चैप्टर 5 – प्रेमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 5 Prema Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 5 Prema Novel By Munshi Premchand

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प्रेमा भाग – 5 : अयं! ये गजरा क्या हो गया?

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पंडित बंसतकुमार का दुनिया से उठ जाना केवल पूर्णा ही के लिए जानलेवा न था, प्रेमा की हालत भी उसी की-सी थी. पहले वह अपने भाग्य पर रोया करती थी. अब विधाता ने उसकी प्यारी सखी पूर्णा पर विपत्ति डालकर उसे और भी शोकातुर बना दिया था. अब उसका दु:ख हटानेवाला, उसका ग़म ग़लत करनेवाला कोई न था.

वह आजकल रात-दिन मुँह लपेटे चारपाई पर पड़ी रहती. न वह किसी से हँसती न बोलती. कई-कई दिन बिना दाना-पानी के बीत जाते. बनाव-सिंगार उसको ज़रा भी न भाता. सिर के बाल दो-दो हफ्ते न गूंथे जाते. सुर्मादानी अलग पड़ी रोया करती. कंघी अलग हाय-हाय करती. गहने बिल्कुल उतार फेंके थे. सुबह से शाम तक अपने कमरे में पड़ी रहती. कभी ज़मीन पर करवटें बदलती, कभी इधर-उधर बौखलायी हुई घूमती, बहुधा बाबू अमृतराय की तस्वीर को देखा करती और जब उनके प्रेमपत्र याद आते, तो रोती. उसे अनुभव होता था कि अब मैं थोड़े दिनों की मेहमान हूँ.

पहले दो महीने तक तो पूर्णा का ब्रह्मणों को खिलाने-पिलाने और पति के मृतक-संस्कार से सांस लेने का अवकाश न मिला कि प्रेमा के घर जाती. इसके बाद भी दो-तीन महीने तक वह घर से बाहर न निकल. उसका जी ऐसा बुझ गया था कि कोई काम अच्छा न लगता. हाँ, प्रेमा माँ के मना करने पर भी दो-तीन बार उसके घर गयी थी. मगर वहाँ जाकर आप रोती और पूर्णा को भी रुलाती. इसलिए अब उधर जाना छोड़ दिया था. किन्तु एक बात वह नित्य करती. वह संध्या समय महताबी पर जाकर ज़रूर बैठती. इसलिए नहीं कि उसको समय सुहाना मालूम होता या हवा खाने को जी चाहता था, नहीं प्रत्युत केवल इसलिए कि वह कभी- कभी बाबू अमृतराय को उधर से आते-जाते देखती. हाय जिस वक्त वह उनको देखते उसका कलेजा बांसों उछालने लगता. जी चाहता कि कूद पडूं और उनके कदमों पर अपनी जान निछावर कर दूं. जब तक वह दिखायी देते अकटकी बांधे उनको देखा करती. जब वह आँखों से ओझल हो जाते, तब उसके कलेजे में एक हूक उठती, आपे की कुछ सुधि न रहती. इसी तरह कई महीने बीत गये.

एक दिन वह सदा की भांति अपने कमरे में लेटी हुई बदल रही थी कि पूर्णा आयी. इस समय उसको देखकर ऐसा ज्ञात होता था कि वह किसी प्रबल रोग से उठी है. चेहरा पीला पड़ गया था, जैसे कोई फूल मुरझा गया हो. उसके कपोल, जो कभी गुलाब की तरह खिले हुए थे, अब कुम्हला गये थे. वे मृगी की-सी आँखें जिनमें किसी समय समय जवानी का मतवालापन और प्रेमी का रस भरा हुआ था, अंदर घुसी हुई थी, सिर के बाल कंधों पर इधर-उधर बिखरे हुए थे, गहने-पाते का नाम न था. केवल एक नैन सुख की साड़ी बदन पर पड़ी हुई थी. उसको देखते ही प्रेमा दौड़कर उसके गले से चिपट गयी और लाकर अपनी चारपाई पर बिठा दिया.

कई मिनट तक दोनों सखियाँ एक-दूसरे के मुँह को ताकती रहीं. दोनो के दिल में ख़यालों का दरिया उमड़ा हुआ था. मगर जबान किसी की न खुलती थी. आखिर पूर्णा ने कहा — ‘आजकल जी अच्छा नहीं है क्या? गलकर कांटा गयी हो.”

प्रेमा ने मुस्कुराने की चेष्टा करके कहा — “नहीं सखी, मैं बहुत अच्छी तरह हूँ. तुम तो कुशल से रही?”

पूर्णा की आँखों में आँसू डबडबा आये. बोली — “मेरा कुशल-आनंद क्या पूछती हो, सखी आनंद तो मेरे लिए सपना हो गया. पाँच महीने से अधिक हो गये, मगर अब तक मेरी आँखें नहीं झपकी. जान पड़ता है कि नींद आँसू होकर बह गयी.

प्रेमा — “ईश्वर जानता है सखी, मेरा भी तो यही हाल है. हमारी-तुम्हारी एक ही गत है. अगर तुम ब्याही विधवा हो, तो मैं कुंवारी विधवा हूँ. सच कहती हूँ सखी, मैने ठान लिया है कि अब परमार्थ के कामों में ही जीवन व्यतीत करूंगा.”

पूर्णा — “कैसी बातें करती हो, प्यारी मेरा और तुम्हारा क्या जोड़ा? जितना सुख भोगना मेरे भाग में बदा था भोग चुकी. मगर तुम अपने को क्यों घुलाये डालती हो? सच मानो, सखी, बाबू अमृतराय की दशा भी तुम्हारी ही-सी है. वे आजकल बहुत मलिन दिखायी देते है. जब कभी इधर की बात चलती हूँ, तो जाने का नाम ही नहीं लेते. मैंने एक दिन देखा, वह तुम्हारा काढ़ा हुआ रुमाल लिये हुए थे.”

यह बातें सुनकर प्रेमा का चेहरा खिल गया. मारे हर्ष के आँखें जगमगाने लगी. पूर्णा का हाथ अपने हाथों में लेकर और उसकी आँखों से आँखें मिलाकर बोली – “सखी, इधर की और क्या-क्या बातें आयी थीं?”

पूर्णा (मुस्कराकर) – “अब क्या सब आज ही सुन लोगी. अभी तो कल ही मैंने पूछा कि आप ब्याह कब करेंगे, तो बोले – जब तुम चाहो.”

मैं बहुत लजा गई.

प्रेमा — “सखी, तुम बड़ी ढीठ हो. क्या तुमको उनके सामने निकलते-पैठते लाज नहीं आती?”

पूर्णा — “लाज क्यों आती, मगर बिना सामने आये काम तो नहीं चलता और सखी, उनसे क्या परदा करूं, उन्होंने मुझ पर जो-जो अनुग्रह किये हैं, उनसे मैं कभी उऋण नहीं हो सकती. पहिले ही दिन जबकि मुझ पर वह विपत्ति पड़ी, रात को मेरे यहाँ चोरी हो गयी. जो कुछ असबाबा था, पापियों ने मूस लिया. उस समय मेरे पास एक कौड़ी भी न थी. मैं बड़े फेर में पड़ी हुई थी कि अब क्या करूं. जिधर आँख उठाती, अंधेरा दिखायी देता. उसके तीसरे दिन बाबू अमृतराय आये. ईश्वर करे वह युग-युग जिये. उन्होंने बिल्लो की तनख़ाह बांध दी और मेरे साथ भी बहुत सलूक किया. अगर वह उस वक्त आड़े न आते, तो गहने-पाते अब तक कभी के बिक गये होते. सोचती हूँ कि वह इतने बड़े आदमी होकर मुझ भिखारिनी के दरवाजे पर आते है, तो उनसे क्या परदा करूं. और दुनिया ऐसी है कि इतना भी नहीं देख सकती. वह जो पड़ोस में पंडाइन रहती है, कई बार आई और बोली कि सिर के बाल मुड़ा लो. विधवाओं को बाल न रखना चाहिए. मगर मैंने अब तक उनका कहना नहीं माना. इस पर सारे मुहल्ले में मेरे बारे में तरह-तरह की बातें की जाती हैं. कोई कुछ कहता हैं, कोई कुछ. जितने मुँह उतनी बातें. बिल्लो आकर सब वृत्तांत मुझसे कहती है. सब सुन लेती हूँ और रो-धोकर चुप हो रहती हूँ. मेरे भाग्य में दुख भोगना, लोगों की जली-कटी सुनना न लिखा होता, तो यह विपत्ति ही काहे को पड़ती. मगर चाहे कुछ हो मैं इन बालों को मुंडवाकर मुण्डी नहीं बनना चाहती. ईश्वर ने सब कुछ तो हर लिया, अब क्या इन बालों से भी हाथ धोऊं.”

यह कहकर पूर्णा ने कंधो पर बिखरे हुए लंबे-लंबे बालों पर ऐसी दृष्टि से देखा, मानो वे कोई धन हैं. प्रेमा ने भी उन्हें हाथ से संभालकर कहा — “नहीं सखी खबरदार, बालों को मुंडवाओगी, तो हमसे-तुमसे न बनगी. पंडाइन को बकने दो. वह पगला गई है. यह देखो नीचे की तरफ जो ऐठन पड़ गयी हैं, कैसी सुंदर मालूम होती है, यही कहकर प्रेमा उठी. बक्स में सुगंधित तेल निकाला और जब तक पूर्णा हाय-हाय करे कि उसके सिर की चादर खिसका कर तेल डाल दिया और उसका सर जाँघ पर रखकर धीरे-धीरे मलने लगी.

बेचारी पूर्णा इन प्यार की बातों को न सह सकी. आँखों में आँसू भरकर बोली — “प्यारी प्रेमा यह क्या गजब करती हो. अभी क्या काम उपहास हो रहा है? जब बाल संवारे निकलूंगी, तो क्या गत होगी. अब तुमसे दिल की बात क्या छिपाऊं. सखी, ईश्वर जानता हैं, मुझे यह बाल खुद बोझ मालूम होते हैं. जब इस सूरत को देखने वाला ही संसार से उठ गया, तो यह बाल किस काम के. मगर मैं इनके पीछे पड़ोसियों के ताने सहती हूँ, तो केवल इसलिए कि सिर मुड़ाकर मुझसे बाबू अमृतराय के सामने न निकला जाएगा.”

यह कह कर पूर्णा जमीन की तरफ ताकने लगी. मानो वह लजा गयी है. प्रेमा भी कुछ सोचने लगी. अपनी सखी के सिर में तेल मला, कंघी की बाल गूंथे और तब धीरे से आईना लाकर उसके सामने रख दिया. पूर्णा ने इधर पाँच महीने से आईने का मुँह नहीं देखा था. वह सोचती थी कि मेरी सूरत बिल्कुल उतर गयी होगी, मगर अब जो देखा तो सिवय इसके कि मुँह पीला पड़ गया था और कोई भेद न मालूम हुआ. मध्यम स्वर में बोली — “प्रेमा, ईश्वर के लिए अब बस करो, भाग से यह सिंगार बदा नहीं हैं. पड़ोसिन देखेंगी, तो न जाने क्या अपराध लगा दें.”

प्रेम उसकी सूरत को टकटकी लगाकर देख रही थी. यकायक मुस्कराकर बोली — “सखी, तुम जानती हो, मैंने तुम्हारा सिंगार क्यों किया?”

पूर्णा — “मैं क्या जानूं. तुम्हारा जी चाहता होगा.”

प्रेमा – “इसलिए कि तुम उनके सामने इसी तरह जाओ.”

पूर्णा — “तुम बड़ी खोटी हो. भला मैं उनके सामने इस तरह कैसे जाऊंगी. वह देखकर दिल में क्या-क्या कहेंगे. देखनेवाले यों ही बेसिर-पैर की बातें उड़ाया करते है, तब तो और भी नहीं मालूम क्या कहेंगे.”

थोड़ी देर तक ऐसे ही हँसी-दिल्लगी की बातों-बातों में प्रेमा ने कहा –“सखी, अब तो अकेले नहीं रहा जाता. क्या हर्ज़ है, तुम भी यहीं उठ आओ. हम तुम दोनों साथ-साथ रहें.”

पूर्णा — “सखी, मेरे लिए इससे अधिक हर्ष की कौन-सी बात होगी कि तुम्हारे साथ रहूं. मगर अब तो पैर फूंक-फूंककर धरना होती है. लोग तुम्हारे घर ही में राजी न होंगे और अगर यह मान भी गये, तो बिना बाबू अमृतराय की मर्ज़ी के कैसे आ सकती हूँ. संसार के लोग भी कैसे अंधे है? ऐसे दयालू पुरुष कहते हैं कि ईसाई हो गया हैं, कहनेवालों के मुँह से न मालूम कैसे ऐसी झूठी बात निकलती है. मुझसे वह कहते थे कि मैं शीघ्र ही एक ऐसा स्थान बनवाने वाला हूँ, जहाँ अनाथ-विधवाएं आकर रहेंगी. वहाँ उनके पालन-पोषण और वस्त्र का प्रबंध किया जाएगा और उन्हें पढ़ना-लिखाना और पूजा-पाठ करना सिखाया जायगा. जिस आदमी के विचार ऐसे शुद्ध हों, उसको वह लोग ईसाई और अधर्मी बनाते है, जो भूलकर भी भिखमंगे को भीख नहीं देते. ऐसा अंधेर है.”

प्रेमा – “बहिन, संसार का यही है. हाय अगर वह मुझे अपनी लौंडी बना लेते, तो भी मेरा जीवन सफ़ल हो जाता. ऐसे उदारचित्त दाता की चेरी बनना भी कोई बड़ाई की बात है.”

पूर्णा — “तुम उनकी चेरी काहे को बनेगी. काहे को बनेगी. वह तो आप तुम्हारे सेवक बनने के लिए तैयार बैठे हैं. तुम्हारे लालाजी ही नहीं मानते. विश्वास मानो, यदि तुमसे उनका ब्याह न हुआ, तो कुंवारे ही रहेंगे.”

प्रेमा — “यहाँ यही ठान ली है कि चेरी बनूंगी, तो उन्हीं की.”

कुछ देरे तक तो यही बातें हुई. जब सूर्य अस्त होने लगा, तो प्रेमा ने कहा — “चलो सखी, तुमको बगीचे की सैर करा लावें. जब से तुम्हारा आना-जाना छूटा, तब से मैं उधर भूलकर भी नहीं गयी.”

पूर्णा — “मेरे बाल खोल दो तो चलूं तुम्हारी भावज देखेगी, तो ताना मारेगी.”

प्रेमा — “उनके ताने का क्या डर, वह तो हवा, से उलझा करती हैं.”

दोनों सखियाँ उठी और हाथ दिये कोठे से उतार कर फुलवारी में आयी. यह एक छोटी-सी बगिया थी, जिसमें भांति=भांति के फूल खिल रहे थे. प्रेमा को फूलों से बहुत प्रेम था. उसी के अपने दिलबहलाव के लिए बगीचा था. एक माली इसी की देख-भाल के लिए नौकर था. बाग़ के बीचो-बीच एक गोल चबूतरा बना हुआ था. दोनों सखियाँ इस चबूतेरे पर बैठ गयी. इनको देखते ही माली बहुत-सी कलियाँ एक साफ़ तरह कपड़े में लपेट कर लाया. प्रेमा ने उनको पूर्णा को देना चाहा. मगर उसने बहुत उदास होकर कहा — “बहिन, मुझे क्षमा करो, इनकी बू बास तुमको मुबारक हो. सोहाग के साथ मैंने फूल भी त्याग दिये. हाय जिस दिन वह कालरुपी नदी में नहाने गये हैं, उस दिन ऐसे ही कलियों का हार बनाया था. (रोकर) वह हार धरा का धरा का गया. तब से मैंने फूलों को हाथ नहीं लगाया. यह कहते-कहते वह यकयक चौंक पड़ी और बोली — “सखी अब मैं जाऊंगी. आज इतवार का दिन है. बाबू साहब आते होंगे.”

प्रेमा ने रोनी हँसकर कहा – “नहीं सखी, अभी उनके आने में आधे घण्टे की देर है. मुझे इस समय का ऐसा ठीक परिचय मिल गया है कि अगर कोठरी में बंदकर दो, तो भी शायद गलती न करूं. सखी कहते लाज आती है. मैं घण्टों बैठकर झरोखे से उनकी राह देखा करती हूँ. चंचल चित्त को बहुत समझती हूँ, पर मानता ही नहीं.”

पूर्णा ने उसको ढारस दिया और अपनी सखी से गले मिल, शर्माती हुई घूंघट से चेहरे को छिपाये अपने घर की तरफ़ चली और प्रेमी किसी के दर्शन की अभिलाषा कर महताबी पर जाकर टहलने लगी.

पूर्णा के मकान पर पहुँचे ठीक आधी घड़ी हुई थी कि बाबू अमृतराय बाइसिकिल पर फर-फर करते आ पहुँचे. आज उन्होंने अंग्रेजी बाने की जगह बंगाली बाना धारण किया था, जो उन पर खूब सजता था. उनको देखकर कोई यह नहीं कह सकता था कि यह राजकुमार नहीं हैं, बाजारो में जब निकलाते तो सब की आँखें उन्हीं की तरफ उठती थीं. रीति के विरुद्ध आज उनकी दाहिनी कलाई पर एक बहुत ही सुगंधित मनोहर बेल का हार लिपटा हुआ था, जिससे सुगंध उड़ रही थी और इस सुगंध से लेवेण्डर की खुशबू मिलकर मानो सोने में सोहागा हो गया था. संदली रेशमी के बेलदार कुरते पर धानी रंग की रेशमी चादर हवा के मंद-मंद झोंकों से लहरा-लहरा कर एक अनोखी छवि दिखाती थी. उनकी आहट पाते ही बिल्लो घर में से निकल आई और उनको ले जाकर कमरे में बैठा दिया.

अमृतराय — “क्यों बिल्लो, सग कुशल है?”

बिल्लो — “हाँ, सरकार सब कुशल है.”

अमृतराय — “कोई तकलीफ़ तो नहीं है?”

बिल्लो — “नहीं, सरकार कोई तकलीफ़ नहीं है.”

इतने में बैठके का भीतर वाला दरवाजा खुला और पूर्णा निकली. अमृतराय ने उसकी तरफ़ देखा, तो अचंभे में आ गये और उनकी निगाह आप ही आप उसके चेहरे पर जम गई. पूर्णा मारे लज्जा के गड़ी जाती थी कि आज क्यों यह मेरी ओर ऐसे ताक रहे हैं. वह भूल गयी थी कि आज मैंने बालों में तेल डाला है, कंघी की है और माथे पर लाल बिंदी भी लगायी है. अमृतराय ने उसको इस बनाव-चुनाव के साथ कभी नहीं देखा था और न वह समझे थे कि वह ऐसी रुपवती होगी.

कुछ देर तक तो पूर्णा सिर नीचा किये खड़ी रही. यकायक उसको अपने गुंथे केश की सुधि आ गयी और उसने झट लजाकर सिर और भी निहुरा लिया, घूंघट को बढ़ाकर चेहरा छिपा लिया और यह खयाल करके कि शायद बाबू साहब इस बनाव सिंगार से नाराज़ हों, वह बहुत ही भोलेपन के साथ बोली — “मैं क्या करूं, मैं तो प्रेमा के घर गयी थी. उन्होंने हठ करके सिर में तेल डालकर बाल गूंथ दिये. मैं कल सब बाल कटवा डालूंगी.”

यह कहते-कहते उसकी आँखों में आँसू भर आये.

उसके बनाव-सिंगार ने अमृतराय पर पहले ही जादू चलाया था. अब इस भोलेपन ने और लुभा लिया. जवाब दिया — “नहीं नहीं, तुम्हें कसम है, ऐसा हर्गिज़ न करना. मैं बहुत ख़ुश हूँ कि तुम्हारी सखी ने तुम्हारे ऊपर यह कृपा की. अगर वह यहाँ इस समय होती, तो इसके निहोरे में मैं उनको धन्यवाद देता.”

पूर्णा पढ़ी-लिखी औरत थी. इस इशारे को समझ गयी और झटपट गर्दन नीचे कर ली. बाबू अमृतराय दिल में डर रहे थे कि कहीं इस छेड़ पर यह देवी रुष्ट न हो जाए. नहीं तो फिर मनाना कठिन हो जाएगा. मगर जब उसे मुस्कुराकर गर्दन नीची करते देखा, तो और भी ढिठाई करने का साहस हुआ. बोले — “मैं तो समझता था प्रेमा मुझे भूल होगी. मगर मालूम होता है कि अभी तक मुझ पर कुछ-कुछ स्नेह बाक़ी है.”

अब की पूर्णा ने गर्दन उठायी और अमृतराय के चेहरे पर आँखें जमाकर बोली, जैसे कोई वकील किसी दुखीयारे के लिए न्यायधीश से अपील करता हो – “बाबू साहब, आपका केवल इतना समझना कि प्रेमा आपको भूल गयी होगी, उन पर बड़ा भारी आपेक्ष है. प्रेमा का प्रेम आपके निमित्त सच्चा है. आज उनकी दशा देखकर मैं अपनी विपत्ति भूल गयी. वह गल कर आधी हो गयी है. महीनों से खाना-पीना नाममात्र है. सारे दिन अपनी कोठरी में पड़े-पड़े रोया करती है. घरवाले लाख-लाख समझाते हैं, मगर नहीं मानती. आज तो उन्होंने आपका नाम लेकर कहा – “सखी अगर चेरी बनूंगी, तो उन्हीं की.”

यह समाचार सुनकर अमृतराय कुछ उदास हो गये. यह अग्नि जो कलेजे में सुलग रही थी और जिसको उन्होंने सामाजिक सुधार के राख तले दबा रक्खा था, इस समय क्षण भर के लिए धधक उठी, जी बेचैन होने लगा, दिल उकसाने लगा कि मुंशी बद्रीप्रसाद का घर दूर नहीं है. दम भर के लिए चलो. अभी सब काम हुआ जाता है. मगर फिर देशहित के उत्साह ने दिल को रोका. बोले — “पूर्णा, तुम जानती हो कि मुझे प्रेमा से कितनी मुहब्बत थी. चार वर्ष तक मैं दिल में उनकी पूजा करता रहा. मगर मुंशी बद्रीप्रसाद ने मेरी दिनों की बंधी हुई आस केवल इस बात पर तोड़ दी कि मैं सामाजिक सुधार का पक्षपाती हो गया. आखिर मैंने भी रो-रोकर उस आग को बुझाया और अब तो दिल एक दूसरी ही देवी की उपासना करने लगा है. अगर यह आशा भी यों ही टूट गयी तो सत्य मानो, बिना ब्याह ही रहूंगा.”

पूर्णा का अब तक यह ख़याल था कि बाबू अमृतराय प्रेमा से ब्याह करेंगे. मगर अब तो उसको मालूम हुआ कि उनका ब्याह कहीं और लग रहा है, तब उसको कुछ आश्चर्य हुआ. दिल से बातें करने लगी. प्यारी प्रेमा, क्या तेरी प्रीति का ऐसा दुखदायी परिणाम होगा. तेरे माँ-बाप, भाई-बंधु तेरी जान के ग्राह हो रहे हैं. यह बेचारा तो अभी तक तुझ पर जान देता हैं. चाहे वह अपने मुँह से कुछ भी न कहे, मगर मेरा दिल गवाही देता है कि तेरी मुहब्बत उसके रोम-रोम में व्याप रही है. मगर जब तेरे मिलने की कोई आशा ही न हो, तो बेचारी क्या करे मजबूर होकर कहीं और ब्याह करेगा. इसमें उसका क्या दोष है? मन में इस तरह विचार कर बोली – “बाबू साहब, आपको अधिकार है, जहाँ चाहो संबंध करो. मगर मैं तो यही कहूंगी कि अगर इस शहर में आपके जोड़ की कोई है, तो वही प्रेम है.”

अमृत० — “यह क्यों नहीं कहतीं कि यहाँ उनके योग्य कोई वर नहीं, इसीलिए तो मुंशी बद्रीप्रसाद ने मुझे छुटकारा किया.”
पूर्णा — “यह आप कैसी बात कहते है? प्रेमा और आपका जोड़ ईश्वर ने अपने हाथ से बनाया है.”

अमृत० — “जब उनके योग्य मैं था. अब नहीं हूँ.”

पूर्णा — “अच्छा आजकल किसके यहाँ बातचीत हो रही है?”

अमृत० (मुस्कराकर) – “नाम अभी नहीं बताऊंगा. बातचीत तो हो रही है. मगर अभी कोई पक्की उम्मीद नहीं हैं.”

पूर्णा — “वाह ऐसा भी कहीं हो सकता है? यहाँ ऐसा कौन रईस है, जो आपसे नाता करने में अपनी बड़ाई न समझता हो.”

अमृत० — “नहीं कुछ बात ही ऐसी आ पड़ी है.”

पूर्णा — “अगर मुझसे कोई काम हो सके, तो मैं करने को तैयार हूँ. जो काम मेरे योग्य हो बता दीजिए.”

अमृत (मुस्कराकर) – तुम्हारी मर्ज़ी बिना तो वह काम कभी पूरा हो ही नहीं हो सकता. तुम चाहो तो बहुत जल्द मेरा घर बस सकता है.”

पूर्णा बहुत प्रसन्न हुई कि मैं भी अब इनके कुछ काम आ सकूंगी. उसकी समझ में इस वाक्य के अर्थ नहीं आये कि ‘तुम्हारी मर्ज़ी बिना तो वह काम पूरा हो ही नहीं सकता.’ उसने समझा कि शायद मुझसे यही कहेंगे कि जा के लड़की को देख आवे. छ: महीने के अंदर हे अंदर वह इसका अभिप्राय भली-भांति समझ गयी.

बाबू अमृतराय कुछ देर तक यहाँ और बैठे. उनकी आँखें आज इधर-उधर से घूम कर आतीं और पूर्णा के चेहरे पर गड़ जाती. वह कनखियों से उनकी ओर ताकती, तो उन्हें अपनी तरफ़ ताकते पाती.

आखिर वह उठे और चलते समय बोले — “पूर्णा, यह गजरा आज तुम्हारे वास्ते लाया हूँ. देखो इसमें से कैसे सुगंध उड़ रही है.”

पूर्णा भौचक्क हो गयी. यह आज अनोखी बात कैसी एक मिनट तक तो वह इस सोच विचार में थी कि लूं या न लूं. उन गजरों का ध्यान आया, जो उसने अपने पति के लिए होली के दिन बनाये थे. फिर की कलियों का खयाल आया. उसने इरादा किया, मैं न लूंगी. जबान ने कहा — “मैं इसे लेकर क्या करूंगी.” मगर हाथ आप ही आप बढ़ गया. बाबू साहब ने खुश होकर गजरा उसके हाथ में पिन्हाया, उसको खूब नजर भरकर देखा. फिर बाहर निकल आये और पैरगाड़ी पर सवार हो रवाना हो गये. पूर्णा कई मिनट तक सन्नाटे में खड़ी रही. वह सोचती थी कि मैंने तो गजरा लेने से इंकार  किया था. फिर यह मेरे हाथ में कैसे आ गया? जी चाह कि फेंक दे. मगर फिर यह ख़याल पलट गया और उसने गज़रे को हाथ में पहिन लिया. हाय उस समय भी भोली-भाली पूर्णा के समझ में न आया कि इस जुमले का क्या मतलब है कि तुम चाहो तो बहुत जल्द मेरा घर बस सकता है.

उधर प्रेमा महताबी पर टहल रही थी. उसने बाबू साहब को आते देखा था. उनकी सज-धज उसकी आँखों में ख़ूब गयी थी. उसने उन्हें कभी इस बनाव के साथ नहीं देखा था. वह सोच रही थी कि आज इनके हाथ में गजरा क्यों है? उसकी आँखें पूर्णा के घर की तरफ़ लगी हुई थीं. उसका जी झुंझलाता था कि वह आज इतनी देर क्यों लगा रहे है? एकाएक पैरगाड़ी दिखाई दी. उसने फिर बाबू साहब को देखा. चेहरा खिला हुआ था. कलाइयों पर नज़र पड़ी गयी, हँय वह गजरा क्या हो गया?

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