चैप्टर 7 – प्रेमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 7 Prema Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 7 Prema Novel By Munshi Premchand

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प्रेमा भाग – 7 : आज से कभी मंदिर ना जाऊंगी

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बेचारी पूर्णा, पंडाइन, चौबाइन, मिसराइन आदि के चले जाने के बाद रोने लगी. वह सोचती थी कि हाय! अब मैं ऐसी मनहूस समझी जाती हूँ कि किसी के साथ बैठ नहीं सकती. अब लोगों को मेरी सूरत काटने दौड़ती है. अभी नहीं मालूम क्या-क्या भोगना बदा है. या नारायण! तू ही मुझ दुखिया का बेड़ा पार लगा. मुझ पर न जाने क्या कुमति सवार थी कि सिर में एक तेल डलवा लिया. यह निगोड़े बाल न होते, तो काहे को आज इतनी फ़जीहत होती. इन्हीं बातों की सुधि करते-करते जब पंडाइन की यह बात याद आ गयी कि बाबू अमृतराय का रोज़-रोज़ आना ठीक नहीं, तब उसने सिर पर हाथ मारकर कहा — “वह जब आप ही आप आते है, तो मैं कैसे मना कर दूं. मैं, तो उनका दिया खाती हूँ. उनके सिवाय अब मेरी सुधि लेने वाला कौन है? उनसे कैसे कह दूं कि तुम मत आओ और फिर उनके आने में हर्ज़ ही क्या है? बेचारे सीधे-सादे भले मनुष्य हैं. कुछ नंगे नहीं, शोहदे नहीं. फिर उनके आने में क्या हर्ज़ है. जब वह और बड़े आदमियों के घर जाते है, तब तो लोग उनको आँखों पर बिठाते है. मुझ भिखारिन के दरवाजे पर आवें, तो मैं कौन मुँह लेकर उनको भगा दूं. नहीं नहीं, मुझसे ऐसा कभी न होगा. अब तो मुझ पर विपत्ति आ ही पड़ी है, जिसके जी में जो आवै कहै.

इन विचारों से छुट्टी पाकर वह अपने नियमानुसार गंगा स्नान को चली. जबसे पंडित जी का देहांत हुआ था, तब से वह प्रतिदिन गंगा नहाने जाया करती थी. मगर मुँह अंधेरे जाती और सूर्य निकलते लौट आती. आज इन बिन बुलाये मेहमानों के आने से देर हो गई. थोड़ी दूर चली होगी कि रास्ते में सेठानी की बहू से भेंट हो गई. इसका नाम रामकली थ. यह बेचारी दो साल से रंडापा भोग रही थी. आयु १६ अथवा १७ साल से अधिक न होगी. वह अतिसुंदरी नख-शिख से दुरूस्त थी. गाल ऐसा कोमल था कि देखने वाले देखते ही रह जाते थे. जवानी की उमर मुखड़े से झलक रही थी. अगर पूर्णा पके हुए आम के समान पीली हो रही थी, तो वह गुलाब के फूल की भांति खिली हुई थी. न बाल में तेल था, न आँखों में काजल, न मांग में सिंदूर, न दांतों पर मिससी. मगर आँखों में वह चंचलता थी, चाल मे वह लचक और होठों पर वह मनभवानी लाली थी कि जिससे बनावटी श्रृंगार की ज़रूरत न रही थी. वह मटकती इधर-उधर ताकती, मुस्कुराती चली जा रही थी कि पूर्णा को देखते ही ठिठक गयी और बड़े मनोहर भाव से हँसकर बोली — “आओ बहिन, आओ! तुम तो जानों बताशे पर पैर धर रही हो.”

पूर्णा को यह छेड़-छाड़ की बात बुरी मालूम हुई. मगर उसने बड़ी नर्मी से जवाब दिया — “क्या करूं बहिन? मुझसे तो और तेज नहीं चला जाता.”

रामकली — “सुनती हूँ कल हमारी डाइन कई चुड़ैलो के साथ तुमको जलाने गयी थी. जानों मुझे सताने से अभी तक जी नहीं भरा. तुमसे क्या कहू बहिन, यह सब ऐसा दुख देती है कि जी चाहता है माहुर खा लूं. अगर यही हाल रहा, तो एक दिन अवश्य यही होना है. नहीं मालूम ईश्वर का क्या बिगाड़ा था कि स्वप्न में भी जीवन का सुख न प्राप्त हुआ. भला तुम तो अपने पति के साथ दो वर्ष तक रहीं भी. मैंने तो उसका मुँह भी नहीं देखा. जब तमाम औरतों को बनाव-सिंगार किये हँसी-खुशी चलते-फिरते देखती हूँ, तो छाती पर सांप लोटने लगता है. विधवा क्या हो गई, घर भर की लौंडी बना दी गयी. जो काम कोई न करे, वह मै करुं. उस पर रोज उठते जूते, बैठते लात. काजर मत लगाओ, किस्सी मत लगाओ, बाल मत गुंथाओ, रंगीन साड़ियाँ मत पहनो, पान मत खाओ. एक दिन एक गुलाबी साड़ी पहन ली, तो चुड़ैल मारने उठी थी. जी में तो आया कि सिर के बाल नोच लूं, मगर विष का घूंट पीकर रह गयी और वह तो वह, उसकी बेटियाँ और दूसरी बहुएं मुझसे कन्नी काटती फिरती है. भोर के समय कोई मेरा मुँह नहीं देखता. अभी पड़ोस मे एक ब्याह पड़ा था. सब की सब गहने से लद-लद गाती बजाती गयी. एक मैं ही अभागिनी घर मे पड़ी रोती रही. भला बहिन, अब कहाँ तक कोई छाती पर पत्थर रख ले. आखिर हम भी तो आदमी हैं. हमारी भी तो जवानी है. दूसरों का राग-रंग, हँसी, चुहल देख अपने मन में भी भावना होती है. जब भूख लगे और खाना न मिले, तो हार कर चोरी करनी पड़ती है.”

यह कहकर रामकली ने पूर्णा का हाथ अपने हाथ में ले लिया और मुस्कुराकर धीरे-धीरे एक गीत गुनगुनाने लगी. बेचारी पूर्णा दिल में कुढ़ रही थी कि इसके साथ क्यों लगी? रास्ते में हजारों आदमी मिले. कोई इनकी ओर आँखें फाड़-ड़ घूरता था, कोई इन पर बोलियाँ बोलता था. मगर पूर्णा सिर को ऊपर न उठाती थी. हाँ, रामकली मुस्करा-मुस्करा कर बड़ी चपलता से इधर उधर ताकती, आँखें मिलाती और छेड़-छाड़ का जवाब देती जाती थी. पूर्णा जब रास्ते में मर्दो को खड़े देखती, तो कतरा के निकल जाती. मगर रामकली बरबस उनके बीच में से घुसकर निकलती थी. इसी तरह चलते-चलते दोनो नदी के तट पर पहुँची. आठ बज गया था. हजारों मर्द स्त्रियाँ, बच्चे नहा रहे थे. कोई पूजा कर रहा था. कोई सूर्य देवता को पानी दे रहा था. माली छोटी-छोटी डालियों में गुलाब, बेला, चमेली के फूल लिये नहाने वालों को दे रहे थे. चारों और जै गंगा! जै गंगा! का शब्द हो रहा था. नदी बाढ़ पर थी. उस मटमैले पानी में तैरते हुए फूल अतिसुंदर मालूम होते थे. रामकली को देखते ही एक पंडे ने कही — “इधर सेठानी जी, इधर.”

पंडाजी महाराज पीताम्बर पहने, तिलक मुद्रा लगाये, आसन मारे, चंदन रगड़ने में जुटे थे. रामकली ने उसके स्थान पर जाकर धोती और कमंडल रख दिया.

पंडा (घूरकर) – “यह तुम्हारे साथ कौन है?”

रामकली (आँखें मटकाकर) – “कोई होंगी तुमसे मतलब. तुम कौन होते हो पूछने वाले?”

पंडा — “ज़रा नाम सुन के कान खुश कर लें.”

रामकली – “यह मेरी सखी हैं. इनका नाम पूर्णा है.”

पंडा (हँसकर) – “ओहो हो! कैसा अच्छा नाम है? है भी तो पूर्ण चंद्रमा के समान. धन्य भाग्य है कि ऐसे जजमान का दर्शन हुआ.”
इतने में एक दूसरा पंडा लाल-लाल आँखें निकाले, कंधे पर लठ रखे, नशे में चूर, झूमता-झामता आ पहुँचा और इन दोनो ललनाओं की ओर घूर कर बोला,  “अरे रामभरोसे, आज तेरे चंदन का रंग बहुत चोखा है.”

रामभरोसे — “तेरी आँखें काहे को फूटे है. प्रेम की बूटी डाली है, जब जा के ऐसा चोखा रंग भया.”

पंडा — “तेरे भाग्य को धन्य हैं, यह रक्त चंदन (रामकली की तरफ देखकर) तो तूने पहले ही रगड़ा रक्खा था. परंतु इस मलयागिर (पूर्णा की तरफ इशारा करके) के सामने तो उसकी शोभा ही जाती रही.”

पूर्णा तो यह नोक-झोंक समझ-समझ कर झेंपी जाती थी. मगर रामकली कब चूकने वाली थी. हाथ मटका कर बोली — “ऐसे करमठँढ़ियों को थोड़े ही मलयागिर मिला करता है.”

रामभरोसे (पंडा से) – “अरे बौरे, तू इन बातों का मर्म क्या जाने? दोनो ही अपने-अपने गुण में चोखे हैं. एक में सुगंध है, तो दूसरे में रंग है.”

पूर्णा मन में बहुत लज्जित थी कि इसके साथ कहाँ फंस गयी. अब तक वो नहा-धोके घर पहुँची होती. रामकली से बोली — “बहिन, नहाना हो तो नहाओ, मुझको देर होती है. अगर तुमको देर हो, तो मैं अकेले जाऊं.”

रामभरोसे — “नहीं, जजमान! अभी तो बहुत सबेरा है. आनंदपूर्वक स्नान करो.”

पूर्णा ने चादर उतार कर धर दी और साड़ी लेकर नहाने के लिए उतरना चाहती थी कि यकायक बाबू अमृतराय एक सादा कुर्ता पहने, सादी टोपी सिर पर रखे , हाथ में नापने का फीता लिये चंद ठेकेदारों के साथ आते दिखायी दिये. उनको देखते ही पूर्णा ने एक लंबी घूघंट निकाल ली और चाहा कि सीढ़ियों पर लंबाई-चौड़ाई नापना था क्योंकि वह एक जनाना घाट बनवा रहे थे. वह पूर्णा के निकट ही खड़े हो गये और कागज पेंसिल पर कुछ लिखने लगे. लिखते-लिखते जब उन्होंने कदम बढ़ाया, तो पैर सीढ़ी के नीचे जा पड़ा. करीब था कि वह औधै मुँह गिरे और चोट-चपेट आ जाय कि पूर्णा ने झपट कर उनको संभाल लिया. बाबू साहब ने चौंककर देखा, तो दहिना हाथ एक सुंदरी के कोमल हाथों में है. जब तक पूर्णा अपना घूंघट बढ़ावे, वह उसको पहचान गये और बोले — “प्यारी, आज तुमने मेरी जान बचा ली.”

पूर्णा ने इसका कुछ जवाब न दिया. इस समय न जाने क्यों उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था और आँखों में आँसू भरा आता था. “हाय! नारायण, जो कहीं वह आज गिर पड़ते, तो क्या होता…” यही उसका मन बार-बार कहता. ‘मैं भले संयोग से आ गयी थी. वह सिर नीचा किये गंगा की लहरों पर टकटकी लगाये यही बातें गुनती रही. जब तक बाबू साहब खड़े रहे, उसने उनकी ओर एक बार भी न ताका.

जब वह चले गए, तो रामकली मुस्कुराती हुई आयी और बोली — “बहिन, आज तुमने बाबू साहब को गिरते-गिरते बचा लिया. आज से तो वह और भी तुम्हारे पैरों पर सिर रखेंगे.”

पूर्णा (कड़ी निगाहों से देखकर) – “रामकली ऐसी बातें न करो. आदमी आदमी के काम आता है. अगर मैंने उनको संभाल लिया, तो इसमे क्या बात अनोखी हो गयी?”

रामकली — “ए लो! तुम तो ज़रा सी बात पर तुनक गयीं.”

पूर्णा — “अपनी-अपनी रूचि है. मुझको ऐसी बातें नहीं भाती.”

रामकली — “अच्छा अपराध क्षमा करो. अब सरकार से दिल्लगी न कररूंगी. चलो तुलसीदल ले लो.”

पूर्णा — “नहीं, अब मै यहॉँ न ठहरूंगी. सूरज माथे पसर आ गया.”

रामकली — “जब तक इधर-उधर जी बहले अच्छा है. घर पर तो जलते अंगारों के सिवाय और कुछ नहीं.”

जब दोनो नहाकर निकली, तो फिर पंडो ने छेड़ना चाहा, मगर पूर्णा एकदम भी न रूकी. आखिर रामकली ने भी उसका साथ छोड़ना उचित न समझा. दोनो थोड़ी दूर चली होगी कि रामकली ने कहा —“क्यों बहिन, पूजा करने न चलोगी?”

पूर्णा — “नहीं सखी, मुझे बहुत देर हो जायगी.”

रामकली — “आज तुमको चलना पड़ेगा. तनिक देखो तो कैसे विहार की जगह है. अगर दो-चार दिन भी जाओ, तो फिर बिना नित्य गये जी न माने.”

पूर्णा – “तुम जाओ, मैं न जाऊंगी. जी नहीं चाहता.”

रामकली — “चलो चलो, बहुत इतराओ मत. दम की दम में तो लौटे आते है.”

रास्ते में एक तंबोली की दुकान पड़ी. काठ के पटरों पर सफ़ेद भीगे हुए कपड़े बिछे थे. उस पर भांति-भांति के पान मसालों की खूबसूरत डिबियाँ,  सुगंध की शीशियाँ, दो-तीन हरे-हरे गुलदस्ते सजा कर धरे हुए थे. सामने ही दो बड़े-बड़े चौखटेदार आईने लगे हुए थे. पनवाड़ी एक सजीला जवान था. सिर पर दो पल्ली टोपी चुनकर टेढ़ी दे रक्खी थी. बदन में तंजेब का फंसा हुआ कुर्ता था. गले में सोने की तावीजे. आँखों में सुर्मा, माथे पर रोरी, ओंठों पर पान की गहरी लाली. इन दोनों स्त्रियों को देखते ही बोला — “सेठानी जी, पान खाती जाव.”
रामकली ने चट सिर से चादर खसका दी और फिर उसको एक अनुपम भाव से ओढकर हँसते हुए नयनो से बोली — “अभी प्रसाद नहीं पाया.”

पनवाड़ी — “आवो! आवो! यह भी तो प्रसाद ही है. संतों के हाथ की चीज प्रसाद से बढ़कर होती है. यह आज तुम्हारे साथ कौन शक्ति है?”
रामकली — “यह हमारी सखी है.”

तम्बोली — “बहुत अच्छा जोड़ा है. धन्य् भाग्य जो दर्शन हुआ.”

रामकली दुकान पर ठमक गयी और शीशे में देख-देख अपने बाल संवारने लगी. उधर पनवाड़ी ने चाँदी के वरक लपेटे हुए बीड़े फुरती से बनाये और रामकली की तरफ हाथ बढ़ाया. जब वह लेने को झुकी, तो उसने अपना हाथ खींच लिया और हँसकर बोला — “तुम्हारी सखी लें तो दें.”

रामकली – “मुँह बनवा आओ, मुँह. (पान लेकर) लो, सखी, पान खाव.”

पूर्णा — “मैं न खाऊंगी.”

रामकली — “तुम्हारी क्या कोई सास बैठी है, जो कोसेगी. मेरी तो सास मना करती है. मगर मैं उस पर भी प्रतिदिन खाती हूँ.”

पूर्णा — “तुम्हारी आदत होगी, मैं पान नहीं खाती.”

रामकली — “आज मेरी खातिर से खाव. तुम्हें कसम है.”

रामकली ने बहुत हठ की मगर पूर्णा ने गिलौरियाँ न लीं. पान खाना उसने सदा के लिए त्याग दिया था. इस समय तक धूप बहुत तेज़ हो गयी थी. रामकली से बोली — “किधर है तुम्हारा मंदिर? वहाँ चलते-चलते तो सांझ हो जायगी.”

रामकली — “अगर ऐसे दिन कटा जाता, तो फिर रोना काहे का था.”

पूर्णा चुप हो गयी. उसको फिर बाबू अमृतराय के पैर फिसलने का ध्यान आ गया और फिर मन में यह प्रश्न किया कि कहीं आज वह गिर पड़ते तो क्या होता. इसी सोच में थी कि निदान रामकली ने कहा — “लो सखी, आ गया मंदिर.”

पूर्णा ने चौंककर दाहिनी ओर जो देखा, तो एक बहुत ऊँचा मंदिर दिखायी दिया. दरवाजे पर दो बड़े-बड़े पत्थर के शेर बने हुए थे और सैंकड़ों आदमी भीतर जाने के लिए धक्कम-धक्का कर रहे थे. रामकली पूर्णा को इस मंदिर में ले गयी. अंदर जाकर क्या देखती है कि पक्का चौड़ा आंगन है, जिसके सामने से एक अंधेरी और संकरी गली देवी जी के धाम को गयी है. दाहिनी ओर एक बारादरी है, जो अति उत्तम रीति पर सजी हुई है. यहाँ एक युवा पुरूष पीला रेशमी कोट पहने, सिर पर खूबसूरत गुलाबी रंग की पगड़ी बांधे, तकिया-मसनद लगाये बैठा है. पेचवान लगा हुआ है. उगालदान, पानदान और नाना प्रकार की सुंदर वस्तुओं से सारा कमरा भूषित हो रहा है. उस युवा पुरूष के सामने एक सुधर कामिनी सिंगार किये विराज रही है. उसके इधर-उधर सपरदाये बैठे हुए स्वर मिला रहे है. सैंकड़ों आदमी बैठे और सैंकड़ों खड़े है. पूर्णा ने यह रंग देखा, तो चौंककर बोली — “सखी, यह तो नाचघर सा मालूम होता है. तुम कहीं भूल तो नहीं गयीं?”

रामकली (मुस्कराकर) – “चुप! ऐसा भी कोई कहता है. यही तो देवी जी का मंदिर है. वह बरादरी में महंत जी बैठे है. देखती हो कैसा रंगीला जवान है. आज शुक्रवार है, हर शुक्र को यहाँ रामजनी का नाच होता है.”

इस बीच मे एक ऊँचा आदमी आता दिखायी दिया. कोई छ: फुट का कद था. गोरा-चिटठा, बालों में कंधी कह हुई, मुँह पान से भरे, माथे पर विभूति रमाये, गले में बड़े-बड़े दानों की रूद्राक्ष की माला पहने कंधे पर एक रेशमी दुपटटा रक्खे, बड़ी-बड़ी और लाल आँखों से इधर-उधर ताकता इन दोनों स्त्रियों के समीप आकर खड़ा हो गया.

रामकली ने उसकी तरफ कटाक्ष से देखकर कहा — “क्यों बाबा इन्द्रवत कुछ परशाद वरशाद नहीं बनाया?”

इन्द्र — “तुम्हारी खातिर सब हाजिर है. पहले चलकर नाच तो देखो. यह कंचनी काश्मीर से बुलायी गयी है. महंत जी बेढब रीझे हैं, एक हजार रूपया इनाम दे चुके हैं.”

रामकली ने यह सुनते ही पूर्णा का हाथ पकड़ा और बारादरी की ओर चली. बेचारी पूर्णा जाना न चाहती थी. मगर वहाँ सबके सामने इंकार करते भी बन न पड़ता था. जाकर एक किनारे खड़ी हो गयी. सैकड़ों औरतें जमा थीं. एक से एक सुंदर गहने लदी हुई. सैंकड़ों मर्द थे, एक से एक गबरू, उत्तम कपड़े पहले हुए. सब के सब एक ही में मिले जुले खड़े थे. आपस में बोलियाँ बोली जाती थीं, आँखें मिलायी जाती थी, औरतें मर्दो में. यह मेलजोल पूर्णा को न भाया. उसका हियाव न हुआ कि भीड़ में घुसे. वह एक कोने में बाहर ही दुबक गयी. मगर रामकली अंदर घुसी और वहाँ कोई आध घण्टे तक उसने खूब गुलछर्रे उड़ाये. जब वह निकली, तो पसीने में डूबी हुई थी. तमाम कपड़े मसल गये थे.

पूर्णा ने उसे देखते ही कहा — “क्यों बहिन, पूजा कर चुकीं? अब भी घर चलोगी या नहीं?”

रामकली (मुस्कराकर) – “अरे, तुम बाहर खड़ीं रह गयीं क्या? ज़रा अंदर चलके देखो क्या बहार है? ईश्वर जाने कंचनी गाती क्या है दिल मसोस लेती है.”

पूर्णा — “दर्शन भी किया या इतनी देर केवल गाना ही सुनती रहीं?”

रामकली — “दर्शन करने आती है मेरी बला. यहाँ तो दिल बहलाने से काम है. दस आदमी देखें, दस आदमियों से हँसी दिल्लगी की, चलों मन आन हो गया. आज इन्द्रदत्त ने ऐसा उत्तम प्रसाद बनाया है कि तुमसे क्या बखान करूं.”

पूर्णा – “क्या है ,चरणामृत?”

रामकली (हँसकर) – “हाँ, चरणामृत में बूटी मिला दी गयी है.”

पूर्णा —“बूटी कैसी?”

रामकली — “इतना भी नहीं जानती हो, बूटी भंग को कहते हैं.”

पूर्णा — “ऐहै तुमने भंग पी ली.”

रामकली — “यही तो प्रसाद है देवी जी का. इसके पीने में क्या हर्ज़ है. सभी पीते है. कहो तो तुमको भी पिलाऊं.”

पूर्णा — “नहीं बहिन, मुझे क्षमा करो.”

इधर यही बातें हो रही थी कि दस-पंद्रह आदमी बारादरी से आकर इनके आसपास खड़े हो गये.

एक (पूर्णा की तरफ घूरकर) – “अरे यारो, यह तो कोई नया स्वरूप है.”

दूसरा — “ज़रा बच के चलो, बचकर.”

इतने में किसी ने पूर्णा के कंधे से धीरे से एक ठोका दिया. अब वह बेचारी बड़े फेर में पड़ी. जिधर देखती है, आदमी ही आदमी दिखायी देता है. कोई इधर से हँसता है, कोई उधर से आवाजें कसता है. रामकली हँस रही है. कभी चादर को खिसकाती है. कभी दुपट्टे को संभालती है.

एक आदमी ने उससे पूछा — “सेठानी जी, यह कौन है?”

रामकली — “यह मेरी सखी है, ज़रा दर्शन कराने को लायी थी.”

दूसरा — “इन्हें अवश्य लाया करों. ओ हो! कैसा खुलता हुआ रंग है.”

बारे किसी तरह इन आदमियों से छुटकारा हुआ. पूर्णा घर की ओर भागी और कान पकड़े कि आज से कभी मंदिर न जाऊंगी.

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