चैप्टर 10 – प्रेमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 10 Prema Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 10 Prema Novel By Munshi Premchand

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प्रेमा भाग – 9 : और विवाह हो गया

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यह आँखों देखी बात है कि बहुत करके झूठी और बे-सिर पैर की बातें आप ही आप फैल जाया करती है, तो भला जिस बात में सच्चाई नाममात्र भी मिली हो, उसको फैलते कितनी देर लगती है? चारों ओर यही चर्चा थी कि अमृतराय उस विधवा ब्राह्मणी के घर बहुत आया जाया करता है. सारे शहर के लोग कसम खाने पर उद्यत थे कि इन दोनों में कुछ सांठ-गांठ ज़रुर है. कुछ दिनों से पंडाइन और चौबाइन आदि ने भी पूर्णा के बनाव-चुनाव पर नाक-भौं चढ़ाना छोड़ दिया था, क्योंकि उनके विचार में अब वह ऐसे बंधनों की भागी थी. जो लोग विद्वान थे और हिंदुस्तान के दूसरे देशों के हाल जानते थे, उनको इस बात की बड़ी चिंता थी कि कहीं यह दोनों नियोग न करे लें. हज़ारों आदमी इस घात मे थे कि अगर कभी रात को अमृतराय पूर्णा की ओर जाते पकड़े जायें, तो फिर लौट कर घर न जाने पावें. अगर कोई अभी तक अमृतराय की नीयत की सफाई पर विश्वास रखता था, तो वह प्रेमा थी. वह बेचारी विराहग्नि में जलते-जलते कांटा हो गई थी, मगर अभी तक उनकी मुहब्बत उसके दिल में वैसी ही बनी हुई थी. उसके दिल में कोई बैठा हुआ कह रहा था कि तेरा विवाह उनसे अवश्य होगा. इसी आशा पर उसके जीवन का आधार था. वह उन लोगों में थी, जो एक ही बार दिल का सौदा चुकाते है.

आज पूर्णा से वचन लेकर बाबू साहब बंगले पर पहुँचने भी न पाये थे कि यह ख़बर एक कान से दूसरे कान फैलने लगी और शाम होते-होते सारे शहर में यही बात गूंजने लगी. जो कोई सुनता उसे पहले तो विश्वास न आता. क्या इतने मान-मर्यादा के ईसाई हो गये हैं, बस उसकी शंका मिट जाती. वह उनको गालियाँ देता, कोसता. रात तो किसी तरह कटी. सवेरा होते ही मुंशी बद्रीप्रसाद के मकान पर सारे नगर के पंडित, विद्वान, धनाढ्य और प्रतिष्ठित लोग एकत्र हुए और इसका विचार होने लगा कि यह शादी कैसे रोकी जाए.
पंडित भृगुदत्त—विधवा विवाह वर्जित हैं कोई हमसे शास्त्रर्थ कर ले। वेदपुराण में कहीं ऐसा अधिकार कोई दिखा दे, तो हम आज पंडिताई करना छोड़ दें.

इस पर बहुत से आदमी चिल्लाये, हाँ, हाँ, ज़रुर शास्त्रार्थ हो.

शास्त्रार्थ का नाम सुनते ही इधर-उधर से सैकड़ों पंडित विद्यार्थी बग़लों में पोथियाँ दबाये, सिर घुटाये, अंगोछा कंधे पर रखे, मुँह में तंबाखू भरे, इकट्ठे हो गये और झक-झक होने लगी कि ज़रुर शास्त्रार्थ हो. पहले यह श्लोक पूछा जाय. उसका यह उत्तर दें, तो फिर यह प्रश्न किया जावे. अगर उत्तर देने में वह लोग साहित्य या व्याकरण में ज़रा भी चूके, तो जीत हमारे हाथ हो जाए. सैंकड़ों कठमुल्ले गंवार भी इसी मण्डली में मिलकर कोलाहल मचा रहे थे. मुंशी बद्रीप्रसाद ने जब इनको शास्त्रार्थ करने पर उतारू देखा, तो बोले — “किस से करोगे शास्त्रार्थ? मान लो वह शास्त्रार्थ न करें तब?”

सेठ धूनीमल — “बिना शास्त्रार्थ किये विवाह कर लेगें (धोती संभाल कर) थाने में रपट कर दूंगा.”

ठंकुर जोरावर सिंह (मूंछों पर ताव देकर) – “कोई ठट्ठा है ब्याह करना, सिर काट डालूंगा. लहू की नदी बह जाएगी.”

राव साहब — “बारता की बारात काट डाली जाएगी.”

इतने में सैकड़ों आदमी और आ डटे और आग में ईंधन लगाने लगे.

एक — “ज़रूर से ज़रूर सिर गंजा कर दिया जाए.”

दूसरा — “घर में आग लगा देंगे. सब बारात जल-भुन जाएगी.”

तीसरा — “पहले उस यात्री का गला घोंट देंगे.”

इधर तो यह हरबोंग मचा हुआ था, उधर दीवानखाने में बहुत से वकील और मुखतार रमझल्ला मचा रहे थे. इस विवाह को न्याय विरुद्ध साबित करने के लिए बड़ा उद्योग किया जा रहा था. बड़ी तेज़ी से मोटी-मोटी पुस्तकों के वरक उल्टे जा रहे थे. बरसों की पुरानी-धुरानी नज़ीरे पढ़ी जा रही थी कि कहीं से कोई दांव-पकड़ निकल आवे. मगर कई घण्टे तक सिर ख़पाने पर कुछ न हो सका. आखिर यह सम्मति हुई कि पहले ठाकुर ज़ोरावर सिंह अमृतराय को धमकावें. अगर इस पर भी वह न मानें, तो जिस दिन बारात निकले सड़क पर मारपीट की जाए. इस प्रस्ताव के बाद न माने, तो विसर्जन हुई. बाबू अमृतराय ब्याह की तैयारियों में लगे हुए थे कि ठाकुर ज़ोरावर सिंह का पत्र पहुँचा.

उसमें लिखा था—

‘बाबू अमृतराय को ठाकुर ज़ोरावर सिंह का सलाम-बंदगी बहुत-बहुत तरह से पहुँचे. आगे हमने सुना है कि आप किसी विधवा ब्राह्मणी से विवाह करने वाले हैं. हम आपसे कहे देते हैं कि भूल कर भी ऐसा न कीजिएगा, नहीं तो आप जाने और आपका काम.’

ज़ोरावर सिंह एक धनाढ्य और प्रतिष्ठित आदमी होने के उपरांत उस शहर के लठैंतों और बांके आदमियों का सरदार था और कई बार बड़े-बड़ों को नीचा दिखा चुका था. उसकी धमकी ऐसी न थी कि अमृतराय पर उसका कुछ असर न पड़ता. चिट्ठी को देखते ही उनके चेहरे का रंग उड़ गया. सोचने लगे कि ऐसी कौन-सी चाल चलूं कि इसको अपना आदमी बना लूं कि इतने में दूसरी चिट्ठी पहुँची. यह गुमनाम थी और उसका आशय भी पहली चिट्ठी से मिलता था. इसके बाद शाम होते-होते सैंकड़ो गुमनाम चिट्ठियाँ आयीं. कोई कहता था कि अगर फिर ब्याह का नाम लिया, तो घर में आग लगा देंगे. कोई सिर काटने की धमकी देता था. कोई पेट में छुरी भोंकने के लिए तैयार था और कोई मूँछ के बाल उखाड़ने के लिए चुटकियाँ गर्म कर रहा था. अमृतराय यह तो जानते कि शहर वाले विरोध अवश्य करेंगे, मगर उनको इस तरह की राड़ का गुमान भी न था. इन धमकियों ने ज़रा देर के लिए उन्हें भय में डाल दिया. अपने से अधिक खटका उनको पूर्णा के बारे में था कि कहीं यही सब दुष्ट उसे न कोई हानि पहुँचावें. उसी दम कपड़े पहिन, पैरगाड़ी पर सवार होकर चटपट मजिस्ट्रेट की सेवा में उपस्थित हुए और उनसे पूरा-पूरा वृत्तांत कहा. बाबू साहब का अंग्रेंजों में बहुत मान था. इसलिए नहीं कि वह ख़ुशामदी थे या अफसरों की पूजा किया करते थे, किंतु इसलिए कि वह अपनी मर्यादा रखना आप जानते थे. साहब ने उनका बड़ा आदर किया. उनकी बातें बड़े ध्यान से सुनी. सामाजिक सुधार की आवश्कता को माना और पुलिस के सुपरिइंटेण्डेट को लिखा कि आप अमृतराय की रक्षा के वास्ते एक गार्ड रवाना कीजिए और ख़बर लेते रहिए कि मारपीट, खूनखराबा न हो जाये. सांझ होते—होते तीस सिपाहियों का एक गार्ड बाबू साहब के मकान पर पहुँच गया, जिनमें से पाँच बलवान आदमी पूर्णा के मकान की हिफ़ाजत करने के लिए भेज गये.

शहर वालों ने जब देखा कि बाबू साहब ऐसा प्रबंध कर रहे हैं, तो और भी झल्लाये. मुंशी बद्रीप्रसाद अपने सहायकों को लेकर मजिस्ट्रेट के पास पहुँचे और दुहाई मचाई कि अगर वह विवाह रोक न दिया गया, तो शहर में बड़ा उपद्रव होगा और बलवा हो जाने का डर है. मगर साहब समझ गये कि यह लोग मिलजुल कर अमृतराय को हानि पहुँचाना चाहते हैं. मुंशजी से कहा कि सरकार किसी आदमी की शादी-विवाह में विघ्न डालना नियम के विरुद्ध है. जब तक कि उस काम से किसी दूसरे मनुष्य को कोई दुख न हो. यह टका-सा जवाब पाकर मुंशी जी बहुत लज्जित हुए. वहाँ से जल-भुनकर मकान पर आये और अपने सहायकों के साथ बैठकर फैसला किया कि ज्यों ही बारात निकले, उसी दम पचास आदमी उस पर टूट पड़ें. पुलिसवालों की भी खबर लें और अमृतराय की भी हड्डी-पसली तोड़कर धर दें.

बाबू अमृतराय के लिए यह समय बहुत नाजुक था. मगर वह देश का हितैषी तन-मन-धन से इस सुधार के काम में लगा हुआ था. विवाह का दिन आज से एक सप्ताह पीछे नियत किया गया, क्योंकि ज्यादा विलंब करना उचित न था और यह सात दिन बाबू साहब ने ऐसी हैरानी में काटे कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता. प्रतिदिन वह दो कांस्टेबलों के साथ पिस्तौलों की जोड़ी लगाये दो बार पूर्णा के मकान पर आते. वह बेचारी मारे डर के मरी जाती थी. वह अपने को बार-बार कोसती कि मैंने क्यों उनको आशा दिलाकर यह जोखिम मोल ली. अगर इन दुष्टों ने कहीं उन्हें कोई हानि पहुँचाई, तो वह मेरी ही नादानी का फल होगा. यद्यपि उसकी रक्षा के लिए कई सिपाही नियत थे, मगर रात-रात भर उसकी आँखों में नींद न आती. पत्ता भी खड़कता, तो चौंककर उठ बैठती. जब बाबू साहब सबेरे आकर उसको ढाढस देते, तो जाकर उसके जान में जान आती.

अमृतराय ने चिट्ठियाँ तो इधर-उधर भेज ही दी थीं. विवाह के तीन-चार दिन पहले से मेहमान आने लगे. कोई मुंबई से आता था, कोई मद्रास से, कोई पंजाब से और कोई बंगाल से. बनारस में सामाजिक सुधार के विराधियों का बड़ा ज़ोर था और सारे भारतवर्ष के रिफ़ार्मरों के जी में लगी हुई थी कि चाहे जो हो, बनारस में सुधार के चमत्कार फैलाने का ऐसा अपूर्व समय हाथ से न जाने देना चाहिए, वह इतनी दूर-दूर से इसलिए आते थे कि सब काशी की भूमि में रिफ़ार्म की पताका अवश्य गाड़ दें. वह जानते थे कि अगर इस शहर में यह विवाह हो, तो फिर इस सूबें के दूसरे शहरों के रिफ़ार्मरों के लिए रास्ता खुल जायगा. अमृतराय मेहमानों की आवभगत में लगे हुए थे और उनके उत्साही चेले साफ-सुथरे कपड़े पहने स्टेशन पर जा-जाकर मेहमानों को आदरपूर्वक लाते और उन्हें सजे हुए कमरों में ठहराते थे. विवाह के दिन तक यहाँ कोई डेढ़ सौ मेहमान जमा हो गये. अगर कोई मनुष्य सारे आर्यावर्त की सभ्यता, स्वतंत्रता, उदारता और देशभक्ति को एकत्रित देखना चाहता था, तो इस समय बाबू अमृतराय के मकान पर देख सकता था. बनारस के पुरानी लकीर पीटने वाले लोग इन तैयारियों और ऐसे प्रतिष्ठित मेहमानों को देख-देख दांतों उंगली दबाते. मुंशी बद्रीप्रसाद और उनके सहायकों ने कई बार धूम-धाम से जनसे किये. हर बार यही बात तय हुई कि चाहे जो हो, मारपीट ज़रुर की जाए. विवाह क पहले शाम को बाबू अमृतराय अपने साथियों को लेकर पूर्णा के मकान पर पहुँचे और वहाँ उनको बरातियों के आदर-सम्मान का प्रबंध करने के लिए ठहरा दिया. इसके बाद पूर्णा के पास गये. इनको देखते ही उसकी आँखों में आँसू भर आये.

अमृत (गले से लगाकर) – “प्यारी पूर्णा, डरो मत. ईश्वर चाहेगा, तो बैरी हमारा बाल भी बांका न कर सकेंगे. कल जो बरात यहाँ आयेगी, वैसी आज तक इस शहर मे किसी के दरवाज़े पर न आयी होगी.”

पूर्णा — “मगर मैं क्या करूं? मुझे मालूम होता है कि कल ज़रुर मारपीट होगी. चारों ओर से यह खबर सुन-सुन मेरा जी आधा हो रहा है. इस वक्त भी मुंशी जी के यहाँ लोग जमा हैं.”

अमृत — “प्यारी तुम इन बातों को ज़रा भी ध्यान में न लाओं. मुंशी जी के यहाँ तो ऐसे जलसे महीनों से हो रहे हैं और सदा हुआ करेंगे. इसका क्या डर? दिल को मजबूत रखो. बस, यह रात और बीच है. कल प्यारी पूर्णा मेरे घर पर होगी. आह वह मेरे लिए कैसे आनंद का समय होगा.”

पूर्णा यह सुनकर अपना डर भूल गयी. बाबू साहब को प्यारी की निगाहों से देखा और जब चलने लगे, तो उनके गले से लिपट कर बोली — “तुमको मेरी कसम, इन दुष्टों से बचे रहना.”

अमृतराय ने उसे छाती से लगा लिया और समझा-बुझाकर अपने मकान को रवाना हुए.

पहर रात गये, पूर्णा के मकान पर, कई पंडित रेश्मी बाना सजे, गले में फूलों का हार डाले आये, विधिपूर्वक लक्ष्मी की पूजा करने लगे. पूर्णा सोलहों सिंगार किये बैठी हुई थी. चारों तरफ गैस की रोशनी से दिन के समान प्रकाश हो रहा था. कांस्टेबल दरवाज़े पर टहल रहे थे. दरवाज़े का मैदान साफ़ किया जा रहा था और शामियाना खड़ा किया जा रहा थ. कुर्सियाँ लगायी जा रही थीं, फर्श बिछाया गया, गमले सजाये गये. सारी रात इन्हीं तैयारियों में कटी और सबेरा होते ही बारात अमृतराय के घर से चली.”

बारात क्या थी? सभ्यता और स्वाधीनता की चलती-फिरती तस्वीर थी. न बाजे का धड़-धड़ पड़-पड़, न बिगुलों की धों धों पों पों, न पालकियों का झुर्मट, न सजे हुए घोड़ों की चिल्लापों, न मस्त हाथियों का रेलपेल, न सोंटे बल्लमवालों की कतारा, न फुलवाड़ी, न बगीचे, बल्कि भले मानुषों की एक मंडली थी, जो धीरे-धीरे कदम बढ़ाती चली जा रही थी. दोनों तरफ जंगी पुलिस के आदमी वर्दियाँ डांटे सोंटे लिये खड़े थे. सड़क के इधर-उधर झुंड के झुंड आदमी लंबी-लंबी लाठियाँ लिये एकत्र थे और बारात की ओर देख-देख दांत पीसते थे. मगर पुलिस का वह रोब था कि किसी को चूं करने का भी साहस नहीं होता था. बारातियों से पचास कदम की दूरी पर रिजर्व पुलिस के सवार हथियारों से लैस, घोड़ों पर रान पटरी जमाये, भाले चमकाते ओर घोड़ों को उछालते चले जाते थे. तिस पर भी सबको यह खटका लग हुआ था कि कहीं पुलिस के भय का यह तिलिस्म टूट न जाए. यद्यपि बारातियों के चेहरे से घबराहट लेशमात्र भी न पाई जाती थी, तथापि दिल सबके धड़क रहे थे. ज़रा भी सटपट होती, तो सबके कान खड़े हो जाते. एक बार दुष्टों ने सचमुच धावा कर ही दिया. चारों ओर हलचल मच गई. मगर उसी दम पुलिस ने भी डबल मार्च किया और दम की दम मे कई फ़सादियों की मुशके कस लीं. फिर किसी को उपद्रव मचाने का साहस न हुआ. किसी तरह घंटे भर में बारात पूर्णा के मकान पर पहुँची. यहाँ पहले से ही बारातियों के शुभागमन का सामान किया गया था. आंगन में फर्श लगा हुआ था. कुर्सियाँ धरी हुई थीं और बीचों-बीच में कई पूज्य ब्राह्मण हवनकुण्ड के किनारे बैठकर आहुति दे रहे थे. हवन की सुगंध चारों ओर उड़ रही थी. उस पर मंत्रों के मीठे-मीठे मध्यम और मनोहर स्वर जब कान में आते, तो दिल आप ही उछलने लगता. जब सब बारती बैठ गये, तब उनके माथे पर केसर और चंदन मला गया. उनके गलों में हार डाले गये और बाबू अमृतराय पर सब आदमीयों ने पुष्पों की वर्षा की. इसके पीछे घर मकान के भीतर गया और वहाँ विधिपूर्वक विवाह हुआ. न गीत गाये गये, न गाली-गलौज की नौबत आयी, न नेगचार का उधम मचा.

भीतर तो शादी हो रही थी, बाहर हज़ारों आदमी लाठियाँ और सोंटे लिए गुल मचा रहे थे. पुलिसवाले उनको रोके हुए मकान के चौगिर्द खड़े थे. इसी बीच में पुलिस का कप्तान भी आ पहुँच. उसने आते ही हुक्म दिया कि भीड़ हटा दी जाए और उसी दम पुलिसवालों ने सोंटों से मार-मार कर इस भीड़ को हटाना शुरू किया. जंगी पुलिस ने डराने के लिए बंदूकों की दो-चार बाढ़े हवा में सर कर दी. अब क्या था, चारो ओर भगदड़ मच गयी. लोग एक पर एक गिरने लगे. मगर ठीक उसी समय ठाकुर जोरावर सिंह बांकी पगिया बांधे, रजपूती बाना सजे, दोहरी पिस्तौल लगाये दिखाई दिया. उसकी मूँछें खड़ी थी. आँखों से अंगारे उड़ रहे थे. उसको देखते ही वह लोग, जो छितिर-बितिर हो रहे थे, फिर इकट्ठा होने लगो, जैसे सरदार को देखकर भागती हुई सेना दम पकड़ ले. देखते ही देखते हज़ार आदमी से अधिक एकत्र हो गये और तलवार के धनी ठाकुर ने एक बार कड़क कर कहा — “जै दुर्गा जी की, वहीं सारे दिलों में मानो बिजली कौंध गयी, जोश भड़क उठा. तेवरियों पर बल पड़ गये और सब के सब नदी की तरह उमड़ते हुए आगे को बढ़े. जंगी पुलिसवाले भी संगीने चढ़ाये, साफ़ बांधे, डटे खड़े थे. चारों ओर भयानक सन्नाटा छाया हुआ था. धड़का लगा हुआ था कि अब कोई दम में लहू की नदी बहाना चाहती है. कप्तान ने जब इस बाढ़ को अपने ऊपर आते देखा, तो अपने सिपाहियों को ललकारा और बड़े जीवट से मैदान में आकर सवारों को उभारने लगा कि यकायक पिस्तौल की आवाज़ आयी और कप्तान की टोपी ज़मीन पर गिर पड़ी, मगर घाव ओछा लगा. कप्तान ने देख लिया था कि यह पिस्तौल जोरावर सिंह ने सर की है. उसने भी चट अपनी बंदूक संभाली और निशाने का लगाना था कि धांय से आवाज़ हुई और जोरावर सिंह चारों खाने चित्त जमीन पर आ रहा. उसके गिरते ही सबके हियाव छूट गये. वे भेड़ों की भांति भागने लगे. जिसकी जिधर सींग समाई चल निकला. कोई आधा घण्टे में वहाँ चिड़िया का पूत भी न दिखायी दिया.

बाहर तो यह उपद्रव मचा था, भीतर दुलहा-दुलहिन मारे डर के सूखे जाते थे. बाबू अमृतराय जी दम-दम की खबर मंगाते और थर-थर कांपती हुई पूर्णा को ढारस देते. वह बेचारी रो रही थी कि मुझ अभागिनी के लिए माथा पिटौवल हो रही है कि इतने में बंदूक  छूटी. ‘या नारायण अब की किसकी जान गई’ अमृतराय घबराकर उठे कि ज़रा बाहर जाकर देखें, मगर पूर्णा से हाथ न छुड़ा सके. इतने में एक आदमी ने फिर आकर कहा — “बाबू साहब ठाकुर ढेर हो गये. कप्तान ने गोली मार दी.”

आधा घण्टे में मैदान साफ़ हो गया और अब यहाँ से बरात की विदाई की ठहरी. पूर्णा और बिल्लो एक सेजगाड़ी में बिठाई गई और जिस सज-धज से बरात आयी थी, उसी तरह वापस हुई. अब की किसी को सिर उठाने का साहस नहीं हुआ. इसमें संदेह नहीं कि इधर-उधर झुंड आदमी जमा थे और इस मंडली को क्रोध की निगाहों से देख रहे थे. कभी-कभी मनचला जवान एकाध पत्थर भी चला देता था. कभी तालियाँ बजायी जाती थीं, मुँह चिढ़ाया जाता था, मगर इन शरारतों से ऐसे दिल के पोढ़े आदमियों की गंभीरता में क्या विघ्न पड़ सकता था. कोई आधा घण्टे में बरात ठिकाने पर पहुँची. दुल्हिन उतारी गयी और बरातियों की जान में जान आयी. अमृतराय की खुशी का क्या पूछना? वह दौड़-दौड़ सबसे हाथ मिलाते फिरते थे. बांछे खिली जाती थीं. ज्योंही दुल्हिन उस कमरे में पहुँची, जो स्वयं आप ही दुल्हिन की तरह सजा हुआ था, तो अमृतराय ने आकर कहा — “प्यारी, लो हम कुशल से पहुँच गये. ऐं, तुम तो रो रही हो…यह कहते हुए उन्होंने रुमाल से उसके आँसू पोंछे और उसे गले से लगाया.

प्रेम रस की माती पूर्णा ने अमृतराय का हाथ पकड़ लिया और बोली — “आप तो आज ऐसे प्रसन्नचित्त हैं, मानो कोई राज मिल गया है.”

अमृत (लिपटाकर) – “कोई झूठ है, जिसे ऐसी रानी मिले उसे राज की क्या परवाह?”

आज का दिन आनंद में कटा. दूसरे दिन बरातियों ने बिदा होने की आज्ञा मांगी. मगर अमृतराय की यह सलाह हुई कि लाला धनुषधारीलाल कम से कम एक बार सबको अपने व्याख्यान से कृतज्ञ करें. यह सलाह सबको पसंद आयी. अमृतराय ने अपने बगीचे में एक बड़ा शामियान खड़ा करवाया और बड़े उत्सव से सभा हुई. वह धुआंधार व्याख्यान हुए कि सामाजिक सुधार का गौरव सबके दिलों में बैठे गया. फिर तो दो जलसे और भी हुए और दूने धूमधाम के साथ. सारा शहर टूट पड़ता था. सैंकड़ों आदमियों का जनेऊ टूट गय. इस उत्सव के बाद दो विधवा विवाह और हुए. दोनों दूल्हे अमृतराय के उत्साही सहायकों में थे और दुल्हनों में से एक पूर्णा के साथ गंगा नहाने वाली रामकली थी. चौथे दिन सब नेवतहरी विदा हुए. पूर्णा बहुत कन्नी काटती फिरी, मगर बरातियों के आग्रह से मज़बूर होकर उनसे मुलाकात करनी ही पड़ी और लाला धनुषधारीलाल ने तो तीन दिन उसे बराबर स्त्री-धर्म की शिक्षा दी.

शादी के चौथे दिन बाद पूर्णा बैठी हुई थी कि एक औरत ने आकर उसके एक बंद लिफ़ाफा दिया. पढ़ा तो प्रेमा का प्रेम-पत्र था. उसने उसे मुबारकबादी दी थी और बाबू अमृतराय की वह तस्वीर, जो बरसों से उसके गले का हार हो रही थी, पूर्णा के लिए भेज दी थी. उस ख़त की आखिरी सतरें यह थीं—

‘सखी, तुम बड़ी भाग्यवती हो. ईश्वर सदा तुम्हारा सुहाग कायम रखे. तुम्हारे पति की तस्वीर तुम्हारे पास भेजती हूँ. इसे मेरी यादगार समझना. तुम जानती हो कि मैं इसको जान से ज्यादा प्यारी समझती रही. मगर अब मैं इस योग्य नहीं कि इसे अपने पास रख सकूं. अब यह तुमको मुबारक हो. प्यारी, मुझे भूलना मत. अपने प्यारे पति को मेरी ओर से धन्यवाद देना.
तुम्हारी अभागिनी सखी—
‘प्रेमा’

अफ़सोस आज के पंद्रहवे दिन बेचारी प्रेमा बाबू दाननाथ के गले बांध दी गयी. बड़े धूमधम से बरात निकली. हज़ारों रुपया लुटा दिया गया. कई दिन तक सारा शहर मुंशी बद्रीप्रसाद के दरवाज़े पर नाच देखता रहा. लाखों का वारा-न्यारा हो गया. ब्याह के तीसरे ही दिन मुंशी जी परलोक को सिधारे. ईश्वर उनको स्वर्गवास दे.

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