चैप्टर 11 – प्रेमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 11 Prema Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 11 Prema Novel By Munshi Premchand

Chapter 11 Prema Novel By Munshi Premchand

प्रेमा भाग – 11 : विरोधयों का विरोध

Chapter 1 | 2 | 34567 | 8 | 91011 |1213

Prev Part | Next Part

मेहमानों के बिदा हो जाने के बाद यह आशा की जाती थी कि विरोधी लोग अब सिर न उठायेंगे. विशेष इसलिए कि ठाकुर जोरावार सिंह और मुंशी बद्रीप्रसाद के मर जाने से उनका बल बहुत कम हो गया था. मगर यह आशा पूरी न हुई. एक सप्ताह भी न गुज़रने पाया था कि और अभी सुचित से बैठने भी न पाये थे कि फिर यही दांत किलकिल शुरु हो गयी.

अमृतराय कमरे में बैठे हुए एक पत्र पढ़ रहे थे कि महराज चुपके से आया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया. अमृतराय ने सिर उठाकर उसको देखा, तो मुस्कुराकर बोले — “कैसे चले महराज?”

महराज — “हजूर, जान बकसी होय तो कहूं.”

अमृत — “शौक से कहो.”

महराज — “ऐसा न हो कि आप रिसहे हो जायें.”

अमृत — “बात तो कहो.”

महराज — “हजूर, डर लगता है.”

अमृत — “क्या तनख्वाह बढ़वाना चाहते हो?”

महराज — “नाहीं सरकार”

अमृत — “फिर क्या चाहते हो?”

महराज — “हजूर,हमारा इस्तीफा ले लिया जाए.”

अमृत — “क्या नौकरी छोड़ोगे?”

महराज — “हाँ सरकार! अब हमसे काम नहीं होता.”

अमृत — “क्यों, अभी तो मजबूत हो. जी चाहे तो कुछ दिन आराम कर लो। मगर नौकरी क्यों छोड़ों?”

महराज — “नाहीं सरकार, अब हम घर को जाइब.”

अमृत — “अगर तुमको यहाँ कोई तकलीफ़ हो, तो ठीक-ठीक कह दो. अगर तनख्वाह कहीं और इसके ज्यादा मिलने की आशा हो, तो वैसा कहो.”

महराज — “हजूर, तनख्वाह जो आप देते हैं, कोई क्या माई का लाल देगा?”

अमृतराय — “फिर समझ में नहीं आता कि क्यों नौकरी छोड़ना चाहते हो?”

महराज — “अब सरकार, मैं आपसे क्या कहूं?”

यहाँ तो यह बातें हो रही थीं, उधर चम्मन व रम्मन, कहार और भगेलू व दुक्खी बारी आपस में बातें कर रहे थे.

भगेलू — “चलो, चलो जल्दी. नहीं तो कचहरी की बेला आ जैहै.”

चम्मन — “आगे-आगे तुम चलो.”

भगेलू — “हमसे आगूँ न चला जैहै.”

चम्मन — “तब कौन आगूँ चलै?”

भगेलू — “हम केका बताई.”

रम्मन — “कोई न चलै आगूँ तो हम चलित है.”

दुक्खी — “तैं आगे एक बात कहित है. नह कोई आगूँ चले न कोई पीछूँ.”

चम्मन – “फिर कैसे चला जाए?”

भगेलू — “सब साथ-साथ चलैं.”

चम्मन — “तुम्हार क़पार.”

भगेलू — “साथ चले माँ कौन हरज है?”

मम्मन — “तब सरकार से बतियाये कौन?”

भगेलू — “दुक्खी का खूब बितियाब आवत है.”

दुक्खी — “अरे राम रे मैं उनके ताई न जैहूँ. उनका देख के मोका मुतास हो आवत है.”

भगेलू — “अच्छा, कोऊ न चलै तो हम आगूँ चलित हैं.”

सब के सब चले. जब बरामदे में पहुँचे तो भगेलू रुक गया.

मम्मन — “ठाढ़े काहे हो गयो? चले चलौ.”

भगेलू — “अब हम न जाबै. हमारा तो छाती धड़त है.”

अमृतराय ने जो बरामदे में इनको सांय-सांय बातें करते सुना, तो कमरे से बाहर निकल आये और हँस कर पूछा — “कैसे चले, भगेलू?”

भगेलू का हियाव छूट गया. सिर नीचा करके बोला — “हजूर, यह सब कहार आपसे कुछ कहने आये है.”

अमृतराय — “क्या कहते है? यह सब तो बोलते ही नहीं.”

भगेलू (कहारों से) – “तुमको जौन कुछ कहना होय सरकार से कहो.”

कहार भगेलू के इस तरह निकल जाने पर दिल में बहुत झल्लाए.

चम्मन ने ज़रा तीखे होकर कहा — “तुम काहे नाहीं कहत हौ? तुम्हार मुँह में जीभ नहीं है?”

अमृतराय — “हम समझ गये. शायद तुम लोग इनाम मांगने आये हो.”

कहारों से अब सिवाय हाँ कहने के और कुछ न बन पड़ा. अमृतराय ने उसी दम पाँच रुपया भगेलू के हाथ पर रख दिया. जब यह सब फिर अपनी कोठरी में आये, तो यों बातें करने लगे—

चम्मन — “भगेलुआ बड़ा बोदा है.”

रम्मन — “अस रीस लागत रहा कि खाय भरे का देई.”

दुक्खी — “वहाँ जाय के ठकुरासोहाती करै लागा.”

भगेलू — “हमासे तो उनके सामने कुछ कहै न गवा.”

दुक्खी – “तब काहे को यहाँ से आगे-आगे गया रह्यो.”

इतने में सुखई कहार लकडी टेकता खॉसता हुआ आ पहुँचा और इनको जमा देखकर बोला— “का भवा? सरकार का कहेन?”

दुक्खी — “सरकार के सामने जाय कै सब गूँगे हो गये. कोई के मुँह से बात न निकली.”

भगेलू — “सुखई दादा तुम नियाव करो, जब सरकार हँसकर इनाम दे लागे तब कैसे कहा जात कि हम नौकरी छोड़न आये हैं.”

सुखई — “हम तो तुमसे पहले कह दीन कि यहाँ नौकरी छोड़ी के सब जने पछतैहो. अस भलामानुष कहूँ न मिले.”

भगेलू — “दादा, तुम बात लाख रुपया की कहत हो.”

चम्मन — “एमां कौन झूठ हैं? अस मनई कहाँ मिले.”

रम्मन – “आज दस बरस रहत भये मुदा आधी बात कबहूँ नाहीं कहेन.”

भगेलू — “रीस तो उनके देह में छू नहीं गै. जब बात करत है हँसकर.”

मम्मन — “भैया, हमसे कोऊ कहत कि तुम बीस कलदार लेव और हमारे यहाँ चल के काम करो, तो हम सराकर का छोड़ के कहूं, न जाइत. मुद्रा बिरादरी की बात ठहरी. हुक्का-पानी बंद होई गवा, तो फिर केह के द्वारे जैब.”

रम्मन — “यही डर तो जान मारे डालते है.”

चम्मन — “चौधरी कह गये हैं कि आज इनकेर काम न छोड़ देहों तो टाट बाहर कर दीन जैही.”

सुखई — “हम एक बेर कह दीन कि पछतौहो. जस मन मे आवे करो.”

आठ बजे रात को जब बाबू अमृतराय सैर करके आये, तो कोई टमटम थानेवाला न था. चारों ओर घूम-घूम कर पुकारा. मगर किसी आहट न पायी. महाराज, कहार, साईस सभी चल दिये. यहाँ तक कि जो साईस उनके साथ था, वह भी न जाने कहाँ लोप हो गया. समझ गये कि दुष्टों ने छल किया. घोड़े को आप ही खोलने लगे कि सुखई कहार आता दिखाई दिया. उससे पूछा — “यह सब के सब कहाँ चले गये?”

सुखई (खांसकर) – “सब छोड़ गये. अब काम न करेंगे.”

अमृतराय — “तुम्हें कुछ मालूम है इन सभों ने क्यों छोड़ दिया?”

सुखई — “मालूम काहे नाहीं, उनके बिरादरीवाले कहते हैं इनके यहाँ काम मत करो. अमृतराय राय की समझ में पूरी बात आ गयी कि विराधियों ने अपना कोई और बस न चलते देखकर अब यह ढंग रचा है. अंदर गये, तो क्या देखते हैं कि पूर्णा बैठी खाना पका रही है और बिल्लो इधर-उधर दौड़ रही है. नौकरों पर दांत पीसकर रह गये.

पूर्णा से बोले — “आज तुमको बड़ा कष्ट उठाना पड़ा.”

पूर्णा (हँसकर) – “इसे आप कष्ट कहते है. यह तो मेरा सौभाग्य है.”

पत्नी के अधरों पर मंद मुसकान और आँखों में प्रेम देखकर बाबू साहब के चढ़े हुए तेवर बदल गये. भड़कता हुआ क्रोध ठंडा पड़ गया और जैसे नाग सूँबी बाजे का शब्द सुनकर थिरकने लगता है और मतवाला हो जाता उसी भांति उस घड़ी अमृतराय का चित्त भी किलोलें करने लगा. आव देखा न ताव. कोट पतलून, जूते पहने हुए रसोई में बेधड़क घुस गये. पूर्णा हाँ,हाँ करती रही. मगर कौन सुनता है और उसे गले से लगाकर बोले — “मैं तुमको यह न करने दूंगा.”

पूर्णा भी प्रति के नशे में बसुध होकर बोली – “मैं न मानूंगी.”

अमृतराय — “अगर हाथों में छाले पड़े, तो मैं जुरमाना ले लूंगा.”

पूर्णा — “मैं उन छालों को फूल समझूंगी, जुरामान क्यों देने लगी?”

अमृतराय — “और जो सिर में धमक-अमक हुई, तो तुम जानना.”

पूर्णा – “वाह ऐसे सस्ते न छूटोगे. चंदन रगड़ना पड़ेगा.”

अमृत — “ चंदन की रगड़ाई क्या मिलेगी?”

पूर्णा – “वाह (हँसकर) भरपेट भोजन करा दूंगी.”

अमृतराय — “कुछ और न मिलेगा?”

पूर्णा — “ठंडा पानी भी पी लेना.”

अमृत (रिसियाकर) – “कुछ और मिलना चाहिए.”

पूर्णा — “बस,अब कुछ न मिलेगा.”

यहाँ अभी यही बातें हो रही थीं कि बाबू प्राणनाथ और बाबू जीवननाथ आये. यह दोनों कश्मीरी थे और कालिज में शिक्षा पाते थे. अमृतराय के पक्षपातियों में ऐसा उत्साही और कोई न था, जैसे यह दोनों युवक थे. बाबू साहब का अब तक जो अर्थ सिद्ध हुआ था, वह इन्हीं परोपकारियों के परिश्रम का फल था और वे दोनों केवल ज़बानी बकवास लगाने वाले नहीं थे. वरन बाबू साहब की तरह वह दोनों भी सुधार का कुछ-कुछ कर्तव्य कर चुके थे. यही दोनों वीर थे, जिन्होंने सहस्रों रुकावटों और बाधाओं को हटाकर विधवाओं से ब्याह किया था. पूर्णा की सखी रामकली ने अपनी मरजी से प्राणनाथ के साथ विवाह करना स्वीकार किया था और लक्ष्मी के माँ-बाप, जो आगरे के बड़े प्रतिष्ठत रईस थे, जीवननाथ से उसका विवाह करने के लिए बनारस आये थे. ये दोनों अलग-अलग मकान में रहते थे.

बाबू अमृतराय उनके आने की खबर पाते ही बाहर निकल आये और मुस्कुराकर पूछा — “क्यों, क्या खबर है?”

जीवननाथ — “यह आपके यहाँ सन्नाटा कैसा?”

अमृतराय — “कुछ न पूछो, भाई.”

जीवननाथ — “आखिर वे दर्जन-भर नौकरी कहाँ समा गये?”

अमृतराय — “सब जहन्नुम चले गये. ज़ालिमों ने उन पर बिरादरी का दबाव डालकर यहाँ से निकलवा दिया.”

प्राणनाथ ने ठट्ठा लगाकर कहा – “लीजिए यहाँ भी वह ढंग है.”

अमृतराय — “क्या तुम लोगों के यहाँ भी यही हाल है.”

प्राणनाथ — “जनाब, इससे भी बदतर. कहारी सब छोड़ भागे. जिस कुएं से पानी आता था, वहाँ कई बदमाश लठ लिए बैठे है कि कोई पानी भरने आये तो उसकी गर्दन झाड़ें.”

जीवननाथ — “अजी, वह तो कहो कुशल होयी कि पहले से पुलिस का प्रबंध कर लिया, नहीं तो इस वक्त शायद अस्पताल में होते.”

अमृतराय — “आखिर अब क्या किया जाए. नौकरों बिना कैसे काम चलेगा?”

प्राणनाथ — “मेरी तो राय है कि आप ही ठाकुर बनिए और आप ही चाकर.”

ज़ीवनाथ — “तुम तो मोटे-ताजे हो. कुएं से दस-बीस कलसे पानी खींच ला सकते हो.”

प्राणनाथ — “और कौन कहे कि आप बर्तन-भांडे नहीं मांज सकते.”

अमृतराय – “अजी अब ऐसे कंगाल भी नहीं हो गये हैं. दो नौकर अभी हैं, जब तक इनसे थोड़ा-बहुत काम लेंगे. आज इलाके पर लिख भेजता हूँ, वहाँ दो-चार नौकर आ जायेंगे.”

जीवननाथ  — “यह तो आपने अपना इइंतज़ाम किया. हमारा काम कैसे चले.”

अमृतराय — “बस आज ही यहाँ उठ आओ, चटपट.”

जीवननाथ — “यह तो ठीक नहीं और फिर यहाँ इतनी जगह कहाँ है?”

अमृतराय — “वह दिल से राज़ी हैं. कई बार कह चुकी हैं कि अकेले जी घबराता है. यह ख़बर सुनकर फूली न समायेंगी.”

जीवननाथ — “अच्छा अपने यहाँ तो टोह लूं.”

प्राणनाथ — “आप भी आदमी हैं या घनचक्कर. यहाँ टोह लूं वहाँ टोह लूं. भलमानसी चाहो, तो बग्घी जोतकर ले चलो. दोनों प्राणियों को यहाँ लाकर बैठा दो. नहीं तो जाव टोह लिया करो.”

अमृतराय — “और क्या, ठीक तो कहते हैं. रात ज्यादा जाएगी, तो फिर कुछ बनाये न बनेगी.”

जीवननाथ — “अच्छा जैसी आपकी मरज़ी.”

दोनों युवक अस्तबल में गये. घोड़ा खोला और गाड़ी जोतकर ले गये. इधर अमृतराय ने आकर पूर्णा से यह समाचार कहा. वह सुनते ही प्रसन्न हो गई और इन मेहमानों के लिए खाना बनाने लगी. बाबू साहब ने सुखई की मदद से दो कमरे साफ़ कराये. उनमें मेज, कुर्सियाँ और दूसरी ज़रुरत की चीज़ें रखवा दीं. कोई नौ बजे होंगे कि सवारियाँ आ पहुँचीं।. पूर्णा उनसे बड़े प्यार से गले मिली और थोड़ी ही देर में तीनों सखियाँ बुलबुल की तरह चहकने लगीं. रामकली पहले ज़रा झेंपी. मगर पूर्णा की दो-चार बातों ने उसका हियाव भी खोल दिया.

थोड़ी देर में भोजन तैयार हो गया और तीनों आदमी रसोई पर गये. इधर चार-पाँच बरस से अमृतराय दाल-भात खाना भूल गये थे. कश्मीरी बावरची तरह तरह क सालना, अनेक प्रकार के मांस खिलाया करता था और यद्यपि जल्दी में पूर्णा सिवाय सादे खानों के और कुछ न बना सकी थी, मगर सबने इसकी बड़ी प्रशंसा की. जीवननाथ और प्राणनाथ दोनों कश्मीरी ही थे, मगर वह भी कहते थे कि रोटी-दाल ऐसी स्वादिष्ट हमने कभी नहीं खाई.

रात तो इस तरह कटी. दूसरे दिन पूर्णा ने बिल्लो से कहा कि ज़रा बाज़ार से सौदा लाओ तो आज मेहमानों को अच्छी-अच्छी चीज़े खिलाऊं. बिल्लो ने आकर सुखई से हुक्म लगाया और सुखई एक टोकरा लेकर बाज़ार चले. वह आज कोई तीस बरस से एक ही बनिये से सौदा करते थे. बनिया एक ही चालाक था. बुढ़ऊ को खूब दस्तूरी देता, मगर सौदा रुपये में बारह आने से कभी अधिक न देता. इसी तरह इस घूरे साहु ने सब रईसों को फंसा रखा था. सुखई ने उसकी दुकान पर पहुँचते ही टाकरा पटक दिया और तिपाई पर बैठकर बोला — “लाव घूरे, कुछ सौदा सुलुफ तो दो मगर देरी न लगे.”

और हर बार तो घूरे हँसकर सुखई को तमाखू पिलाता और तुरन्त उसके हुक्म की तामील करने लगता. मगर आज उसने उसको और बड़ी रुखाई से देखकर कहा — “आगे जाव। हमारे यहाँ सौदा नहीं है.”

सुखई — “ज़रा आदमी देख के बात करो. हमें पहचानते नहीं क्या?”

घूरे — “आगे जाव. बहुत टें-टें न करो.”

सुखई – “कुछ भांग-वांग तो नहीं खा गये क्या? अरे हम सुखई हैं.”

घूरे — “अजी तुम लाट हो तो क्या? चलो अपना रास्ता देखो.”

सुखई — “क्या तुम जानते हो, हमें दूसरी दुकान पर दस्तूरी न मिलेगी? अभी तुम्हरे सामने दो आने रूपया लेकर दिखा देता हूँ.””

घूरे — “तुम सीधे से जाओगे कि नहीं? दुकान से हटकर बात करो. बेचारा सुखई साहु की सइ रुखाई पर आर्श्चय करता हुआ दूसरी दुकान पर गया. वहाँ भी यही जवाब मिला. तीसरी दुकान पर पहुँचा. यहाँ भी वही धुतकार मिली. फिर तो उसने सारा-बाज़ार छान डाला. मगर कहीं सौदा न मिला. किसी ने उसे दुकान पर खड़ा तक होने न दिया. आखिर झकमारकर मरा-सा मुँह लिये लौट आया और सब समाचार कहा. मगर नमक-मसाले बिना कैसे काम चले? बिल्लो ने काह – “अब की मैं जाती हूँ. देखूं कैसे कोई सौदा नहीं देता?”

मगर वह ज्यों ही बाहर निकली कि एक आदमी उसे इधर-उधर टहलता दिखायी दिया. बिल्लो को देखते ही वह उसके साथ हो लिया और जिस जिस दुकान पर बिल्लो गई वह भी परछाई की तरह साथ लगा रहा. आखिर बिल्लो भी बहुत दौड़-धूप कर हाथ झुलाते लौट आयी. बेचारी पूर्णा ने हार कर सादे पकवान बनाकर धर दिये.

बाबू अमृतराय ने जब देखा कि द्रोही लोग इसी तरह पीछे पड़े, तो उसी दम लाला धनुषधारीलाल को तार दिया कि आप हमारे यहाँ पाँच होशियार खिदमतगार भेज दीजिए. लाला साहब पहले ही समझे हुए थे कि बनारस में दुष्ट लोग जितना ऊधम मचायें थोड़ा हैं. तार पाते ही उन्होंने अपने अपने होटल के पाँच नौकरों को बनारस रवाना किया, जिनमें एक कश्मीरी महराज भी थी. दूसरे दिन यह सब आ पहुँचे. सब के सब पंजाबी थे, जो न तो बिरादरी के गुलाम थे और न जिनको टाट बाहर किये जाने का खटका था. विरोधियों ने उसके भी कान भरने चाहे. मगर कुछ दांव न चला. सौदा भी लखनऊ से इतना मंगा लिया, जो कई महीनों को काफ़ी था.

जब लोगों ने देखा इन शरारतों से अमृतराय को कुछ हानि न पहुँची, तो और ही चाल चले. उनके मुवक्किलों को बहकाना शुरु किया कि वह तो ईसाई हो गये हैं. साहबों के संग बैठकर खाते हैं. उनको किसी जानवर के मांस से विचार नहीं है. एक विधवा ब्रह्माणी से विवाह कर लिया है. उनका मुँह देखना, उनसे बातचीत करना भी शास्त्र के विरुद्ध है. मुवक्किलों में बहुधा करके देहातों के राजपूत ठाकुर और भुंइहार थे, जो यहाता अविद्या की कालकोठरी में पड़े हुए थे या नये ज़माने के चमत्कार ने उन्हें चौंधिया दिया था. उन्होंने जब यह सब ऊटपटांग बातें सुनी, तब वे बहुत बिगड़े, बहुत झल्लाये और उसी दम कसम खाई कि अब चाहे जो हो इस अधर्मी को कभी मुकदमा न देंगे. राम राम इसको वेदशास्त्र का तनिक विचार नहीं भया कि चट एक रांड को घर में बैठाल लिया. छी छी अपना लोक-परलोक दोनों बिगाड़ दिया. ऐसा ही था तो हिंदू के घर में काहे को जन्म लिया था. किसी चोर-चंडाल के घर जन्मे होते. बाप-दादे का नाम मिटा दिया. ऐसी ही बातें कोई दो सप्ताह तक उनके मुवक्किलों में फैली, जिसका परिणाम यह हुआ कि बाबू अमृतराय का रंग फीका पड़ने लगा. जहाँ मारे मुकदमों के साँस लेने का अवकाश न मिलता था, वहाँ अब दिन-भर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की नौबत आ गयी. यहाँ तक कि तीसरा सप्ताह कोरा बीत गया और उनको एक भी अच्छा मुकदमा न मिला.

जज साहब एक बंगाली बाबू थे. अमृतराय के परिश्रम और तीव्रता, उत्साह और चपलता ने जज साहब की आँखों में उन्होंने बड़ी प्रशंसा दे रखी थी. वह अमृतराय की बढ़ती हुई वकालत को देख-देख समझ गये थे कि थोड़ी ही दिनों मे यह सब वकीलों का सभापति हा जाएगा. मगर जब तीन हफ्ते से उनकी सूरत न दिखायी दी, तब उनको आश्चर्य हुआ. अरिश्तेदार से पूछा कि आजकल बाबू अमृतराय कहाँ हैं? सरिश्तेदार साहब जाति के मुसलमान और बड़े सच्चे, साफ आदमी थे. उन्होंने सारा ब्योरा जो सुना था कह सुनाया. जज साहब सुनते ही समझ गये कि बेचारे अमृतराय सामाजिक कामों में अग्रण्य बनने का फल भोग रहे हैं. दूसरे दिन उन्होंने खुद अमृतराय को इजलास पर बुलवाया और देहाती ज़मींदारी के सामने उनसे बहुत देर तक इधर-उधर की बातें की. अमृतराय भी हँस-हँस उनकी बातों का जवाब दिया किये. इस बीच में कई वकीलों और बैरिस्टर जज साहब को दिखाने कि लिए कागज पत्र – लाये, मगर साहब ने किसी के ओर ध्यान नहीं दिया. जब वह चले तो साहब ने कुर्सी से उठकर हाथ मिलाया और ज़रा जोर से बोलो – “ बहुत अच्छा, बाबू साहब जैसा आप बोलता है, इस मुकदमे मे वैसा ही होगा.”

आज जब कचहरी बरखास्त हुई, तो उन जमीदारों में जिनके मुकदमे आज पेश थे, यों गलेचौर होने लगी.

ठाकुर साहब ( पगड़ी बांधे, मूंछे खड़ी किये, मोटासा लट्ठ हाथ में लिये) – “आज जज साहब अमृतराय से खूब-खूब बतियात रहे.”

मिश्र जी (सिर घुटाये,टीका लगाये, मुह में तम्बाकु दबाये और कंघे पर अंगोछा रक्खे) – “खूब बतियावत रहा, मानो कोउ अपने मित्र से बतियावै.”

ठाकुर – “अमृतराय हँस- हँस मुंडी हिलावत रहा.”

मिश्र जी – “बड़े आदमियन का सब जगह आदर होत है.”
ठाकुर – “जब ओ दोनो बतियात रहे, तब तलुक कउ वकील आये बाकी साहेब कोउ की ओर तनिक नाहीं ताकिन.”

मिश्र जी –  “हम कहे देइत है तुमार मुकदमा उनहीं के राय से चले. सुनत रहयो कि नाहीं जब अमृतराय चले लागे तो जज साहब कहेन कि इस मुकदमे में वैसा ही होगा.”

ठाकुर – “सुना काहे नहीं, बाकी फिर काव करी.”

मिश्र जी – “इतना तो हम कहित है कि अस वकिल पिरथी भर में नाहीं ना.”

ठाकुर – ‘कस बहस करत हैं मानो जिहवा पर सरस्वती बैठी होय. उनकर बराबरी करैया आज कोई नाहीं है.”

मिश्र जी – “मुदा इसाई होइ गया. रांड से ब्याह किहेसि.”

ठाकुर – “एतनै तो बीच परा है. अगर उनका वकील किहे होईत तो बाजी बद के जीत जाईत.”

इसी तरह दोनो में बातें हुई और दिया में बती पडतें-पडतें दोनो अमृतराय के पास गये और उनसे मुकदमें की कुल रुयदाद बयान की. बाबू साहब ने पहले ही समझ लिया था कि इस मुकदमें में कुछ जान नहीं है. तिस पर उन्होंने मुकदमा ले लिया और दूसरे दिन ऐसी योग्यता से बहस की कि दूसरी ओर के वकील-मुखतियार खड़े मुँह ताकते रह गये. आख्रिर जीत का सेहरा भी उन्हीं के सिर रहा. जज साहब उनकी बकतृया पर ऐसी प्रसन्न हुए कि उन्होंने हँसकर धन्यवाद दिया और हाथ मिलाया. बस अब क्या था? एक तो अमृतराय यों ही प्रसिद्ध थे, उस पर जज साहब का यह वर्ताव और भी सोने पर सुहागा हो गया. वह बंगले पर पहुँच कर चैन से बैठने भी न पाये थे, कि मुवक्किलों के दल के दल आने लगे और दस बजे रात तक यही तांता लगा रहा. दूसरे दिन से उनकी वकालत पहले से भी अधिक चमक उठी.

द्रोहियों जब देखा कि हमारी चाल भी उलटी पड़ी. तो और भी दांत पीसने लगे. अब मुंशी बद्रीप्रसाद तो थे ही नहीं कि उन्हें सीधी चालें बताते और न ठाकुर थे कि कुछ बाहुबल का चमत्कार दिखाते. बाबू कमलाप्रसाद अपने पिता के सामने ही से इन बातो से अलग हो गये थे, इसलिये दोहियों को अपना और कुछ बस न देख कर पंडित भगुदत का द्वार खटखटाया. उनसे कर जोड़ कर कहा कि महाराज! कृपा-सिन्धु! अब भारत वर्ष में महाउत्पात और घोर पाप हो रहा है. अब आप ही चाहो तो उसका उद्धार हो सकता है. सिवाय आप के इस नौका को पार लगाने वाला इस संसार में कोई नहीं है. महाराज! अगर इस समय पूरा बल न लगाया, तो फिर इस नगर के वासी कहीं मुँह दिखाने के योग्य नहीं रहेंगे. कृपा के परनाले और धर्म के पोखरा ने जब अपने जजमानों को ऐसी दीनता से स्तुति करते देखा, तो दांत निकालकर बोले – “आप लोग जौन है तैन घबरायें मत. आप देखा करें कि भृगुदत क्या करते है.”
सेठ धूनीमल – “महाराज! कुछ ऐसा यतन कीजिये कि इस दुष्ट का सत्यानाश् हो जाय. कोई नाम लेवा न बचे.”

कई आदमी – “हाँ महाराज! इस घड़ी तो यही चाहिये.”

भृगुदत – “यही चाहिये तो यही लेन. सर्वथा नाश न कर दूं, तो ब्राहमण नहीं. आज के सातवें दिन उसका नाश हो जायेगा.”

सेठ जी – “द्वव्य जो लगे बेखटके कोठी से मंगा लेना.”

भृगुदत – “इसके कहने की कोइ आवश्यकता नहीं. केवल पाँच सौ ब्राहमण का प्रतिदिन भोजन होगा.”

बाबू दीनानाथ – “तो कहिये तो कोई हलवाई लगा दिया जाए. राघो हलवाई पेड़े और लड्डू बहुत अच्छे बनाता है.”

भृगुदत – “जो पूजा मैं कराऊंगा, उसमें पेड़ा खाना वर्जित है. अधिक इमरती का सेवन हो उतना ही कार्य सिद्ध हो जाता है.”

इस पर पंड़ित जी के एक चेले ने कहा – “गुरू जी! आज तो आप ने न्याय का पाठ देते समय कहा था कि पेड़े के साथ दही मिला दिया जाए तो उसमें कोई दोष नहीं रहता.”

भृगुदत (हँसकर) – “हाँ हाँ अब स्मरण हुआ. मनु जी ने इस शलोक में इस बात का प्रमाण दिया है.”

दीनानाथ (मुस्कुराकर) – “महाराज! चेला तो बड़ा तीव्र है.”

सेठ जी – “यह अपने गुरूजी से बाजी ले जायेगा.”

भृगुदत – “अब कि इसने एक यज्ञ में दो सेर पूरियाँ खायी. उस दिन से मैने इसका नाम अंतिम परीक्षा में लिख दिया.”

चेला – “मैं अपने मन से थोड़ा ही उठा. अगर जजमान हाथ जोड़कर उठा न देते, तो अभी सेर भर और खा के उठता.”

दीनानाथ –“क्यों न हो पट! जैसे गुरू वैसे चेला!”

सेठ जी – “महाराज, अब हमको आज्ञा दीजिए. आज हलवाई आ जाएगा. मुनीम जी भी उसके साथ लगे रहेगें. जो सौ दो सौ का काम लगे, मुनीम जी से फरमा देना. मगर बात तब है कि आप भी इस बिषय में जान लड़ा दे.”

पंड़ित जी ने सिर का कद्दू हिलाकर कहा – ‘इसमें आप कोई खटका न समझिये. एक सप्ताह में अगर दुष्ट का न नाश हो जाए तो भृगुदत नहीं। अब आपको पूजन की बिधि भी बता ही दूं. सुनिए तांत्रिक विद्या में एक मंत्र ऐसा भी है, जिसके जगाने से बैरी की आयु क्षीण होती है. अगर दस आदमी प्रति दिवस उसका पाठ करे, तो आयु में दोपहर की हानि होगी. अगर सौ आदमी पाठ करें, तो दस दिन की हानि होगी. यदि पाँच सौ पाठ नित्य हो, तो हर दिन पाँच वर्ष आयु घटती हैं.”

सेठ जी – “महाराज, आप ने इस घड़ी ऐसे बात कही कि हमारा चोला मस्त हो गया, मस्त हो गया.”

दीनानाथ – “कृपासिन्घु, आप धन्य! आप धन्य हो!”

बहुत से आदमी – “एक बार बोलो- पंड़ित भृगुदत की जय!”

बहुत से आदमी – “एक बार बोलो- दुष्ठों की छै! छै!!”

इस तरह कोलाहल मचाते हुए लोग अपने-अपने घरों को लौटे. उसी दिन राघो हलवाई पंड़ित जी के मकान पर जा डटा. पूजा-पाठ होने लगे. पाँच सौ भुक्खड़ एकत्र हो गये और दोनों जून माल उडानें लगे/ धीरे-धीरे पाँच सौ से एक हजार नंबर पहुँचा, पूजा-पाठ कौन करता है? सबेरे से भोजन का प्रबंध करते–करते दोपहर हो जाता था और दोपहर से भंग-बूटी छानते रात हो जाती थी. हाँ पंडित भृगुदत दास का नाम पूरे शहर में उजागर हो रहा था. चारो ओर उनकी बड़ाई गाई जा रही थी. सात दिन यही अधाधुंध मचा रहा. यह सब कुछ हुआ, मगर बाबू अमृतराय का बाल बांका न हो सका. कहीं चमार के सरापे डागर मिलते है. ऐसे आँख के अंधे और गँठ के पुरे न फंसे, तो भृगुदत जैसे गुगो को चखौतिया कौन करायें? सेठ जी के आदमी तिल-तिल पर अमृतराय के मकान पर दौड़ते थे कि देखें कुछ जंत्र-मंत्र का फल हुआ कि नहीं. मगर सात दिन के बीतने पर कुछ फल हुआ, तो यही कि अमृतराय की वकालत सदा से बढ़कर चमकी हुई थी.

Prev Part | Next Part

Chapter 1 | 2 | 34567 | 8 | 91011 |1213 |End

पढ़ें : निर्मला लोकप्रिय लेखक स्व. मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

पढ़ें : चंद्रकांता लोकप्रिय लेखक स्व.  देवकी नंदन खत्री का उपन्यास

पढ़ें : ज़िन्दगी गुलज़ार है मशहूर उर्दू लेखिका उमरा अहमद का नॉवेल 

Leave a Comment