चैप्टर 2 प्रेमाश्रम मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 2 Premashram Novel By Munshi Premchand Read Online

चैप्टर 2 प्रेमाश्रम मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 2 Premashram Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 2 Premashram Novel By Munshi Premchand 

Chapter 2 Premashram Novel By Munshi Premchand 

लखनपुर के जमींदारों का मकान काशी में औरंगाबाद के निकट था। मकान के दो खण्ड आमने-सामने बने हुए थे। एक जनाना मकान था, दूसरी मरदानी बैठक। दोनों खण्डों के बीच की जमीन बेल-बूटे से सजी हुई थी, दोनों ओर ऊँची दीवारें खींचीं हुई थीं; लेकिन दोनों ही खण्ड जगह-जगह टूट-फूट गये थे। कहीं कोई कड़ी टूट गई थी और उसे थूनियों के सहारे रोका गया था, कहीं दीवार फट गई थी और कहीं छत धँस पड़ी थी एक वृद्ध रोगी की तरह जो लाठी के सहारे चलता हो।

किसी समय यह परिवार नगर में बहुत प्रतिष्ठित था, किन्तु ऐश्वर्य के अभिमान और कुल-मर्यादा पालन ने उसे धीरे-धीरे इतना गिरा दिया कि अब मोहल्ले का बनिया पैसे-धेले की चीज भी उनके नाम पर उधार न देता था। लाला जटाशंकर मरते-मरते मर गए, पर जब घर से निकले तो पालकी पर। लड़के-लड़कियों के विवाह किये तो हौसले से। कोई उत्सव आता तो हृदय सरिता की भाँति उमड़ आता था, कोई मेहमान आ जाता तो उसे सर आँखों पर बैठाते, साधु-सत्कार और अतिथि-सेवा में उन्हें हार्दिक आनन्द होता था। इसी मर्यादा-रक्षा में जायदाद का बड़ा भाग बिक गया, कुछ रेहन हो गया और अब लखनपुर के सिवा चार और छोटे-छोटे गाँव रह गये थे जिनसे कोई चार हजार वार्षिक लाभ होता था।

लाला जटाशंकर के एक छोटे भाई थे। उनका नाम प्रभाशंकर था। यही सियाह और सफेद के मालिक थे। बड़े लाला साहब को अपनी भागवत और गीता से परमानुराग था। घर का प्रबंध छोटे भाई के हाथों में था। दोनों भाइयों में इतना प्रेम था कि उनके बीच में कभी कटु वाक्यों की नौबत न आई थी। स्त्रियों में तू-तू मैं-मैं होती थी, किन्तु भाइयों पर इसका असर न पड़ता था। प्रभाशंकर स्वयं कितना ही कष्ट उठाएँ अपने भाई से कभी भूलकर शिकायत न करते थे। जटाशंकर भी उनके किसी काम में हस्तक्षेप न करते थे।

लाला जटाशंकर का एक साल पूर्व देहान्त हो गया था। उनकी स्त्री उनके पहले ही मर चुकी थी। उनके दो पुत्र थे, प्रेमशंकर और ज्ञानशंकर। दोनों के विवाह हो चुके थे। प्रेमशंकर चार-पाँच वर्षों से लापता थे। उनकी पत्नी श्रद्धा घर में पड़ी उनके नाम को रोया करती थी। ज्ञानशंकर ने गतवर्ष बी.ए. की उपाधि प्राप्त की थी और इस हारमोनियम बजाने में मग्न रहते थे। उनके एक पुत्र था, मायाशंकर। लाला प्रभाशंकर की स्त्री जीवित थी। उनके तीन बेटे और दो बेटियाँ। बड़े बेटे दयाशंकर सब-इंस्पेक्टर थे। विवाह हो चुका था। बाकी दोनों लड़के अभी मदरसे में अँगरेजी पढ़ते थे। दोनों पुत्रियाँ भी कुँवारी थीं।

प्रेमशंकर ने बी.ए. की डिग्री लेने के बाद अमेरिका जाकर आगे पढ़ने की इच्छा की थी, पर जब अपने चाचा को इसका विरोध करते देखा तो एक दिन चुपके से भाग निकले। घर-वालों से पत्र-व्यवहार करना भी बंद कर दिया उनके पीछे ज्ञानशंकर ने बाप और चाचा से लड़ाई ठानी। उनकी फजूलखर्चियों की आलोचना किया करते। कहते, क्या आप हमारे लिए कुछ भी नहीं छोड़ जाएँगे ? क्या आपकी यह इच्छा है कि हम रोटियों को मोहताज हो जाएँ ? किन्तु इसका जवाब नहीं मिलता, भाई हम लोग तो जिस प्रकार अब तक निभाते आए हैं उसी प्रकार निभाएँगे। यदि तुम इससे उत्तम प्रबंध कर सकते हो तो करो, जरा हम भी देखें। ज्ञानशंकर उस समय कॉलेज में थे, यह चुनौती सुनकर चुप हो जाते थे। पर जब से वह डिग्री लेकर आए थे और इधर उनके पिता का देहान्त हो चुका था, घर के प्रबंध में संशोधन करने का यत्न शुरू किया था, जिसका फल यह हुआ था कि उस मेल-मिलाप में बहुत कुछ अन्तर पड़ चुका था, जो पिछले साठ वर्षों से चला आता था। न चाचा का प्रबंध भतीजे को पसन्द था, न भतीजे का चाचा को। आए दिन शाब्दिक संग्राम होते रहते। ज्ञानशंकर कहते, आपने सारी जायदाद चौपट कर दी। हम लोगों को कहीं का न रखा। सारा जीवन खाट पर पड़े-पड़े पूर्वजों की कमाई खाने में काट दिया। मर्यादा-रक्षा की तारीफ तो तब थी जब अपने बाहुबल से कुछ करते, या जायदाद को बचाकर करते। घर बेचकर तमाशा देखना और कौन-सा मुश्किल काम है। लाला प्रभाशंकर यह कटु वाक्य सुनकर अपने भाई को याद करते और उनका नाम लेकर रोने लगते। यह चोटें उनसे सही न जाती थीं।

लाला जटाशंकर की बरसी के लिए प्रभाशंकर ने दो हजार का अनुमान किया था। एक हजार ब्राह्मणों का भोज होने वाला था। नगर भर के समस्त प्रतिष्ठित पुरुषों का निमंत्रण देने का विचार था। इसके सिवा चाँदी के बर्तन, कालीन, पलंग, वस्त्र आदि महापात्र देने के लिए बन रहे थे। ज्ञानशंकर इसे धन का अपव्यय समझते थे। उनकी राय थी कि इस कार्य में दो रुपये से अधिक खर्च न किया जाए। जब घर की दशा ऐसी चिन्ताजनक है तो इतने रुपये खर्च करना सर्वथा अनुचित है; किन्तु प्रभाशंकर कहते थे, जब मैं मर जाऊँ तब तुम चाहे अपने बाप को एक-एक बूँद पानी के लिए तरसाना; पर जब तक मेरे दम में दम है, मैं उनकी आत्मा को दु:खी नहीं कर सकता। सारे नगर में उनकी उदारता की धूम थी। बड़े-बड़े उनके सामने सिर झुका लेते थे। ऐसे प्रतिभाशाली पुरुष की बरसी भी यथायोग्य होनी चाहिए। यही हमारी श्रद्धा और प्रेम का अन्तिम प्रमाण है।

ज्ञानशंकर के हृदय में भावी उन्नति की बड़ी-बड़ी अभिलाषाएँ थीं। वह अपने परिवार को फिर समृद्ध और सम्मान के शिखर पर ले जाना चाहते थे। घोड़े और फिटन की उन्हें बड़ी-बड़ी आकांक्षा थी। वह शान से फिटन पर बैठकर निकलना चाहते थे कि हठात् लोगों की आँखें उनकी तरफ उठ जाएँ और लोग कहें कि लाला जटाशंकर के बेटे हैं। वह अपने दीवान खाने को नाना प्रकार की सामग्रियों से सजाना चाहते थे। मकान को भी आवश्यकतानुसार बढ़ाना चाहते थे। वे घण्टों एकाग्र बैठे हुए इन्हीं विचारों में मग्न रहते थे। चैन से जीवन व्यतीत हो, यही उनका ध्येय था। वर्तमान दशा में मितव्ययिता के सिवा उन्हें कोई दूसरा उपाय न सूझता था। कोई छोटी-मोटी नौकरी करने में वह अपमान समझते थे; वकालत से उन्हें अरुचि थी और उच्चधिकारों का द्वार उनके लिए बन्द था। उनका घराना शहर में चाहे कितना ही सम्मानित हो पर देश-विधाताओं की दृष्टि में उसे वह गौरव प्राप्त न था जो उच्चाधिकार-सिद्धि का अनुष्ठान है। लाला जटाशंकर तो विरक्त ही थे और प्रभाशंकर केवल जिलाधीशों की कृपा-दृष्टि को अपने लिए काफी समझते थे। इसका फल जो कुछ हो सकता था वह उन्हें मिल चुका था। उनके बड़े बेटे दयाशंकर सब-इंसपेक्टर हो गए थे। ज्ञानशंकर कभी-कभी इस अकर्मण्यता के लिए अपने चाचा से उलझा करते थे – आपने अपना सारा जीवन नष्ट कर दिया। लाखों की जायदाद भोग-विलास में उड़ा दी। सदा आतिथ्य सत्कार और मर्यादा-रक्षा पर जान देते रहे। अगर इस उत्साह का एक अंश भी अधिकारी वर्ग के सेवा-सत्कार में समर्पण करते तो आज मैं डिप्टी कलेक्टर होता खानेवाले खा-खाकर चल दिए। अब उन्हें याद भी नहीं रहा कि आपने कभी उन्हें खिलाया या नहीं। खस्ता कचौड़ियाँ और सोने के पत्र लगे हुए पान के बीड़े खिलाने से परिवार की उन्नति नहीं होती, इसके और ही रास्ते हैं। बेचारे प्रभाशंकर यह तिरस्कार सुनकर व्यथित होते और कहते, बेटा, ऐसी-ऐसी बातें करके हमें न जलाओ। तुम फिटन और घोड़ा, कुर्सी और मेज, आईने और तस्वीरों पर जान देते हो। तुम चाहते हो कि हम अच्छे से अच्छा खाएँ, अच्छे से अच्छा पहनें, लेकिन खाने पहनने से दूसरों को क्या सुख होगा ?

तुम्हारे धन और सम्पत्ति से दूसरे क्या लाभ उठाएँगे ? हमने भोग-विलास में जीवन नहीं बिताया। वह कुल-मर्यादा की रक्षा थी। विलासिता यह है, जिसके पीछे तुम उन्मत्त हो। हमने जो कुछ किया नाम के लिए किया। घर में उपवास हो गया है, लेकिन जब कोई मेहमान आ गया तो उसे सिर और आँखों पर लेते थे तुमको बस अपना पेट भरने की, अपने शौक की, अपने विलास की धुन है। यह जायदाद बनाने के नहीं बिगाड़ने के लक्षण हैं। अन्तर इतना ही है कि हमने दूसरों के लिए बिगाड़ा तुम अपने लिए बिगाड़ोगे। मुसीबत यह थी कि स्त्री विद्यावती भी इन विचारों में अपने पति से सहमत न थी। उसके विचार बहुत-कुछ विचार लाला प्रभाशंकर से मिलते थे। उसे परमार्थ पर स्वार्थ से अधिक श्रद्धा थी। उसे बाबू ज्ञानशंकर को अपने चाचा से वाद-विवाद करते देखकर खेद होता था और अक्सर मिलने पर वह उन्हें समझाने की चेष्टा करती थी। पर ज्ञानशंकर उसे झिड़क दिया करता थे। वह इतने शिक्षित होकर भी स्त्री का आदर उससे अधिक न करते थे, जितना अपने पैर के जूतों का। अतएव उनका दाम्पत्य जीवन भी, जो चित्त की शान्ति का एक प्रधान साधन था, सुखकर न था।

क्रमश:

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