चैप्टर 11 : कुएँ का राज़ ~ इब्ने सफ़ी का नावेल हिंदी में | Chapter 11 Kuen Ka Raaz Ibne Safi Novel In Hindi

Chapter 11 Kuen Ka Raaz Novel In Hindi

Chapter 11 Kuen Ka Raaz Novel In Hindi

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हैरत

फ़रीदी के कमर में लटके पिंजरे से भी अजीब किस्म की आवाजें आने लगी थीं. शायद नेवला साँपों की फुफुकार सुनकर अपने गुस्से का इज़हार कर रहा था. फ़रीदी के बाजू थक गए थे. हर बार उसे यह लगा था, जैसे अब रस्सी उसके हाथ से निकल जायेगी. उसने एक चौड़े कगार पर खड़े होकर जेब से टॉर्च निकाली और उसकी रोशनी में नीचे की तरफ़ देखने लगा. अभी वह सिर्फ़ आधी दूर गया था. गर्मी की वजह से उसका दम घुटा जा रहा था. उसने मुँह ऊपर करके दो-तीन गहरी-गहरी साँसे ली और फिर नीचे उतरने लगा. बहरहाल, बहुत ही मुश्किलों के बाद वह कुएँ के तल तक पहुँचा. उसके सारे कपड़े पसीने में इस तरह डूबे हुए थे, जैसे वह काफ़ी देर तक बारिश में भीगता रहा हो. टॉर्च की रोशनी में वह कुएँ की तह का जायज़ा लेने लगा. थोड़ी देर बाद उसे ऐसा लगा, जैसे उसकी मेहनत बेकार गयी हो. कुएँ में ज्यादा देर तक ठहरना एक तरह से मौत को दावत देना था. साँपों की मौजूदगी की वजह से उसे इत्मिनान था, लेकिन गर्मी. ख़ुदा की पनाह…फ़रीदी की जगह अगर कोई कमज़ोर दिल-ओ-दिमाग का आदमी होता, तो अब तब कभी का बेहोश हो गया होता.

थक-हारकर उसने ऊपर चढ़ने का इरादा किया. रस्सी पकड़ कर जैसे ही उसने अपना पैर उठाया, दूसरा पैर कुएँ की दीवार से टकरा गया और एक अजीब किस्म की आवाज़ हुई. फ़रीदी चौंककर फिर नीचे उतर गया. जहाँ पैर लगा था, उस जगह को गौर से देखने लगा. फिर उसे उंगलियों से धीरे-धीरे खटखटाया.

“ओह मेरे ख़ुदा….!” उसके मुँह से अपने आप निकल गया.

दीवार का यह हिस्सा टीन का बना हुआ था. लेकिन उसे इस तरह बनाया गया था कि देखने में ईंटों की जुड़ाई मालूम हो रही थी. फ़रीदी ने जेब से चाकू निकाला.

थोड़ी देर में उसने टीन का वह ढक्कन वहाँ से निकाल फेंका. हवा का एक झोंका उसके जिस्म से टकराया और उसकी नसों में बिजली दौड़ गई. उसके सामने दीवार का इतना बड़ा हिस्सा खुल गया, जिससे एक आदमी बैठकर आसानी से गुज़र सकता था. फ़रीदी टॉर्च की रोशनी में रेंगता हुआ आगे बढ़ा. उसके एक हाथ में टॉर्च थी और दूसरे में नेवले का पिंजरा. अब वह एक अच्छे-खासे कमरे में चल रहा था. अचानक ठिठक गया. सामने एक औरत और एक मर्द खड़े हुए थे.

फ़रीदी ने फ़ौरन पिंजरा जमीन पर फेंक कर रिवाल्वर निकाल लिया, लेकिन वे दोनों दीवार से टेक लगाये ज्यों के त्यों खड़े रहे.

“लाहौल विला कूवत” फ़रीदी के मुँह से धीरे से निकला. उसने क़रीब जाकर दोनों को टटोला. वे रबड़ के बने हुए थे.

फ़रीदी को फ़ौरन ख़याल आया कि ये वही पुतले हैं, जिन्हें पहले दिन नवाब साहब वगैरह ने लाश समझा था. फ़रीदी आगे बढ़ा. सामने एक दरवाज़ा था, जिसकी तरफ़ से रोशनी छन-छन कर इस कमरे में आ रही थी. फ़रीदी ने कमरे में दाखिल होते ही बारूद की बू महसूस की. दूसरे कमरे में किसी के बोलने की आवाज़ आ रही थी. फ़रीदी ने किवाड़ों के छेद से आँखें लगा दी. अचानक वह चौंक पड़ा. दूसरे कमरे में एक आदमी की लाश पड़ी हुई थी, जिसके सीने से ताज़ा-ताज़ा खून निकल रहा था. एक कुर्सी पर नवाब रशीदुज्ज़माँ बैठे थे, लेकिन वे रस्सियों से जकड़े हुए थे. फ़रीदी ने दरवाज़ा खोलना चाहा. लेकिन फिर रुक गया. हालांकि उसने महसूस किया कि दरवाज़ा दूसरी तरफ से बंद नहीं है और किसी वक़्त भी आसानी से खोला जा सकता है.

अचानक एक आदमी दरवाज़े ही के क़रीब आ कर खड़ा हो गया. उसके हाथ में पिस्तौल थी.

यह परवेज़ था. परवेज़ जो पागल था. परवेज़ जो बच्चों की तरह तुतला- तुतला कर बोलता था. परवेज़ जो घुटनों के बल चलता था…वह परवेज़ इस वक़्त सीधा खड़ा था. उसके हाथ में दूध की शीशी के बजाय पिस्तौल थी और आँखों में मासूमियत के बजाय दरिंदगी नाच रही थी.

“देखा आपने इस नमक हराम का अंज़ाम….!” परवेज़ ने लाश की तरफ़ इशारा करके कहा, “यह मुझे धमकी दे रहा था, कह रहा था कि जासूसों को मेरे बारे में बता देगा…हुँह.”

फ़रीदी के सारे जिस्म में सनसनाहट फ़ैल गयी, क्योंकि परवेज़ उस वक़्त तुतला कर नहीं बोल रहा था.

“हाँ, तो भाई साहब अब….आप भी मरने के लिए तैयार हो जाइए.” परवेज़ बोला.

“मैंने तुम्हें हमेशा सगे भाई से प्यारा समझा था. मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?” नवाब साहब गिड़गिड़ा कर बोले.

“कुछ भी हो…लेकिन मैं इसे किसी तरह गंवारा नहीं कर नहीं सकता कि अपने बाप की विरासत से इसलिए महरूम कर दिया जाऊं, क्योंकि उसने मेरी माँ के साथ निकाह नहीं किया था.”

“क्या मैंने तुम्हें कभी यह चीज़ महसूस होने दी?” नवाब साहब बोले.

“मैं इन बेकार की बातों में नहीं पड़ता….मैं तुम्हें क़त्ल करूंगा. जासूसों को पहले ही से तुम पर शक था. तुम्हारा ग़ायब हो जाना इस शक को यक़ीन में बदल देगा. तुम्हारी मौत के बाद तुम्हारी चीज़ों का मैं पूरा-पूरा मालिक हूंगा. ग़ज़ाला के अलावा और तुम्हारा है ही कौन, जो मुझसे निपटने के लिए आयेगा….और रह गया ग़ज़ाला का मामला, तो मैं उसे इसी तरह रखूंगा, जिस तरह तुम्हारे बाप ने मेरी माँ को रखा था.”

“क्या बकता है…बद्तमीज़….!” नवाब साहब गरज कर बोले, ”वह तेरी भतीजी है.”

“होगी…!” परवेज़ ने लापरवाही से कहा, “मेरी माँ आवारा थी, इसलिए तुम्हारे पास क्या सबूत हैं कि मैं तुम्हारे बाप की औलाद हूँ. बहरहाल, मैं हरामी हूँ. इसलिए हरामीपन की हद पर कर जाना चाहता हूँ.”

“चुप रहो मरदूद…!” नवाब साहब चीखे और फ़रीदी ने दरवाज़े को ज़ोर से धक्का दिया. किवाड़ों की झपट में आकर परवेज़ औंधे मुँह गिरा पड़ा.

फ़रीदी उछल कर उस पर आ गिरा. दोनों आपस में भिड़ गये. फ़रीदी को लग रहा था कि उसे एक फ़ौलाद के बने हुए आदमी से मुकाबला करना पड़ रहा है. दोनों के हाथों में पिस्तौल दबी हुई थे. तभी परवेज़ फ़रीदी की पकड़ से निकल कर फुर्ती से सोफ़े की आड़ में हो गया. फ़रीदी उसका मतलब समझता था. उसने झपट कर एक मेज़ गिरायी और उसकी ओट ले ली. दोनों तरफ़ से गोलियाँ चलनी शुरू हो गयीं. तभी फ़रीदी ने चीख मारी और गिर पड़ा. थोड़ी देर तक ख़ामोशी रही, फिर परवेज़ खड़ा हो गया. वह धीरे-धीरे मेज़ की तरफ़ बढ़ रहा था. अचानक एक फ़ायर हुआ और परवेज़ चीख़ मारकर गिर पड़ा. फ़रीदी उठकर खड़ा हो गया. वह परवेज़ को तड़पता देख रहा था. गोली ठीक उसके माथे पर लगी थी.

“फ़रीदी बेटा….!” नवाब साहब चीखे और बेहोश हो गये.

दूसरे दिन शाम को नवाब साहब, ग़ज़ाला, तारिक़, फ़रीदी, हमीद और दो सब-इंस्पेक्टर एक साथ चाय पी रहे थे.

“ऐसी अंधेरी रात में उस कुएँ में उतरना फ़रीदी ही का काम था.” नवाब साहब बोले.

“मुझसे दरअसल ज़रा-सी ग़लती हो गयी, वरना इतनी परेशानी न उठानी पड़ती. खंडहरों वाला रास्ता ज्यादा सीधा और आसान था. सिर्फ़ ज़रा-सा दिमाग पर ज़ोर डालना पड़ता. अब सोचता हूँ कि मैंने अपना ज्यादा वक़्त खंडहरों पर ही क्यों न खर्च किया.

“खैर, जो कुछ भी हुआ, अच्छा ही हुआ.” तारिक़ बोला.

“मुझे हैरत है कि वे लोग मुझे सोते से किस तरह उठा ले गये कि मुझे ख़बर तक न हुई.” नवाब साहब ने कहा.

“क्लोरोफ़ॉर्म….!” फ़रीदी बोला.

“उन तीनों बदमाशों में से एक लापता है. मालूम नहीं उसका क्या हुआ?” हमीद बोला.

“उसका भी इंतज़ाम हो जायेगा.” फ़रीदी ने कहा, “भला कौन कह सकता था परवेज़ इतना ख़तरनाक आदमी है और वे तीनों, जो उसे उठाये फिरते थे, वे उसके गुर्गे थे.”

“खैर, अब छोड़िये….इन बातों को….!” ग़ज़ाला बोली, “मुझे उलझन हो रही है.”

“और हाँ, तारिक़ साहब किसी को आप पर भी शक था.” फ़रीदी ने शरारती मुस्कराहट के साथ कहा.

ग़ज़ाला उसे गुस्से और प्यार भरी नज़रों से देखने लगी.

“मुझ पर…!” तारिक़ ने कहकहा लगाया, “न जाने क्यों लोग आमतौर पर मेरी तरफ़ से शक किया करते हैं.”

“आपके नेवले की वजह से.” हमीद मुस्करा कर बोला.

“ओह….उसने सैकड़ों बार मेरी जान बचायी है.” तारिक़ ने अपने नेवले की पीठ पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “अगर यह न होता, तो फ़रीदी साहब कुएँ ने क़रीब जाने की भी हिम्मत न कर सकते थे.”

“इसमें कोई शक नहीं.” फ़रीदी ने उठते हुए कहा.

वह धीरे-धीरे टहलता हुआ अपने कमरे में आया और खिड़की के क़रीब खड़े होकर बाग़ में बिखरी हुई हरियाली से आँखों की थकावट दूर करने लगा.

अचानक किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा. वह मुड़ा…ग़ज़ाला की ख़ूबसूरत आँखों ने उसकी निगाहों का इस्तक़बाल किया. ग़ज़ाला के नर्म और नाज़ुक होठों पर एक मुस्कान बिखरी हुई थी.

फ़ौलाद के बने हुए फ़रीदी के जिस्म का एक-एक हिस्सा मोम की तरह पिघलने लगा. उसने अचानक ग़ज़ाला का हाथ अपने हाथ में ले लिया. उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे.

“आप…आप इस वक्त बहुत अच्छी लग रही हैं.” फ़रीदी ने बच्चों की तरह कहा और ग़ज़ाला ने शर्मा कर सिर झुका लिया. उसके होंठों पर अजीब किस्म की मुस्कराहट नाच रही थी, जिसका मतलब था कि कुछ और भी कहो…मगर फ़रीदी….इस मामले में क़रीब-क़रीब बिल्कुल बुद्धू था. उसने किसी रूमानी नॉवेल का कोई अच्छा-सा जुमला याद करने की कोशिश की, लेकिन कामयाब न हुआ.

“आप हमेशा अच्छी लगती है.” वह मुश्किल से बोला.

अचानक एक धमाका सुनाई दिया. दोनों चौंक पड़े. दरवाज़े के क़रीब हमीद गिरा पड़ा था. उसके होंठ कांप रहे थे. जैसे वह कुछ कह रहा हो. दोनों दौड़ कर उसके क़रीब आये.

फ़रीदी ने सिर हिलाया और ग़ज़ाला को जाने का इशारा करके ख़ुद हमीद पर झुक गया. ग़ज़ाला दोनों को हैरत से देखती हुई चली गयी.

“हमीद…हमीद…!” फ़रीदी ने उसका सिर हिलाते हुए कहा.

“आप…आप…हम…हम…हमेशा…अच्छ…अच्छी…लल…लगती हैं.” हमीद लेटे-लेटे बड़बड़ाया, “अरे…बाप रे…भूत..भूत..!”

फ़रीदी ने उसे गरेबान पकड़ कर खड़ा किया.

“यह क्या हरक़त है…?”

“हरक़त…अरे रे…आप पर भी…शैतानी साया हो गया है.”

“क्या बकते हो?”

“अरे बाप रे…आप हमेशा अच्छी लगती…अरे, आज बहुत बड़ा काफ़िर मुसलमान हो गया. शुक्र है ख़ुदा तेरा….अरे मैं ख़ुशी के मारे बेहोश हो गया था…थोड़ा पानी….प्यास महसूस हो रही है.”

फ़रीदी हमीद की पीठ पर घूंसा मारकर कमरे में चला गया. उसके चेहरे के एक-एक हिस्से से मुस्कराहट फूटी पड़ रही थी. झेंपी-झेंपी-सी मुस्कराहट.

“मेरे सरकार, आखिर नाराज़गी किस बात की?” हमीद फ़रीदी के पीछे आकर बोला, “अब तो मज़ा-ही-मज़ा है.”

फ़रीदी झल्ला कर मुड़ा.

“अजीब बेवकूफ हो…अगर उसने सुन लिया तो!”

“तो हर्ज़ ही क्या है…मुहब्बत में सब कुछ जायज़ है.”

“मुहब्बत….!” फ़रीदी उसका गरेबान पकड़े हुए बोला, “किस बात में देखी है तुमने मुहब्बत?”

“आप हमेशा अच्छी लगती हैं.” हमीद ने मुँह बनाकर कहा.

“तो क्या किसी की हुस्न की तारीफ़ करना मुहब्बत है?”

“बिल्कुल…!”

“तो इधर देखो…!” फ़रीदी ने अपने सीने पर हाथ मारते हुए कहा, “जिसे तुम मुहब्बत कहते हो, उसके लिए इस पत्थर में कोई गुंजाइश नहीं.”

“कभी-कभी पत्थर भी अपनी आँच पर पिघल जाता है,” हमीद अकड़ कर बोला.

“शाबाश…बरखुरदार…किस नॉवेल से रटा था यह जुमला.” फ़रीदी उसकी पीठ ठोंकते हुये बोला.

“खैर, होगा, मुझे क्या.” हमीद ने कहा, “आपने अभी तक यह नहीं बताया कि कुएँ से आग किस तरह निकलती थी.”

“तुम भी रहे वही इडियट के इडियट.” फ़रीदी मुस्कुरा कर बोला, “अरे मियाँ, आतिशबाजी थी. क्या तुमने मिट्टी के वे बड़े-बड़े अनार नहीं देखे थे, जो तहखाने से बरामद हुये हैं.”

“ओह, वाकई अच्छा-खासा बच्चों का खेल था…मगर ख़तरनाक.” हमीद ने कहा और सीटी बजाता हुआ कमरे से निकल गया.

***समाप्त***

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