चैप्टर 3 दीवाने होके हम रोमांटिक सस्पेंस नॉवेल | Chapter 3 Deewane Hoke Hum Romantic Suspense Novel In Hindi Read Online

चैप्टर 3 दीवाने होके हम रोमांटिक सस्पेंस नॉवेल | Chapter 3 Deewane Hoke Hum Romantic Suspense Novel In Hindi Read Online

Chapter 3 Deewane Hoke Hum Romantic Suspense Novel In Hindi 

Chapter 3 Deewane Hoke Hum Romantic Suspense Novel In Hindi 

बिस्तर पर लेटे तकिया बाहों में जकड़े वह शख्स उस चेहरे को याद करने की कोशिश कर रहा था, जिससे पिछली रात वह पार्टी में टकराया था कि तभी उसका मोबाइल फिर बजा। आँखें घुमाकर उसने कॉल पिक की।

“हैप्पी रोज़ डे… मुम्म्हा…!”  दूसरी तरफ से आई आवाज में इस बार नाराज़गी नहीं थी। वह कुछ कह पाता, उसके पहले ही कॉल कट गई। वह गहरी साँस भरकर उठा, साइड टेबल से दूरबीन उठाई और बालकनी पर जाकर खड़ा हो गया। दूरबीन उसकी आँखों पर टिकी थी और उसका फोकस रूपल का घर था।

“हैप्पी रोज़ डे रूपल!” वह होंठों ही होंठों में बोला और अंदर चला गया।

रूपल उस वक्त अपने कमरे में थी और कबर्ड से कपड़े निकाल रही थी। 

“ज़रा बन-ठनकर जाना।” माँ सावित्री देवी की आवाज उसके कानों में पड़ी। उसने पलटकर देखा। वो दरवाजे पर खड़ी थीं। रूपल ने कोई जवाब नहीं दिया और कपड़े लेकर बाथरूम की तरफ बढ़ गई।

“इसके नखरे…!” बड़बड़ाते हुए सावित्री देवी ड्राइंग रूम में आकर सोफे पर बैठ गई और सेंटर टेबल पर पड़ा अखबार उठा लिया। सावित्री देवी की उम्र तकरीबन साठ बरस थी। मध्यम कद, साफ़ रंग, गोल चेहरा, बालों से झांकती सफ़ेदी, ख़ासा तंदरुस्त भारी-भरकम शरीर और तेज जुबां – वह एक तेज-तर्रार महिला जान पड़ती थी। कल्पना की जाये, तो हाथ में मोटा स्टिक लिए शरारती स्टूडेंट्स की खबर लेने स्कूल में राउंड मारती प्रिंसिपल की छबि उनमें पूरी तरह से समायी हुई थी। प्रिंसिपल के पद से वह इसी साल रिटायर हुई थी। रूपल के लिए तो वह माँ से ज्यादा स्कूल की प्रिंसिपल ही थीं।

अखबार की हेडलाइन पढ़ते ही सावित्री देवी बोल पड़ी, “ये तो रूपल के कॉलेज की लड़की है ना देवेन्द्र?” 

करीब ही बैठे देवेन्द्र ने सावित्री देवी के हाथ से अख़बार लिया और ख़बर पढ़ने के बाद सोच में गुम हो गया। देवेन्द्र रूपल का बड़ा भाई था। पूरा नाम – डॉ. देवेन्द्र ठाकुर। साफ़ रंग, अंडाकार चेहरा, घनी मूँछे, मध्यम कद, भरा-भरा शरीर। डील-डौल और चेहरे-मोहरे से वह साउथ के हीरो अरविंद स्वामी का अक्स लगता था। 

“रूपल के कॉलेज की ही लड़की है ना?” सावित्री देवी ने दोबारा पूछा, तो देवेन्द्र अपनी सोच से बाहर आया।

“हाँ माँ !” कहकर वह खड़ा हुआ और घड़ी पर नज़र डालकर बोला, “उससे कह दो माँ कि वक्त पर तैयार रहे। कोई बहाना नहीं चलेगा। लोग आते हैं, जाते हैं…पर ज़िंदगी तो चलती ही रहती है।” 

वह अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। सावित्री देवी ने फिर अख़बार हाथों में ले लिया और बड़बड़ाई, “आज वो कोई आना-कानी नहीं करेगी।”

तकरीबन साढ़े दस बजे रूपल तैयार थी और भीगी पलकें लिए कार की फ्रंट सीट पर गुमसुम-सी बैठी बारिश की चमकती बूंदों को निहार रही थी। मगर खुद उसकी आँखों में कोई चमक न थी, स्याह बादलों सी गहरी उदासी थी, आँसुओं का सैलाब उमड़ रहा था, रह-रहकर किसी की याद सता रही थी। उसकी, जो बारिश की रिमझिम फुहार बनकर उसकी ज़िन्दगी में आया और अपना प्यार बरसाकर जाने कहाँ खो गया। रह गई तो बस यादें, जो हर पल उसे तड़पाती; आँसू, जो रिस-रिस कर बहते; दर्द, जो सहा नहीं जाता; बेचैनी, जो जीना मुश्किल कर देती। बेबसी का आलम कुछ यूं था कि आँसुओं का कारवां रोके नहीं रुकता था।

आँसुओं को ज़ब्त करने उसने आँखें बंद कर ली और तीन साल पहले यूं ही बारिश से भीगे ‘रोज़-डे’ के ख़ुशनुमा दिन का वो हसीन मंजर उसकी आँखों के सामने तैर गया, जिसमें दो जवां दिल बारिश में ख़ुद को भीगने से बचाते हुए चाय की एक टपरी पर खड़े थे – एक वह ख़ुद थी और दूसरा था सारांश, जिसे वो दिलो-जान से चाहती थी। सारांश भी उसे शिद्दत से चाहता था। ये पहली बार था, जब घर पर बहाना बनाकर वह सारांश से मिलने आई थी। घर पर झूठ बोलने की ग्लानि और सारांश से मिलने का रोमांच, दो अलहदा से अहसास उसके दिल में हलचल मचाये हुए थे। ढेरों प्लानिंग कर रखी थी दोनों ने, मगर बिन मौसम की बारिश उनकी पूरी प्लानिंग पर पानी फेर रही थी।

“पता है रूपल, मुझे बारिश से मोहब्बत है।” बारिश की बूंदों को अपनी हथेली में समेटते हुए सारांश ने कहा।

“मुझसे भी ज्यादा?” रूपल रुठते हुए बोली और मुँह दूसरी तरफ फेर लिया।

“स्टुपिड! तुमसे ज्यादा नहीं…” उसे कंधे से पकड़कर अपनी तरफ़ घुमाते हुए सारांश ने कहा।

“सच!!” रूपल चहक उठी। 

“बिल्कुल सच….” प्यार भरी नज़रें उसने रूपल पर फेंकी और उसकी आँखों में देखकर कहा, “तुमसे ज्यादा नहीं…तुमसे बहुत-बहुत ज्यादा…” और उसके होंठों पर मुस्कराहट बिखर गई।

“दुनिया की हर चीज़ तुम्हें मुझसे ज्यादा अज़ीज़ है। तुम्हारी नज़र में मेरी कोई अहमियत ही नहीं।” रूपल बिदककर बोली। उसका मुँह उतर गया था।

सारांश के होंठ अब भी मुस्कुरा रहे थे, जिसमें साथ दे रही थीं उसकी गहरी स्याह आँखें। रूपल की कजरारी आँखों में नमकीन धार उठने लगी थी, दिल दु:खने लगा था और तड़प-तड़प कर कहने लगा था, “ऐसे हसीन पलों में ऐसी बात कोई कहता है भला? सडू कहीं का!!”

वह गुस्से में जली जा रही थी और मुँह फुलाये आँखों में तैश भरकर उसे देख रही थी।

सारांश उसके इस हाल के मज़े ले रहा था। वह तो उसे बस यूं ही सता रहा था। वह जानता था कि वो रूठ जायेगी। पर मनाना भी तो उसे आता था। मोहब्बत की ख़ुशबू से महकते मखमली अल्फाज़ों से उसका रोम-रोम यूं महका देना कि उसकी नाराज़गी धुआं हो जाये। यही किया उसने।

रूपल के क़रीब आकर उसके कान में सरगोशी करते हुये वह बोला, “मुझे उस बारिश से मोहब्बत है, जिसमें मेरी मोहब्बत मेरे साथ हो और वो तो तुम हो ना!” 

रूपल का गुस्सा मोम बनकर पिघल गया, गाल सुर्ख हो गये और पलकें शर्म से झुक गई। शर्मायी हुई रूपल के गालों के सुर्ख होते रंग में वह अपने प्यार का रंग भर देना चाहता था। उसने हाथ बढ़ाकर उसके गालों को छूना चाहा, तभी मोहब्बत के दुश्मन चाय वाले ने अपनी कर्कश आवाज़ में उन रूमानी पलों में पानी…नहीं….चाय फेर दी।

“साहेब चाय!!” कांच के दो छोटे गिलासों में चाय छानकर सारांश की तरफ बढ़ाते हुए चायवाला बोला।

रूपल के सर्द हो रहे मुलायम गालों को छूने की फिराक़ में लगे सारांश ने कबाब में हड्डी बने चायवाले को तिरछी नज़र से देखा। चाय वाला अपने दोनों में हाथों में पकड़े चाय के गिलास हिलाते हुए कह रहा था, “चाय ठंडी हो जायेगी साहेब!”

‘मेरे अरमान ठंडे हो जायेंगे, उसका क्या?’ बड़बड़ाते हुए सारांश मजबूरन चाय लेने के लिए घूम गया और चायवाले से दोनों गिलास लेकर एक गिलास रूपल को थमा दिया।

अब बारिश से भीगे मौसम में भीगी-भागी रूपल गर्म चाय की चुस्कियाँ ले रही थी और बारिश की फुहारों को इस गुज़ारिश के साथ निहार रही थी – ‘आज बस थम जाओ, कल जितना चाहे बरस लेना।’ और सारांश एक साँस में चाय खत्म कर फिर से अपनी हथेली पर नाचती बारिश की बूंदों से खेल रहा था।

चाय खत्म कर रूपल सारांश की तरफ़ पलटी और उसे अब भी बारिश की बूंदों में उलझा देखकर बोली, “क्या कर रहे हो?”

“ये!” कहते हुए सारांश ने हथेली पर समेटा हुआ बारिश का पानी रूपल पर उछाल दिया।

एकाएक हुई इस हरक़त पर रूपल सकपका सी गई और उसने चमककर अपनी आँखें बंद कर ली। जब उसने आँखें खोली, तो एक शरारत भरी मुस्कान लिए सारांश का चेहरा उसके सामने था।

“हेय!! फिर से ऐसा किया ना, तो आई विल किल यू।” रूपल उसे कोहनी मारकर बोली और दुपट्टे के किनारे से अपना चेहरा पोंछने लगी।

“जान हाज़िर है माइ लव!” दिल पर हाथ रखकर सारांश उसके सामने सिर झुकाकर खड़ा हो गया। दीवानों की सी उसकी ये हरक़त देख रूपल ने उसके सिर पर प्यार से चपत जमा दी।

“वैसे मैं सनसनी का एक नया एपिसोड इमेजिन कर रहा हूँ। गौर से देखिये इस भोली-भाली लड़की को, जिसने अपनी पहली ही डेट पर अपने बॉयफ्रेंड का कत्ल कर दिया।” सारांश की आवाज़ में सनसनी वाली सनसनाहट थी।

इस बात पर रूपल ने मुँह बनाकर और आँखों में गुस्सा भरकर उसे घूरा, फिर हँस पड़ी।

“रूपल! कितना रोमांटिक मौसम है यार!” उसके दुपट्टे का एक छोर पकड़ते हुए सारांश बोला।

“हाँ तो!”

“तो ये कि ऐसे रोमांटिक मौसम में तुम कितनी अन-रोमांटिक हो यार? थोड़ी तो रोमांटिक हो जाओ।” रूपल का दुपट्टा खींचते हुए वह ज़िद करने वाले अंदाज़ में कहने लगा।

“क्या कर रहो हो? देख रहा है ये।” धीमी आवाज़ में चायवाले की तरफ़ इशारा कर रूपल बोली और अपना दुपट्टा छुड़ाने लगी।

उस वक़्त वहाँ उनके और चायवाले के सिवाय और कोई नहीं था। चाय वाले की नज़र इधर-उधर भटककर बार-बार उन पर ही अटक रही थी। 

“देख रहा है, तो देखने दो।” सारांश बेफ़िक्री से बोला और झटका देकर रूपल का दुपट्टा अपनी ओर खींच लिया। दुपट्टे के साथ वह भी उसके क़रीब खिंची चली आई। अब वह उसका कंधा पकड़े उसके बेहद क़रीब सिर झुकाये खड़ी थी।

सारांश की साँसों की महक उसका रोम-रोम महका रही थी। उसकी प्यार भरी नज़रें उसका दिल धड़का रही थी। वह उसके सीने से लिपट जाना चाहती थी। उसकी बाहों में सिमट जाना चाहती थी। मगर उसे फिर से चायवाले का ख़याल आ गया। हिचकते हुए उसने चाय वाले की तरफ़ नज़र घुमाई, तो देखा कि अब वह बत्तीसी निपोरे बिंदास उन्हें देख रहा है।

“छोड़ो ना!” वह सारांश के कान में हौले से बोली।

“उहूं!” 

“प्लीज!” उसने मिन्नत की और सारांश ने मुस्कुराकर दुपट्टा उसके सिर पर ओढ़ा दिया।

“ऐसे अच्छी लगती हो।” बड़े ही प्यार से उसने कहा।

“हाँ मेमसाहब! आप ऐसई अच्छी लगती हो।” अपने चमचमाते दांतों के साथ डाबर लाल दंत मंजन का विज्ञापन करता हुआ ये चायवाला था।

रूपल ने घूरकर चायवाले को देखा और दुपट्टा अपने सिर से खींच लिया। वह सारांश से दूर जाकर दूसरी तरफ़ मुँह करके खड़ी हो गई। सारांश धीरे-से चायवाले के पास गया और उसके गले में हाथ डालकर बोला, “शादी हो गई क्या बबुआ?”

“अभी कहाँ साहेब!” चायवाले ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। वह तेईस-चौबीस बरस का दुबला-पतला सा लड़का था।

“गर्लफ्रेंड है?”

“एक ठो है साहेब….जमुनिया!” चाय वाला बोला और सिर झुकाकर नई-नवेली दुल्हन की तरह शर्माने लगा।

“रोमांस किये हो कभी?” सारांश ने उसके कान में फुसफुसाते हुए पूछा।

“साहेब!!” रोमांस सुनकर चायवाले के तन-बदन में झुरझुरी दौड़ गई। कुछ याद करते हुये वह धीरे-से बोला, “एक बार रोमांस किये के खातिर ले गये रहे जमुनिया को फ़िल्लम दिखाने – सीला की जवानी….”

‘शीला की जवानी’ सुनते हुए ही रूपल झटके से पलटी और घूरकर सारांश को देखने लगी।

उधर चायवाले की स्टोरी कंटिन्यू थी, “…बहुतई मज़ा आई रहा था साहेब! पर हाय रे हमार फ़ूटी किस्मत, उसका मरा बाप भी उहाँ…उसी हॉल में सीला की जवानी लूटत रहा। अईसा सूता बुढ़ऊ ने…अईसा सूता…हम अपनी जवानी भूल गये साहेब…उके बाद कभी रोमांस नाही किये…”

“अरे…रे….रे…..रे….”

“पर इहाँ आपको देखके मनमा इमोशन जाग रहे हैं साहेब…रोमांस की फुलझड़ी हमरे तन-बदन में फूट रही है साहेब…” कहते हुए कंधे सिकोड़कर चायवाला शर्माने लगा। रोमांस की आग धधक चुकी थी उसके दिल में।

“हाँ तो जाओ बबुआ, रोमांस-वोमांस करो…किसने रोका है?”

“फ़ोकट में काहे का रोमांस साहेब? रोमांस करेंगे, तो भूखे मरेंगे…” चायवाला थोड़ा दु:खी होकर बोला।

ये सुनते ही सारांश ने फ़ौरन ज़ेब से दो हज़ार का नोट निकाला और चायवाले को थमाते हुए बोला, “आज ऐश करो बबुआ…..”

“नहीं…नहीं…साहेब…हम नहीं…” चायवाला हिचका।

“अब से जब भी यहाँ आयेंगे, फ़ोकट में चाय पियेंगे तुम्हारी…याद रखना हमको…” सारांश हक़ जताते हुए बोला और चायवाले ने ख़ुशी-ख़ुशी पैसे रख लिये।

“आपकी खातिर पेसल (स्पेशल) चाय बनायेंगे साहेब और भाभी जी…हमार मतलब है…मेमसाहब की खातिर भी…” चायवाले ने रूपल को देखते हुए कहा।

रूपल कमर पर हाथ रखकर दानवीर कर्ण बने सारांश को घूर रही थी। उसकी नाराज़गी सारांश समझ चुका था। वह उसके पास जाकर बोला, “आज मैं बहुत ख़ुश हूँ रूपल। तुम जो साथ हो मेरे। बस में होता, तो दुनिया की सारी दौलत लुटा देता।”

सारांश का ये कहना था कि रूपल की नाराज़गी मोम बनकर पिघल गई। सिर झटककर वह मुस्कुरा दी। वह कुछ कहने को हुई, मगर सारांश ने उसे मौका ही नहीं दिया। उसका हाथ पकड़कर वह सड़क पर दौड़ गया।

“सारांश….” वह कहते रह गई।

बरसते सावन में दो सुलगते दिल सड़क पर दौड़े चले जा रहे थे। प्यार का ख़ुमार दोनों पर चढ़ चुका था। उनके कदम थमे, एक पार्क के सामने, जो उस वक़्त पूरी तरह वीरान था।

सारांश उसे खींचकर पार्क के अंदर ले गया, जहाँ एक पुराना पलाश का पेड़ उनका ठिकाना बना। दोनों पलाश के पेड़ के नीचे ख़ामोश खड़े थे। बारिश की बूंदे उनके जिस्मों पर फिसल रही थी, सर्द हवा उन्हें छूकर गुज़र रही थी औऱ फ़िज़ा में महकती रूमानियत हौले-हौले उनकी साँसों में घुल रही थी। 

“रूपल!” नज़रें झुकाये खड़ी रूपल को सारांश ने प्यार से पुकारा।

“हुम्म…!” दुपट्टे के किनारे को अपनी नाज़ुक उंगलियों पर लपेटते हुए रूपल ने हौले से जवाब दिया।

एक कदम बढ़ाकर सारांश ने अपने और रूपल के दरमियान मौजूद फ़ासला कम कर लिया और धीरे से बोला, “कुछ कहो ना!” 

“क्या?” कंधे से फिसलते दुपट्टे को संभालते हुए रूपल सकुचाकर एक कदम पीछे सरकी।

“यही कि तुम्हें मुझसे कितनी मोहब्बत है।” सारांश के कदम फिर रूपल के करीब बढ़ गये।

धड़कते दिल और बेलगाम हो चुकी साँसों को संभालते हुए रूपल पीछे खिसकी। उसकी पीठ पेड़ के तने से जा टकराई और उसने आँखें मींच ली। सारांश उसके करीब पेड़ के तने पर कोहनी टिकाये खड़ा उसे प्यार भरी नज़रों से निहारने लगा। 

“रूपल! तुम्हारी चढ़ती गिरती साँसों की आवाज साफ-साफ सुन रहा हूँ मैं। क्या तुम मेरी धड़कन सुन रही हो?” कहते हुए उसने रूपल का हाथ अपने सीने पर रख लिया। उसके दिल की हलचल रूपल की रगों से होते हुए उसके दिल में उतर गई और दिल में ज़ब्त अरमान उन दायरों से बाहर छलक आये, जिनमें रूपल ने उन्हें बांध रखा था।

अगले ही पल वह सारांश के सीने में धंस गई। उसकी बाहें उसकी पीठ पर कस गई। सारांश अब भी पेड़ के तने पर कोहनी टिकाये उसे निहार रहा था।

“बोलो न रूपल, तुम्हें मुझसे कितनी मोहब्बत है?”

रूपल ने अपना चेहरा ऊपर उठाया और उसकी नज़र सारांश की नज़रों में उलझ गई। सारांश की सांसें उसके गालों को छू रही थी। वह हौले से बोली, “बताऊं या जताऊं?”

सारांश ख़ामोश रह गया। अगले ही पल रूपल के नाज़ुक लब सारांश के लबों का लम्स महसूस करने की चाहत में आगे बढ़े, मगर उस लम्स को पा न सके। सारांश ने अपनी उंगली उसके लबों पर रख दी।

“नहीं रूपल!”

रूपल उससे छिटककर दूर खड़ी हो गई। 

सारांश ने आगे बढ़कर उसके बालों को सहलाते हुए कहा, “तुम्हारी मोहब्बत की खुशबू मेरे रोम-रोम में बसी है। तुम पास रहो या दूर, वो खुशबू मुझसे कभी जुदा नहीं होगी। ये बात नहीं कि तुम्हें पाने की हसरत नहीं मुझे। हर रात ख़्वाब में तुम्हारा लम्स महसूस करता हूँ मैं।चाहत है मेरी, ज़िन्दगी में जब वो लम्हा आये, महकती रात तारों से जगमगाई हो, फूलों की सेज पर बैठी लाल जोड़े में लिपटी तुम बरसती चांदनी में नहाई हो; मेरा प्यार का सिंदूरी रंग तुम्हारी मांग में सिमट आया हो, मेरे आने की राह तकती तुम्हारी आँखें बेसब्र और शर्मायी हों। मेरे आने की आस में हर आहट पर तुम्हारा दिल धड़क जाये, घूंघट की आड़ से मुझे खोजती तुम्हारी नज़रों की बेकरारी मेरे दिल में उतर जाये। तुम्हें सताने की हर आरज़ू परे करके मैं तुम्हारे पहलू में खिंचा आऊं, तुम शरमाकर सिमट जाओ, तुम्हारा घूंघट जो मैं उठाऊं। रात गहराती रहे, तुम बाहों में मेरी कसमसाती रहो, हर ज़ुम्बिश पर मेरी तुम कानों में मेरे गुनगुनाती रहो। अंधेरे साये में अरमा हमारे दिल के सुलग जाये, दूरी हमारे दरमियान मोम सी पिघल जाये, मैं तुममें घुलता रहूं और तुम मुझमें मिल जाओ।”

रूपल कुछ कह न सकी, डबडबाई आँखों से सारांश के लफ्ज़ो में लिपटे अहसासों को महसूस करने लगी। 

“रूपल! मैं चाहता हूँ कि जब तुम मेरी बनो, तो उसकी गवाह पूरी दुनिया रहे। तुम्हें सबकी रज़ामंदी से दुल्हन बनाकर अपना बनाना चाहता हूँ और उसके बाद कभी तुमसे जुदा नहीं होना चाहता। मेरे साथ रहोगी न रूपल, मुझसे दूर तो नहीं जाओगी…मुझसे दूर मत जाना रूपल। सच कह रहा हूँ, जी नहीं पाऊंगा एक पल भी मैं तुम बिन…”

आज भी वे शब्द रूपल के कानों में गूंजा करते थे। आज भी वे अनछुये अहसास उसकी रगों में दौड़ा करते थे। आँखें उस वक़्त भी डबडबाई थी और आज भी भर आई थी। उसकी यादें आज भी उसके रोम-रोम में समाई थी।

एकाएक ज़ोर से बादल गरजा और ज़ोर से बिजली कड़की। रूपल कांप सी गई और अतीत की यादों से बाहर निकल आई। आसपास ज़रूर कहीं बिजली गिरी थी। मगर रूपल को उससे क्या फ़र्क पड़ता? उस पर तो बिजली तीन साल पहले ही गिर चुकी थी और उसके मासूम दिल को जलाकर राख और ज़िन्दगी को धुआं कर चुकी थी।

उस वक़्त धुआं कहीं और भी उठ रहा था। आग कहीं और भी सुलग रही थी। काला लिबास पहने सामने वाली बिल्डिंग की बालकनी पर खड़ा वो शख्स आँखों पर दूरबीन टिकाये रूपल को देख रहा था।

“एक ग़लत फ़ैसला तुम्हारी ज़िन्दगी पर भारी पड़ेगा। ज़िन्दगी तुम्हारी, फ़ैसला तुम्हारा!!”

बुदबुदाते हुए एक अजीब मुस्कान उसके होंठों पर तैर गई। एक झटके में दूरबीन अपनी आँखों से हटा वह तेजी से सीढ़ियाँ उतरने लगा। कुछ ही पलों में वह इमारत के ग्राउंड फ्लोर में खड़ी अपनी कार के पास खड़ा था। उसने कार का दरवाज़ा खोला और अंदर घुसकर ड्राइविंग सीट पर बैठ गया। उसकी आँखों में उसके इरादों की चमक थी। उसने आँखों पर गॉगल चढ़ाया, सिर पर हैट लगाया और मुँह को मास्क से कवर कर कार स्टार्ट कर दी।

क्रमश:

कौन था ये शख्स? कहाँ जा रही है रूपल? क्या वो वहाँ पहुँच पायेगी? या उसके साथ वही होगा, जो मौसम के साथ हुआ…जानने के लिए पढ़ते रहे दीवाने होके हम!

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Author  – Kripa Dhaani

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