटका था, वह आ गये. तब भी उसको विश्वास था कि इस बंद कमरे में कोई न आ सकेगा. वह कान लगाये पैरों की आहट ले रही थी कि अकस्मात दरवाजे पर बड़े जोर से धक्का लगा और जब तक वह बाबू अमृतराय को जगाये कि मजबूत किवाड़ आप ही आप खुल गये और कई आदमी धड़धड़ाते हुए अंदर घुस आये. पूर्णा ने पिस्तौल सर की. तड़ाके की आवाज हुई. कोई धम्म से गिर पड़ा, फिर कुछ खट-खट होने लगा. दो आवाजे पिस्तौल के छूटने की और हुई. फिर धमाका हुआ. इतने में बाबू अमृतराय चिल्लाये – “दौड़ो-दौड़ो, चोर, चोर.”

इस आवाज के सुनते ही दो आदमी उनकी तरफ लपके. मगर इतने में दरवाजे पर लालटेन की रोशनी नजर आयी और प्राणानाथ और जीवननाथ हाथों में सोटे लिए आ पहुँचे. चोर भागने लगे, मगर दो के दो पकड़ लिए गये. जब लालटेने लेकर जमीन पर देखा, तो दो लाशें दिखायी दीं. एक तो पूर्णा की लाश थी और दूसरी एक मर्द की. यकायक प्राणनाथ ने चिल्ला कर कहा — “अरे यह तो बाबू दाननाथ हैं.”

बाबू अमृतराय ने एक ठंडी साँस भरकर कहा — “आज जब मैंने उसके हाथ में पिस्तौल देखा, तभी से दिल में एक खटका-सा लगा हुआ था. मगर, हाय क्या जानता था कि ऐसी आपत्ति आनेवाली है.”

प्राणनाथ — “दाननाथ तो आपके मित्रों में थे.”

अमृतराय – “मित्रों में जब थे, तब थे. अब तो शत्रु हैं.”

**********

पूर्णा को दुनिया से उठे दो वर्ष बीत गया है. सांझ का समय हैं. शीतल-सुगंधित चित्त को हर्ष देने वाली हवा चल रही है. सूर्य की विदा होने वाली किरणें खिड़की से बाबू अमृतराय के सजे हुए कमरे में जाती है और पूर्णा के पूरे कद की तस्वीर के पैरों को चूम-चूम कर चली जाती हैं. उनकी लाली से सारा कमरा सुनहरा हो रहा है. रामकली और लक्ष्मी के मुखड़े इस समय मारे आनंद के गुलाब की तरह खिले हुए हैं. दोनों गहने-पाते से लौस हैं और जब वह खिड़की से भर निकलती हैं और सुनहरी किरणें उनके गुलाब-से मुखड़ों पर पड़ती है, तो जान पड़ता है कि सूर्य आप बलैया ले रहा है. वह रह-रहकर ऐसी चितवनों से ताकती हैं, जैसी किसी की रही हैं. यकायक रामकली ने खुश होकर कहा — “सुखी वह देखों आ गये. उनके कपड़े कैसे सुंदर मालूम देते हैं.”

एक अति सुंदर फिटन चम-चम करती हुई फाटक के अंदर दाखिल होती है और बंगले के बरामदे में आकर रुकती है. बाबू अमृतराय उसमें से उतरते हैं. मगर अकेले नहीं, उनका एक हाथ प्रेमा के हाथ में है. यद्यपि बाबू साहब का सुंदर चेहरा कुछ पीला हो रहा है, मगर होंठों पर हल्की-सी मुस्कराहट झलक रही है और माथे पर केशर का टीका और गले में खूबसूरत हार और शोभा बढ़ा रहे हैं.

प्रेमा सुंदरता की मूरत और जवानी की तस्वीर हो रही है. जब हमने उसको पिछली बार देखा था, तो चिंता और दुर्बलता के चिन्ह मुखड़े से पाये जाते थे, मगर कुछ और ही यौवन है. मुखड़ा कुंदन के समान दमक रहा है. बदन गदराया हुआ है. बोटी—बोटी नाच रही है. उसकी चंचलता देखकर आश्चर्य होता है कि क्या वही पीली मुँह और उलझे बाल वाली रोगिन है. उसकी आँखों में इस समय एक घड़े का नशा समाया हुआ है. गुलाबी जमीन की हरे किनारे वाली साड़ी और ऊदे रंग की कलोइयों पर चुनी हुई जाकेट उस पर खिल रही है. उस पर गोरी-गारी कलाइयों में जड़ाऊ कड़े बालों में गुंथे  हुए गुलाब के फूल, माथे पर लाल रोरी की गोल-बिंदी और पांव में जरदोज के काम के सुंदर में सुहागा हो रहे हैं. इस ढंग के सिंगार से बाबू साहब को विशेष करके लगाव है, क्योंकि पूर्णा देवी की तस्वीर भी ऐसी ही कपड़े पहिने दिखायी देती है और उसे देखकर कोई मुश्किल से कह सकता हैं कि प्रेमा ही की सूरत आइने में उतर कर ऐसा यौवन नहीं दिखा रही है.

अमृतराय ने प्रेमा को एक मखमली कुर्सी पर बिठा दिया और मुस्कुरा करा कर बोले — “प्यारी प्रेमा आज मेरी ज़िन्दगी का सबसे मुबारक दिन है.”

प्रेमा ने पूर्णा की तस्वीर की तरफ मलिन चितवनों से देखकर कहा — “हमारी ज़िन्दगी का क्यों नही कहते?”

प्रेमा ने यह कहा था कि उसकी नज़र एक लाल चीज़ पर जा पड़ी, जो पूर्णा की तस्वीर के नीचे एक खूबसूरत दीवारगीर पर धरी हुई थी. उसने लपककर उसे उठा लिया और ऊपर का रेशमी गिलाफ़ हटाकर देखा, तो पिस्तौल था.

बाबू अमृतराय ने गिरी हुई आवाज में कहा — “यह प्यारी पूर्णा की निशानी है, इसी से उसने मेरी जान बचायी थी.”

यह कहते—कहते उनकी आवाज कांपने लगी.

प्रेमा ने यह सुनकर उस पिस्तौल को चूम लिया और फिर बड़ी लिहाज के साथ उसी जगह पर रख दिया.

इतने में दूसरी फ़िटन दाखिल होती है और उसमें से तीन युवक हँसते हुए उतरते हैं. तीनों को हम पहचानते हैं.

एक तो बाबू जीवननाथ हैं, दूसरे बाबू प्राणनाथ और तीसरे प्रेमा के भाई बाबू कमलाप्रसाद हैं.

कमलाप्रसाद को देखते ही प्रेमा कुर्सी से उठ खड़ी हुई, जल्दी से घूंघट  निकाल कर सिर झुका लिया.

कमलाप्राद ने बहिन को मुस्कुराकर छाती से लगा लिया और बोले — “मैं तुमको सच्चे दिल से मुबारकबाद देता हूँ.”

दोनों युवकों ने गुल मचाकर कहा — “जलसा कराइये जलसा, यों पीछा न छूटेगा.”

****समाप्त****

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