चैप्टर 8 : कुएँ का राज़ ~ इब्ने सफ़ी का नावेल हिंदी में | Chapter 8 Kuen Ka Raaz Ibne Safi Novel In Hindi

Chapter 8 Kuen Ka Raaz Novel In Hindi

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Chapter 8 Kuen Ka Raaz Novel In Hindi

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आवाज़ों का राज़

हमीद वाले वाक़ये के बाद फ़रीदी अपने कमरे में खिड़की के करीब एक कुर्सी पर बैठा किसी ख़याल में डूबा हुआ था. उँगलियों में दबा हुआ सिगार जाने कब का बुझ गया था. सुगार में लगी हुई राख इस बात का इशारा कर रही थी कि देर से उसने लटके हुए हाथ को हिलाया नहीं है, वरना राख ज़रूर गिर गयी होती.

वह अचानक चौंक पड़ा. किसी ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ रख दिया था. उसने पलट कर देखा.

ग़ज़ाला खड़ी मुस्कुरा रही थी. उसने इस वक़्त सफ़ेद साड़ी बांध रखी थी. इस सादगी में उसके चेहरे पर और ख़ूबसूरती उभर आयी थी. बड़ी-बड़ी जादुई आँखें ऐसी लग रही थीं कि मानो सुबह हो रही हो और घनी पलकों की छाँव में ख़ुशगवार सी शामें रेंगती महसूस हो रही थीं.

“कुछ चाय वगैरह का भी होश है.” ग़ज़ाला की आवाज़ कमरे की ख़ामोश फ़िज़ा में गूंज उठी, उसकी आवाज़ में न जाने क्या चीज़ थी, जिसने फ़रीदी की नसों में नशा-सा दौड़ा दिया. उसकी आवाज़ में क्या था. ममता थी, शिकायत थी…तक़ाज़ा था…सुपूर्दगी थी…और न जाने क्या-क्या.

फ़रीदी अचानक की मुस्कुरा पड़ा. उसे ऐसा महसूस हुआ, जैसे वो उन दहकते रुखसारों की आँच में गल गया हो. उसे अपनी हस्ती लहरें लेती हुई झील सरीखी मालूम होने लगी. ऐसी झील, जिसमें सुबह की किरणें रंगीन ताने-बाने बन रही हों. तभी फ़रीदी को ख़ुद में इस बदलाव का एहसास हुआ और उसके ज़ेहन में झपट कर ख़यालों के उन कोने पर काली चादर डाल दी, जहाँ से मुहब्बत की किरणें फूट रही थीं.

वह अचानक ज़रूरत से ज्यादा संज़ीदा हो गया. ग़ज़ाला ने भी शायद यह बदलाव महसूस किया. उसके चेहरे पर मुर्दनी-सी छा गयी.

“कहिए, तो चाय यहीं भिजवा दूं.” ग़ज़ाला ने मुर्दा-सी आवाज़ में कहा, “अब्बा जान वगैरह आपका इंतज़ार कर रहे हैं.”

“इस वक़्त मेरी तरफ़ से माफ़ी मांग लीजिएगा.”

“अच्छा, तो फिर यहीं भिजवा दूंगी.” ग़ज़ाला ने कहा और कुछ देर तक खड़ी उसे देखती रही.

फ़रीदी खिड़की से बाहर देख रहा था.

ग़ज़ाला के चले जाने के बाद उसने उंगलियों में दबा हुआ सिगार बाहर फेंककर दूसरा सुलगाया और हल्के-हल्के कश लेने लगा.

“अब्बा मियाँ….” किसी ने पीछे से पुकारा.

फ़रीदी पलट कर देखने लगा. दरवाज़े में परवेज़ खड़ा दूध की शीशी में मुँह लगाये दूध चूस रहा था.

“तुम हमारे अब्बा मियाँ हो?” परवेज़ फ़रीदी को अपनी तरफ़ देखकर बोला.

फ़रीदी उसके इस अचानक सवाल पर बौखला गया. लेकिन फिर हँसने लगा.

“अब्बा मियाँ हँसते हैं…अब्बा मियाँ हँसते हैं.” परवेज़ दूध की शीशी बगल में दबा कर तालियाँ बजाता हुआ उछलने-कूदने लगा.

इतने में हमीद भी आ गया.

“और बेटा, चचा जान को भूल गये.” उसने धीरे से कहा.

फ़रीदी उसे घूरने लगा. मगर हमीद ने चेहरे पर पहले जैसी शरारती मुस्कराहट फैली हुई थी.

“कहिए जनाब…इतनी बूढ़ी औलादें लिये फिरते हैं और फिर फ़रमाते है कि मुझे इन बातों से कोई मतलब नहीं.” हमीद बोला.

“क्या बकते हो.” फ़रीदी ने अपनी हँसी रोककर संजीदा बनने की कोशिश करते हुए कहा.

“हाँ,हाँ…परवेज़ उछल-उछल कर हँसता हुआ बोला, “अब्बा मियाँ ने चचा जन को डांट दिया….आ.हाँ हाँ हाँ.”

हमीद एक कुर्सी पर बैठकर शरारती नज़रों से परवेज़ की तरफ़ देखने लगा.

“हम गोद में बैठेंगे.” परवेज़ हमीद के क़रीब आकर ठनक कर बोला.

“जी….” हमीद हैरान होकर चीखा, “यह आप क्या फ़रमा रहे हैं…ज़रा अपना भारी-भरकम जिस्म तो देखिये.”

परवेज़ उछल कर उसकी गोद में बैठ गया और हमीद के मुँह से चीख निकल गई. उसे ऐसा लगा, जैसे उसकी रानों की हड्डियाँ कड़कड़ा कर टूट जायेंगी. फरीदी बे-इख्तियार हँस पड़ा.

“अरे जनाबे आला….उतारिए भी….वरना मेरी हड्डियाँ टूट जायेंगी.” हमीद कराह कर बोला.

“हम खलगोश का बच्चा लेंगे.” परवेज़ हमीद की गोद में मचलता हुआ बोला.

“अरे मरा….” हमीद चीखा, “ख़रगोश का बच्चा नहीं, बल्कि मैं आपको गधे का बच्चा मंगवा दूंगा. अल्लाह, मेरी जान छोड़िये.”

“नायँ….नायँ…..खलगोश का बच्चा.” परवेज़ और ज्यादा मचलने लगा.

“ऐ अल्लाह, मेरी जान बचाइए.” हमीद ने फ़रीदी से कहा.

“मैं क्या जानूं.” फ़रीदी ने कहा और दूसरी तरफ़ मुँह फेर का सिगार पीने लगा.

“खलगोश का बच्चा…… खलगोश का बच्चा”

“अबे भाग, भूतनी के.” हमीद ने झल्ला कर परवेज़ को धकेल दिया. परवेज़ के गिरते ही दूध की शीशी टूट गई और सारा दूध जमीन पर फ़ैल गया. 

परवेज़ ज़मीन पर पड़ा हिचकियाँ ले ले कर रो रहा था.

“तुमने यह क्या किया?” फ़रीदी ने घबरा कर उसे उठाते हुए कहा.

इतने में ग़ज़ाला नौकर के साथ चाय लेकर आ गयी.

“यह क्या….?” परवेज़ को इस हाल में देखकर वह बोली.

“मुझे अफ़सोस है.” फ़रीदी ने खड़े होकर कहा.

“आखिर हुआ क्या…?”

“हमीद को तो आप देख ही रही हैं…बेचारा दुबला-पतला आदमी है. परवेज़ साहब उसकी गोद में चढ़ कर बैठ गये थे और किसी तरह उतरने का नाम ही न लेते थे.”

“ओह…” ग़ज़ाला परवेज़ को ज़मीन से उठाने के लिए झुकी.

“उठिए चचा जान…देखिए ये लोग क्या कहेंगे.”

“नायँ उठेंगे…हमको धकेल दिया…आँ…” परवेज़ रोता हुआ बोला.

उसकी हालत देख कर ग़ज़ाला की आँखों में आँसू आ गये. फ़रीदी और हमीद को भी काफ़ी अफ़सोस हुआ.

बड़ी मुश्किल से ग़ज़ाला उसे बहला-फुसला कर बाहर ले गयी.

“तुमने बहुत बुरा किया.” फ़रीदी ने हमीद से कहा,

“तो क्या अपनी हड्डियाँ तुड़वा लेता.” हमीद ने कहा और चाय पीने लगा.

उसी रात की बात है. फ़रीदी, हमीद, ग़ज़ाला, तारिक़ और नवाब साहब बरामदे में बैठे कुएँ से चिनगारियाँ निकलने का इंतज़ार कर रहे थे. ग़ज़ाला की आँखें फ़रीदी के चेहरे पर लगी हुई थी.

“ग्यारह तो बज गये.” नवाब साहब ने बेचैनी से कुर्सी पर पहलू बदलते हुए कहा.

“मुज़रिम अब आज तीसरी बेवकूफी न करेगा.” फ़रीदी मुस्कुरा कर बुला.

“तो क्या तुम्हें पूरा यकीन है कि किसी आदमी की हरक़त है.” नवाब साहब ने कहा.

“सौ फ़ीसदी.” फ़रीदी ने कहा और सिगार सुलगाने लगा.

अभी ये बातें हो ही रही थीं कि अचानक एक तेज किस्म की सरसराहट की आवाज़ सुनाई दी.

“यह लो आवाजें शुरू हो गयीं.

“ओह….” फ़रीदी के मुँह से अचनाक निकला और वह सीधा होकर बैठ गया. साथ ही उसने अपनी कलाई पर बंधी हुई घड़ी पर नज़र डाली.

जानवरों की आवाजों से कोठी गूंज रही थी. फ़रीदी उठकर अंदर चला गया. वह कई कमरों में घूम-घूमकर आवाजें सुनता रहा. फिर वह बरामदे में लौट आया. यहाँ भी ऐसा मालूम हो रहा था, जैसे ये आवाजें दीवार के एक हिस्से से निकल रही हों. आवाजों का सारा सिलसिला खत्म होते ही उसने फिर अपनी घड़ी पर नज़र डाली.

“ओह….” उसके मुँह से दोबारा निकला और फिर वह किसी गहरी सोच में डूब गया.

“सीढ़ी…बांस की सीढ़ी…” नवाब साहब चौंक कर बोले.

“एक सीढ़ी मंगवाइए.” फ़रीदी ने कहा और बुझे हुए सिगार को सुलगा कर बेताबी से बरामदे में टहलने लगा. उसका चेहरा लाल हो रहा था और आँखों में अजीब किस्म की चमक पैदा हो गई थी. हमीद अच्छी तरह जानता था कि ऐसे मौके पर उसकी ऐसी ही हालत हुआ करती है. जब उसे यकीन हो जाता है कि उसका शिकार फंदे में आ गया है.

“ख़ुदा खैर करे, कुछ होने वाला है.” हमीद ने धीरे से कहा.

“क्या…” ग़ज़ाला जो क़रीब ही खड़ी थी, चौंक कर बोली.’

“कोई नयी बात होने वाली है.”

“मैं आपका मतलब नहीं समझी.”

“अभी समझ में आ जायेगा.”

इतने में दो नौकर सीढ़ी लेकर गये.

“ओह, यह तो बहुत छोटी है.” फ़रीदी ने कहा, ‘खैर, कुछ परवाह नहीं…ज़रा वह मेज़ इधर घसीट कर दीवार से लगा दो और यह सीढ़ी उस पर रख कर दीवार से टिका दो.”

उसके कहने के मुताबिक सीढ़ी लगा दी गई.

“एक बात…” फ़रीदी नवाब साहब की तरफ़ मुड़कर बोला, “क्या इन आवाजों से पहले हमेशा इसी किस्म की सरसराहट को आवाज़ सुनाई देती है.”

“इसी बिना पर तो मैंने यह कहा था कि अब जानवरों की आवाजें शुरू होने वाली है.”

फ़रीदी सिर हिलाता हुआ सीढ़ी पर चढ़ गया.

ऊपर पहुँचकर वह थोड़ी देर तक इधर-उधर दीवार को उंगलियों से खटखटाता रहा, फिर अचानक उसका कहकहा सुन कर लोग चौंक पड़े.

“क्या बात है भई,” नवाब साहब डरी हुई आवाज़ मन बोले.

“कोई ख़ास बात नहीं….लेकिन दिलचस्प ज़रूर है.”

“कुछ बताओ भी.”

“क्या आप बता सकते हैं कि यह दीवार किस चीज़ की बनी हुई है” फ़रीदी ने कहा.

“क्या बच्चों जैसा सवाल करते हैं.” नवाब साहब बुरा-सा मुँह बनाते हुए बोले.

“नाराज़ होने की ज़रूरत नहीं….यह सवाल बहुत ज़रूरी है.” फ़रीदी ने कहा.

“अरे भाई, पत्थर की है और किस चीज़ की होती.”

“क्या पूरी…?”

“लाहौल विला कूवत….!” नवाब साहब जाने के लिए मुड़े.

“ज़रा ठहरिये…मैं एक ज़िम्मेदार आदमी की हैसियत से आपसे यह सवाल कर रहा हूँ.” फ़रीदी ने दीवार के एक हिस्से की तरफ़ इशारा करते हुए कहा.

“क्या यहाँ भी पत्थर है?”

“हाँ भाई…” नवाब साहब ने कहा, लेकिन उनकी आवाज़ से पता चल रहा था, जैसे उन्होंने यूं ही जवाब दे दिया हो.

 फ़रीदी हँसने लगा.

“भई बताओ, यह क्या मामला है….मेरा दम घुट रहा है.”

“तो सुनिए जनाब…अभी तक आप लोग एक बहुत ही दिलचस्प रिकॉर्ड सुनते रहे हैं. यहाँ इस जगह लाउड स्पीकर का हॉर्न लगा हुआ है.”

“अरे….” नवाब साहब उछल पड़े.

“और तारीफ़ करता हूँ उस आर्टिस्ट की, जिसने इस जाली को ऐसे रंग कर पत्थरों में मिला दिया है.” फ़रीदी मुस्कुरा कर बोला.

“क्या तमाशा है…आखिर यह सब क्या है?” नवाब साहब अपना माथा रगड़ते हुए बोले.

“यही मैं आपसे पूछना चाहता हूँ.”

“मैं क्या बताऊं?”

“ताज्जुब की बात है कि आप इस मकान के मालिक होते हुए भी इसका जवाब नहीं दे सकते.”

“ख़ुदा गवाह है कि मैं कुछ नहीं जानता.”

“”भाला इस बात पर किसे यकीन आयेगा.” फ़रीदी ने सीढ़ी से उतरते हुए कहा, “अंदर भी कई जगहों पर ऐसे ही हॉर्न फ़िट हैं.”

“होंगे भाई…मगर मैं कसम खाकर….”

“कोई बात नहीं…मेरा काम खत्म…चलो भई हमीद….सामान वगैरह ठीक करो…इसी वक़्त चलेंगे. एक बजे वाली ट्रेन मिल ही जायेगी.”

“मगर…मगर…” नवाब साहब रुक-रूककर बोले, “काम खत्म कहाँ…हम लोगों की ज़िन्दगी ख़तरे में मालूम होती है.”

“भला मैं इसके लिए क्या कर सकता हूँ… कम से कम यह मामला मेरे बस का नहीं.” फ़रीदी ने जवाब दिया

“आखिर आप इस तरह क्यों जा रहे हैं?” ग़ज़ाला आगे बढ़कर बोली, “इतनी कामयाबी तो आपने हासिल कर ली थी और इसका पता लगाना भी कोई मामूली बात न थी.”

“और, इसका पता तो आप लोगों को भी था.”

“तुम न जाने कैसी बातें कर रहे हो. क्या मैं झूठ कह रहा हूँ.” नवाब साहब बोले.

“तारिक़ साहब, आप ख़ुद फैसला कीजिए.
फ़रीदी ने कहा, “इस बात पर किसे यकीन आयेगा कि इस तरह दीवारों में लाउड-स्पीकर फ़िट कर देना कोई घड़ी-दो-घड़ी का काम तो है नहीं. ज़ाहिर है कि इसमें वक़्त लगा होगा….फिर मैं यह कैसे समझ लूं कि इस घर के रहने वालों को इसकी खबर न हुई.. मान लीजिए कि यह हरक़त घर ही के किसी आदमी की है, तो ऐसी हालत में भी हर किसी को मालूम होना चाहिए था…क्या ख़याल है.”

“साहब, इसके बारे में क्या कह सकता हूँ.” तारिक़ ने जवाब दिय.

“जाली….लाउड-स्पीकर…” नवाब साहब ख़ुद-ब-ख़ुद बड़बड़ाये.

“शायद आपको यकीन नहीं आया.” फ़रीदी ने पतलून की जेब से बड़ा-सा चाकू निकाल कर हमीद को देते हुए कहा, “जाओ भई, ज़रा चढ़ कर इस मामले को साफ़ ही कर दो.”

हमीद चाकू लेकर सीढ़ी पर चढ़ गया. थोड़ी देर की मेहनत के बाद इतनी जाली कट गयी कि लाउडस्पीकर का हॉर्न साफ़ दिखायी देने लगा.

“ऐसे ही और भी बहुत-से लाउड स्पीकर यहाँ की दीवारों में लगे हुए हैं.” फ़रीदी बोला.

“मैं क्या करूं?” नवाब साहब बेबसे से बोले. उनके चेहरे पर पसीने की छोटी-छोटी बूंदे उभर आयी थीं.

“इस इमारत के कमरों में सफ़ेदी कब से नहीं हुई?” फरीदी ने पूछा.

 “पिछले साल हुई थी.” नवाब साहब बोले.

“तो यह सब काम उसके बाद ही हुआ है. वरना सफ़ेदी करने वालों में ज़रूर यह बात फैलती.”

“उफ़, मेरे ख़ुदा.” नवाब साहब अपना चेहरा रूमाल से साफ़ करते हुए बोले, ‘तो यह काम उस वक़्त हुआ, जब मैं और ग़ज़ाला छः महीने के लिए बाहर गए थे.”

“उस वक़्त शायद लाउड-स्पीकर के हॉर्न फ़िट किये गये, क्योंकि यह कोई ऐसा मुश्किल काम नहीं. यह एक रात में भी हो सकता है, लेकिन दीवारों में तार दौड़ाने का इंतज़ाम उसी वक़्त कर लिया गया होगा, जब यह इमारत बन रही थी.”

नवाब साहब हैरत से फ़रीदी को देख रहे थे.

“यह इमारत किसकी निगरानी में तैयार हुई थी?” अचानक फ़रीदी ने पूछा.

“मेरे मरहूम प्राइवेट सेक्रेटरी की निगरानी में.” नवाब साहब बोले, “मैं उस समय परमानेंट तौर पर लखनऊ में रहता था.”

“वो यह वजह है इन हज़रत की मौत की.” फ़रीदी अचानक बोला.

“क्या मतलब….”

“यकीनन वे उस आदमी से मिले हुए थे, जो आपको तंग कर रहा है और आखिरकार उसने उन्हें अपने रास्ते से हटा दिया.”

“आखिर वह कौन हो सकता है?” नवाब साहब ने पूछा.

“आपका कोई दुश्मन.”

नवाब साहब सोच में पड़ गये.

“मगर मेरा कोई दुश्मन इतना अक्लमंद नहीं.” नवाब साहब ने जवाब दिया.

“खैर भई….हमीद चलकर सामान इकठ्ठा करो.” फ़रीदी हमीद की तरफ़ मुड़कर बोला.

“आप हमें इस हाल में छोड़कर हरगिज़ नहीं जा सकते.”

“लेकिन मैं कर ही क्या सकता हूँ.”

“यह सब कुछ मैं नहीं जानती…आपको ठहरना पड़ेगा.”

“और अब आप इसका पता तो लगा ही सकते हैं कि इस हॉर्न का सिलसिला कहाँ से शुरू होता है.” तारिक़ बोला.

“हाँ, कोई ऐसी मुश्किल बात नहीं…सिर्फ़ पूरी इमारत खुदवानी पड़ेगी.” फ़रीदी ने ताना मारते हुए कहा.

“कुछ भी सही…लेकिन आप यहाँ से जा नहीं सकते.” ग़ज़ाला बोली, “चलिए अब चलकर आराम कीजिए.”

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