चैप्टर 8 – प्रेमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 8 Prema Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 8 Prema Novel By Munshi Premchand

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प्रेमा भाग – 8 : कुछ और बातचीत

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पूर्णा ने कान पकड़े कि अब मंदिर कभी न जाऊंगी. ऐसे मंदिरों पर दई का कोप भी नहीं पड़ता. उस दिन से वह सारे घर ही पर बैठी रहती. समय काटना पहाड़ हो जाता. न किसी क यहाँ आना न जाना, न किसी से भेंट न मुलाकात, न कोई काम न धंधा. दिन कैसे कटे? पढ़ी-लिखी तो अवश्य थी, मगर पढ़ें क्या? दो-चार किस्से-कहानी की पुरानी किताबें पंडित जी की संदूक में पड़ी हुई थी, मगर उनकी तरफ देखने को अब जी नहीं चाहता था. कोई ऐसा न था, जो बाजार से लाती मगर वह किताबों का मोल कया जाने? दो-एक बार जी में आया कि कोई पुस्तक प्रेमा के घर में मंगवाये. मगर फिर कुछ समझकर चुप हो रही. बेल-बूटे बनाना उसको आते ही न थे कि उससे जी बहलाये हाँ सीना आता था. मगर सीये किसके कपड़े? नित्य इस तरह बेकाम बैठे रहने से वह हरदम कुछ उदास सी रहा करती. हाँ, कभी-कभी पंडाइन और चौबाइन अपने चेले-चापड़ों के साथ आकर कुछ सिखावन की बातें सुना जाती थीं. मगर जब कभी वह कहतीं कि बाबू अमृतराय का आना ठीक नहीं, तो पूर्णा साफ-साफ कह देती कि मैं उनको आने से नहीं रोक सकती और न कोई ऐसा बर्ताव कर सकती हूँ, जिससे वह समझें कि मेरा आना इसको बुरा लगता है. सच तो यह है कि पूर्णा के हदय में अब अमृतराय के लिए प्रेम का अंकुर जमने लगा था. यद्यपि वह अभी तक यही समझती थी कि अमृतराय यहाँ दया की राह से आया करते है. मगर नहीं मालूम क्यों वह उनके आने का एक-एक दिन गिना करती और जब इतवार आता, तो सबेरे ही से उनके शुभगमन की तैयारियाँ होने लगती. बिल्लो बड़े प्रेम से सारा मकान साफ करती. कुर्सियाँ और तस्वीरों पर से सात दिन की जमी हुई धूल-मिटटी दूर करती. पूर्णा खुद भी अच्छे और साफ कपड़े पहनती. अब उसके दिल मे आप ही आप बनाव-सिंगार करने की इच्छा होती थी. मगर दिल को रोकती. जब बाबू अमृतराय आ जाते, तो उसका मलिन मुख कुंदन की तरह दमकने लगता. उसकी प्यारी सूरत और भी अधिक प्यारी मालूम होने लगती. जब तक बाबू साहब रहते उसे अपना घर भरा मालूम होता. वह इसी कोशिश मे रहती कि ऐसी क्या बात करूं, जिसमें वह प्रसन्न होकर घर को जावें. बाबू साहब ऐसे हँसमुख थे कि रोते को भी एक बार हँसा देते. यहाँ वह खूब बुलबुल की तरह चहकते. कोई ऐसी बात न कहते, जिससे पूर्णा दुखित हो. जब उनके चलने का समय आता, तो वह कुछ उदास हो जाती. बाबू साहब इसे ताड़ जाते और पूर्णा की खातिर से कुछ देर और बैठते. इसी तरह कभी-कभी घंटों बीत जाते. जब दिया में बत्ती पड़ने की बेला आती, तो बाबू साहब चले जाते. पूर्णा कुछ देर तक इधर-उधर बौखलाई हुई घूमती. जो जो बातें हुई होती, उनको मन में दोहराती. यह समय उस आनंददायक स्वप्न-सा जान पड़ता था, जो आँख के खुलते ही बिलाय जाता है.

इसी तरह कई मास और बीत गये और आखिर जो बात अमृतराय के मन में थी वह पूरी हो गयी अर्थात पूर्णा को अब मालूम होने लगा कि मेरे दिल में उनकी मुहब्त समाती जाती है और उनका दिल भी मेरी मुहब्बत से खाली नहीं. अब पूर्णा पहले से ज्यादा उदास रहने लगी. हाय! ओ बौरे मन! क्या एक बार प्रीति लगाने से तेरा जी नहीं भरा, जो तू फिर यह रोग पाल रहा है. तुझे कुछ मालूम है कि इस रोग की औषधि क्या है? जब तू यह जानता है तो फिर क्यो, किस आशा पर यह स्नेह बढ़ा रहा है और बाबू साहब! तुमको क्या कहना मंजूर है? तुम क्या करने पर आये हो? तुम्हारे जी में क्या है? क्या तुम नहीं जानते कि यह अग्नि धधकेगी, तो फिर बुझाये न बुझेगी? मुझसे ऐसा कौन-सा गुण है? कहाँ की बड़ी सुंदरी हूँ, जो तुम प्रेमा, प्यारी प्रेमा, तो त्यागे देते हो? वह बार-बार मुझको बुलाती है. तुम्हीं बताओ, कौन मुँह लेकर उसके पास जाऊं और तुम तो आग लगाकर दूर से तमाशा देखोगे. इसे बुझायेगा कौन? बेचारी पूर्णा इन्हीं विचारों में डूबी रहती. बहुत चाहती कि अम़तराय का ख्याल न आने पावे, मगर कुछ बस न चलता.

अपने दिल का परिचय उसको एक दिन यों मिला कि बाबू अमृतराय नियत समय पर नहीं आये. थोड़ी देर तक तो वह उनकी राह देखती रही, मगर जब वह अब भी न आये, तब तो उसका दिल कुछ मसोसने लगा. बड़ी व्याकुलता से दौड़ी हुई दरवाज़े पर आयी और आध घंटे तक कान लगाये खड़ी रही, फिर भीतर आयी और मन मारकर बैठ गयी. चित्त की कुछ वही अवस्था होने लगी, जो पंडित जी के दौरे पर जाने के वक्त हुआ करती. शंका हुई कि कहीं बीमार तो नहीं हो गये. महरी से कहा — “बिल्लो, ज़रा देखो तो बाबू साहब का जी कैसा? नहीं मालूम क्यों मेरा दिल बैठा जाता है.”

बिल्लो लपकी हुई बाबू साहब के बंगले पर पहुँची, तो ज्ञात हुआ कि वह आज दो तीन नौकरों को साथ लेकर बाजार गये हुए है. अभी तक नहीं आये. पुराना बूढ़ा कहार आधी टांगों तक धोती बांधे सिर हिलाता हुआ आया और कहने लगा — “बेटा बड़ा खराब जमाना आवा है. हजार का सउदा होय तो, दुइ हजार का सउदा होय तो हमही लै आवत रहेन. आज खुद आप गये है. भला इतने बड़े आदमी का उस चाहत रहा. बाकी फिर सब अंग्रेजी जमाना आया है. अंग्रेजी पढ़-पढ़ के जउन न हो जाय, तउन अचरज नहीं.”

बिल्लो बूढे कहर केसर हिलाने पर हँसती हुई घर को लौटी. इधर जब से वह आयी थी, पूर्णा की विचित्र दशा हो रही थी. विकल हो होकर कभी भीतर जाती, कभी बाहर आती. किसी तरह चैन ही न आता. जान पड़ता कि बिल्लो के आने में देर हो रही है कि इतने में जूते ही आवाज सुनायी दी. वह दौड़ कर द्वार पर आयी और बाबू साहब को टहलते हुए पाया, तो मानो उसको कोई धन मिल गया. झटपट भीतर से किवाड़ खोल दिया. कुर्सी रख दी और चौखट पर सिर नीचा करके खड़ी हो गयी.

अमृतराय — “बिल्लो कहीं गयी है क्या?”

पूर्णा (लजाते हुए) – “हाँ, आप ही के यहाँ तो गयी है.”

अमृतराय — “मेरे यहाँ कब गयी? क्यों कुछ ज़रूरत थी?”

पूर्णा — “आपके आने में विलंब हुआ, तो मैने शायद जी न अच्छा हो. उसको देखने के लिए भेजा.”

अमृतराय (प्यार से देखकर) – “बीमारी चाहे कैसी ही हो, वह मुझे यहाँ आने से नहीं रोक सकती. ज़रा बाजार चला गया था. वहाँ देर हो गयी.”

यह कहकर उन्होंने एक दफ़े जोर से पुकारा, “सुखई, अंदर आओ” और दो आदमी कमरे में दाखिल हुए. एक के हाथ मे एक संदूक था और दूसरे के हाथ में तह किये हुए कपड़े. सब सामान चौकी पर रख दिया गया. बाबू साहब बोले — “पूर्णा, मुझे पूरी आशा है कि तुम दो-चार मामूली चीजें लेकर मुझे कृतार्थ करोगी (हँसकर) यह देर मे आने का जुर्माना है.

पूर्णा अचंभे में आ गई. यह क्या? यह तो फिर वही स्नेह बढ़ाने वाली बातें हैं और इनको खरीदने के लिए आप ही बाजार गये थे. अमृतराय! तुम्हारे दिल में जो है, वह मै जानती हूँ. मेरे दिल में जो है, वह तुम भी जानते हो. मगर इसका नतीज़ा? इसमें संदेह नहीं कि इन चीजों की पूर्णा को बहुत ज़रूरत थी. पंडित जी की मोल ली हुई सारिया अब तक लंगे तंगे चली थी. मगर अब पहनने को कोई कपड़े न थे. उसने सोचा था कि अब की जब बाबू साहब के यहाँ से मासिक तनख्वाह मिलेगी, तो मामूली साड़ियाँ  माँगा लूंगी. उसे यह क्या मालूम था कि बीच में बनारसी और रेशमी साड़ियों का ढेर लग जायगा. पहिले तो वह स्त्रियों की स्वाभाविक अत्यभिलाषा से इन चीजों को देखने लगी, मगर फिर यह चेत कर कि मेरा इस तरह चीज़ों पर गिरना उचित नहीं है, वह अलग हट गयी और बोली — “बाबू साहब! इस अनुग्रह के लिए मै आपको धन्यवाद देती हूँ, मगर यह भारी-भारी जोड़े मेरे किस काम के? मेरे लिए मोटी-झोरी साड़ियाँ चाहिए. मैं इन्हें पहनूंगी, तो कोई क्या कहेगा?”

अमृतराय — “तुमने ले लिया. मेरी मेहनत ठिकाने लगी, और मैं कुछ नहीं जानता.”

इतने में बिल्लो पहुँची और कमरे में बाबू साहब को देखते ही निहाल हो गयी. जब चौकी पर दृष्ठि पड़ी और इन चीजों को देखा तो बोली — “क्या इनके लिए आप बाजार गये थे. बूढ़ा कहार रो रहा था कि मेरी दस्तूरी मारी गयी.

अमृतराय (दबी जबान से) – “वह सब कहार मेरे नौकर हैं. मेरे लिए बाजार से चीजें लाते है. तुम्हारे सरकार का मै चाकर हूँ.”

बिल्लो यह सुनकर मुसकराती हुई भीतर चली गई. पूर्णा के कान में भी भनक पड़ गयी थी. बोली — “उल्टी बात न कहिए. मैं तो खुद आपकी चेरियो की चेरी हूँ.”

इसके बाद इधर-उधर की कुछ बातें हुई. माघ-पूस के दिन थे, सरदी खूब पड़ रही थी. बाबू साहब देर तक न बैठ सके और आठ बजते बजते वह अपने घर को सिधारे. उनके चले जाने के बाद पूर्णा ने जो संदूक खोला, तो दंग रह गयी. स्त्रियो के सिंगार की सब सामग्रियाँ मौज़ूद थीं और जो चीज थी सुंदर और उत्तम थी. आइना, कंघी, सुगंधित तेलों की शीशियाँ, भांति-भांति  के इत्र, हाथों के कंगन, गले का चंद्रहार, जड़ाऊ, एक रूपहला पानदान, लिखने पढ़ने के सामान से भरी एक संदूकची, किस्से-कहानी की किताबों, इनके अतिरिक्त और भी बहुत-सी चीजें बड़ी उत्तम रीति से सजाकर धरी हुई थी. कपड़ो का बेठन खोला, तो अच्छी से अच्छी साड़ियाँ दिखायी दी. शर्बती, धानी, गुलाबी, उन पर रेशम के बेल बूटे बने हुए. चादरें भारी सुनहरे काम की. बिल्लो इन चीजो को देख-देख फूली न समाती थी. बोली — “बहू! यह सब चीजें तुम पहनोगी, तो रानी हो जाओगी—रानी.”

पूर्णा (गिरी हुई आवाज में) – “कुछ भंग खा गयी हो क्या बिल्लों? मै यह चीजें पहनूंगी तो जीती बचूंगी? चौबाइन और सेठानी ताने दे-देकर जान ले लेगी.”

बिल्लो — “ताने क्या देंगी, कोई दिल्ल्गी है. इसमें उनके बाप का क्या जारा. कोई उनसे मांगने जाता है.”

पूर्णा ने महरी को आश्चर्य की आँखों से देखा. यही बिल्लो है, जो अभी दो घंटे पहले चौआइन और पडाइन से सम्मति करती थी और मुझे बार-बार पहनने-ओढ़ने से बर्जा करती थी. यकायक यह क्या कायापलट हो गयी. बोली — “कुछ संसार के कहने की भी तो लाज है.”

बिल्लो — “मैं यह थोड़ा ही कहती हूँ कि हरदम यह चीजें पहना करों. जब बाबू साहब आवें, थोड़ी देर के लिए पहन लिया.”

पूर्णा (लजाकर ) — “यह सिंगार करके मुझसे उनके सामने क्यों कर निकला जाएगा. तुम्हें याद है एक बार प्रेमा ने मेरे बाल गूंथ दिये थे. तुमसे क्या कहूं, उस दिन वह मेरी तरफ ऐसा ताकते थे, जैसे कोई किसी पर जादू करे. नहीं मालूम क्या बात है कि उसी दिन से वह जब कभी मेरी ओर देखते है, तो मेरी छाती धड़- धड़ करने लगती है. मुझसे जान-बूझकर फिर ऐसी भूल न होगी.”

बिल्लो — “बहू, उनकी मरजी ऐसी ही है, तो क्या करोगी, इन्हीं चीजों के लिए कल वह बाजार गये थे. सैकड़ों नौकर-चाकर है, मगर इन्हें आप जाकर लाये. तुम इनको न पहनोगी, तो वह अपने दिल में क्या कहेंगे?”

पूर्णा (आँखों में आँसू भरकर)  – “बिल्लो! बाबू अमृतराय नहीं मालूम क्या करने वाले है. मेरी समझ में नहीं आता कि क्या करूं. वह मुझसे दिन-दिन अधिक प्रेम बढ़ाते जाते है और मैं अपने दिल को क्या कहूं,  तुमसे कहते लज्जा आती है. वह अब मेरे कहने में नहीं रहा. मोहल्ले वाले अलग बदनाम कर रहे है. न जाने ईश्वर को क्या करना मंजूर है.”

बिल्लो ने इसका कुछ जवाब न दिया. पूर्णा ने भी उस दिन खाना न बनाया. सांझ ही से जाकर चारपाई पर लेट रही. दूसरे दिन सुबह को उठकर उसने वह किताबें पढ़ना शुरू की, जो बाबू सहाब लाये थे. ज्यों-ज्यों वह पढ़ती, उसको ऐसा मालूम होता कि कोई मेरी ही दुख की कहानी कह रहा है. इनके पढ़ने में जो जी लगा, तो इतवार का दिन आया. दिन निकलते ही बिल्लो ने हँसकर कहा — “आज बाबू साहब के आने का दिन है.”

पूर्णा (अनजान बनकर) – “फिर?”

बिल्लो — “आज तुमको ज़रूर गहने पहनने पड़ेगे.”

पूर्णा (दबी आवाज से) – “आज तो मेरे सिर में पीड़ा हो रही है.”

बिल्लो — “नौज, तुम्हारे बैरी का सर दर्द करे. इस बहाने से पीछा न छूटेगा.”

पूर्णा — “और जो किसी ने मुझे ताना दिया, तो तू जानना.”

बिल्लो — “ताना कौन रांड देगी.”

सबेरे ही से बिल्लो ने पूर्णा का बनाव-सिंगार करना शुरू किया. महीनों से सिर न मला गया था. आज सुगंधित मसाले से मला गया, तेल डाला गया, कंघी की गयी, बाल गूंथे गये और जब तीसरे पहर को पूर्णा ने गुलाबी कुर्ती पहनकर उस रेशमी काम की शर्बती सारी पहनी, गले मे हार और हाथों में कंगन सजाये, तो सुंदरता की मूर्ति मालूम होने लगी. आज तक कभी उसने ऐसे रत्न जड़ित गहने और बहुमूल्य कपड़े न पहने थे और न कभी ऐसी सुघर मालूम हुई थी. वह अपने मुखारविंद को आप देख-देख कुछ प्रसन्न भी होती थी, कुछ लजाती भी थी और कुछ शोच भी करती थी. सांझ हुई, तो पूर्णा कुछ उदास हो गयी. जिस पर भी उसकी आँखें दरवाजे पर लगी हुई थीं और वह चौंक कर ताकती थी कि कहीं अमृतराय तो नहीं आ गये. पाँच बजते-बजते और दिनों से सबेरे बाबू अमृतराय आये. कमरे में बैठे, बिल्लो से कुशलानंद पूछा और ललचायी हुई आँखों से अंदर के दरवाजे की तरफ ताकने लगे. मगर वहाँ पूर्णा न थीं, कोई दस मिनट तक तो उन्होंने चुपचाप उसकी राह देखी, मगर जब अब भी न दिखायी दी, तो बिल्लो से पूछा — “क्यों हरी, आज तुम्हारी सरकार कहाँ है?”

बिल्लो (मुस्कराकर) – “घर ही में तो है.”

अमृतराय — “तो आयी क्यों नहीं? क्या आज कुछ नाराज है क्या?”

बिल्लो (हँसकर)  – “उनका मन जाने.”

अमृतराय — “ज़रा जाकर लिवा जाओ. अगर नाराज हों, तो चलकर मनाऊं.”

यह सुनकर बिल्लो हँसती हुई अंदर गई और पूर्णा से बोली — “बहू, उठोगी या वह आप ही मनाने आते है.”

पूर्णा — “बिल्लो, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, जाकर कह दो, बीमार है.”

बिल्लो — “बीमारी का बहाना करोगी, तो वह डाक्टर को लेने चले जायेंगे.”

पूर्णा — “अच्छा, कह दो, सो रही है.”

बिल्लो — “तो क्या वह जगाने न आएंगे?”

पूर्णा — “अच्छा बिल्लो, तुम ही कोई बहाना कर दो, जिससे मुझे जाना न पड़े.”

बिल्लो — “मैं जाकर कहे देती हूँ कि वह आपको बुलाती हैं.”

पूर्णा को कोई बहाना न मिला. वह उठी और शर्म से सिर झुकाये, घूंघट निकाले, बदन को चुराती, लजाती, बल खाती, एक गिलौरीदान लिये दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई, अमृतराय ने देखा तो अचंभे में आ गये. आँखें चौंधिया गयीं. एक मिनट तक तो वह इस तरह ताकते रहे,, जैसे कोई लड़के खिलौने को देखे. इसके बाद मुस्कराकर बोले— “ईश्वर, तू धन्य है.”

पूर्णा (लजाती हुई) – “आप कुशल से थे?”

अमृतराय(तिरछी निगाहों से देखकर)  – “अब तक तो कुशल से था, मगर अब खैरियत नहीं नजर आती.”

पूर्णा समझ गयी, अमृतराय की रंगीली बातों का आनंद लेते-लेते वह बोलने में निपुण हो गयी थी. बोली — “अपने किये का क्या इलाज?”

अमृतराय — “क्या किसी को अपनी जान से बैर है?”

पूर्णा ने लजाकर मुँह फेर लिया. बाबू साहब हँसने लगे और पूर्णा की तरफ प्यार की निगाहों से देखा. उसकी रसिक बातें उनको बहुत भाई, कुछ काल तक और ऐसी ही रस भरी बातें होती रहीं. पूर्णा को इस बात की सुधि भी न थी कि मेरा इस तरह बोलना चालना मेरे लिए उचित नहीं है. उसको इस वक्त न पंडाइन का डर था, न पड़ोसियों का भय. बातों ही बातों में उसने मुस्कुराकर अमृतराय से पूछा — “आपको आजकल प्रेमा का कुछ समाचार मिला है?”

अमृतराय — “नहीं पूर्णा, मुझे इधर उनकी कुछ खबर नहीं मिली. हाँ, इतना जानता हूँ कि बाबू दाननाथ से ब्याह की बातचीत हो रही है.”

पूर्णा — “बाबू दाननाथ तो आपके मित्र है?”

अमृतराय — “मित्र भी है और प्रेमा के योग्य भी हैं.”

पूर्णा — “यह तो मैं न मानूंगी. उनका जोड़ है, तो आप ही से है. हाँ, आपका ब्याह भी तो कहीं ठहरा था?”

अमृतराय — “हाँ कुछ बातचीत हो रही थी.”

पूर्णा — “कब तक होने की आशा है?”

अमृतराय — “देखे अब कब भाग्य जागता है. मैं तो बहुत जल्दी मचा रहा हूँ.”

पूर्णा — “तो क्या उधर ही से खिंचाव है. आश्चर्य की बात है.”

अमृतराय — “नहीं पूर्णा, मैं ज़रा भाग्यहीन हूँ. अभी तक सिवाय बातचीत होने के और कोई बात तय नहीं हुई.”

पूर्णा (मुस्कुराकर)  – “मुझे अवश्य नवता दीजिएगा.”

अमृतराय — “तुम्हारे ही हाथों में तो सब कुछ है. अगर तुम चाहो, तो मेरे सिर सेहरा बहुत जल्द बंध जाए.”

पूर्णा भौचक होकर अमृतराय की ओर देखने लगी. उनका आशय अब की बार भी वह न समझी. बोली — “मेरी तरफ निश्चिंत रहिए. मुझसे जहाँ तक हो सकेगा, उठा न रखूंगी.”

अमृतराय — “इन बातों को याद रखना, पूर्णा, ऐसा न हो भूल जाओ, तो मेरे सब अरमान मिट्टी में मिल जायें.”

यह कहकर बाबू अमृतराय उठे और चलते समय पूर्णा की ओर देखा. उसकी आँखें डबडबायी हुई थी, मानो विनय कर रही थी कि ज़रा देर और बैठिए. मगर अमृतराय को कोइ जरूरी काम था धीरे से उठ खड़े हुए और बोले —“जी तो नही चाहता कि यहाँ से जाऊं मगर आज कुछ काम ही ऐसा आ पड़ा. यह कहा और चल दिये. पूर्णा खड़ी रोती रह गई.

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