चैप्टर 12 – प्रेमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 12 Prema Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter 12 Prema Novel By Munshi Premchand

Table of Contents

Chapter 12 Prema Novel By Munshi Premchand

प्रेमा भाग – 12 : एक स्त्री के दो पुरुष नहीं हो सकते

Chapter 1 | 2 | 34567 | 8 | 91011 |1213 |

Prev Part | Next Part

प्रेमा का ब्याह हुए दो महीने से अधिक बीत चुके हैं, मगर अभी तक उसकी अवस्था वही है, जो कुंवारेपन में थी. वह हरदम उदास और मलिन रहती है. उसका मुख पीला पड़ गया. आँखें बैठी हुई, सिर के बाल बिखरे, उसके दिल में अभी तक बाबू अमृतराय की मुहब्बत बनी हुई है. उनकी मूर्ति हरदम उसकी आँखों के सामने नाचा करती है. वह बहुत चाहती है कि उनकी सूरत ह्रदय से निकाल दे, मगर उसका कुछ बस नहीं चलता. यद्यपि बाबू दाननाथ उससे सच्चा प्रेम रखते हैं और बड़े सुंदर, हँसमुख, मिलनसार मनुष्य हैं. मगर प्रेमा का दिल उनसे नहीं मिलता. वह उनसे प्रेम-भाव दिखाने में कोई बात उठा नहीं रखती. जब वह मौजूद होते हैं, तो वह हँसती भी हैं, बातचीत भी करती है, प्रेम भी जताती है, मगर जब वह चले जाते हैं, तब उसके मुख पर फिर उदासी छा जाती है. उसकी सूरत फिर वियोगिन की-सी हो जाती है. अपने मैके में उसे रोने की कोई रोक-टोक न थी. जब चाहती और जब तक चाहती, रोया करती थी. मगर यहाँ रो भी नहीं सकती या रोती भी है तो छिपकर. उसकी बूढ़ी सास उसे पान की तरह फेरा करती है, केवल इसलिए नहीं कि वह उसके पास और दबाव मानती है बल्कि इसलिए कि वह अपने साथ बहुत-सा दहेज लायी है. उसने सारी गृहस्थी पतोहू के ऊपर छोड़ रखी है और हरदम ईश्वर से विनय किया करती है कि पोता खेलाने के दिन जल्द आये.

बेचारी प्रेमा की अवस्था बहुत ही शोचनीय और करुणा के योग्य है. वह हँसती है, तो उसकी हँसी में रोना मिला होता है. वह बातचीत करती है, तो ऐसा जान पड़ता है कि अपने दुख की कहानी कह रही है. बनाव-सिंगार से उसकी तनिक भी रुचि नहीं है. अगर कभी सास के कहने-सुनने से कुछ सजावट करती भी है, तो उस पर नहीं खिलता. ऐसा मालूम होता है कि इसकी कोमल गात में जो मोहिन थी, वह रुठ कर कहीं और चली गयी. वह बहुधा अपने ही कमरे में बैठी रहती है. हाँ, कभी-कभी गाकर दिल बहलाती है. मगर उसका गाना इसलिए नहीं होता कि उससे चित्त को आनंद प्राप्त हो, बल्कि वह मधुर स्वरों में विलाप और विषाद के राग गाया करती है.

बाबू दाननाथ इतना तो शादी करने के पहले ही जानते थे कि प्रेमा अमृतराय पर जान देती है. मगर उन्होंने समझा था कि उसकी प्रीति साधारण होगी. जब मैं उसको ब्याह कर लाऊंगा, उससे स्नेह, बढ़ाऊंगा, उस पर अपने को निछावर कररूंगा, तो उसके दिल से पिछली बातें मिट जायेंगी और फिर हमारी बड़े आनद से कटेगी. इसलिए उन्होंने एक महीने के लगभग प्रेमा के उदास और मलिन रहने की कुछ परवाह न की. मगर उनको क्या मालूम था कि स्नेह का वह पौधा, जो प्रेम-रस से सींच-सींच कर परवान चढ़ाया गया है, महीने-दो महीने में कदापि नहीं मुरझा सकता. उन्होंने दूसरे महीने भर भी इस बात पर ध्यान न दिया. मगर जब अब भी प्रेमा के मुख से उदासी की घटा हटते न दिखायी दी, तब उनको दुख होने लगा. प्रेम और ईर्ष्या का चोली-दामन का साथ है. दाननाथ सच्चा प्रेम देखते थे, मगर सच्चे प्रेम के बदले में सच्चा प्रेम चाहते भी थे. एक दिन वह मालूम से सबेर मकान पर आये और प्रेमा के कमरे में गये, तो देखा कि वह सिर झुकाये हुए बैठी है. इनको देखते ही उसने सिर उठाया और आँचल से आँसू पोंछ उठ खड़ी हुई और बोली — “मुझे आज न मालूम क्यों लाला जी की याद आ गयी थी. मैं बड़ी देर से रो रही हूँ.”

दाननाथ ने उसको देखते ही समझ लिया था कि अमृतराय के वियोग में आँसू बहाये जा रहे हैं. इस पर प्रेमा ने जो यों हवा बतलायी तो उनके बदन में आग लग गयी. तीखे चितवनों से देखकर बोले — “तुम्हारी आँखें हैं और तुम्हारे आँसू, जितना रोया जाय रो लो. मगर मेरी आँखों में धूल मत झोंको.”

प्रेमा इस कठोर वचन को सुनकर चौंक पड़ी और बिना कुछ उत्तर दिये पति की ओर डबडबाई हुई आँखों से ताकने लगी. दाननाथ ने फिर कहा — “क्या ताकती हो, प्रेमा? मैं ऐसा मूर्ख नहीं हूँ, जैसा तुम समझती हो. मैंने भी आदमी देखे हैं और मैं भी आदमी पहचानता हूँ. मैं तुम्हारी एक-एक बात की गौर से देखता हूँ. मगर जितना ही देखता हूँ, उतना ही चित्त को दुख होता है, क्योंकि तुम्हारा बर्ताव मेरे साथ फीका है. यद्यपि तुमको यह सुनना अच्छा न मालूम होगा, मगर हार कर कहना पड़ता है कि तुमको मुझसे लेश-मात्र भी प्रेम नहीं है. मैंने अब तक इस विषय में ज़बान खोलने का साहस नहीं किया था और ईश्वर जानता है कि तुमसे किस क़दर मुहब्बत करता हूँ. मगर मुहब्बत सब कुछ सह सकती है, रुखाई नहीं सह सकती और वह भी कैसी रुखाई, जो किसी दूसरे पुरुष के वियोग में उत्पन्न हुई हो. ऐसा कौन बेहय, निर्लज्ज आदमी होगा, जो यह देखे कि उसकी पत्नी किसी दूसरे के लिए वियोगिन बनी हुई है और उसका लहू उबलने न लगे और उसके ह्रदय में क्रोध की ज्वाला धधक न उठे. क्या तुम नहीं जानती हो कि धर्मशास्त्र के अनुसार स्त्री अपने पति के सिवाय किसी दूसरे मनुष्य की ओर कुदृष्टि से देखने से भी पाप की भागी हो जाती है और उसका पतिव्रत भंग हो जाता है.

प्रेमा तुम एक बहुत ऊँचे घराने की बेटी हो और जिस घराने की तुम बहू हो, वह भी इस शहर में किसी से हेठा नहीं. क्या तुम्हारे लिए यह शर्म की बात नहीं है कि तुम एक बाज़ारों की घूमने वाली रांड ब्राह्मणीं के तुल्य भी न समझी जाओ और वह कौन है, जिसने तुम्हारा ऐसा निरादर किया? वही अमृतराय, जिसके लिए तुम आठों पहर मोती पिरोया करती हो. अगर उस दुष्ट के ह्रदय में तुम्हारा कुछ भी प्रेम होता, तो वह तुम्हारे पिता के बार-बार कहने पर भी तुमको इस तरह धता न बताता. कैसे खेद की बात हैं? इन्हीं आँखों ने उसे तुम्हारी तस्वीर को पैरो से रौंदते हुए देखा है. क्या तुमको मेरी बातों का विश्वास नहीं आता? क्या अमृतराय के कर्तव्य से नहीं विदित होता है कि उनको तुम्हारी रत्ती-भर भी परवाह नहीं हैं. क्या उन्होंने डंके की चोट पर नहीं साबित कर दिया कि वह तुमको तुच्छ समझते है? माना कि कोई दिन ऐसा था कि वह विवाह करने की अभिलाषा रखते थे, पर अब तो वह बात नहीं रही. अब वह अमृतराय है, जिसकी बदचलनी की सारे शहर में धूम मची हुई है. मगर शोक और अति शोक की बात है कि तुम उसके लिए आँसू बहा-बहाकर अपने मेरे खानदान के माथे कालिख का टीका लगाती हो.
दाननाथ मारे क्रोध के कांप रहे थे. चेहरा तमतमाया हुआ था. आँखों से चिंगारी निकल रही थी. बेचारी प्रेमा सिर नीचा किये हुए खड़ी रो रही थी. पति की एक-एक बात उसके कलेजे के पार हुई जाती थी. आखिर न रहा गया. दाननाथ के पैरों पर गिर पड़ी और उन्हें गर्म-गर्म आँसू की बूंदों से भिगो दिया. दाननाथ ने पैर खसका लिया. प्रेमा को चारपाई पर बैठा दिया ओर बोले — “प्रेमा, रोओ मत! तुम्हारे रोने से मेरे दिल पर चोट लगती है. मैं तुमको रुलाना नहीं चाहता, परन्तु उन बातों को कहें बिना रह भी नहीं सकता. अगर यह दिल में रह गई, तो नतीजा बुरा पैदा करेगी. कान खोलकर सुनो, मैं तुमको प्राण से अधिक प्यार करता हूँ, तुमको आराम पहुँचाने के लिए हाज़िर हूँ. मगर तुमको सिवाय अपने किसी दूसरे का ख़याल करते नहीं देख सकता. अब तक न जाने कैसे-कैसे मैंने दिल को समझाया. मगर अब वह मेरे बस का नहीं. अब वह यह जलन नहीं सह सकता. मैं तुमको चेताये देता हूँ कि यह रोना-धोना छोड़ो. यदि इस चेताने पर भी तुम मेरी बात न मानो, तो फिर मुझे दोष मत देना. बस इतना कहे देता हूँ कि स्त्री के दो पति कदापि जीते नहीं रह सकते.

यह कहते हुए बाबू दाननाथ क्रोध में भरे बाहर चले आये. बेचारी प्रेमा को ऐसा मालूम हुआ कि मानो किसी ने कलेजे में छुरी मार दी. उसको आज तक किसी ने भूलकर भी कड़ी बात नहीं सुनायी थी. उसकी भावज कभी-कभी ताने दिया करती थी, मगर वह ऐसा न होते थे. वह घंटों रोती रही. इसके बाद उसने पति की सारी बातों पर विचार करना शुरु किया और उसके कानों में यह शब्द गूंजने लगे – ‘एक स्त्री के दो पति कदापि जीते नहीं रह सकते.’

इनका क्या मतलब है?

Prev Part | Next Part

Chapter 1 | 2 | 34567 | 8 | 91011 |1213 |

पढ़ें : निर्मला लोकप्रिय लेखक स्व. मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

पढ़ें : चंद्रकांता लोकप्रिय लेखक स्व.  देवकी नंदन खत्री का उपन्यास

पढ़ें : ज़िन्दगी गुलज़ार है मशहूर उर्दू लेखिका उमरा अहमद का नॉवेल 

 

Leave a Comment