चैप्टर 6 – प्रेमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 6 Prema Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 6 Prema Novel By Munshi Premchand

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प्रेमा भाग – 6

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पूर्णा ने गजरा पहन तो लिया. मगर रात भर उसकी आँखों में नींद नहीं आयी. उसकी समझ में यह बात न आती थी कि अमृतराय ने उसे गज़रा क्यों दिया? उसे ऐसा मालूम होता था कि पंडित बसंतकुमार उसकी तरफ बहुत क्रोध से देख रहे है. उसने चाहा कि गजरा उतार कर फेंक दूं, मगर नहीं मालूम क्यों उसके हाथ कांपने लगे. सारी रात उसने आँखों में काटी. प्रभात हुआ. अभी सूर्य भगवान ने कृपा न की थी कि पंडाइन और चौबाइन और बाबू कमलाप्रसाद की बृद्ध महराजिन और पड़ोस की सेठानी जी कई दूसरी औरतों के साथ पूर्णा के मकान में आ उपस्थित हुई. उसने बड़े आदर से सबको बिठाया, सबके पैर छुए, उसके बाद यह पंचायत होने लगी.

पंडाइन (जो बुढ़ापे की बजह से सूखकर छोहारे की तरह हो गयी थी) – “क्यों दुलहिन, पंडित जी को गंगालाभ हुए कितने दिन बीते?”

पूर्णा (डरते-डरते) – “पाँच महीने से कुछ अधिक हुआ होगा.”

पंडाइन – “और अभी से तुम सबके घर आने-जाने लगीं. क्या नाम कि कल तुम सरकार के घर चली गयी थीं. उनकी कुंवारी कन्या के पास दिन भर बैठी रहीं. भला सोचो तो तुमने कोई अच्छा काम किया. क्या नाम कि तुम्हारा और उनका अब क्या साथ. जब वह तुम्हारी सखी थीं, तब थीं. अब तो तुम विधवा हो गयीं. तुमको कम से कम साल भर तक घर से बाहर पांव न निकालना चाहिए. तुम्हारे लिए साल भर तक हँसना-बोलना मना हैं. हम यह नहीं कहते कि तुम दर्शन को न जाव या स्नान को न जाव. स्नान-पूजा तो तुम्हारा धर्म ही है. हाँ, किसी सुहागिन या किसी कुंवारी कन्या पर तुमको अपनी छाया नही डालनी चाहिए.”

पंडाइन चुप हुई, तो महाराजिन टुइयाँ की तरह चहकने लगीं – “क्या बतलाऊं, बड़ी सरकार और दुल्हिन दोनों लहू का घूंट पीकर रह गई. ईश्वर जाने बड़ी सरकार तो बिलख-बिलख रो रही थीं कि एक तो बेचारी लड़की के यों हर जान के लाले पड़े है, दूसरी अब रांड बेवा के साथ उठना-बैठना है. नहीं मालूम नारायण क्या करने वाले हैं? छोटी सरकार मारे क्रोध के कांप रही थी. आँखों से ज्वाला निकल रही थी. उनके बारे मैंने उनको समझाया कि आज जाने दीजिए, वह बेचारी तो अभी बच्चा है. खोटे-खरे का मर्म क्या जाने? सरकार का बेटा जिये, जब बहुत समझाया, तब जाके मानीं. नहीं तो कहती थीं मैं अभी जाकर खड़े-खड़े निकाल देती हूँ. सो बेटा, अब तुम सुहागिनों के साथ बैठने योग्य नहीं रहीं. अरे ईश्वर ने तो तुम पर विपत्ति डाल दी. जब अपना प्राणप्रिय ही न रहा, तो अब कैसा हँसना-बोलना. अब तो तुम्हारा धर्म यही है कि चुपचाप अपने घर मे पड़ी रहो. जो कुछ रुखा-सूखा मिले, खावो पियो और सरकार का बेटा जिये, जहाँ तक हो सके, धर्म के काम करो.”

महाराजिन के चुप होते ही चौबाइन गरजने लगीं. यह एक मोटी भदेसिल और अधेड़ औरत थी — “भला इनसे पूछा कि अभी तुम्हारे दुल्हे को उठे पाँच महीने भी न बीते, अभी से तुम कंधी-चोटी करने लगीं. क्या कि तुम अब विधवा हो गई, तुमको अब सिंगार-पेटार से क्या सरोकार ठहरा? क्या नाम कि मैंने हजारों औरतों को देखा है, जो पति के मरने के बाद गहना-पाता नहीं पहनती, हँसना-बोलना तक छोड़ देती है. यह न कि आज तो सुहाग उठा और कल सिंगार-पटार होने लगा. मैं लल्लो-पत्तों की बात नहीं जानती. कहूंगी सच. चाहे किसी को तीता लगे या मीठा. बाबू अमृतराय का रोज-रोज आना ठीक नहीं है. है कि नहीं, सेठानी जी?”

सेठानी जी बहुत मोटी थीं और भारी-भारी गहनों से लदी थी. मांस के लोथड़े हड्डियों से अलग होकर नीचे लटक रहे थे. इसकी भी एक बहू रांड हो गयी थी, जिसका जीवन इसने व्यर्थ कर रखा था. इसका स्वभाव था कि बात करते समय हाथों को मटकाया करती थी.

महाराजिन की बात सुनकर — “जो सच बात होगी, सब कोई कहेगा. इसमें किसी का क्या डर? भला किसी ने कभी रांड बेवा को भी माथे पर बिंदी देते देखा है. जब सोहाग उठ गया, तो फिर सिंदूर कैसा? मेरी भी तो एक बहू विधवा है. मगर आज तक कभी मैंने उसको लाल साड़ी नहीं पहिनने दी. न जाने इन छोकरियों का जी कैसा है कि विधवा हो जाने पर भी सिंगार पर जी ललचाया करता है. अरे इनको चाहिए कि बाबा अब रांड हो गई. हमको निगोड़े सिंगार से क्या लेना.”

महाराजिन — “सरकार का बेटा जिये, तुम बहुत ठीक कहती हो सेठानी जी. कल छोटी सरकार ने जो इनको मांग में सिंदूर लगाये देखा, तो खड़ी ठक रह गयी. दांतों तले उंगली दबायी कि अभी तीन दिन की विधवा और यह सिंगार. सो बेटा, अब तुमको समझ-बूझकर काम करना चाहिए. तुम अब बच्ची नहीं हो.”

सेठानी — “और क्या, चाहे बच्ची हो या बूढ़ी. जब बेराह चलेगी, तो सब ही कहेंगे. चुप क्यों हो पंडाइन, इनके लिए अब कोई राह-बाट निकाल दो.”

डाइन — “जब यह अपने मन की हो गयी, तो कोई क्या राह-बाट निकाले. इनको चाहिए कि ये अपने लंबे-लंबे केश कटवा डाले. क्या नाम कि दूसरों के घर आना-जाना छोड़ दे. कंघी-चोटी कभी न करें, पान न खाये, रंगीन साड़ी न पहनें और जैसे संसार की विधवायें रहती हैं, वैसे रहें.”

चौबाइन — “और बाबू अमृतराय से कह दें कि यहाँ न आया करें.”

इस पर एक औरत ने जो गहने कपड़े से बहुत मालदार न जान पड़ती थी, कहा — “चौबाइन यह सब तो तुम कह गयी, मगर जो कहीं बाबू अमृतराय चिढ़ गये, तो क्या तुम इस बेचारी का रोटी-कपड़ा चला दोगी? कोई विधवा हो गयी, तो क्या अब अपना मुँह सी लें.”

महराजिन (हाथ चमकाकर)  – “यह कौन बोला? ठसों. क्या ममता फड़कने लगी?”

सेठानी (हाथ मटकाकर) – “तुझे किसने बुलाया, जो आ के बीच में बोल उठी. रांड तो हो गयी हो, काहे नहीं जा के बाज़ार में बैठती हो.”

चौबाइन — “जाने भी दो सेठानी जी, इस बौरी के मुँह क्या लगती हो.”

सेठानी (कड़ककर) – “इस मुई को यहाँ किसने बुलाया. यह तो चाहती है, जैसी मैं बेहयास हूँ, वैसा ही संसार हो जाय.”

महराजिन — “हम तो सीख दे रही थीं, तो इसे क्यों बुरा लगा? यह कौन होती है, बीच में बोलने वाली?”

चौबाइन — “बहिन, उस कुटनी से नाहक बोलती हो. उसको तो अब कुटनापा करना है.”

इस भांति कटूक्तियों द्वारा सीख देकर यह सब स्त्रियाँ यहाँ से पधारी. महराजिन भी मुंशी बद्रीप्रसाद के यहॉँ खाना पकाने गयीं. इनसे और छोटी सरकार से बहुत बनती थी. वह इन पर बहुत विश्वास रखती थी. महराजिन ने जाते ही सारी कथा खूब नमक-मिर्च लगाकर बयान की और छोटी सरकार ने भी इस बात को गांठ  बांध लिया और प्रेमा को जलाने और सुलगाने के लिए उसे उत्तम समझकर उसके कमरे की तरफ चली.

यों तो प्रेमा प्रतिदिन सारी रात जगा करती थी. मगर कभी-कभी घंटे आध घंटे के लिए नींद आ जाती थी. नींद क्या आ जाती थी, एक ऊंघ सी आ जाती थी, मगर जब से उसने बाबू अमृतराय को बंगालियों के भेस में देखा था और पूर्णा के घर से लौटते वक्त उसको उनकी कलाई पर गजरा न नजर आया था, तबसे उसके पेट में खलबली पड़ी हुई थी कि कब पूर्णा आवे और कब सारा हाल मालूम हो. रात को बेचैनी के मारे उठ-उठ घड़ी पर आँखें दौड़ाती कि कब भोर हो. इस वक्त जो भावज के पैरों की चाल सुनी, तो यह समझकर कि पूर्णा आ रही है, लपकी हुई दरवाजे तक आयी. मगर ज्यों ही भावज को देखा, ठिठक गई और बोली — “कैसे चलीं, भाभी?”

भाभी तो यह चाहती ही थीं कि छेड़-छाड़ के लिए कोई मौका मिले. यह प्रश्न सुनते ही तिनक का बोली — “क्या बताऊं कैसे चली? अब से जब तुम्हारे पास आया कररूंगी, तो इस सवाल का जवाब सोचकर आया करूंगी. तुम्हारी तरह सबका लोहू थोड़े ही सफेद हो गया है कि चाहे किसी की जान निकल, जाय, घी का घड़ा ढलक जाए, मगर अपने कमरे से पांव बाहर न निकाले.”

प्रेमा ने वह सवाल यों ही पूछ लिया था. उसके जब यह अर्थ लगाये गये, तो उसको बहुत बुरा मालूम हुआ. बोली — “भाभी, तुम्हारे तो नाक पर गुस्सा रहता है. तुम जरा-सी बात का बतगंड़ बना देती हो. भला मैंने कौन सी बात बुरा मानने की कही थी?”

भाभी — “कुछ नहीं, तुम तो जो कुछ कहती हो, मानो मुँह से फूल झाड़ती हो. तुम्हारे मुँह में मिसरी घोली हुई न और सबके तो नाक पर गुस्सा रहता है, सबसे लड़ा ही करते है.”

प्रेमा (झल्लाकर) – “भावज, इस समय मेरा तो चित्त बिगड़ा हुआ है. ईश्वर के लिए मुझसे मत उलझो. मैं तो यों ही अपनी जान को रो रही हूँ. उस पर से तुम और भी नमक छिड़कने आयीं.”

भाभी (मटककर) – “हाँ रानी, मेरा तो चित्त बिगड़ा हुआ है, सिर फिरा हुआ है. जरा सीधी-सादी हूँ न. मुझको देखकर भागा करो. मैं, कटही कुतिया हूँ, सबको काटती चलती हूँ. मैं भी यारों को चुपके-चुपके चिटठी-पत्री लिखा करती, तस्वीरें बदला करती, तो मैं भी सीता कहलाती और मुझ पर भी घर भर जान देने लगता. मगर मान न मान मैं तेरा मेहमान. तुम लाख जतन करों, लाख चिटिठयाँ लिखो, मगर वह सोने की चिड़िया हाथ आने वाली नहीं.”

यह जली-कटी सुनकर प्रेमा से जब्त न हो सका. बेचारी सीधे स्वभाव की औरत थी. उसका वर्षो से विरह की अग्नि में जलते-जलते कलेजा और भी पक गया था. वह रोने लगी.

भावज ने जब उसको रोते देखा, तो मारे हर्ष के आँखें जगमगा गयीं. हत्तेरे की. कैसा रूला दिया. बोली — “बिलखने क्या लगीं, क्या अम्मा को सुनाकर देश निकाला करा दोगी? कुछ झूठ थोड़ी ही कहती हूँ. वही अमृतराय, जिनके पास आप चुपके-चुपके प्रेम-पत्र भेजा करती थी, अब दिन-दहाड़े उस रांड पूर्णा के घर आता है और घंटो वहीं बैठा रहता है. सुनती हूँ फूल के गजरे ला लाकर पहनाता है. शायद दो एक गहने भी दिये हैं.”

प्रेमा इससे ज्यादा न सुन सकी. गिड़गिड़ा कर बोली — “भाभी, मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, मुझ पर दया करो. मुझे जो चाहो कह लो. (रोकर) बड़ी हो, जी चाहे मार लो. मगर किसी का नाम लेकर और उस पर छ़ठे रखाकर मेरे कदल को मत जलाओ. आखिर किसी के सर पर झूठ-मूठ अपराध क्यों लगाती हो?”

प्रेमा ने तो यह बात बड़ी दीनता से कही. मगर छोटी सरकार ‘छुद्दे रखकर’ पर बिगड़ गयीं. चमक कर बोलीं— “हाँ हाँ रानी, मैं दूसरों पर छुद्दे रखकर तुमको जलाने आती हूँ. मैं तो झूठ का व्यवहार करती हूँ. मुझे तुम्हारे सामने झूठ बोलने से मिठाई मिलती होगी. आज मुहल्ले भर में घर-घर यही चर्चा हो रही है. तुम तो पढ़ी-लिखी हो, भला तुम्हीं सोचो एक तीस वर्ष के संडे मर्दवे का पूर्णा से क्या काम? माना कि वह उसका रोटी-कपड़ा चलाते है, मगर यह तो दुनिया है. जब एक पर आ पड़ती है, तो दूसरा उसके आड़ आता है. भले मनुष्यों का यह ढंग नहीं है कि दूसरें को बहकाया करें, और उस छोकरी को क्या कोई बहकायेगा, वह तो आप मर्दो पर डोरे डाला करती है. मैंने तो जिस दिन उसकी सूरत देखी थी, उसी दिन ताड़ गयी थी कि यह एक ही विष की गांठ हैं. अभी तीन दिन भी दूल्हे को मरे हुए नहीं बीते कि सबको झमकड़ा दिखाने लगी. दूल्हा क्या मरा मानो एक बला दूर हुई. कल जब वह यहाँ आई थी, तो मैं बाल बुंधा रही थी. नहीं तो डेउढ़ी के भीतर तो पैर धरने ही नहीं देती. चुड़ैल कहीं की, यहाँ आकर तुम्हारी सहेली बनती है. इसी से अमृतराय को अपना यौवन दिखाकर अपना लिया. कल कैसा लचक-लचक कर ठुमुक-ठुमुक चलती थी. देख-देख कर आँखें फूटती थीं. खबरदार, जो अब कभी, तुमने उस चुड़ैल को अपने यहाँ बिठाया. मैं उसकी सूरत नहीं देखना चाहती.”

जबान वह बला है कि झूठ बात का भी विश्वास दिला देती है. छोटी सरकार ने जो कुछ कहा वह तो सब सच था. भला उसका असर क्यों न होता? अगर उसने गजरा लिये हुए जाते न देखा होता, तो भावज की बातों को अवश्य बनावट समझती. फिर भी वह ऐसी ओछी नहीं थी कि उसी वक्त अमृतराय और पूर्णा को कोसने लगती और यह समझ लेती कि उन दोनों में कुछ सांठ-गांठ है. हाँ, वह अपनी चारपाई पर जाकर लेट गयी और मुँह लपेट कर कुछ सोचने लगी.

प्रेमा को तो पलंग पर लेटकर भावज की बातों को तौलने दीजिए और हम मर्दाने में चले. यह एक बहुत सजा हुआ लंबा-चौड़ा दीवानखाना है. जमीन पर मिर्जापुर खूबसूरत कालीनें बिछी हुई है. भांति-भांति की गद्देदार कुर्सियाँ लगी हुई हैं. दीवारें उत्तम चित्रों से भूक्षित है. पंखा झला जा रहा है. मुंशी बद्रीप्रसाद एक आराम कुर्सी पर बैठे ऐनक लगाये एक अखबार पढ़ रहे है. उनके दायें-बायें की कुर्सियों पर कोई और महाशय रईस बैठे हुए है. वह सामने की तरफ मुंशी गुलजारीलाल हैं और उनके बगल में बाबू दाननाथ है. दाहिनी तरफ बाबू कमलाप्रसाद मुंशी झम्मनलाल से कुछ कानाफूसी कर रहे है. बायीं और दो तीन और आदमी है, जिनको हम नहीं पहचानते. कई मिनट तक मुंशी बद्रीप्रसाद अखबार पढ़ते रहे. आखिर सिर  उठाया और सभा की तरफ देखकर बड़ी गंभीरता से बोले — “बाबू अमृतराय के लेख अब बड़े ही निंदनीय होते जाते है.”

गुलजारीलाल — “क्या आज फिर कुछ जहर उगला?”

बद्रीप्रसाद — “कुछ न पूछिए, आज तो उन्होंने खुली-खुली गालियाँ दी है. हमसे तो अब यह बर्दाश्त नहीं होता.”

गुलजारी — “आखिर कोई कहाँ तक बर्दाश्त करे. मैंने तो इस अखबार का पढ़ना तक छोड दिया.”

झम्मनलाल — “गोया अपने अपनी समझ में बड़ा भारी काम किया. अजी आपका धर्म यह है कि उन लेखों को काटिए, उनका उत्तर दीजिए. मैं आजकल एक कवित्त रच रहा हूँ, उसमे मैंने इनको ऐसा बनाया है कि यह भी क्या याद करेंगे.”
कमलाप्रसाद — “बाबू अमृतराय ऐसे अधजीवे आदमी नहीं है कि आपके कवित, चौपाई से डर जायें. वह जिस काम में लिपटते है, सारे जी से लिपटते है.”

झम्मन० — “हम भी सारे जी से उनके पीछे पड़ जाएंगे. फिर देखे वह कैसे शहर मे मुँह दिखाते है. कहो तो चुटकी बजाते उनको सारे शहर में बदनाम कर दूं.”

कमला० (जोर देकर) – “यह कौन-सी बहादुरी है? अगर आप लोग उनसे विरोध मोल लिया चाहते है, तो सोच-समझ कर लीजिए. उनके लेखों को पढ़िए, उनको मन में विचारिए, उनका जवाब लिखिए, उनकी तरह देहातों मे जा-जाकर व्याख्यान दीजिए, तब जा के काम चलेगा. कई दिन हुए मैं अपने इलाके पर से आ रहा था कि एक गाँव में मैने दस-बारह हजार आदमियों की भीड़ देखी. मैंने समझा पैठ है. मगर जब एक आदमी से पूछा, तो मालूम हुआ कि बाबू अमृतराय का व्याख्यान था और यह काम अकेले वही नहीं करते, कालिज के कई होनहार लड़के उनके सहायक हो गये है और यह तो आप लोग सभी जानते हैं कि इधर कई महीने से उनकी वकालत अंधाधुंध बढ़ रही है.”
गुलजारीलाल — “आप तो सलाह इस तरह देते है, गोया आप खुद कुछ न करेंगे.”

कमलाप्रसाद — “न, मैं इस काम में. आपका शरीक नहीं हो सकता. मुझे अमृतराय के सब सिद्धातों से मेल है, सिवाय विधवा-विवाह के.”

बद्रीप्रसाद (डपटकर) – “बच्च, कभी तुमको समझ न आयेगी. ऐसी बातें मुँह से मत निकाला करो.

झमनलाल (कमलाप्रसाद से) – “क्या आप विलायत जाने के लिए तैयार हैं?”

कमलाप्रसाद — “मैं इसमे कोई हानि नहीं समझता.”

गुलाजरीलाल (हँसकर) – “यह नये बिगड़े हैं. इनको अभी अस्पताल की हवा खिलाइए.”

बद्रीप्रसाद (झल्लाकर) – “बच्च, तुम मेरे सामने से हट जाओ. मुझे रोज होता है.”

कमलाप्रसाद को भी गुस्सा आ गया. वह उठकर जाने लगे कि दो-तीन आदमियों ने मनाया और फिर कुर्सी पर लाकर बिठा दिया. इसी बीच में मिस्टर शर्मा की सवारी आयी. आप वही उत्साही पुरूष हैं, जिन्होंने अमृतराय को पक्की सहायता का वादा किया था. इनको देखते ही लोगो ने बड़े आदर से कुर्सी पर बिठा दिया. मिस्टर शर्मा उस शहर में म्यूनिसिपैलिटी के सेक्रेटरी थे.

गुलाजारीलाल — “कहिए पंडित जी क्या खबर है?”

मिस्टर शर्मा (मूँछो पर हाथ फेरकर) – “वह ताजा खबर लाया हूँ कि आप लोग सुनकर फड़क जायेंगे. बाबू अमृतराय ने दरिया के किनारे वाली हरी भरी जमीन के लिए दरखास्त है. सुनता हूँ, वहाँ एक अनाथालय बनवाएंगे.”

बद्रीप्रसाद — “ऐसा कदापि नहीं हो सकता कमलाप्रसाद/ तुम आज उसी जमीन के लिए हमारी तरफ से कमेटी में दरखास्त पेश कर दो. हम वहाँ ठाकुर द्वारा और धर्मशाला बनावायेंगे.”

मिस्टर शर्मा — “आज अमृतराय साहब के बंगले पर गये थे. वहाँ  बहुत देर तक बातचीत होती रही. साहब ने मेरे सामने मुसकराकर कहा – अमृतराय, मैं देखूंगा कि जमीन तुमको मिले.”

गुलजारीलाल ने सर हिलाकर कहा — “अमृतराय बड़े चाल के आदमी है. मालूम होता है, साहब को पहले ही से उन्होंने अपने ढंग पर लगा लिया है.”

मिस्टर शर्मा — “जनाब, आपको मालूम नहीं अंग्रेजों से उनका कितना मेलजोल है. हमको अंग्रेज मेम्बरों से कोई आशा नहीं रखना चाहिए. वह सब के सब अमृतराय का पक्ष करेंगे.”

बद्रीप्रसाद (जोर देकर) – “जहाँ तक मेरा बस चलेगा, मैं यह जमीन अमृतराय को न लेने दूंगा. क्या डर है, अगर और ईसाई मेम्बर उनके तरफदार है. यह लोग पाँच से अधिक नहीं. बाकी बाईस मेम्बर अपने हैं. क्या हमको उनकी वोट भी न मिलेगी? यह भी न होगा, तो मैं उस जमीन को दाम देकर लेने पर तैयार हूँ.”

झम्मनलाल — “जनाब, मुझको पक्का विश्वास है कि हमको आधे से जियादा वोट अवश्य मिल जायेंगे.”

एक बहुत ही उत्तम रीति से सजा हुआ कमरा है. उसमें मिस्टर वालटर साहब बाबू अमृतराय के साथ बैठे हुए कुछ बातें कर रहे है. वालटर साहब यहाँ के कमिश्नर है और साधारण अंग्रेजों के अतिरिक्त प्रजा के बड़े हितैषी और बड़े उत्साही प्रजापालक है. आपका स्वभाव ऐसा निर्मल है कि छोटा-बड़ा कोई हो, सबसे हँसकर क्षेम-कुशल पूछते और बात करते है. वह प्रजा की अवस्था को उन्नत दशा में ले जाने का उद्योग किया करते है और यह उनका नियम है कि किसी हिन्दुस्तानी से अंग्रेजी में नहीं बोलेंगे. अभी पिछली साल जब प्लेग का डंका चारों ओर घेनघोर बज रहा था, वालटर साहब, गरीब किसानों के घर जाकर उनका हाल-चाल देखते थे और अपने पास से उनको कंबल बांटते फिरते थे और अकाल के दिनों में तो वह सदा प्रजा की ओर से सरकार के दरबार में वादानुवाद करने के लिए तत्पर रहते है. साहब अमृतराय की सच्ची देशभक्ति की बड़ी बड़ाई किया करते है और बहुधा प्रजा की रक्षा करने में दोनों आदमी एक-दूसरे की सहायता किया करते है.

वालटर (मुसकराकर) – “बाबू साहब, आप बड़ा चालाक है आप चाहता है कि मुंशी बद्रीप्रसाद से थैली-भर, रूपया ले. मगर आपका बात वह नहीं मानने सकता.”

अमृतराय — “मैंने तो आपसे कह दिया कि मै अनाथालय अवश्य बनवाऊंगा और इस काम में बीस हजार से कम न लगेगा. अगर आप मेरी सहायता करेंगे, तो आशा है कि यह काम भी सफल हो जाए और मै भी बना रहूं और अगर आप कतरा गये, तो ईश्वर की कृपा से मेरे पास अभी इतनी जायदाद है कि अकेले दो अनाथालय बनवा सकता हूँ. मगर हाँ, तब मैं और कामों में कुछ भी उत्साह न दिखा सकूंगा.”

वालटर (हँसकर)  – “बाबू साहब! आप तो जरा से बात में नाराज हो गया. हम तो बोलता है कि हम तुम्हारा मदद दो हजार से कर सकता है. मगर बद्रीप्रसाद से हम कुछ नहीं कहने सकता. उसने अभी अकाल में सरकार को पाँच हजार दिया है.”

अमृतराय — “तो यह दो हजार में लेकर क्या करूंगा? मुझे तो आपसे पंद्रह हजार की पूरी आशा थी. मुंशी बद्रीप्रसाद के लिए पाँच हजार क्या बड़ी बात है? तब से इसका दुगना तो वह एक मंदिर बनवाने में लगा चुके हैं और केवल इस आशा पर कि उनको सी आई.ई की पदवी मिल जाएगी, वह इसका दस गुना आज दे सकते है.”

वालटर (अमृतराय से हाथ मिलाकर) – “वेल, अमृतराय! तुम बड़ा चालाक है. तुम बड़ा चालाक है. तुम मुंशी बदरीप्रसाद को लूटना मांगता है.”

यह कहकर साहब उठ खड़े हुए. अमृतराय भी उठे. बाहर फिटन खड़ी थी, दोनों उस पर बैठ गये. साईस ने घोड़े को चाबुक लगाया और देखते देखते मुंशी बद्रीप्रसाद के मकान पर जा पहुँचे. ठीक उसी वक्त जब वहाँ अमृतराय से रार बढ़ाने की बातें सोची जा रही थीं.

प्यारे पाठकगण! हम यह वर्णन करके कि इन दोनों आदमियों के पहुँचते ही वहाँ कैसी खलबली पड़ गयी, मुंशी बद्रीप्रसाद ने इनका कैसा आदर किया, गुलजारीलाल, दाननाथ और मिस्टर शर्मा कैसी आँखें चुराने लगे, या साहब ने कैसे काट-छांट की बाते की और मुंशी जी को सी.आई.ई की पदवी की किन शब्दों में आशा दिलाइ आपका समय नहीं गंवाना चाहते. खुलासा यह कि अमॄतराय को यहाँ से सत्तरह हजार रूपया मिला. मुंशी बद्रीप्रसाद ने अकेले बारह हजार दिया, जो उनकी उम्मीद से बहुत ज्यादा था. वह जब यहाँ से चले, तो ऐसा मालूम होता था कि मानो कोई गढ़ी जीते चले आ रहे है. वह जमीन भी जिसके लिए उन्होंने कमेटी मे दरखस्त की थी मिल गयी और आज ही इंजीनियर ने उसको नाप कर अनाथालय का नक्शा बनाना आरंभ कर दिया.

साहब और अमृतराय के चले जाने पर यहाँ यो बाते होने लगी.

झम्मनलाल — “यार, हमको तो इस लौंडे ने आज पाँच सौ के रूप में डाल दिया.”

गुलजारी लाल — “जनाब, आप पाँच सौ को रो रही है, यहाँ तो एक हजार पर पानी फिर गया. मुंशी जी तो सी.आई.ई की पदवी पावेगें. यहाँ तो कोई रायबहादुरी को भी नहीं पूछता.”

कमलाप्रसाद — “बड़े शोक की बात है कि आप लोग ऐसे शुभ कार्य मे सहायता देकर पछताते है. अमृतराय को देखिए कि उन्होंने अपना एक गाँव बेचकर दस हजार रूपया भी दिया और उस पर दौड़-धूप अलग कर रहे है.”

मुंशी बद्रीप्रसाद — “अमृतराय बड़ा उत्साही आदमी है. मैंने आज इसको जाना. बच्चा कमलाप्रसाद. तुम आज शाम को उनके यहाँ  जाकर हमारी ओर से धन्यवाद दे देना.”

झम्मनलाल (मुँह फेरकर) –“आप क्यों न प्रसन्न होंगे, आपको तो पदवी मिलेगी न?”

कमलाप्रसाद (हँसकर) – “अगर आपका वह कवित्त तैयार हो तो जरा सुनाइए.”

दाननाथ जो अब तक चुपचाप बैठे हुए थे बोले — “अब आप उनकी निंदा करने की जगह उनकी प्रंशसा कीजिए.”

मिस्टर शर्मा — “अच्छा, जो हुआ सो हुआ, अब सभा विसर्जन कीजिए, आज यह मालूम हो गया कि अमृतराय अकेले हम सब पर भारी है.”

कमलाप्रसाद — “आपने नहीं सुना, सत्य की सदा जय होती है.”

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