चैप्टर 1 : कुएँ का राज़ ~ इब्ने सफ़ी का नावेल हिंदी में | Chapter 1 Kuen Ka Raaz Ibne Safi Novel In Hindi

Chapter 1 Kuen Ka Raaz Novel In Hindi 

Chapter 1 Kuen Ka Raaz Novel In Hindi 

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भाग १ : अंगारों की बारिश

गर्मी के मौसम की एक सुहानी रात के लगभग ग्यारह बजे थे. नवाब रशीदुज्ज़माँ ने अपने नये मेहमान के साथ ही बाग़ में खाना खाया और खाना खाने के बाद से अब तक बैठे उसके सफ़र की दास्तानें सुन रहे थे.

उनका मेहमान तारिक अधेड़ उम्र का एक तंदुरुस्त आदमी था. उसने सफ़ेद पतलून और आधे आस्तीनों की सफ़ेद कमीज़ पहन रखी थी. गठे हुए बाज़ुओं की उभरी हुई मछलियाँ चीख-चीखकर एलान कर रही थीं कि वह एक मेहनती आदमी है. गोरे लाल चेहरे पर घनी और ऊपर की ओर चढ़ी मूँछे उसकी शख्सियत को रोबदार बना रही थी. आँखें छोटी और चमकदार थीं. नवाब साहब के यहाँ के बहुत सारे लोगों ने अंदाज़ा लगा लिया था कि उससे आँखें मिलाकर बात करना आसान काम नहीं. वह ख़ुद ज्यादातर अपनी नज़रें नीची ही रखता था.

वह सैलानी था और उसकी घुमक्कड़ी की वजह हमेशा एक राज ही रही थी. वह नवाब साहब का जिगरी दोस्त था, लेकिन उन्हें भी उसके सैलानीपन की वजह मालूम न हो सकी. इस बारे में जब भी कोई बात आती, तो वह हमेशा बात काट कर कोई और बात छेड़ दिया करता था. कुछ लोगों का ख़याल था कि वह पुराने ख़जाने की तलाश में इधर-उधर मारा-मारा फिरता है. वह अच्छे-ख़ासे दौलतमंद आदमी की तरह ज़िन्दगी बसर करता था, लेकिन उसकी आमदनी का ज़रिया किसी को मालूम नहीं था.

नवाब साहब से उसकी पहली मुलाक़ात भी अजीबो-ग़रीब ढंग से हुई थी. सात-आठ साल पहले नवाब साहब पूर्वी मुल्कों की सैर के लिए लगभग दो साल का प्रोग्राम बनाकर निकले थे. ईरान की सरज़मीन उन्हें इतनी पसंद आयी कि लगभग छः महीने उन्होंने वहीं बसेरा डाले रखा. ईरान की दिलकश पहाड़ियाँ, हरी-भरी और ख़ूबसूरत वादियाँ उनके पैरों में बेड़ियाँ बन कर रह गयी थीं. ईरान की ऐतिहासिक इमारतों ने भी उनको बड़ी हद तक अपनी तरफ़ खींचा था.

एक शाम जब वे ईरान के एक पुराने बादशाह के महलों के खंडहरों से वापस आ रहे थे, उन्हें एक जगह पत्थरों के ढेर से एक इंसानी हाथ निकला हुआ नज़र आया. उन्होंने घबराहट में चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई, लेकिन कोई नज़र नहीं आया. वे सोच में पड़ गये कि क्या किया जाये. थोड़ी देर सोचने के बाद उन्होंने पत्थर हटाने शुरू किये. थोड़ी देर की मेहनत के बाद उनके सामने एक बेहोश आदमी पड़ा गहरी-गहरी साँसें ले रहा था. क़रीब ही एक पहाड़ी नाला बह रहा था. वे बेहोश आदमी को उठाकर उसके किनारे ले गये. और फिर लगभग आधे घंटे तक जूझने के बाद उसे होश आ गया. वह तारिक़ था. उसने बताया कि अचानक एक पुरानी दीवार के ढह जाने से वह दब गया था. वह नवाब साहब को अपने घर ले गया. जवाब साहब को उसकी शख्सियत में अजीब सी कशिश मालूम हुई और वे उसके क़रीब होते गये. नवाब साहब ईरान से तुर्की जाने लगे, तो तारिक़ बहे उनके साथ हो लिया. उसके बाद दोनों साथ-साथ सैर करते रहे.

तारिक़ की शख्सियत बहुत ही अजीबो-ग़रीब थी. वह अरबी नस्ल का था, लेकिन दुनिया की कोई शायद ही ऐसी भाषा हो, जो वह न जानता हो. कई भाषाओं पर तो वह इतनी महारत रखता था कि उस भाषा के बोलने वाले उसे अपने देश का ही बाशिन्दा समझ बैठते थे. जब वह नवाब साहब से हिन्दी-उर्दू में बात करने लगता, तो वे यही महसूस करते थे कि वह यू.पी. का निवासी हो. दो साल में नवाब साहब उसके बहुत ज्यादा घुल-मिल गये थे. हिन्दुस्तान आते वक़्त उन्होंने उससे कहा कि वह किसी मौके पर हिन्दुस्तान आकर कुछ दिन जवाब साहब के साथ ज़रूर गुजारे.  

और इस वक्त वह उनके बाग़ में बैठा उन्हें अपने सफ़र की दास्तानें सुना रहा था. उसकी गोद में एक नेवला बैठा ऊंघ रहा था. ऐसी अजीबो-ग़रीब नेवला कम-से-कम नवाब साहब और उनके घर वालों की नज़रों से आज तक न गुजरा था. वह लंबाई में हिन्दुस्तानी बिल्ली से किसी तरह कम नहीं था. उसका रंग काला था और पीठ पर तीन-चार, लंबी-लंबी धारियाँ थीं. नवाब साहब की लड़की गज़ाला बहुत देर से बेचैन नज़र आ रही थी. वह उस नेवले के बारे में उससे कुछ पूछना चाहती थी, लेकिन तारिक़ की बातों का सिलसिला किसी तरह खत्म नहीं हो रहा था. थोड़ी देर बाद गज़ाला ने महसूस किया कि जैसे वह बोलते-बोलते थक गया हो, उसे ख़ामोश होते देख वह झट से बोल पड़ी, “मैं इस नेवले के बारे में कुछ जानना चाहती हूँ.”

“हाँ..हाँ…!” तारिक़ मुस्कुरा कर बोला

“मैंने आज तक इतना खौफनाक नेवला नहीं देखा.”

“हाँ, ये कम ही मिलते हैं….और एशिया में तो इनका वजूद ही हैं. मैंने इसे ब्राज़ील के जंगलों में पकड़ा था. यह उस वक़्त बच्चा था.”

“तो क्या ब्राज़ील में इस किस्म के नेवले होते हैं?”

“नहीं, ऐसा तो नहीं….ये वहाँ भी कम ही मिलते हैं.” तारिक़ ने नेवले की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा, “इसमें एक बहुत बड़ी ख़ूबी है.”

“वह क्या…?”

“इसे कोई चीज़ सुंघा कर अगर तुम पाताल में छुपा आओ, तो यह उसे ढूंढ निकलेगा.”

“अच्छा, तो फिर हमें यह तमाशा आप कब दिखायेंगे.” ग़ज़ाला ने कहा.

“जब कहो.”

“तो लीजिए, मेरा रूमाल उसे सुंघाइये….मैं उसे कहाँ छुपा आऊं.”

तारिक़ ने हँसकर रूमाल ले लिया और नेवले की नाक पर रख कर फ़िर ग़ज़ाला ही को वापस कर दिया. ग़ज़ाला कोठी के अंदर चली गयी. थोड़ी देर बाद वह वापस आयी.

“अच्छी तरह छुपा दिया है न…..” तारिक़ हँस कर बोला.

“ख़ूब अच्छी तरह…..”

तारिक़ ने नेवले को ज़मीन पर उतार दिया और उसकी पीठ पर हाथ फेरता हुआ बोला, “जा रिशी.”

नेवला दौड़ता हुआ कोठी की तरफ़ चला गया. सब लोग हैरान होकर कोठी की तरफ़ देख रहे थे. कुछ मिनटों के बाद वह लौटा. उसके मुँह में ग़ज़ाला का रूमाल था.

“अरे….” सबके मुँह से एक साथ निकला. तारिक़ हँसने लगा. ग़ज़ाला की आँखें हैरत से फटी हुई थी.

“मैं इस रूमाल को अपनी किताबों की अलमारी में बंद करके ताला लगा आयी थी.” वह हैरत से बोली.

“ताला इसके लिए कोई हैसियत नहीं रखता.” तारिक़ ने कहा, “लेकिन इसने तुम्हारी ख़ूबसूरत अलमारी बर्बाद कर दी होगी.”

“वह कैसे?”

“उसमें कम-से-कम इतना बड़ा छेद ज़रूर हो गया होगा, जिसमें से ये आसानी से जा सके.”

“इतनी जल्दी इतना बड़ा छेद कर देना नामुमकिन मालूम होता है.” नवाब साहब बोले.

“अलमारी के तख्ते ज्यादा-से-ज्यादा एक-डेढ़ इंच मोटे होंगे.” तारिक़ बोला, “यह तो अच्छे-ख़ासे शहतीर मिनटों में काटकर रख देता है.”

“आपकी हर चीज़ अजीबो-ग़रीब है.” ग़ज़ाला ने हैरत से कहा.

तारिक़ मुस्कुरा कर ख़ामोश हो गया.

वे लोग बातचीत कर ही रहे थे कि सारे बाग़ में उजाला हो गया. ग़ज़ाला ने पलट पर देखा और चीख मार कर उछल पड़ी.

पुराने अंधे कुएँ से अंगारों का फ़ौवारा फूट पड़ा था. शोले काफ़ी ऊँचाई तक उठ रहे थे. एक अजीब क़िस्म की झन्नाटेदार आवाज़ से सारा बाग़ गूंज रहा था.

“यह क्या था?” तारिक़ जल्दी से बोला और उसके नेवले ने भी इतनी भयानक चीख मारी कि सबके जिस्म कांप गये. वे सब-के-सब पत्थर के बुतों की तरह ख़ामोश थे.

धीरे-धीरे अंगारों की बौछार कम होती गयी और थोड़ी देर के बाद बाग़ का माहौल फिर पहले जैसा हो गया.

“यह क्या तमाशा था?” तारिक़ ने ख़ामोशी तोड़ी.

ग़ज़ाला शक की नज़रों से उसकी तरफ़ देखने लगी.

“मैं ख़ुद यही सोच रहा हूँ.” नवाब साहब मरी हुई आवाज़ में बोले, “मालूम होता है कि हम पर कोई मुसीबत आने वाली है.”

“क्या मतलब…” तारिक़ चौंक कर बोला.

“मैंने वालिद साहब मरहूम की ज़बानी सुना था कि एक बार दादा के ज़माने में भी इस कुएं से अंगारे निकले थे और फिर ख़ानदान में एक के बाद एक मौतों का सिलसिला शुरू हो गया था.”

“अजीब बात है.” तारिक़ उठते हुये बोला, “मैं जाकर देखता हूँ.”

“नहीं, नहीं.” नवाब साहब ने उठ कर उसे रोकते हुए कहा, “उधर मत जाओ.”

“क्यों…?”

“मालूम नहीं क्या हो.”

तारिक़ हँस कर आगे बढ़ गया. उसका नेवला एक पालतू कुत्ते की तरह उसके पीछे-पीछे चल रहा था.

“ज़रा एक टॉर्च तो मंगाओ.” उसके कुएँ में झांकते हुए कहा,

“भई, मैं कहता हूँ लौट आओ.” नवाब साहब बोले.

“टॉर्च!” तारिक़ चीखा…उसकी आवाज़ में कंपकंपाहट थी.

नवाब साहब ने एक नौकर से टॉर्च मंगवायी.

“रशीदुज्ज़माँ…. यहाँ आओ.” तारिक़ टॉर्च की रोशनी कुएँ में डालते हुए बोला.

रशीदुज्ज़माँ दिल मजबूत करके आगे बढ़े. ग़ज़ाला ने भी उसने साथ जाना चाहा, लेकिन उन्होंने उसे रोक दिया.

“वह देखो…क्या है.” तारिक़ ने उन्हें कुएँ में झांकने का इशारा करते हुए कहा.

रशीदुज्ज़माँ चीख मार कर पीछे हट गये. उनके जिस्म से ठंडा-ठंडा पसीना छूट रहा था.

“क्या है अब्बा जान? ग़ज़ाला उनकी तरफ़ बढ़ती हुई बोली.

“जाओ, जाओ….” नवाब रशीदुज्ज़माँ पलट कर चीखे, “तुम अंदर जाओ…जाओ…चली जाओ.”

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