चैप्टर 7 प्रेमाश्रम मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 7 Premashram Novel By Munshi Premchand Read Online

चैप्टर 7 प्रेमाश्रम मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 7 Premashram Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 7 Premashram Novel By Munshi Premchand 

Chapter 7 Premashram Novel By Munshi Premchand 

जब तक इलाके का प्रबन्धन लाला प्रभाशंकर के हाथों में था, वह गौस खाँ को अत्याचार से रोकते रहते थे। अब ज्ञानशंकर मालिक और मुख्तार थे। उनकी स्वार्थप्रियता ने खाँ साहब को अपनी अभिलाषाएँ पूर्ण करने का अवसर प्रदान कर दिया था। वर्षान्तर पर उन्होंने बड़ी निर्दयता से लगान वसूल किया। एक कौड़ी भी बाकी न छोड़ी । जिसने रुपये न दिये या न दे सका, उस पर नालिश की, कुर्की करायी और एक का डेढ़ वसूल किया। शिकमी असामियों को समूल उखाड़ दिया और उनकी भूमि पर लगान बढ़ाकर दूसरे आदमियों को सौंप दिया। मौरूसी और दखलीकार असामियों पर भी कर-वृद्धि के उपाय सोचने लगे। वह जानते थे कि कर-वृद्धि भूमि की उत्पादक-शक्ति पर निर्भर है और इस शक्ति को घटाने-बढ़ाने के लिए केवल थोड़ी-सी वाकचतुरता की आवश्यकता होती है। सारे इलाके में हाहाकार मच गया। कर-वृद्धि के पिशाच को शान्त करने के लिए लोग नाना प्रकार के अनुष्ठान करने लगे। प्रभात से सन्ध्या तक खाँ साहब का दरबार लगा रहता! वह स्वयं मसनद लगाकर विराजमान होते। मुन्शी मौजीलाल पटवारी उनके दाहिनी ओर बैठते और सुक्खू चौधरी बायीं ओर। यह महानुभाव गाँव के मुखिया, सबसे बड़े किसान और सामर्थी पुरुष थे। असामियों पर उनका बहुत दबाव था, इसलिए नीतिकुशल खाँ साहब ने उन्हें अपनी मन्त्री बना लिया था। यह त्रिमूर्ति समस्त इलाके के भाग्य विधायक थी।

खाँ साहब पहले अपने अवकाश का समय भोग-विलास में व्यतीत करते थे। अब यह समय कुरान का पाठ करने में व्यतीत होता था। जहाँ कोई फकीर यहा भिक्षुक द्वार पर खड़ा भी न होने पाता था, वहाँ अब अभ्यागतों को उदारपूर्ण सत्कार किया जाता था। कभी-कभी वस्त्रदान भी होता। लोकि सिद्धि ने परलोक बनाने की सदिच्छा उत्पन्न कर दी थी!

अब खाँ साहब को विदित हुआ कि इस इलाके को विद्रोही समझने में मेरी भूल थी। ऐसा विरला ही कोई असामी था जिसने उसकी चौखट पर मस्तक न नवाया हो। गाँव में दस-बारह घर ठाकुरों के थे। उनमें लगान बड़ी कठिनाई से वसूल होता था। किन्तु इजाफा लगाने की खबर पाते ही वह भी दब गये। डपटसिंह उनके नेता थे। वह दिन में दस-पाँच बार खाँ साहब को सलाम करने आया करते थे। दुखरन भगत शिवजी को जल चढ़ाने जाते समय पहले चौपाल का दर्शन करना अपना परम कर्त्तव्य समझते थे। बस, अब समस्त इलाके में कोई विद्रोही था तो मनोहर था और कोई बन्धु था तो कादिर। वह खेत से लौटता तो कादिर के घर जा बैठता और अपने दिनों को रोता। इन दोनों मनुष्यों को साथ बैठे देखकर सुक्खू चौधरी की छाती पर साँप लोटने लगता था। वह यह जानना चाहते थे कि इन दोनों में क्या बातें हुआ करती हैं। अवश्य मेरी ही बुराई करते होंगे। उन्हें देखते ही दोनों चुप हो जाते थे, इससे चौधरी के सन्देह की और भी पुष्टि हो जाती थी। खाँ साहब ने कादिर का नाम शैतान रख छोड़ा था और मनोहर को काला नाग कहा करते थे। काले नाग का तो उन्हें बहुत भय नहीं था, क्योंकि एक चोट से उसका काम तमाम कर सकते थे, मगर शैतान से डरते थे। क्योंकि उस पर चोट करना दुष्कर था। उस जवार में कादिर का बड़ा मान था। वह बड़ा नीतिकुशल, उदार और दयालु था। इसके अतिरिक्त उसे जड़ी-बूटियों का अच्छा ज्ञान था। यहाँ हकीम वैद्य, डॉक्टर जो कुछ था वही था। रोग-निदान में भी उसे पूर्ण अभ्यास था। इससे जनता की उसमें विशेष श्रद्धा थी। एक बार लाला जटाशंकर कठिन नेत्र-रोग से पीड़ित थे। बहुत प्रयत्न किये, पर कुछ लाभ न हुआ, कादिर की जड़ी-बूटियों ने एक ही सप्ताह में इस असाध्य रोग का निवारण कर दिया। खाँ साहब को भी एक बार कादिर के ही नुस्खे ने प्लेग से बचा लिया था। खाँ साहब इस उपकार से तो नहीं, पर कादिर की सर्वप्रियता से सशंक रहते थे। वह सदैव इसी उधेड़बुन में रहते थे कि इस शैतान को कैसे पंजे में लाऊँ।

किन्तु कादिर निश्चिंत और निश्शंक अपने काम में लगा रहता था। उसे एक क्षण के लिए भी यह भय न होता था कि गाँव के ज़मींदार और कारिन्दा मेरे शत्रु हो रहे हैं और उनकी शत्रुता मेरा सर्वनाश कर सकती है। यदि इस समय भी दैवयोग से खाँ साहब बीमार पड़ जाते, तो वह उनका इशारा पाते ही तुरन्त उनके उपचार और सेवा-शुश्रूषा में दत्तचित्त हो जाता। उसके हृदय में राग और द्वेष के लिए स्थान न था और न इस बात की परवाह थी कि मेरे विषय में कैसे-कैसे मिथ्यालाप हो रहे हैं! वह गाँव में विद्रोहाग्नि भड़का सकता था; खाँ साहब उनके सिपाहियों की खबर ले सकता था। गाँव में ऐसे उद्दंड नवयुवक थे, जो इस अनिष्ट के लिए आतुर थे, किन्तु कादिर उन्हें सँभाले रहता था। दीन-रक्षा उसका लक्ष्य था, किन्तु क्रोध और द्वेष को उभाड़कर नहीं, वरन् सद्व्यहार तथा सत्प्रेरणा से।

मनोहर की दशा इसके प्रतिकूल थी। जिस दिन से वह ज्ञानशंकर की कठोर बातें सुनकर लौटा था, उसी दिन से विकृत भावनाएँ उसके हृदय और मस्तिष्क में गूँजती रहती थीं। एक दीन मर्माहत पक्षी था, जो घावों से तड़प रहा था! वह अपशब्द उसे एक क्षण भी नहीं भूलते थे। वह ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहता था। वह जानता था कि सबलों से बैर बढ़ाने में मेरा सर्वनाश होगा, किन्तु इस समय उसकी अवस्था उस मनुष्य की सी हो रही थी, जिसके झोंपड़े में आग लगी हो और वह उसके बुझाने में असमर्थ होकर शेष भागों में भी आग लगा दे कि किसी प्रकार विपत्ति का अंत हो। रोगी अपने रोग को असाध्य देखता है, तो पथ्यापथ्य की बेड़ियों को तोड़कर मृत्यु की और दौड़ता है। मनोहर चौपाल के सामने से निकलता तो अकड़कर चलने लगता। अपनी चारपाई पर बैठे हुए कभी खाँ साहब या गिरधर महाराज को आते देखता, तो उठकर सलाम करने के बदले पैर फैलाकर लेट जाता। सावन में उसके पेड़ों के आम पके, उसने सब आम तोड़कर घर में रख लिये, ज़मींदार का चिरकाल से बँधा हुआ चतुर्थांश न दिया, और जब गिरधर महाराज माँगने आये तो उन्हें दुत्कार दिया। वह सिद्ध करना चाहता था कि मुझे तुम्हारी धमकियों की जरा भी परवाह नहीं है, कभी-कभी नौ-दस बजे रात तक उसके द्वार पर गाना होता, जिसका अभिप्राय केवल खाँ साहब और सुक्खू चौधरी को जलाना था। बलराज को अब वह स्वेच्छाचार प्राप्त हो गया, जिसके लिए पहले उसे झिड़कियाँ खानी पड़ती थीं। उनके रंगीले सहचरों का यहाँ खूब आदर-सत्कार होता, भंग छनती, लकड़ी के खेल होते, लावनी और ख्याल की तानें उड़ती डफली बजती। मनोहर जवानी के जोश के साथ इन जमघटों में सम्मिलित होता। ये ही दोनों पक्षों के विचार- विनिमय के माध्यम से। खाँ साहब की एक-एक बात की सूचना यहाँ हो जाती थी। यहाँ का एक-एक शब्द वहाँ पहुँच जाता था। यह गुप्त चालें आग पर तेल छिड़कती रहती थीं। खाँ साहब ने एक दिन कहा, आजकल तो उधर गुलछर्रे उड़ रहे हैं, बेदखली का सम्मन पहुँचेगा तो होश ठिकाने हो जायेगा। मनोहर ने उत्तर दिया– बेदखली की धमकी दूसरे को दें, यहाँ हमारे खेत के मेडों पर कोई आया तो उसके बाल-बच्चे उसके नाम को रोयेंगे।

एक दिन सन्ध्या समय, मनोहर द्वार पर बैठा हुआ बैलों के लिए कड़वी छाँट रहा था और बलराज अपनी लाठी में तेल लगाता था कि ठाकुर डपटसिंह आकर माचे पर बैठ गये और बोले, सुनते हैं डिप्टी ज्वालासिंह हमारे बाबू साहब के पुराने दोस्त हैं! छोटे सरकार के लड़के थानेदार थे, उनका मुकदमा उन्हीं के इलजाम में था। वह आज बरी हो गये।

मनोहर– रिश्वत तो साबित हो गई थी न?

डपटसिंह– हाँ, साबित हो गई थी। किसी को उनके बरी होने की आशा न थी। पर बाबू ज्ञानशंकर ने ऐसी सिफारिस पहुँचायी कि डिप्टी साहब को मुकदमा खारिज करना पड़ा।

मनोहर– हमारे परगने का हाकिम भी तो वही डिप्टी है।

डपट– हाँ, इसी की तो चिन्ता है। इजाफा लगान का मामला उसी के इलजाम में जायेगा और ज्ञान बाबू अपना पूरा जोर लगायेंगे?

मनोहर– तब क्या करना होगा?

डपट– कुछ समझ में नहीं आता।

मनोहर– ऐसा कोई कानून नहीं बन जाता कि बेसी का मामला इन हाकिमों के इजलास में न पेश हुआ करे। हाकिम लोग आप भी तो ज़मींदार होते हैं, इसलिए वह जमींदारों का पक्ष करते हैं। सुनते हैं, लाट साहब के यहाँ कोई पंचायत होती है। यह बातें उस पंचायत में कोई नहीं कहता?

डपट– वहाँ भी तो सब ज़मींदार होते हैं, काश्तकारों की फरयाद कौन करेगा?

मनोहर– हमने तो ठान लिया है कि एक कौड़ी भी बेसी न देंगे।

बलराज ने लाठी कन्धे पर रखकर कहा, कौन इजाफ़ा करेगा, सिर तोड़ के रख दूँगा।

मनोहर– तू क्यों बीच में बोलता है? तुझसे तो हम नहीं पूछते। यह तो न होगा कि साँझ हो गयी है, लाओ भैंस दुह लूँ, बैल की नाद में पानी डाल दूँ। बे बात की बात बकता है। (ठाकुर से) यह लौंडा घर का रत्ती भर काम नहीं करता। बस खाने भर का घर से नाता है, मटरगसत किया करता है।

डपट– मुझसे क्या कहते हो मेरे यहाँ तो तीन-तीन मूसलचन्द हैं।

मनोहर– मैं तो एक कौड़ी बेसी न दूँगा, और न खेत ही छोड़ूँगा। खेतों के साथ जान भी जायेगी और दो-चार को साथ लेकर जायेगी।

बलराज– किसी ने हमारे खेतों की ओर आँख भी उठायी तो कुशल नहीं।

मनोहर– फिर बीच में बोला?

बलराज– क्यों न बोलूँ, तुम तो दो-चार दिन के मेहमान हो, जो कुछ पड़ेगी। वह तो हमारे ही सिर पड़ेगी। ज़मींदार कोई बादशाह नहीं है कि चाहे जितनी जबरदस्ती करे और वह मुँह न खोलें। इस जमाने में तो बादशाहों का भी इतना अख्तियार नहीं, ज़मींदार किस गिनती में हैं! कचहरी दरबार में कहीं सुनायी नहीं है तो (लाठी दिखलाकर) यह तो कहीं नहीं गयी है।

डपट– कहीं खाँ साहब यह बातें सुन लें तो गजब हो जाय।

बलराज– तुम खाँ साहब से डरो, यहाँ उनके दबैल नहीं हैं। खेत में चाहे कुछ उपज हो या न हो, बेसी होती चली जाय, ऐसा क्या अन्धेर है? ‘सरकार के घर कुछ तो न्याय होगा, किस बात पर बेसी मंजूर करेगी।

डपट– अनाज का भाव नहीं चढ़ गया है?

बलराज– भाव चढ़ गया है तो मजदूरों की मजदूरी भी चढ़ गयी है, बैलों का दाम भी तो चढ़ गया है, लोहे-लक्कड़ का दाम भी तो चढ़ गया है, यह किसके घर से आयेगा?

इतने में तो कादिर मियाँ घास का गट्ठर सिर पर रखे हुए आकर खड़े हो गये। बलराज की बातें सुनीं तो मुस्कुराकर बोले– भाँग का दाम भी तो चढ़ गया है। चरस भी महँगी हो गई है, कत्था-सुपारी भी तो दूने दामों बिकती है, इसे क्यों छोड़ जाते हो?

मनोहर– हाँ, कदारि दादा, तुमने हमारे मन की कही।

बलराज– तो क्या अपनी जवानी में तुम लोगों ने बूटी-भाँग न पी होगी? या सदा इसी तरह एक जून चबेना और दूसरी जून रोटी-साग खाकर दिन काटे हैं? और फिर तुम ज़मींदार के गुलाम बने रहो तो उस जमाने में और कर ही क्या सकते थे? न अपने खेत में काम करते, किसी दूसरे के खेत में मजदूरी करते। अब तो शहरों में मजूरों की माँग है, रुपया रोज खाने को मिलता है, रहने को पक्का घर अलग। अब हम जमींदारों की धौंस क्यों सहें, क्या भर पेट खाने को तरसें?

कादिर– क्यों मनोहर, क्या खाने को नहीं देते?

बलराज– यह भी कोई खाना है कि एक आदमी खाय और घर के सब आदमी उपास करें? गाँव में सुक्खू चौधरी को छोड़कर और किसी के घर दोनों बेला चूल्हा जलता है? किसी को एक जून चबेना मिलता है, कोई चुटकी भर सत्तू फाँककर रह जाता है। दूसरी बेला भी पेट भर रोटी नहीं मिलती।

कादिर– भाई, बलराज बात तो सच्ची कहता है। इस खेती में कुछ रह नहीं गया, मजदूरी भी नहीं पड़ती। अब मेरे ही घर देखो, कुल छोटे-बड़े मिलाकर दस आदमी हैं, पाँच-पाँच रुपये भी कमाते तो सौ रुपये साल भर के होते। खा-पी कर पचास रुपये बचे ही रहते। लेकिन इस खेती में रात-दिन लगे रहते हैं, फिर भी किसी को भर पेट दाना नहीं मिलता।

डपट– बस, एक मरजाद रह गयी है, दूसरों की मजूरी करते नहीं बनती, इसी बहाने से किसी तरह निबाह हो जाता है। नहीं तो बलराज की उमिर में हम लोग खेत के डाँढ़ पर न जाते थे। न जाने क्या हुआ कि जमीन की बरक्कत ही उठ गयी। जहाँ बीघा पीछे बीस-बीस मन होते थे, वहाँ चार-पाँच मन से आगे नहीं जाता।

मनोहर– सरकार को यह हाल मालूम होता तो जरूर कास्तकारों पर निगाह करती।

कादिर– मालूम क्यों नहीं है? रत्ती-रत्ती का पता लगा लेती है।

डपट– (हँसकर) बलराज से कहो, सरकार के दरबार में हम लोगों की ओर से फरियाद कर आये।

बलराज– तुम लोग तो ऐसी हँसी उड़ाते हो, मानो कास्तकार कुछ होता ही नहीं। वह ज़मींदार की बेगार ही भरने के लिए बनाया गया है; लेकिन मेरे पास जो पत्र आता है, उसमें लिखा है कि रूस देश में कास्तकारों का राज है, वह जो चाहते हैं करते हैं। उसी के पास कोई और देश बलगारी है। वहाँ अभी हाल की बात है, कास्तकारों ने राजा को गद्दी से उतार दिया है और अब किसानों और मजूरों की पंचायत राज करती है।

कादिर– (कुतूहल से) तो चलो ठाकुर! उसी देश में चलें वहाँ मालगुजारी न देनी पड़ेगी।

डपट– वहाँ के कास्तकार बड़े चतुर और बुद्धिमान होंगे तभी राज सँभालते होंगे!

कादिर– मुझे तो विश्वास नहीं आता।

मनोहर– हमारे पत्र में झूठी बातें नहीं होती।

बलराज– पत्रवाले झूठी बातें लिखें तो सजा पा जायें ।

मनोहर– जब उस देश के किसान राजा का बन्दोबस्त कर लेते हैं, तो क्या हम लोग लाट साहब से अपना रोना भी न रो सकेंगे?

कादिर– तहसीलदार साहब के सामने तो मुँह खुलता नहीं, लाट साहब से कौन फरियाद करेगा?

बलराज– तुम्हारा मुँह न खुले, मेरी तो लाट साहब से बातचीत हो, तो सारी कथा कह सुनाऊँ।

कादिर– अच्छा, अबकी हाकिम लोग दौरे पर आयेगे, तो हम तुम्हीं को उनके सामने खड़ा कर देंगे।

यह कहकर कादिर खाँ घर की ओर चले। बलराज ने भी लाठी कन्धे पर रखी और उनके पीछे चला। जब दोनों कुछ दूर निकल गये तब बलराज ने कहा– दादा, कहो तो खाँ साहब की (घूँसे का इशारा करके) कर दी जाय।

कादिर ने चौंककर उसकी ओर देखा– क्या गाँव भर को बँधवाने पर लगे हो? भूलकर भी ऐसा काम न करना।

बलराज– सब मामला लैस है, तुम्हारे हुकुम की देर है।

कादिर– (कान पकड़कर) न! मैं तुम्हें आग में कूदने की सलाह न दूँगा। जब अल्लाह को मंजूर होगा तब वह आप ही यहाँ से चले जायेंगे।

बलराज– अच्छा तो बीच में न पड़ोगे न?

कादिर– तो क्या तुम लोग सचमुच मार-पीट पर उतारू हो क्या? हमारी बात न मानोगे तो मैं जाकर थाने में इत्तला कर दूँगा। यह मुझसे नहीं हो सकता कि तुम लोग गाँव में आग लगाओ और मैं देखता रहूँ।

बलराज– तो तुम्हारी सलाह है नित यह अन्याय सहते जायें!

कादिर– जब अल्लाह को मन्जूर होगा तो आप-ही-हाप सब उपाय हो जायेगा।

क्रमश:

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