चैप्टर 5 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 5 Kayakalp Novel By Munshi Premchand | Chapter 5 Kayakalp Munshi Premchand Ka Upanyas
Chapter 5 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
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संध्या समय जब रेलगाड़ी बनारस से चली तो यशोदानंदन ने चक्रधर से पूछा-क्यों भैया, तुम्हारी राय में झूठ बोलना किसी दशा में क्षम्य है या नहीं?
चक्रधर ने विस्मित होकर कहा-मैं तो समझता हूँ, नहीं?
यशोदानंदन-किसी भी दशा में नहीं?
चक्रधर-मैं तो यही कहूँगा कि किसी दशा में भी नहीं, हालांकि कुछ लोग परोपकार के लिए असत्य को क्षम्य समझते हैं।
यशोदानंदन-मैं भी उन्हीं लोगों में हूँ। मेरा ख्याल है कि पूरा वृत्तांत सुनकर शायद आप भी मुझसे सहमत हो जाएं। मैंने अहिल्या के विषय में आपसे झूठी बातें कही हैं। वह वास्तव में मेरी लड़की नहीं है। उसके माता-पिता का हमें कुछ भी पता नहीं।
चक्रधर ने आंखें बड़ी-बड़ी करके कहा-तो फिर आपके यहां कैसे आई?
यशोदानंदन-विचित्र कथा है। पंद्रह वर्ष हुए एक बार सूर्यग्रहण लगा था। मैं उन दिनों कॉलेज में था। हमारी एक सेवा-समिति थी। हम लोग उसी स्नान के अवसर पर यात्रियों की सेवा करने प्रयाग आए थे। तुम तो उस वक्त बहुत छोटे-से रहे होंगे। इतना बड़ा मेला फिर नहीं लगा। वहीं हमें यह लडकी एक नाली में पड़ी रोती मिली। न जाने उसके मां-बाप नदी में डूब गए या भीड में कुचल गए। बहुत खोज की; पर उनका कुछ पता न लगा। विवश होकर उसे साथ लेते गए। चार-पांच वर्ष तक तो उसे अनाथालय में रखा; लेकिन जब कार्यकर्ताओं की फूट के कारण अनाथालय बंद हो गया, तो अपने ही घर में उसका पालन-पोषण करने लगा। जन्म से न हो, पर संस्कारों से वह हमारी लड़की है। उसके कुलीन होने में संदेह नहीं। उसका शील, स्वभाव और चातुर्य देखकर अच्छे-अच्छे घरों की स्त्रियां चकित रह जाती हैं। मैं इधर एक साल से उसके लिए योग्य वर की तलाश में था। ऐसा आदमी चाहता था, जो स्थिति को जानकर उसे सहर्ष स्वीकार करे और पाकर अपने को धन्य समझे। पत्रों में आपके लेख देखकर और आपके सेवा-कार्य की प्रशंसा सुनकर मेरी धारणा हो गई कि आप ही उसके लिए सबसे योग्य हैं। यह निश्चय करके आपके यहां आया। मैंने आपसे सारा वृत्तांत कह दिया। अब आपको अख्तियार है, उसे अपनाएं या त्यागें। हां, इतना कह सकता हूँ कि ऐसा रत्न आप फिर न पाएंगे। मैं यह जानता हूँ कि आपके पिताजी को यह बात असह्य होगी; पर यह भी जानता हूँ कि वीरात्माएं सत्कार्य में विरोध की परवाह नहीं करतीं और अंत में उस पर विजय ही पाती हैं।
चक्रधर गहरे विचार में पड़ गए। एक तरफ अहिल्या का अनुपम सौंदर्य और उज्ज्वल चरित्र था, दूसरी ओर माता-पिता का विरोध और लोकनिंदा का भय; मन में तर्क-संग्राम होने लगा। यशोदानंदन ने उन्हें असमंजस में पड़े देखकर कहा-आप चिंतित देख पड़ते हैं और चिंता की बात भी है; लेकिन जब आप जैसे सुशिक्षित और उदार पुरुष विरोध और भय के कारण कर्त्तव्य और न्याय से मुंह मोड़ें, तो फिर हमारा उद्धार हो चुका ! मैं आपसे सच कहता हूँ, यदि मेरे दो पुत्रों में से एक भी क्वांरा होता और अहिल्या उसे स्वीकार करती तो मैं बड़े हर्ष से उसका विवाह उससे कर देता। आपके सामाजिक विचारों की स्वतंत्रता का परिचय पाकर ही मैंने आपके ऊपर इस बालिका के उद्धार का भार रखा और यदि आपने कर्त्तव्य को न समझा, तो मैं नहीं कह सकता, उस अबला की क्या दशा होगी!
चक्रधर रूप-लावण्य की ओर से तो आंखें बंद कर सकते थे, लेकिन उद्धार के भाव को दबाना उनके लिए असंभव था। वह स्वतंत्रता के उपासक थे और निर्भीकता स्वतंत्रता की पहली सीढ़ी है। उनके मन ने कहा, क्या यह काम ऐसा है कि समाज हंसे? समाज को इसकी प्रशंसा करनी चाहिए। अगर ऐसे काम के लिए कोई मेरा तिरस्कार करे, तो मैं तृण बराबर भी उसकी परवाह न करूंगा। चाहे वह मेरे माता-पिता ही हों। दृढ़ भाव से बोले-मेरी ओर से आप जरा भी शंका न करें। मैं इतना भीरु नहीं हूँ कि ऐसे कामों में समाज-निंदा से डरूं। माता-पिता को प्रसन्न रखना मेरा धर्म है, लेकिन कर्त्तव्य और न्याय की हत्या करके नहीं। कर्त्तव्य के सामने माता-पिता की इच्छा का मूल्य नहीं है।
यशोदानंदन ने चक्रधर को गले लगाते हुए कहा-भैया, तुमसे ऐसी ही आशा थी।
यह कहकर यशोदानंदन ने अपना सितार उठा लिया और बजाने लगे। चक्रधर को कभी सितार की ध्वनि इतनी प्रिय, इतनी मधुर न लगी थी। और न चांदनी कभी इतनी सुहृदय और विहसित। दाएं-बाएं चांदनी छिटकी हुई थी और उसकी मंद छटा में अहिल्या रेलगाड़ी के साथ, अगणित रूप धारण किए दौड़ती चली जाती थी। कभी वह उछलकर आकाश में जा पहुंची थी, कभी नदियों की चंद्रचंचल तरंगों में। यशोदानंदन को न कभी इतना उल्लास हुआ था, न चक्रधर को कभी इतना गर्व। दोनों आनंद-कल्पना में डूबे हुए थे।
गाड़ी आगरे पहुंची तो दिन निकल आया था। सुनहरा नगर हरे-भरे कुंजों के बीच में विश्राम कर रहा था, मानो बालक माता की गोद में सोया हो।
इस नगर को देखते ही चक्रधर को कितनी ही ऐतिहासिक घटनाएं याद आ गईं। सारा नगर किसी उजड़े हुए घर की भांति श्रीहीन हो रहा था।
मुंशी यशोदानंदन अभी कुलियों को पुकार रहे थे कि उनकी निगाह पुलिस के सिपाहियों पर पड़ी। चारों तरफ पहरा था। मुसाफिरों के बिस्तरे, संदूक खोल-खोलकर देखे जाने लगे। एक थानेदार ने यशोदानंदन का भी असबाब देखना शुरू किया।
यशोदानंदन ने आश्चर्य से पूछा-क्यों साहब, आज यह सख्ती क्यों है?
थानेदार-आप लोगों ने जो कांटे बोए हैं, उन्हीं का फल है। शहर में फसाद हो गया है। यशोदानंदन-अभी तीन दिन पहले तो अमन का राज्य था, यह भूत कहाँ से उठ खड़ा हुआ?
इतने में समिति का एक सेवक दौड़ता हुआ आ पहुंचा। यशोदानंदन ने आगे बढ़कर पूछा-क्यों राधा मोहन, यह क्या मामला हो गया? अभी जिस दिन मैं गया हूँ, उस दिन तक तो दंगे का कोई लक्षण न था।
राधा-जिस दिन आप गये, उसी दिन पंजाब से मौलवी दीनमुहम्मद साहब का आगमन हुआ। खुले मैदान में मुसलमानों का एक बड़ा जलसा हुआ। उसमें मौलाना साहब ने न जाने क्या जहर उगला कि तभी से मुसलमानों को कुरबानी की धुन सवार है। इधर हिंदुओं को भी यह जिद है कि चाहे खून की नदी बह जाए, पर कुरबानी न होने पाएगी। दोनों तरफ से तैयारियां हो रही हैं; हम लोग तो समझाकर हार गए।
यशोदानंदन ने पूछा-ख्वाजा महमूद कुछ न बोले?
राधा-वही तो उस जलसे के प्रधान थे।
यशोदानंदन आंखें फाड़कर बोले-ख्वाजा महमूद !
राधा-जी हां, ख्वाजा महमूद ! आप उन्हें फरिश्ता समझें। असल में वे रंगे सियार हैं। हम लोग हमेशा से कहते आए हैं कि इनसे होशियार रहिए, लेकिन आपको न जाने क्यों उन पर इतना विश्वास था।
यशोदानंदन ने आत्मग्लानि से पीड़ित होकर कहा-जिस आदमी को आज पचीस बरसों से देखता आया हूँ, जिसके साथ कॉलेज में पढ़ा, जो इसी समिति का किसी जमाने में मेंबर था उस पर क्योंकर विश्वास न करता? दुनिया कुछ कहे, पर मुझे ख्वाजा महमूद पर कभी शक न होगा।
राधा-आपको अख्तियार है कि उन्हें देवता समझें, मगर अभी-अभी आप देखेंगे कि वे कितनी मुस्तैदी से कुरबानी की तैयारी कर रहे हैं। उन्होंने देहातों से लठैत बुलाए हैं, उन्हीं ने गोएं मोल ली हैं और उन्हीं के द्वार पर कुरबानी होने जा रही है।
यशोदानंदन-ख्वाजा महमूद के द्वार पर कुर्बानी होगी? उनके द्वार पर इसके पहले या तो मेरी कुर्बानी हो जाएगी या ख्वाजा महमूद की। तांगेवाले को बुलाओ।
राधा-बहुत अच्छा हो, यदि आप इस समय यहीं ठहर जाएं।
यशोदानंदन-वाह-वाह ! शहर में आग लगी हुई है और तुम कहते हो, मैं यहीं रह जाऊं। जो औरों पर बीतेगी, वही मुझ पर भी बीतेगी, इससे क्या भागना। तुम लोगों ने बड़ी भूल की कि मुझे पहले से सूचना न दी।
राधा-कल दोपहर तक तो हमें खुद ही न मालूम था कि क्या गुल खिल रहा है। ख्वाजा साहब के पास गए तो उन्होंने विश्वास दिलाया कि कुर्बानी न होने पाएगी, आप लोग इत्मीनान रखें। हमसे तो यह कहा, उधर शाम ही को लठैत आ पहुंचे और मुसलमानों का डेपुटेशन सिटी मैजिस्ट्रेट के पास कुर्बानी की सूचना देने पहुँच गया।
यशोदानंदन-महमूद भी डेपुटेशन में थे?
राधा-वही तो उसके कर्ता-धर्ता थे, भला वही क्यों न होते? हमारा तो विचार है कि वही इस फिसाद की जड़ हैं।
यशोदानंदन-अगर महमूद में सचमुच यह कायापलट हो गया है, तो मैं यही कहूँगा कि धर्म से ज्यादा द्वेष पैदा करने वाली वस्तु संसार में नहीं; और कोई ऐसी शक्ति नहीं है, जो महमूद में द्वेष के भाव पैदा कर सके। चलो पहले उन्हीं से बातें होंगी। मेरे द्वार पर तो इस वक्त बड़ा जमाव होगा।
राधा-जी हां, इधर आपके द्वार पर जमाव है, उधर ख्वाजा साहब के ! बीच में थोड़ी-सी जगह खाली है।
तीनों आदमी तांगे पर बैठकर चले। सड़कों पर पुलिस के जवान चक्कर लगा रहे थे। मुसाफिरों की छड़ियां छीन ली जाती थीं। दो-चार आदमी भी साथ न खड़े होने पाते थे। सिपाही तुरंत ललकारता था। दुकानें सब बंद थीं, कुंजड़े भी साग बेचते न नजर आते थे। हां, गलियों में लोग जमा होकर बातें कर रहे थे।
कुछ दूर तक तीनों आदमी मौन धारण किए बैठे रहे। चक्रधर शंकित होकर इधर-उधर ताक रहे थे। जरा भी घोड़ा रुक जाता तो उनका दिल धड़कने लगता कि किसी ने तांगा रोक तो नहीं लिया; लेकिन यशोदानंदन के मुख पर ग्लानि का गहरा चिह्न दिखाई दे रहा था। उनके मुहल्ले में आज तक कभी कुरबानी न हुई थी। हिंदू और मुसलमान का भेद ही न मालूम होता था। उन्हें आश्चर्य होता था कि और शहरों में कैसे हिंदू -मुसलमानों में झगड़े हो जाते हैं। और तीन ही दिन में यह नौबत आ गई।
सहसा उन्होंने उत्तेजित होकर कहा-राधामोहन देखो, मैं तो यहीं उतर जाता हूँ! जरा महमूद से मिलूंगा। तुम इन बाबू साहब को लेकर घर जाओ। आप मेरे एक मित्र के लड़के हैं, यहां सैर करने आए हैं। बैठक में आपकी चारपाई डलवा देना और देखो, अगर दैव संयोग से मैं लौटकर न आ सकूं, तो घबराने की बात नहीं। जब लोग खून-खच्चर करने पर तुले हुए हैं तो सब कुछ संभव है और मैं उन आदमियों में नहीं हूँ कि गौ की हत्या होता देखूं और शांत खड़ा रहूँ। अगर मैं लौटकर न आ सकूं, तो तुम घर में कहला देना कि अहिल्या का पाणिग्रहण आप ही के साथ कर दिया जाए।
यह कहकर उन्होंने कोचवान से तांगा रोकने को कहा।
चक्रधर-मैं भी आपके साथ ही रहना चाहता हूँ।
यशोदानंदन-नहीं भैया, तुम मेरे मेहमान हो, तुम्हें मेरे साथ रहने की जरूरत नहीं; तुम चलो, मैं भी अभी आता हूँ।
चक्रधर-क्या आप समझते हैं कि गौ-रक्षा आप ही का धर्म है, मेरा धर्म नहीं?
यशोदानंदन-नहीं, यह बात नहीं है, बेटा ! तुम मेरे मेहमान हो और तुम्हारी रक्षा करना मेरा धर्म है।
इस वक्त तांगा धीरे-धीरे ख्वाजा महमूद के मकान के सामने आ पहुंचा। हजारों आदमियों का जमाव था। यद्यपि किसी के हाथ में लाठी या डंडे न थे; पर उनके मुख जिहाद के जोश से तमतमाए हुए थे। यशोदानंदन को देखते ही कई आदमी उनकी तरफ लपके; लेकिन जब उन्होंने जोर से कहा-मैं तुमसे लड़ने नहीं आया हूँ। कहाँ हैं ख्वाजा महमूद? मुमकिन हो तो जरा उन्हें बुला लो, तो लोग हट गए।
जरा देर में एक लंबा-सा आदमी गाढ़े की अचकन पहने, आकर खड़ा हो गया। भरा हुआ बदन था, लम्बी दाढ़ी, जिसके कुछ बाल खिचड़ी हो गए थे और गोरा रंग। मुख से शिष्टता झलक रही थी। यही ख्वाजा महमूद थे।
यशोदानंदन ने त्यौरियां बदलकर कहा-क्यों ख्वाजा साहब, आपको याद है, इस मुहल्ल में कभी कुरबानी हुई है?
महमूद-जी नहीं, जहां तक मेरा ख्याल है, यहां कभी कुर्बानी नहीं हुई।
यशोदानंदन-तो फिर आज आप यहां कुर्बानी करने की नयी रस्म क्यों निकाल रहे हैं?
महमूद इसलिए कि कुरबानी करना हमारा हक है। अब तक हम आपके जजबात का लिहाज करते थे, अपने माने हुए हक भूल गए थे। लेकिन जब आप लोग अपने हकों के सामने हमारे जजबात की परवाह नहीं करते, तो कोई वजह नहीं कि हम अपने हकों के सामने आपके जजबात की परवाह करें। मुसलमानों की शुद्धि करने का आपको पूरा हक हासिल है, लेकिन कम से कम पांच सौ बरसों में आपके यहां शुद्धि की कोई मिसाल नहीं मिलती। आप लोगों ने एक मुर्दा हक को जिंदा किया है। इसलिए न, कि मुसलमानों की ताकत और असर कम हो जाए? जब आप हमें जेर करने के लिए नए-नए हथियार निकाल रहे हैं, तो हमारे लिए इसके सिवा और क्या चारा है कि अपने हथियारों को दूनी ताकत से चलाएं।
यशोदा-इसके यह मानी हैं कि कल आप हमारे द्वारों पर, हमारे मंदिरों के सामने कुरबानी करें और हम चुपचाप देखा करें! आप यहां हरगिज कुरबानी नहीं कर सकते और करेंगे तो इसकी जिम्मेदारी आपके सिर होगी।
यह कहकर यशोदानंदन फिर तांगे पर बैठे। दस-पांच आदमियों ने तांगे को रोकना चाहा; पर कोचवान ने घोड़ा तेज कर दिया। दम के दम तांगा उड़ता हुआ यशोदानंदन के द्वार पर पहुँच गया, जहां हजारों आदमी खड़े थे। इन्हें देखते ही चारों तरफ हलचल मच गई। लोगों ने चारों तरफ से आकर उन्हें घेर लिया। अभी तक फौज का अफसर न था, फौज दुविधा में पड़ी हुई थी, समझ में न आता था कि क्या करें। सेनापति के आते ही सिपाहियों में जान-सी पड़ गई, जैसे सुख धान में पानी पड़ जाए।
यशोदानंदन तांगे से उतर पड़े और ललकारकर बोले-क्यों भाइयों, क्या विचार है? यह कुरबानी होगी? आप जानते हैं, इस मुहल्ले में आज तक कभी कुरबानी नहीं हुई। अगर आज हम यहां कुरबानी करने देंगे, तो कौन कह सकता है कि कल को हमारे मंदिर के सामने गौहत्या न होगी।
कई आवाजें एक साथ आईं-हम मर मिटेंगे, पर यहां कुरबानी न होने देंगे।
यशोदानंदन-खूब सोच लो, क्या करने जा रहे हो। वह लोग सब तरह से लैस हैं। ऐसा न हो कि तुम लाठियों के पहले ही वार में वहां से भाग खड़े हो?
कई आवाजें एक साथ आईं-भाइयों, सुन लो; अगर कोई पीछे कदम हटाएगा, तो उसे गौहत्या का पाप लगेगा।
एक सिक्ख जवान-अजी देखिए, छक्के छुड़ा देंगे।
एक पंजाबी हिंदू -एक-एक की गर्दन तोड़ के रख दूंगा।
आदमियों को यों उत्तेजित करके यशोदानंदन आगे बढ़े और जनता ‘महावीर’ और ‘श्रीरामचन्द्र’ की जयध्वनि से वायुमंडल को कंपायमान करती हुई उनके पीछे चली। उधर मुसलमानों ने भी डंडे संभाले। करीब था कि दोनों दलों में मुठभेड़ हो जाए कि एकाएक चक्रधर आगे बढ़कर यशोदानंदन के सामने खड़े हो गए और विनीत किंतु दृढ़ भाव से बोले-आप अगर उधर जाते हैं, तो मेरी छाती पर पांव रखकर जाइए। मेरे देखते यह अनर्थ न होने पाएगा।
यशोदानंदन ने चिढ़कर कहा-हट जाओ। अगर एक क्षण की भी देर हुई, तो फिर पछताने के सिवा और कुछ हाथ न आएगा।
चक्रधर-आप लोग वहां जाकर करेंगे क्या?
यशोदानंदन-हम इन जालिमों से गौ को छीन लेंगे।
चक्रधर-अहिंसा का नियम गौओं ही के लिए नहीं, मनुष्यों के लिए भी तो है।
यशोदानंदन-कैसी बातें करते हो, जी! क्या यहां खड़े होकर अपनी आंखों से गौ की हत्या होते देखें।
चक्रधर-अगर आप एक बार दिल थामकर देख लेंगे, तो यकीन है कि फिर आपको कभी यह दृश्य न देखना पड़े।
यशोदानंदन-हम इतने उदार नहीं हैं।
चक्रधर-ऐसे अवसर पर भी?
यशोदानंदन हम महान् से महान उद्देश्य के लिए भी यह मूल्य नहीं दे सकते। इन दामों स्वर्ग भी मंहगा है।
चक्रधर-मित्रों, जरा विचार से काम लो। कई आवाजें-विचार से काम लेना कायरों का काम है।
एक सिक्ख जवान-जब डंडे से काम लेने का मौका आए, तो विचार को बंद करके रख देना चाहिए।
चक्रधर-तो फिर जाइए, लेकिन उस गौ को बचाने के लिए आपको अपने एक भाई का खून करना पड़ेगा।
सहसा एक पत्थर किसी की तरफ से आकर चक्रधर के सिर में लगा। खून की धारा बह निकली; चक्रधर अपनी जगह से हिले नहीं। सिर थामकर बोले-अगर मेरे रक्त से आपकी क्रोधाग्नि शांत होती हो, तो यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है। अगर मेरा खून और कई जानों की रक्षा कर सके, तो इससे उत्तम कौन मृत्यु होगी?
फिर दूसरा पत्थर आया; पर अबकी चक्रधर को चोट न लगी। पत्थर कानों के पास से निकल गया।
यशोदानंदन गरजकर बोले-यह कौन पत्थर फेंक रहा है? सामने क्यों नहीं आता? क्या वह समझता है कि उसी ने गौ-रक्षा का ठेका ले लिया है? अगर वह बड़ा वीर है, तो क्यों नहीं चंद कदम आगे आकर अपनी वीरता दिखाता? पीछे खड़ा पत्थर क्यों फेंकता है !
एक आवाज-धर्मद्रोहियों को मारना अधर्म नहीं है।
यशोदानंदन-जिसे तुम धर्म का द्रोही समझते हो, वह तुमसे कहीं सच्चा हिंदू है !
एक आवाज-सच्चे हिंदू वही तो होते हैं,जो मौके पर बगलें झांकने लगें और शहर छोड़कर दो-चार दिन के लिए खिसक जाएं।
कई आदमी-यह कौन मंत्री पर आक्षेप कर रहा है? कोई उसकी जबान पकड़ कर क्यों नहीं खींच लेता?
यशोदानंदन-आप लोग सुन रहे हैं, मुझ पर कैसे-कैसे दोष लगाए जा रहे हैं। मैं सच्चा हिंदू नहीं; मैं मौका पड़ने पर बगलें झांकता हूँ और जान बचाने के लिए शहर से भाग जाता हूँ। ऐसा आदमी आपका मंत्री बनने के योग्य नहीं है। आप उस आदमी को अपना मंत्री बनाएं, जिसे आप सच्चा हिंदू समझते हों। मैं धर्म से पहले अपने आत्मगौरव की रक्षा करना चाहता हूँ।
कई आदमी-महाशय, आपको ऐसे मुंहफट आदमियों की बात का खयाल न करना चाहिए।
यशोदानंदन-यह मेरी पच्चीस बरसों की सेवा का उपहार है; जिस सेवा का फल अपमान हो, उसे दूर ही से मेरा सलाम है।
यह कहते हुए मुंशी यशोदानंदन घर की तरफ चले। कई आदमियों ने उन्हें रोकना चाहा, कई आदमी उनके पैरों पड़ने लगे; लेकिन उन्होंने एक न मानी। वह तेजस्वी आदमी थे। अपनी संस्था पर स्वेच्छाचारी राजाओं की भांति शासन करना चाहते थे। आलोचनाओं को सहन करने की उनमें सामर्थ्य ही न थी।
उनके जाते ही यहां आपस में तू-तू, मैं-मैं’ होने लगी। एक दूसरे पर आक्षेप करने लगे। गालियों की नौबत आई, यहां तक कि दो-चार आदमियों से हाथापाई भी हो गई।
चक्रधर ने जब देखा कि इधर से अब कोई शंका नहीं है, तो वह लपककर मुसलमानों के सामने आ पहुंचे और उच्च स्वर में बोले-हजरात, मैं कुछ अर्ज करने की इजाजत चाहता हूँ।
एक आदमी-सुनो-सुनो, यही तो अभी हिंदुओं के सामने खड़ा था।
दूसरा आदमी-दुश्मनों के कदम उखड़ गए। सब भागे जा रहे हैं।
तीसरा-इसी ने शायद उन्हें समझा-बुझाकर हटा दिया है। देखो क्या कहता है?
चक्रधर-अगर इस गाय की कुरबानी करना आप अपना मजहबी फर्ज समझते हों, तो शौक से कीजिए। मैं आपके मजहबी मामले में दखल नहीं दे रहा हूँ। लेकिन क्या यह लाजिमी है कि इसी जगह कुरबानी की जाए?
एक आदमी-हमारी खुशी है; जहां चाहेंगे, कुरबानी करेंगे, तुमसे मतलब?
चक्रधर-बेशक, मुझे बोलने का कोई हक नहीं है, लेकिन इस्लाम की जो इज्जत मेरे दिल में है, वह मुझे बोलने के लिए मजबूर कर रही है। इस्लाम ने कभी दूसरे मजहब वालों की दिलजारी नहीं की। उसने हमेशा दूसरों के जजबात का एहतराम किया है। बगदाद और रूस, स्पेन और मिस्र की तारीखें उस मजहबी आजादी की शाहिद हैं, जो इस्लाम ने उन्हें अदा की थीं। अगर आप हिंदू जजबात का लिहाज करके किसी दूसरी जगह कुरबानी करें, तो यकीनन इस्लाम के वकार में फर्क न आएगा।
एक मौलवी ने जोर देकर कहा-ऐसी मीठी-मीठी बातें हमने बहुत सुनी हैं। कुरबानी यहीं होगी। जब दूसरे हमारे ऊपर जब्र करते हैं, तो हम उनके जजबात का क्यों लिहाज करें?
ख्वाजा महमूद बड़े गौर से चक्रधर की बातें सुन रहे थे। मौलवी साहब की उद्दण्डता पर चिढ़कर बोले-क्या शरीयत का हुक्म है कि कुरबानी यहीं हो? किसी दूसरी जगह नहीं की जा सकती?
मौलवी साहब ने ख्वाजा महमूद की तरफ अविश्वास की दृष्टि से देखकर कहा-मजहब के मामले में उलमा के सिवा और किसी को दखल देने का मजाज नहीं है।
ख्वाजा-बुरा न मानिएगा, मौलवी साहब ! अगर दस सिपाही यहां आकर खड़े हो जाएं तो बगलें झांकने लगिएगा!
मौलवी-किसकी मजाल है कि हमारे दीन-ओ-उमूर में मजाहमत करे?
ख्वाजा-आपको तो अपने हलवे-मांडे से काम है, जिम्मेदारी तो हमारे ऊपर आएगी, दूकानें तो हमारी लुटेंगी, आपके पास फटे बोरिए और फूटे बंधने के सिवा और क्या रखा है? जब वे लोग मसलहत देखकर किनारा कर गए तो हमें भी अपनी जिद से बाज आ जाना चाहिए। क्या आप समझते हैं कि वे लोग आपसे डरकर भागे? हमारे से दुगने आदमी अगर चढ़ आते, तो संभालना मुश्किल हो जाता।
मौलवी-जनाब, जिहाद करना कोई खालाजी का घर नहीं। आप दुनिया के बंदे हैं, दीन, हकीकत क्या समझें?
ख्वाजा-बजा है; आपकी शहादत तो कहीं नहीं गई है। जिल्लत तो हमारी है।
मौलवी-भाइयों, आप लोग ख्वाजा साहब की ज्यादती देख रहे हैं। आप ही फैसला कीजिए कि दीन मामलात में उलमा का फैसला वाजिब है या उमरा का?
एक मोटे-ताजे दढ़ियल आदमी ने कहा-आप बिस्मिल्लाह कीजिए। उमरा को दीन से कोई सरोकार नहीं।
यह सुनते ही एक आदमी बड़ा-सा छुरा लेकर निकल पड़ा और कई आदमी गाय की सींगें पकड़ने लगे। गाय अब तक तो चुपचाप खड़ी थी। छुरा देखते ही वह छटपटाने लगी। चक्रधर यह दृश्य देखकर तिलमिला उठे। निराशा और क्रोध से कांपते हुए बोले-भाइयों, एक गरीब बेकस जानवर को मारना बहादुरी नहीं। खुदा बेकसों के खून से खुश नहीं होता। अगर जवांमर्दी दिखानी है, तो किसी शेर का शिकार करो, किसी चीते को मारो, किसी जंगली सूअर का पीछा करो। उसकी कुरबानी से, मुमकिन है, खुदा खुश हो। जब तक हिंदू सामने खड़े थे, किसी की हिम्मत न पड़ी कि छुरा हाथ में लेता। जब वे चले गए तो आप लोग शेर हो गए?
एक आदमी-तो क्यों चले गए? मैदान में खड़े क्यों न रहे? गौ-रक्षा का जोश दिखाते। दुम दबाकर भाग क्यों खड़े हुए?
चक्रधर-भाग नहीं खड़े हुए और न लड़ने में वे आपसे कम ही हैं। उनकी समझ में यह बात आ गई कि जानवर की हिमायत में इंसान का खून बहाना इंसान को मुनासिब नहीं।
मौलवी-शुक्र है, उन्हें इतनी समझ तो आई!
चक्रधर-लेकिन आप अभी तक उनकी दिलजारी पर कमर बांधे हुए हैं। खैर आपको अख्तियार है, जो चाहें, करें। मगर मैं यकीन के साथ कहता हूँ कि यह दिलजारी एक दिन रंग लाएगी। यह न समझिए कि इस वक्त कोई हिंदू मैदान में नहीं है। हर एक कुरबानी हिंदुस्तान के इक्कीस करोड़ हिंदुओं के दिलों में जख्म कर देती है, और इतनी बड़ी तादाद के दिलों को दुखाना बड़ी से बड़ी कौम के लिए भी एक दिन पछतावे का बाइस हो सकता है? अगर आपकी गिजा है, तो शौक से खाइए। लाखों गौएं रोज कत्ल होती हैं, हिंदू सिर नहीं उठाते। फिर यह क्योंकर मुमकिन है कि वह आपके मजहबी मामले में दखल दें? हिंदुओं से ज्यादा बेतअस्सुब कौम दुनिया में नहीं है, लेकिन जब आप उनकी दिलजारी और महज दिलजारी के लिए कुरबानी करते हैं, तो उनको जरूर सदमा होता है। और उनके दिलों में जो शोला उठता है, उसका आप कयास नहीं कर सकते। अगर आपको यकीन न आए, तो देख लीजिए कि गाय के साथ ही एक हिंदू कितनी खुशी से अपनी जान दे देता है!
यह कहते हुए चक्रधर ने तेजी से लपककर गाय की गर्दन पकड़ ली और बोले-आज आपको इस गौ के साथ एक इंसान की भी कुरबानी करनी पड़ेगी।
सभी आदमी चकित हो-होकर चक्रधर की ओर ताकने लगे। मौलवी साहब ने क्रोध से उन्मत्त होकर कहा-कलाम पाक की कसम, हट जाओ, वरना गजब हो जाएगा।
चक्रधर-हो जाने दीजिए। खुदा की यही मरजी है कि आज गाय के साथ मेरी भी कुरबानी हो।
ख्वाजा महमूद-क्यों भई, तुम्हारा घर कहाँ है?
चक्रधर-परदेशी मुसाफिर हूँ।
ख्वाजा-कसम खुदा की, तुम जैसा दिलेर आदमी नहीं देखा। नाम के लिए तो गाय को माता कहने वाले बहुत हैं, पर ऐसे विरले ही देखे, जो गौ के पीछे जान लड़ा दे। तुम कलमा क्यों नहीं पढ़ लेते?
चक्रधर-मैं एक खुदा का कायल हूँ। वही सारे जहान का खालिक और मालिक है। फिर और किस पर ईमान लाऊं?
ख्वाजा-वल्लाह, तब तो तुम सच्चे मुसलमान हो। हमारे हजरत को अल्लाहताला का रसूल मानते हो?
चक्रधर-बेशक मानता हूँ, उनकी इज्जत करता हूँ और उनकी तौहीद का कायल हूँ। ख्वाजा-हमारे साथ खाने-पीने से परहेज तो नहीं करते?
चक्रधर-जरूर करता हूँ, उसी तरह, जैसे किसी ब्राह्मण के साथ खाने से परहेज करता हूँ, अगर वह पाक-साफ न हो।
ख्वाजा-काश, तुम जैसे समझदार तुम्हारे और भाई भी होते। मगर यहां तो लोग हमें मलिच्छ कहते हैं। यहां तक कि हमें कुत्तों से भी नजिस समझते हैं। उनकी थालियों में कुत्ते खाते हैं; पर मुसलमान उनके गिलास में पानी नहीं पी सकता। वल्लाह, आपसे मिलकर दिल खुश हो गया। अब कुछ-कुछ उम्मीद हो रही है कि शायद दोनों कौमों में इत्तफाक हो जाए। अब आप जाइए। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ, कुरबानी न होगी।
चक्रधर-और साहबों से तो पूछिए।
कई आवाजें-होती तो जरूर, लेकिन अब न होगी। आप वाकई दिलेर आदमी हैं।
ख्वाजा-यहां आप कहाँ ठहरे हुए हैं? मैं आपसे मिलूंगा।
चक्रधर-आप क्यों तकलीफ उठाएंगे, मैं खुद हाजिर हूँगा।
ख्वाजा महमूद ने चक्रधर को गले लगाकर रुखसत किया। इधर उसी वक्त गाय की पगहिया खोल दी गई। वह जान लेकर भागी। और लोग भी इस ‘नौजवान’ की ‘हिम्मत’ और ‘जवांमर्दी’ की तारीफ करते हुए चले।
चक्रधर को आते देखकर यशोदानंदन अपने कमरे से निकल आए और उन्हें छाती से लगाते हुए बोले-भैया, आज तुम्हारा धैर्य और साहस देखकर मैं दंग रह गया। तुम्हें देखकर मुझे अपने ऊपर लज्जा आ रही है। तुमने आज हमारी लाज रख ली। अगर यहां कुरबानी हो जाती, तो हम मुंह दिखाने लायक भी न रहते।
एक बूढ़ा-आज तुमने वह काम कर दिखाया, जो सैकड़ों आदमियों के रक्तपात से भी न
होता!
चक्रधर-मैंने कुछ भी नहीं किया। यह उन लोगों की शराफत थी कि उन्होंने अनुनय-विनय सुन ली।
यशोदानंदन-अरे भाई, रोने का भी तो कोई ढंग होता है। अनुनय-विनय हमने भी सैकड़ों ही बार की, लेकिन हर दफे गुत्थी और उलझती ही गई। आइए, आपके घाव की मरहम-पट्टी तो हो जाए!
चक्रधर को कमरे में बैठाकर यशोदानंदन ने घर में जाकर अपनी स्त्री वागीश्वरी से कहा आज मेरे एक दोस्त की दावत करनी होगी। भोजन खूब दिल लगाकर बनाना। अहिल्या, आज तुम्हारी पाक-परीक्षा होगी।
अहिल्या-वह कौन आदमी था दादा, जिसने मुसलमानों के हाथों से गौ की रक्षा की?
यशोदानंदन-वही तो मेरे दोस्त हैं, जिनकी दावत करने को कह रहा हूँ। बेचारे रास्ते में मिल गए। यहां सैर करने आए हैं। मसूरी जाएंगे।
अहिल्या-(वागीश्वरी से) अम्मां, जरा उन्हें अन्दर बुला लेना, तो दर्शन करेंगे। दादा, मैं कोठे पर बैठी सब तमाशा देख रही थी। जब हिंदुओं ने उन पर पत्थर फेंकना शुरू किया, तो ऐसा क्रोध आता था कि वहीं से फटकारूं। बेचारे के सिर से खून निकलने लगा लेकिन वह जरा भी न बोले। जब वह मुसलमानों के सामने आकर खड़े हुए तो मेरा कलेजा धड़कने लगा कि कहीं सबके सब उन पर टूट न पड़ें। बड़े ही साहसी आदमी मालूम होते हैं। सिर में चोट आई है क्या?
यशोदानंदन-हां, खून जम गया है, लेकिन उन्हें उसकी कुछ परवाह ही नहीं। डॉक्टर को बुला रहा हूँ।
वागीश्वरी-खा-पी चुकें, तो जरा देर के लिए यहीं भेज देना। मेरे लड़कों की जोड़ी तो हैं? यशोदानंदन-अच्छी बात है। जरा सफाई कर लेना।
पड़ोस में एक डॉक्टर रहते थे। यशोदानंदन ने उन्हें बुलाकर घाव पर पट्टी बंधवा दी। फिर देर तक बातें होती रहीं। धीरे-धीरे सारा मुहल्ला जमा हो गया। कई श्रद्धालु जनों ने तो चक्रधर के चरण छुए। आखिर भोजन का समय आया। जब लोग खाने बैठे, तो यशोदानंदन ने कहा-भाई, बाबूजी से जो कुछ कहना हो, कह लो; फिर मुझसे शिकायत न करना कि तुम उन्हें नहीं लाए। बाबूजी, इस घर की तथा मुहल्ले की कई स्त्रियों की इच्छा है कि आपके दर्शन करें। आपको कोई आपत्ति तो नहीं है?
वागीश्वरी-हां बेटा, जरा देर के लिए चले आना; नहीं तो अपने घर जाके कहोगे न कि मैंने जिन लोगों के लिए जान लड़ा दी, उन्होंने बात भी न पूछी।
चक्रधर ने शरमाते हुए कहा-आप लोगों ने मेरी जो खातिर की है, वह कभी नहीं भूल सकता। उसके लिए मैं सदैव आपका एहसान मानता रहूँगा।
ज्यों ही लोग चौके से उठे, अहिल्या ने कमरे की सफाई करनी शुरू की। दीवार की तसवीरें साफ की, फर्श फिर से झाड़कर बिछाया, एक छोटी-सी मेज पर फूलों का गिलास रख दिया, एक कोने में अगरबत्ती जलाकर रख दी। पान बनाकर तश्तरी में रखे। इन कामों से फुर्सत पाकर उसने एकांत में बैठकर फूलों की माला गूंथनी शुरू की। मन में सोचती थी कि न जाने कौन है, स्वभाव कितना सरल है! लजाने में तो औरतों से भी बढ़े हुए हैं। खाना खा चुके, पर सिर न उठाया। देखने में ब्राह्मण मालूम होते हैं। चेहरा देखकर तो कोई नहीं कह सकता कि वह इतने साहसी होंगे।
सहसा वागीश्वरी ने आकर कहा-बेटी, दोनों आदमी आ रहे हैं। साड़ी तो बदल लो।
अहिल्या ‘ऊंह’ करके रह गई। हां, उसकी छाती में धड़कन होने लगी। एक क्षण में यशोदानंदनजी चक्रधर को लिए हुए कमरे में आए। वागीश्वरी और अहिल्या दोनों खड़ी हो गईं। यशोदानंदन ने चक्रधर को कालीन पर बैठा दिया और खुद बाहर चले गए। वागीश्वरी पंखा झलने लगी; लेकिन अहिल्या मूर्ति की भांति खड़ी रही।
चक्रधर ने उड़ती हुई निगाहों से अहिल्या को देखा। ऐसा महसूस हुआ, मानो कोमल, स्निग्ध एवं सुगंधमय प्रकाश की लहर-सी आंखों में समा गई।
वागीश्वरी ने मिठाई की तश्तरी सामने रखते हुए कहा-कुछ जलपान कर लो भैया, तुमने कुछ खाना भी तो नहीं खाया। तुम जैसे वीरों को सवा सेर से कम न खाना चाहिए। धन्य है वह माता, जिसने ऐसे बालक को जन्म दिया। अहिल्या, जरा गिलास में पानी तो ला। भैया, जब तुम मुसलमानों के सामने अकेले खड़े थे, तो यह ईश्वर से तुम्हारी कुशल मना रही थी। जाने कितनी मनौतियां कर डालीं! कहाँ है वह माला, जो तूने गूंथी थी? अब पहनाती क्यों नहीं?
अहिल्या ने लजाते हुए कांपते हाथों से माला चक्रधर के गले में डाल दी और आहिस्ता से बोली-क्या सिर में ज्यादा चोट आई?
चक्रधर-नहीं तो; ख्वामख्वाह पट्टी बंधवा दी।
वागीश्वरी-जब तुम्हें चोट लगी, तब इसे इतना क्रोध आया था कि उस आदमी को पा जाती, तो मुंह नोच लेती। क्या करते हो बेटा?
चक्रधर-अभी तो कुछ नहीं करता, पड़े-पड़े खाया करता हूँ, मगर जल्दी ही कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। धन से तो मुझे बहुत प्रेम नहीं है और मिल भी जाए तो मुझे उसको भोगने के लिए दूसरों की मदद लेनी पड़े। हां , इतना अवश्य चाहता हूँ कि किसी का आश्रित होकर न रहना पड़े।
वागीश्वरी-कोई सरकारी नौकरी नहीं मिलती क्या?
चक्रधर-नौकरी करने की तो मेरी इच्छा ही नहीं है। मैंने पक्का निश्चय कर लिया है कि नौकरी न करूंगा। न मुझे खाने का शौक है, न पहनने का, न ठाट-बाट का; मेरा निर्वाह बहुत थोड़े में हो सकता है।
वागीश्वरी-और जब विवाह हो जाएगा, तब क्या करोगे?
चक्रधर-उस वक्त सिर पर जो आएगी, देखी जाएगी। अभी से क्यों उसकी चिंता करूं? वागीश्वरी-जलपान तो कर लो, या मिठाई भी नहीं खाते?
चक्रधर मिठाइयां खाने लगे। इतने में महरी ने आकर कहा-बड़ी बहूजी, मेरे लाला को रात से खांसी आ रही है; तिल भर नहीं रुकती, दवाई दे दो।
वागीश्वरी दवा देने चली गई। अहिल्या अकेली रह गई, तो चक्रधर ने उसकी ओर देखकर कहा-आपको मेरे कारण बड़ा कष्ट हुआ। मैं तो इस उपहार के योग्य न था।
अहिल्या-यह उपहार नहीं, भक्त की भेंट है।
चक्रधर-मेरा परम सौभाग्य है कि बैठे-बैठाए इस पद को पहुँच गया।
अहिल्या-आपने आज इस शहर के हिंदू मात्र की लाज रख ली। क्या और पानी दूं?
चक्रधर-तृप्त हो गया। आज मालूम हुआ कि जल में कितना स्वाद है? शायद अमृत में भी यह स्वाद न होगा।
वागीश्वरी ने आकर मुस्कराते हुए कहा-भैया, तुमने तो आधी भी मिठाइयां नहीं खाईं। क्या इसे देखकर भूख-प्यास बंद हो गई? यह मोहनी है, जरा इससे सचेत रहना।
अहिल्या-अम्मां, तुम छोटे-बड़े किसी का लिहाज नहीं करतीं।
वागीश्वरी-अच्छा बताओ, तुमने इनकी रक्षा के लिए कौन-कौन सी मनौतियां की थीं? अहिल्या-मुझे आप दिक करेंगी, तो चली जाऊंगी।
चक्रधर यहां कोई घंटे भर-तक बैठे रहे। वागीश्वरी ने उनके घर का सारा वृत्तांत पूछा-कै भाई हैं, कै बहनें, पिताजी क्या करते हैं, बहनों का विवाह हुआ है या नहीं? चक्रधर को उनके व्यवहार में इतना मातृस्नेह भरा मालूम होता था, मानो उससे उनका परिचय है। चार बजते-बजते ख्वाजा महमूद के आने की खबर पाकर चक्रधर बाहर चले आए। और भी कितने ही आदमी मिलने आए थे। शाम तक उन लोगों से बातें होती रहीं। निश्चय हुआ कि एक पंचायत बनाई जाए और आपस के झगड़े उसी के द्वारा तय हुआ करें। चक्रधर को लोगों ने उस पंचायत का एक मेम्बर बनाया। रात को जब अहिल्या और वागीश्वरी छत पर लेटीं, तो वागीश्वरी ने पूछा-अहिल्या, सो गई क्या?
अहिल्या-नहीं अम्मां, जाग तो रही हूँ।
वागीश्वरी-हां, आज तुझे क्यों नींद आएगी। उनसे ब्याह करेगी?
अहिल्या-अम्मां, मुझे गालियां दोगी, तो मैं नीचे जाकर लेटूंगी, चाहे मच्छर भले ही नोच खाएं।
वागीश्वरी-अरे, तो मैं कौन-सी गाली दे रही हूँ। क्या ब्याह न करेगी? ऐसा अच्छा वर तुझे और कहाँ मिलेगा?
अहिल्या-तुम न मानोगी, लो मैं जाती हूँ।
वागीश्वरी-मैं दिल्लगी नहीं कर रही हूँ, सचमुच पूछती हूँ। तुम्हारी इच्छा हो, तो बातचीत की जाए, अपनी ही बिरादरी के हैं। कौन जाने, राजी हो जाएं।
अहिल्या-सब बातें जानकर भी?
वागीश्वरी-तुम्हारे बाबूजी ने सारी कथा पहले ही सुना दी है।
अहिल्या-जो कहीं न मानें?
वागीश्वरी-टालो मत, दिल की बात साफ-साफ कह दो।
अहिल्या-तुम मेरे दिल का हाल मुझसे अधिक जानती हो, फिर, मुझसे क्यों पूछता हो? वागीश्वरी-वह धनी नहीं हैं, याद रखो।
अहिल्या-मैं धन की लौंडी कभी नहीं रही।
वागीश्वरी-तो अब तुम्हें संशय में क्यों रखू। तुम्हारे बाबूजी तुमसे मिलाने ही के लिए इन्हें काशी से लाए हैं। उनके पास और कुछ हो या न हो, हृदय अवश्य है। और ऐसा हृदय, जो बहुत कम लोगों के हिस्सों में आता है। ऐसा स्वामी पाकर तुम्हारा जीवन सफल हो जाएगा।
अहिल्या ने डबडबाई हुई आंखों से वागीश्वरी को देखा, पर मुंह से कुछ न बोली। कृतज्ञता शब्दों में आकर शिष्टता का रूप धारण कर लेती है। उसका मौलिक रूप वही है, जो आंखों से बाहर निकलते हुए कांपता और लजाता है।
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