Chapter 9 Prema Novel By Munshi Premchand
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प्रेमा भाग – 9 : तुम सचमुच जादूगर हो
Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 |12 | 13
नौ बजे रात का समय था. पूर्णा अंधेरे कमरे में चारपाई पर लेटी हुई करवटें बदल रही है और सोच रही है आखिर वह मुझसे क्या चाहते है? मैं तो उनसे कह चुकी कि जहाँ तक मुझसे हो सकेगा आपका कार्य सिद्ध करने में कोई बात उठा न रखूंगी. फिर वह मुझसे कितना प्रेम बढ़ाते है. क्यों मेरे सिर पर पाप की गठरी लादते हैं. मैं उनकी इस मोहनी सूरत को देखकर बेबस हुई जाती हूँ.
मैं कैसे दिल को समझाऊं? वह तो प्रेम रस पीकर मतवाला हो रहा है. ऐसा कौन होगा, जो उनकी जादू भरी बातें सुनकर रीझ न जाय? हाय कैसा कोमल स्वभाव है. आँखें कैसी रस से भरी है. मानो हदय में चुभी जाती है.
आज वह और दिनों से अधिक प्रसन्न थे. कैसे रह-रहकर मेरी और ताकते थे. आज उन्होंने मुझे दो-तीन बार ‘प्यारी पूर्णा’ कहा. कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करने वाले है? नारायण! वह मुझसे क्या चाहते है? इस मोहब्बत का अंत क्या होगा?
यही सोचते-सोचते जब उसका ध्यान परिणाम की ओर गया, तो मारे शर्म के पसीना आ गया. आप ही आप बोल उठी – ‘न……न! मुझसे ऐसा न होगा. अगर यह व्यवहार उनका बढ़ता गया, तो मेरे लिए सिवाय जान दे देने के और कोई उपाय नहीं है. मैं ज़रूर जहर खा लूंगी. नहीं-नहीं, मैं भी कैसी पागल हो गयी हूँ. क्या वह कोई ऐसे वैसे आदमी है. ऐसा सज्जन पुरूष तो संसार में न होगा. मगर फिर यह प्रेम मुझसे क्यों लगाते है? क्या मेरी परीक्षा लेना चाहते हैं? बाबू साहब! ईश्चर के लिए ऐसा न करना. मैं तुम्हारी परीक्षा में पूरी न उतरूंगी.’
पूर्णा इसी उधेड़-बुन मे पड़ी थी कि नींद आ गयी. सबेरा हुआ. अभी नहाने जाने की तैयारी कर रही थी कि बाबू अमृतराय के आदमी ने आकर बिल्लो को जोर से पुकारा और उसे एक बंद लिफाफा और एक छोटी सी संदूकची देकर अपनी राह लगा. बिल्लो ने तुरंत आकर पूर्णा को यह चीजें दिखायी.
पूर्णा ने कांपते हुए हाथों से खत लिया. खोला तो यह लिखा था —
‘प्राणप्यारी से अधिक प्यारी पूर्णा!
जिस दिन से मैंने तुमको पहले पहल देखा था, उसी दिन से तुम्हारे रसीले नैनों के तीर का घायल हो रहा हूँ और अब घाव ऐसा दुखदायी हो गया है कि सहा नहीं जाता. मैंने इस प्रेम की आग को बहुत दबाया. मगर अब वह जलन असहय हो गयी है. पूर्णा! विश्वास मानो, मै तुमको सच्चे दिल से प्यार करता हूँ. तुम मेरे ह्रदय कमल के कोष की मालिक हो. उठते बैठते तुम्हारा मुस्कुराता हुआ चित्र आँखों के सामने फिरा करता है. क्या तुम मुझ पर दया न करोगी? मुझ पर तरस न खाओगी? प्यारी पूर्णा! मेरी विनय मान जाओ. मुझको अपना दास, अपना सेवक बना लो. मैं तुमसे कोई अनुचित बात नहीं चाहता. नारायण! कदापि नहीं, मै तुमसे शास्त्रीय रीति पर विवाह करना चाहता हूँ. ऐसा विवाह तुमको अनोखा मालूम होगा. तुम समझोगी, यह धोखे की बात है. मगर सत्य मानो, अब इस देश में ऐसे विवाह कहीं कहीं होने लगे है. मैं तुम्हारे विरह में मर जाना पसंद करूंगा, मगर तुमको धोखा न दूंगा.
‘पूर्णा. नहीं मत करो. मेरी पिछली बातों को याद करो. अभी कल ही जब मैंने कहा कि ‘तुम चाहो तो मेरे सिर बहुत जल्द सेहरा बंध सकता है.‘ तब तुमने कहा था कि ‘मै भर शक्ति कोई बात उठा न रखूंगी. अब अपना वादा पूरा करो. देखो मुकर मत जाना.
‘इस पत्र के साथ मैं एक जहाऊ कंगन भेजता हूँ. शाम को मैं तुम्हारे दर्शन को आऊंगा. अगर यह कंगन तुम्हारी कलाई पर दिखाई दिया, तो समझ जाऊंगा कि मेरी विनय मान ली गयी. अगर नहीं तो, फिर तुम्हें मुँह न दिखाऊंगा.
तुम्हारी सेवा का अभिलाषी
अमृतराय
पूर्णा ने बड़े गौर से इस खत को पढ़ा और सोच के अथाह समुद्र में गोते खाने लगी. अब यह गुल खिला. महापुरूष ने वहाँ बैठकर यह पाखंड रचा. इस धूर्तपन को देखो कि मुझसे बार-बार कहते थे कि तुम्हारे ही ऊपर मेरा विवाह ठीक करने का बोझ है, मैं बौरी क्या जानूं कि इनके मन में क्या बात समायी है? मुझसे विवाह का नाम लेते उनको लाज नहीं होती. अगर सुहागिन बनना भाग में बदा होता, तो विधवा काहे होती? मै अब इनको क्या जवाब दूं? अगर किसी दूसरे आदमी ने यह गाली लिखी होती, तो उसका कभी मुँह न देखती. मैं क्या सखी प्रेमा से अच्छी हूँ? क्या उनसे सुंदर हूँ? क्या उनसे गुणवती हूँ? फिर यह क्या समझकर ऐसी बाते लिखते है? विवाह करेगे. मैं समझ गयी जैसा विवाह होगा. क्या मुझे इतनी भी समझ नहीं? यह सब उनकी धूर्तपन है. वह मुझे अपने घर रखना चाहते हैं. मगर ऐसा मुझसे कदापि न होगा. मैं तो इतना ही चाहती हूँ कि कभी-कभी उनकी मोहनी मूरत का दर्शन पाया करूं. कभी-कभी उनकी रसीली बतियाँ सुना करूं और उनका कुशल आनंद, सुख समाचार पाया करूं. बस. उनकी पत्नी बनने के योग्य मैं नहीं हूँ. क्या हुआ अगर हदय में उनकी सूरत जम गयी है. मैं इसी घर में उनका ध्यान करते करते जान दे दूंगी. पर मोह के बस के आकर मुझसे ऐसा भारी पाप न किया जाएगा. मगर इसमें उन बेचारे का दोष नहीं है. वह भी अपने दिल से हारे हुए है. नहीं मालूम क्यों मुझ अभागिनी में उनका प्रेम लग गया. इस शहर में ऐसा कौन रईस है, जो उनको लड़की देने में अपनी बड़ाई न समझे. मगर ईश्वर को न जाने क्या मंजूर था कि उनकी प्रीति मुझसे लगा दी. हाय! आज की साँझ को वह आएंगे, मेरी कलाई पर कंगन न देखेगे तो दिल मे क्या कहेंगे? कहीं आना-जाना त्याग दें, तो मै बिन मारे मर जाऊं. अगर उनका चित्त ज़रा भी मेरी ओर से मोटा हुआ, तो अवश्य जहर खा लूंगी. अगर उनके मन में ज़रा भी माख आया, ज़रा भी निगाह बदली, तो मेरा जीना कठिन है.
बिल्लो पूर्णा के मुखड़े का चढ़ाव-उतार बड़े गौर से देख रही थी। जब वह खत पढ़ चुकी तो उसने पूछा — “क्या लिखा है बहू?”
पूर्णा (मलिन स्वर में) – “क्या बताऊं क्या लिखा है?”
बिल्लो — “क्यों कुशल तो है?”
पूर्णा — “हाँ सब कुशल ही है. बाबू साहब ने आज नया स्वांग रचा.”
बिल्लो (अचंभे से) – “वह क्या?”
पूर्णा — “लिखते है कि मुझसे…..”
उससे और कुछ न कहा गया. बिल्लो समझ गयी. मगर वहीं तक पहुँची, जहाँ तक उसकी बुद्धि ने मदद की. वह अमृतराय की बढ़ती हुई मुहब्बत को देख-देखकर दिल में समझे बैठी हुई थी कि वह एक न एक दिन पूर्णा को अपने घर अवश्य डालेंगे. पूर्णा उनको प्यार करती है, उन पर जान देती है. वह पहले बहुत हिचकिचायगी मगर अंत मे मान ही जायगी. उसने सैकड़ों रईसों को देखा था कि नाइनों कहारियो, महराजिनों को घर डाल लिया था. अब की भी ऐसा ही होगा. उसे इसमें कोई बात अनोखी नहीं मालूम होती थी कि बाबू साहब का प्रेम सच्चा है, मगर बेचारे सिवाय इसके और कर ही क्या सकते है कि पूर्णा को घर डाल लें. देखा चाहिए कि बहू मानती है या नहीं. अगर मान गयीं, तो जब तक जियेगे, सुख भोगेगी. मैं भी उनकी सेवा में एक टुकड़ा रोटी पाया कररूंगी और जो कहीं इंकार किया, तो किसी का निबाह न होगा. बाबू साहब का ही सहारा ठहरा. जब वही मुँह मोड़ लेंगे, तो फिर कौन किसको पूछता है.
इस तरह ऊँच-नीच सोचकर उसने पूर्णा से पूछा – “तुम क्या जवाब दो दोगी?”
पूर्णा – “जवाब, ऐसी बातों का भी भला कहीं जवाब होता है. भला विधवाओं का कहीं ब्याह हुआ है और वही भी ब्राह्मण का क्षत्रिय से. इस तरह की चन्द कहानियाँ मैंने उन किताबो में पढ़ी, जो वह मुझे दे गये है. मगर ऐसी बात कहीं से तुक नहीं देखने आयी.”
बिल्लो समझी थी कि बाबू साहब उसको घर डालने वाले है. जब ब्याह का नाम सुना, तो चकरा कर बोली – “क्या ब्याह करने को कहते है?”
पूर्णा – “हाँ.”
बिल्लो — “तुमसे?”
पूर्णा – “यही तो आश्चर्य है.”
बिल्लो — “अचरज हैं भला ऐसी कहीं भया है. बाल पक गये, मगर ऐसा ब्याह नहीं देखा.”
पूर्णा – “बिल्लो, यह सब बहाना है. उनका मतलब मैं समझ गयी.”
बिल्लो – “वह तो खुली बात है.”
पूर्णा — “ऐसा मुझसे न होगा. मैं जान दे दूंगी, पर ऐसा न करूंगी.”
बिल्लो — “बहू उनका इसमें कुछ दोष नहीं है. वह बेचारे भी अपने दिल से हारे हुए हैं. क्या करें?”
पूर्णा — “हाँ बिल्लो, उनको नहीं मालूम क्यों मुझसे कुछ मुहब्बत हो गयी है और मेरे दिल का हाल तो तुमसे छिपा नहीं. अगर वह मेरी जान मांगते, तो मैं अभी दे देती. ईश्वर जानता है, उनके ज़रा से इशारे पर मैं अपने को निछावर कर सकती हूँ. मगर जो बात वह चाहते हैं, मुझसे न होगी. उसके बारे सोचती हूँ. तो मेरा कलेजा कांपने लगता है.”
बिल्लो — “हाँ, बात तो ऐसा ही है मगर..”
पूर्णा – “मगर क्या, भलेमानुसो में ऐसा कभी होता ही नहीं. हाँ, नीच जातियों में सगाई, डोला सब कुछ आता है.”
बिल्लो — “बहू यह तो सच है. मगर तुम इंकार करोगी, तो उनका दिल टूट जायेगा.”
पूर्णा — “यही डर मारे डालता है. मगर इंकार न करूं, तो क्या करूं. यह तो मैं भी जानती हूँ कि वह झूठ-सच ब्याह कर लेंगे. ब्याह क्या कर लेंगे. ब्याह क्या करेंगे, ब्याह का नाम करेंगे. मगर सोचो तो दुनिया क्या कहेगी? लोग अभी से बदनाम कर रहे है, तो न जाने और क्या-क्या आक्षेप लगायेंगे. मैं सखी प्रेमा को मुँह दिखाने योग्य नहीं रहूंगी. बस यही एक उपाय है कि जान दे दूं, न रह बांस न बजेगे बांसुरी. उनको दो-चार दिन तक रंज रहेगा, आखिर भूल जाऐंगे. मेरी तो इज्ज़त बच जायगी.”
बिल्लो (बात पलट कर) – “इस संदूकचे में क्या है?”
पूर्णा – “खोल कर देखो.”
बिल्लो ने जो उसे खोला, तो एक क़ीमती कंगन हरी मखमल में लपेटकर धरा था और संदूक में संदल की सुगंध आ रही थी. बिल्लो ने उसको निकाल लिया और चाहा की पूर्णा के हाथ खींच लिया और आँखों में आँसू भरकर बोली — “मत बिल्लो, इसे मत पहनाओ. संदूक में बंद करके रख दो.”
बिल्लो — “ज़रा पहनो, तो देखो कैसा अच्छा मालूम होता है.”
पूर्णा — “कैसे पहनूं. यह तो इस बात का सूचक हो जाएगा कि उनकी बात मंजूर है.”
बिल्लो – “क्या यह भी इस चिट्ठी में लिखा है?”
पूर्णा — “हाँ, लिखा है कि मैं आज शाम को आऊंगा और अगर कलाई पर कंगन देखूंगा, तो समझ जाऊंगा कि मेरी बात मंजूर है.”
बिल्लो — “क्या आज ही शाम को आएंगे?”
पूर्णा — “हाँ.”
यह कहकर पूर्णा ने सिर नीचा कर लिया. नहाने कौन जाता है? खाने पीने की किसको सुध है? दोपहर तक चुपचाप बैठी सोच की. मगर दिल ने कोई बात निर्णय न की. हाँ, -ज्यों-ज्यों साँझ का समय निकट आया था, त्यों-त्यों उसका दिल धड़कता जाता था कि उनके सामने कैसे जाऊंगी. वह मेरी कलाई पर कंगन न देखगें, तो क्या कहेंगे? कहीं रुठ कर चले न जायें? वह कहीं रिसा गये, तो उनको कैसे मनाऊंगी? मगर तबियत का क़ायदा है कि जब कोई बात उसको अति लौलीन करने वाली होती है, तो थोड़ी देर के बाद वह उसे भागने लगती है. पूर्णा से अब सोचा भी न जाता था माथे पर हाथ घरे मौन साधे चिंता की चित्र बनी दीवार की ओर ताक रही थी. बिल्लो भी मान मारे बैठी हुई थी. तीन बजे होंगे कि यकायक बाबू अमृतराय की मानूस आवाज़ दरवाजे पर बिल्लो पुकराते सुनायी दी. बिल्लो चट बाहर दौड़ी और पूर्णा जल्दी से अपनी कोठरी में घुस गयी कि दरवाज़ा भेड़ लिया. उसका दिल भर आया और वह किवाड़ से चिमट कर फूट-फूट रोने लगी. उधर बाबू साहब बहुत बेचैन थे. बिल्लो ज्यों ही बाहर निकली कि उन्होंने उसकी तरफ़ आस-भरी आँखों से देखा. मगर जब उसके चेहरे पर खुशी का कोई चिह्न न दिखायी दिया, तो वह उदास हो गये और दबी आवाज़ में बोले —“महरी, तुम्हारी उदासी देखकर मेरा दिल बैठा जाता है.”
बिल्लो ने इसका उत्तर कुछ न दिया.
अमृतराय का माथा ठनका कि जरुर कुछ गड़बड़ हो गयी. शायद बिगड़ गयी. डरते-डरते बिल्लो से पूछा — “आज हमारा आदमी आया था?”
बिल्लो – “हाँ आया था.”
अमृतराय — ‘कुछ दे गया?”
बिल्लो — “दे क्यों नहीं गया.”
अमृतराय – “तो क्या हुआ? उसको पहना?”
बिल्लो — “हाँ, पहना अरे आँख भर के देखा तो है नहीं. तब से बैठी रो रही हैं. न खाने उठी, न गंगा जी गयी.”
अमृतराय — “कुछ कहा भी. क्या बहुत खफ़ा है?”
बिल्लो — “कहतीं क्या? तभी से आँसू का तार नहीं टूटा.”
अमृतराय समझ गये कि मेरी चाल बुरी पड़ी. अभी मुझे कुछ दिन और धीरज रखना चाहिए था. वह ज़रुर बिगड़ गयीं. अब क्या करूं? क्या अपना-सा मुँह ले के लौट जाऊं? या एक दफ़ा फिर मुलाकात कर लूं, तब लौट जाऊं, कैसे लौटूं? लौटा जाएगा? हाय अब न लौटा जाएगा. पूर्णा तू देखने में बहुत सीधी और भोली है, परन्तु तेरा हृदय बहुत कठोर है. तूने मेरी बातों का विश्वास नहीं माना, तू समझती है मैं तुझसे कपट कर रहा हूँ. ईश्वर के लिए अपने मन से यह शंका निकाल डाल. मैं धीरे-धीरे तेरे मोह में कैसा जकड़ गया हूँ कि अब तेरे बिना जीना कठिन है. प्यारी जब मैंने तुझसे पहले बातचीत की थी, तो मुझे इसकी कोई आशा न थी कि तुम्हारी मीठी बातों और तुम्हारी मंद मुस्कान का ज़ादू मुझ पर ऐसा चल जाएगा, मगर वह जादू चल गया और अब सिवाय तुम्हारे उसे और कौन उतार सकता है. नहीं, मैं इस दरवाज़े से कदापि नहीं हिलूंगा. तुम नाराज़ होगी. झल्लाओगी. मगर कभी न कभी मुझ पर तरस आ ही जाएगा. बस अब यही करना उचित है. मगर देखो प्यारी, ऐसा न करना कि मुझसे बात करना छोड़ दो. नहीं तो मेरा कहीं ठिकाना नहीं. क्या तुम हमसे सचमुच नाराज़ हो. हाय क्या तुम पहरों से इसलिए रो रही हो कि मेरी बातों ने तुमको दुख दिया.
यह बातें सोचते-सोचते बाबू साहब की आँखों में आँसू भर आये और उन्होंने गदगद स्वर में बिल्लो से कहा — “महरी, हो सके तो ज़रा उनसे मेरी मुलाक़ात करा दो. कह दो एक दम के लिए मिल जायें. मुझ पर इतनी कृपा करो.”
महरी ने जो उनकी आँखें लाल देखीं, तो दौड़ हुई घर में आयी पूर्णा के कमरे में किवाड़ खटखटाकर बोली – “बहू, क्या ग़ज़ब करती हो, बाहर निकलो, बेचारे खड़े रो रहे हैं.”
पूर्णा ने इरादा कर लिया था कि मैं उनके सामने कदापि न जाऊंगी. वह महरी से बातचीत करके आप ही चले जायेंगे.मगर जब सुना कि रो रहे हैं, तो प्रतिज्ञा टूट गयी. बोली — “तुमने जा के क्या कह दिया?”
महरी — ‘मैंने तो कुछ भी नहीं कहा.”
पूर्णा से अब न रहा गया. चट किवाड़ खोल दिये और कांपती हुई आवाज़ से बोली – “सच बतलाओ बिल्लो, क्या बहुत रो रहे है?”
महरी – “नारायण जाने, दोनों आँखें लाल टेसू हो गयी हैं. बेचारे बैठे तक नहीं. उनको रोते देखकर मेरा भी दिल भर आया.”
इतने में बाबू अमृतराय ने पुकार कर कहा — “बिल्लो, मैं जाता हूँ. अपनी सरकार से कह दो अपराध क्षमा करें.”
पूर्णा ने आवाज़ सुनी. वह एक ऐसे आदमी की आवाज़ थी, जो निराशा के समुद्र में डूबता हो. पूर्णा को ऐसा मालूम हुआ, जैसे उसके हृदय को किसी ने छेद दिया. आँखों से ऑंसू की झड़ी लग गयी. बिल्लों ने कहा — “बहू, हाथ जोड़ती हूँ, चली चलो जिसमें उनकी भी खातिरी हो जाए.”
यह कहकर उसने आप से उठती हुई पूर्णा का हाथ पकड़ कर उठाया और वह घूंघट निकाल कर, आँसू पोंछती हुई, मर्दाने कमरे की तरफ चली. बिल्लो ने देखा कि उसके हाथों में कंगन नहीं है. चट संदूकची उठा लायी और पूर्णा का हाथ पकड़ कर चाहती थी कि कंगन पहना दे. मगर पूर्णा ने हाथ झटक कर छुड़ा लिया और दम की दम में बैठक के भीतर दरवाज़े पर आके खड़ी रो रही थी. उसकी दोनों आँखें लाल थी और ताजे आँसुओं की रेखायें गालों पर बनी हुई थी. पूर्णा ने घूंघट उठाकर प्रेम-रस से भरी हुई आँखों से उनकी ओर ताका. दोनों की आँखें चार हुई. अमृतराय बेबस होकर बढ़े. सिसकती हुई पूर्णा का हाथ पकड़ लिया और बड़ी दीनता से बोले — “पूर्णा, ईश्वर के लिए मुझ पर दया करो.”
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