Chapter 4 Kuen Ka Raaz Novel In Hindi
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रवानगी
ग़ज़ाला स्टेशन से टैक्सी करके फ़रीदी के घर पहुँची. फ़रीदी घर पर मौज़ूद नहीं थे. सार्जेंट हमीद रेडियो पर पुराने गाने सुन रहा था. ग़ज़ाला को देख कर उसके रेडियो बंद कर दिया और घबराहट में उससे बैठने को भी न कहा. आखिर वह ख़ुद ही एक आराम-कुर्सी पर बैठ गयी.
“क्या फ़रीदी साहब यहाँ नहीं हैं?” ग़ज़ाला ने पूछा.
“कहीं गये हैं.”
“शहर से बाहर?”
“जी नहीं.”
“कब तक लौटेंगे?”
“यह बताना ज़रा मुश्किल है.”
“खैर, मैं उनका इंतज़ार करूंगी.”
उसके बाद ख़ामोशी छा गयी.
“आपने रेडियो क्यों बंद कर दिया?” ग़ज़ाला मुस्कुरा कर बोली, “आपको पुराने गानों से बड़ी दिलचस्पी मालूम होती है.”
“हाँ, कुछ यूं ही-सी.” हमीद ने दोबारा रेडियो की सुई घुमाते हुए कहा.
“क्या फ़रीदी साहब आजकल छुट्टी पर हैं?”
“जी हाँ…”
“और आप भी?”
“जी…”
फिर ख़ामोशी छा गयी. थोड़ी देर बाद हमीद उठा.
“तो आप भी कहीं जा रहे हैं?”
“ज़रा चाय के लिए कह दूं.”
“ओह! तकलीफ़ न कीजिए.”
“तकलीफ़ की कोई बात नहीं.”
हमीद के चली जाने के बाद ग़ज़ाला ने मेज़ पर रखी हुई किताबें उलटनी-पलटनी शुरू कर दीं. वह इस वक़्त फ़रीदी की लाइब्रेरी में बैठी हुई थी. यहाँ चारों तरफ़ किताबों से भरी हुई अलमारियाँ लगी हुई थीं. लाइब्रेरी में कमरा फ़रीदी के अजायबघर के कमरे से मिला हुआ था. दोनों के बीच सिर्फ़ एक दीवार थे. ग़ज़ाला जिस मेज़ की किताबें देख रही थी, वह उसी दीवार से मिली हुई थे. जैसे ही उसने रैक में लगी हुई किताबों से एक किताब उठायी, उसे दीवार में एक बड़ा सा छेद दिखायी दिया और साथ ही साँप के फुफकारने की आवाज़ आयी. वह घबरा कर चारों तरफ़ देखने लगी. आवाज़ फिर सुनाई दी. अब उसकी समझ में आया कि यह आवाज़ दूसरे कमरे से इस छेद से आ रही है. उसने किताबें हटाकर अपनी आँखें छेद से लगा दी. दूसरे कमरे में एक बहुत ज्यादा पॉवर वाला बल्ब जल रहा था. फुफकार की आवाज़ फिर सुनाई दी और ग़ज़ाला चीख मारकर पीछे हट गयी. एक बड़ा-सा साँप ज़मीन पर बिछे हुए कालीन पर रेंग रहा था.
“हमीद साहब, हमीद साहब.” वह ज़ोर से चीखने लगी.
“क्या बात है?” हमीद कमरे में दौड़ता हुआ आया.
“वह…वह…कमरे में साँप.” ग़ज़ाला हांफती हुई बोली.
हमीद हँसने लगा.
“मैं कसम खाकर कह सकती हूँ. आप ख़ुद ही देख लीजिए.” ग़ज़ाला छेद की तरफ़ इशारा करते हुए बोली.
“तो मैं कब कह रहा हूँ कि आप झूठ कह रही हैं.” हमीद मुस्कुरा कर बोला.
ग़ज़ाला उसे हैरत से देखने लगी.
“यहाँ एक नहीं, सैकड़ों हैं.”
“जी…” ग़ज़ाला की हैरत और भी बढ़ गई.
“जी हाँ, यह फ़रीदी साहब का अजायबघर है. इत्तेफ़ाक से इस वक़्त इस कमरे की कुंजी उन्हीं के पास है, वरना मैं आपको यहाँ की सैर कराता.”
“क्या उन्होंने साँप भी पाल रखे हैं?”
“जी हाँ, सैकड़ों की तादात में.”
ग़ज़ाला ख़ामोश हो गयी. फ़रीदी की शख्सियत उसे तारिक़ से भी अजीब मालूम होने लगी, जो अपने कंधे पर नेवला उठाये फिरता है.
“फ़रीदी साहब साढ़े नौ बजे तक वापस आ जायेंगे, क्योंकि यह इन साँपों के दूध पीने का वक़्त होता है.
“दूध कौन पिलाता है उन्हें?” ग़ज़ाला ने पूछा.
“ख़ुद फ़रीदी साहब.”
ग़ज़ाला उसे फिर फटी-फटी नज़रों से देखने लगी.
“आइये, दूसरे कमरे में चल कर बैठें, जैसे-जैसे इनके खाने का वक़्त क़रीब आता जायेगा, वैसे-वैसे इनकी घमाचौकड़ी बढ़ती जायेगी.” हमीद ने दीवार के छेद को किताबों से ढांकते हुए कहा.
दोनों लाइब्रेरी से उठ कर ड्राइंग-रूम में चले आये.
थोड़ी देर बाद चाय आ गयी.
“आपने बेकार ही में तकलीफ़ की.” ग़ज़ाला बोली.
“तकलीफ़…” हमीद मुस्कुरा कर बोला, “आप भी कमाल करती हैं.”
उसने चाय बनाकर ग़ज़ाला के आगे बढ़ा दी.
बरामदे में क़दमों की आवाज़ सुनाई दी और फिर सन्नाटा छा गया. हमीद ने पलट कर देख, उसकी महबूबा शहनाज़ दरवाज़े पर खड़ी ग़ज़ाला को घूर रही थी. हमीद बौखला कर खड़ा हो गया.
“आओ..आओ.”
शहनाज़ आ कर बैठ गयी.
“चाय….” हमीद ने उसकी तरफ़ प्याली बढ़ाते हुए कहा.
“नहीं मैं पी कर आयी हूँ.” शहनाज़ ने सूखी आवाज़ में कहा.
“आपसे मिलिए, आप ग़ज़ाला ख़ानम है. आप शहनाज़ बानो.”
शहनाज़ और ग़ज़ाला ने हाथ मिलाते हुए दो-चार रस्मी जुमले दोहराये और फिर ख़ामोशी से एक-दूसरे को देखने लगीं.
“भई, चाय तो हर वक़्त पी जा सकती है.” हमीद ने शहनाज़ से कहा.
“ज़रूरी नहीं कि मैं भी आपकी उसूल पर अमल करूं…” शहनाज़ ने ऐसे अंदाज़ में कहा कि हमीद झेंप गया. अब उसने ख़ामोश रहना ही मुनासिब समझा. उसने महसूस कर लिया कि अगर शहनाज़ ग़ज़ाला को देख कर शक कर रही है, तो ऐसी सूरत में उसे छेड़ना यकीनन ख़तरनाक बात थी.
“आप फ़रीदी साहब से मिलने आयी हैं.” हमीद ने कहा.
“हूँ…”
हमीद ने इस बेकार जुमले पर ग़ज़ाला समझ गयी कि हमीद शहनाज़ को इत्मिनान दिलाना चाहता है. इसलिए वह ख़ुद भी फ़रीदी के बारे में बात करने लगी.
“मालूम नहीं फ़रीदी साहब कब आयेंगे. उनसे मेरा मिलना ज़रूरी है.” ग़ज़ाला बोली.
शहनाज़ उसे शक की नज़रों से देखने लगी.
अभी यह बात हो ही रही थी कि बरामदे में क़दमों की आहट सुनाई दी और फ़रीदी सीटी बजाता हुआ कमरे में दाखिल हुआ.
“अरे ग़ज़ाला ख़ानम, खैरियत….” फ़रीदी ने दरवाज़े पर रुक कर कहा.
सब लोग खड़े हो गये.
“कब आयीं?” फ़रीदी ने ग़ज़ाला से हाथ मिलाते हुए कहा.
“लगभग एक घंटे से आपका इंतज़ार कर रही हूँ. स्टेशन से उतर कर सीधी इधर ही आयी हूँ.”
“और हमीद साहब आपको सिर्फ़ चाय पर टाल रहे हैं. बैठिए, बैठिए.”
फिर हमीद की तरफ़ मुड़कर बोला, “अरे भई, खाने के लिए कहो.”
“नहीं-नहीं, मैं खाना नहीं खाऊंगी. अभी मुझे अपने एक रिश्तेदार के यहाँ जाना है.”
“रिश्तेदार तो मैं भी हूँ. क्या नवाब साहब ने आपको नहीं बताया.” फ़रीदी ने कहा.
“बताया था…लेकिन…”
“लेकिन-वेकिन कुछ नहीं….” फ़रीदी ने फिर हमीद की तरफ़ देख कर कहा, “हमीद….”
“खैर, खा लूंगी….लेकिन पहले वह काम होना चाहिए, जिसके लिए मैं आयी हूँ.”
“क्या बात है, कोई ख़ास परेशानी….”
“जी हाँ”
“बयान कीजिए.”
“मैं…हाँ…जी…अभी आप कहीं से थके हुए आ रहे हैं…ज़रा आराम कर लीजिए.”
फ़रीदी समझ गया कि वह शहनाज़ की मौजूदगी में कुछ कहते हुए हिचकिचा रही है.
“आइये, मैं आपको अपना घर दिखाऊं….” फ़रीदी ने उठते हुए कहा.
ग़ज़ाला भी खड़ी हो गयी.
“उन्हें अजायबघर ज़रूर दिखाइयेगा…अभी आपकी लाइब्रेरी से एक साँप देखकर डर गयी थीं.” हमीद ने कहा.
“अच्छा….” फ़रीदी ने कहा, “खैर, आइए.”
दोनों ड्राइंग-रूम से चले गये.
“तुम कुछ नाराज़ मालूम होती हो.” हमीद ने शहनाज़ से कहा.
“नहीं तो…”
“फिर चाय क्यों नहीं पी?”
“वाह, यह अच्छी रही.”
“यकीनन चाय अच्छी है. तुम पी कर तो देखो.”
“छोड़िए…अप तो बेकार में जुमलों को तोड़ने-मरोड़ने लगते हैं.” शहनाज़ ने तंग आ कर कहा.
“लेकिन आज तक किसी जुमले ने मुझसे इसकी शिकायत नहीं की.”
“बस, अब चल पड़ा चरखा…” शहनाज़ मुँह बना कर बोली.
“अच्छा, यह बताइए कि आप वादा करने के बावजूद भी कल क्यों नहीं आये.” शहनाज़ ने कहा.
“यह फ़रीदी साहब से पूछो, उनके चक्कर में पड़ने के बाद उससे निकलना मुश्किल होता है.”
“आजकल कौन सा चक्कर….छुट्टी पर हैं न….”
“जिस पर हर वक़्त काम करने का भूत सवार रहता हो, उसके लिए कैसी छुट्टी. ग़ज़ाला का इस वक़्त आना मुझे परेशान कर रहा है.”
“क्यों…?”
“कोई गैरमामूली बात.”
“तो आपको किस बात की परेशानी है?”
“परेशानी यूं है कि कहीं यह छुट्टियों का ज़माना यूं ही बर्बाद न हो जाये. अगर वह किसी मामले में फ़रीदी साहब से मदद लेने आयी है, तो फिर छुट्टियों का अल्लाह ही मालिक है.”
“यह ग़ज़ाला कौन है?”
“दाराब नगर के जागीरदार रशीदुज्ज़माँ की लड़की.”
फिर ख़ामोशी छा गयी.
“दरअसल मैं यह कहने आयी हूँ कि परसों मेरी बर्थ-डे है.”
“तो क्या खिलाओगी मुझे.”
“लेमन ड्रॉप्स….” शहनाज़ के कहा और हँसने लगी.
“नहीं, हम तो…” वह शहनाज़ के गाल की तरफ़ इशार करके बोला.
“आप शैतान हैं.” शहनाज़ ने धीरे से कहा और शरमा कर सिर झुका लिया.
“अच्छा जी, हम शैतान हैं.”
शहनाज़ ने सिर हिला दिया. उसके होंठों पर शर्मीली मुस्कराहट फ़ैल रही थी.
“जाओ, नहीं बोलते.” हमीद ने रूठ जाने की एक्टिंग की.
“इसके अलावा और कुछ भी आता है आपको.” शहनाज़ बोली.
“गाना आता है…बजाना है…मगर शर्त यह है हाथ मेरे सिर दूसरे का हो. तैरना आता है, घुड़सवारी का माहिर हूँ. बचपन में ख़ुद घोड़ा बन जाता था. खाना पका नहीं सकता, लेकिन खाना आता ई. वालिद साहब अक्सर कहते हैं कि…..”
“बस, बस….” शहनाज़ हाथ उठाकर बोली, ”फिर चल पड़ा चरखा.”
“अच्छा उसे जाने दो….” हमीद संजीदा होकर बोला, “तुम फूलों से ज्यादा हसीन हो. कमल से ज्यादा नाज़ुक. तुम्हारी आवाज़ नहीं, शहद की बूंद है. जब तुम मुस्कुराती हो, तो कलियाँ खिल जाती हैं. जब चलती हो, तो क़यामत अपने गरेबान में मुँह डालकर खड़ी-की-खड़ी रह जाती है और जब नहीं चलती हो, तो क़यामत अपना इरादा बदलकर…ओह वह…बदल कर…क्या करने लगती ही…जानती हो…तुम नहीं जानती. अच्छा मेरी आँखों में देखो…क्या दिखायी देता है.”
“कलियों की मुस्कराहट, फूलों का निखार.” शहनाज़ हमीद की आवाज़ की नक़ल करते हुए बोली, “पत्तों की जवानी, बिजली की चमक, बादलों की गरज, वगैरह, वगैरह.”
“तब तो तुम ज़रूर अपनी आँखों का इलाज कराओ.” हमीद मुस्कुराकर बोला, “मेरी आँखों में सिर्फ़ दीदे हैं…दीदे…क्या समझी.”
“अपना सिर!” शहनाज़ झेंपकर बोले.
हमीद कुछ कहने ही वाला था कि एक नौकर ने खाने की ख़बर दी.
“इंस्पेक्टर साहब और मेहमान खाने की मेज़ पर आप लोगों का इंतज़ार कर रहे हैं.”
“मैं तो चली…!” शहनाज़ ने उठते हुए कहा.
“वाह, चाय नहीं पी, तो खाना भी न खाओगी.” हमीद ने कह.
और फिर दोनों खाना खाने के लिए जा पहुँचे.
खाने की मेज़ पर ज्यादातर ख़ामोशी ही रही. फ़रीदी किसी सोच में डूबा हुआ था. उस इस हाल में देखकर हमीद का माथा ठनका. फ़रीदी का इस तरह सोच में डूब जाना ख़ास मौकों पर ही दिखायी देता था.
खाना खाने के बाद थोड़ी देर तक इधर-उधर की बातें होती रही, फिर ग़ज़ाला उठते हुये बोली.
“अच्छा तो मैं चलती हूँ….स्टेशन पर तीन बजे आप लोगों का इंतज़ार करुंगी.”
“बहुत अच्छा…!” फ़रीदी ने उससे हाथ मिलाते हुए कहा और बैठ गया. वह इस तरह सोच में डूबा हुआ था कि ग़ज़ाला को विदा करने बरामदे तक भी न गया.
हमीद और शहनाज़ उसे गेट तक पहुँचा कर लौट आये.
“तो क्या आप लोग कहीं जा रहे हैं?” शहनाज़ ने फ़रीदी से पूछा.
“हाँ, एक ज़रूरी काम है.”
“परसों मेरी बर्थ-डे है..मैं आप लोगों को दावत देने आयी थी.”
“मगर तुमन इस वक़्त दावत दी, जब मैंने दूसरे से वादा कर लिया. पहले ही क्यों न बता दिया.”
“मौका ही कहाँ मिल सका.” शहनाज़ ने कहा और हमीद की तरफ़ देखने लगी.
“ये भी मेरे साथ जा रहे हैं.” फ़रीदी बोला.
“वापसी कब तक होगी?”
“यह अभी नहीं बता सकता.”
शहनाज़ थोड़ी देर मुँह लटकाये बैठी रही. फिर उठ कर बाहर चली गयी.
हमीद को फ़रीदी पर बहुत गुस्सा आ रहा था. वह शहनाज़ के पीछे-पीछे चलने लगा.
“भई, बताओ, अब मैं क्या करूं?” हमीद ने शहनाज़ से कहा.
शहनाज़ कोई जवाब दिये बगैर सड़क पर हो ली और हमीद लौट आया.
“एक बहुत ही दिलचस्प केस….” फ़रीदी मुस्कुरा कर बोला.
“मुझे छुट्टियों में इस किस्म की दिलचस्पियों से नफ़रत हो जाती है.” हमीद ने मुँह बनाकर कहा.
“बको नहीं, तुम्हें मेरे साथ चलना पड़ेगा.” फ़रीदी ने कहा.
“हुक्म पर अमल करूंगा.” हमीद नाख़ुश होते हुए बोला.
“यह बात नहीं प्यारे…चलो, बस मज़ा आ जायेगा.”
फ़रीदी उसका कंधा थपकते हुए बोला.
हमीद ख़ामोश रहा.
“भई तुम्हारे इश्क़ से तो मैं तंग आ गया हूँ.” फ़रीदी ने कहा.
“ख़ुदा करे कि आपको भी किसी से हो जाये.” हमीद जलकर बोला.
“उसी दिन ख़ुदकुशी का लूंगा बरखुदार.” फ़रीदी अपने सीने पर हाथ मारकर बोला.
“तो थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कि आपको इश्क़ हो गया.”
“उफ़ तो इतना तंग आ गये हो मुझसे.” फ़रीदी ने कहा, “खैर, जाकर अपना सामान ठीक करो. हमें तीन बजे की गाड़ी से दाराब नगर जाना है.”
हमीद ख़ामोशी से अपने कमरे की तरफ़ चला गया और फ़रीदी ने सिगार सुलगा कर टहलना शुरू कर दिया.
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