चैप्टर 3 प्रेमाश्रम मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 3 Premashram Novel By Munshi Premchand Read Online
Chapter 3 Premashram Novel By Munshi Premchand
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मनोहर अक्खड़पन की बातें तो कर बैठा; किन्तु जब क्रोध शान्त हुआ तो मालूम हुआ कि मुझसे बड़ी भूल हुई। गाँव वाले सब-के-सब मेरे दुश्मन हैं। वह इस समय चौपाल में बैठे मेरी निन्दा कर रहे होंगे। कारिंदा न जाने कौन-से उपद्रव मचाए। बेचारे दुर्जन को बात-की-बात में मटियामेट कर दिया, तो फिर मुझे बिगाड़ते क्या देर लगती है। मैं अपनी जबान से लाचार हूँ। कितना ही उसे बस में रखना चाहता हूँ, पर नहीं रख सकता। यही न होता कि जहाँ और सब लेना-देना है वहाँ दस रुपये और हो जाते, नक्कू तो न बनता। लेकिन इन विचारों ने एक क्षण में फिर पलटा खाया। मनुष्य जिस काम को हृदय से बुरा नहीं समझता, उसके कुपरिणाम का भय एक गौरवपूर्ण धैर्य की शरण लिया करता है। मनोहर अब इस विचार से अपने को शान्ति देने लगा, मैं बिगड़ जाऊँगा तो बला से, पर किसी की धौंस तो न सहूँगा, किसी के सामने सिर तो नीचा नहीं करता। जमींदार भी देख लें कि गाँव में सब-के-सब भाँड़ ही नहीं हैं। अगर कोई मामला खड़ा किया तो अदालत में हाकिम के सामने सारा भण्डा फोड़ दूँगा, जो कुछ होगा, देखा जाएगा। इसी उधेड़बुन में वह भोजन करने लगा। चौके में एक मिट्टी के तेल का चिराग जल रहा था; किन्तु छत में धुआँ इतना भरा हुआ था कि उसका प्रकाश मन्द पड़ गया था। उसकी स्त्री बिलासी ने एक पीतल की थाली में बथुए की भाजी और जौं की कई मोटी-मोटी रोटियाँ परस दीं। मनोहर इस भाँति रोटियाँ तोड़-तोड़ मुँह में रखता था, जैसे कोई दवा खा रहा हो। इतनी ही रुचि से वह घास भी खाता। बिलासी ने पूछा, क्या साग अच्छा नहीं ? गुड़ दूँ ?
मनोहर – नहीं, साग तो अच्छा है।
बिलासी – क्या भूख नहीं ?
मनोहर – भूख क्यों नहीं है, खा तो रहा हूँ।
बिलासी – खाते तो नहीं हो, जैसे औंघ रहे हो। किसी से कुछ कहा-सुनी तो नहीं हुई है ?
मनोहर – नहीं, कहा-सुनी किससे होती ?
इतने में एक युवक कोठरी में आकर खड़ा हो गया। उसका शरीर खूब गठीला हृष्ठ-पुष्ठ था, छाती चौड़ी और भरी हुई थी। आँखों से तेज झलक रहा था। उसके गले में सोने का यन्त्र था और दाहिने बाँह में चाँदी का एक अनन्त। यह मनोहर का पुत्र बलराज था।
बिलासी – कहाँ घूम रहे हो ? आओ, खा लो, थाली परसूँ।
बलराज ने धुएँ से आँखें मलते हुए कहा, काहे दादा, आज गिरधर महाराज तुमसे क्यों बिगड़ रहे थे ? लोग कहते हैं कि बहुत लाल-पीले हो रहे थे ?
मनोहर – कुछ नहीं; तुमने कौन कहता था ?
बलराज – सभी लोग तो कह रहे हैं। तुमसे घी माँगते थे; तुमने कहा, मेरे पास घी नहीं है, बस इसी पर तन गए।
मनोहर – अरे तो कोई झगड़ा थोड़े ही हुआ। गिरधर महाराज ने कहा तुम्हें घी देना पड़ेगा, हमने कह दिया, जब घी हो जाएगा तब देंगे, अभी तो नहीं है। इसमें भला झगड़ने की कौन सी बात थी ?
बलराज – झगड़ने की बात क्यों नहीं है। कोई हमसे क्यों घी माँगे ? किसी का दिया खाते हैं कि किसी के घर माँगने जाते हैं ? अपना तो एक पैसा नहीं छोड़ते, तो हम क्यों धौंस सहें ? न हुआ मैं, नहीं तो दिखा देता। क्या हमको भी दुर्जन समझ लिया है ?
मनोहर की छाती अभिमान से फूली जाती थी, पर इसके साथ ही यह चिन्ता भी थी कि कहीं यह कोई उजड्डपन न कर बैठे। बोला, चुपके से बैठकर खाना खा लो, बहुत बहकना अच्छा नहीं होता। कोई सुन लेगा तो वहाँ जाकर एक की चार जड़ आएगा। यहाँ कोई मित्र नहीं है।
बलराज – सुन लेगा तो क्या किसी से छिपा के कहते हैं। जिसे बहुत घमण्ड हो आकर देख ले । एक-एक का सिर तोड़ के रख दें। यही न होगा, कैद होकर चला आऊँगा। इससे कौन डरता है ? महात्मा गांधी भी तो कैद हो आए हैं।
बिलासी ने मनोहर की ओर तिरस्कार के भाव से देखकर कहा, तुम्हारी कैसी आदत है कि जब देखो एक-न-एक बखेड़ा मचाए ही रहते हो। जब सारा गाँव घी दे रहा है तब हम क्या गाँव से बाहर हैं ? जैसा बन पड़ोगा देंगे। इसमें कोई अपनी हेठी थोड़े ही हुई जाती है। हेठा तो नारायण ने ही बना दिया है। तो क्या अकड़ने से ऊँचे हो जाएँगे ? थोड़ा-सा हाँड़ी में है, दो-चार दिन में और बटोर लूँगी, जाकर तौल आना।
बलराज – क्यों दे आएँ ? किसी के दबैल हैं।
बिलासी – नहीं, तुम तो लाट गर्वनर हो। घर में भूनी भाँग नहीं, उस पर इतना घमण्ड ?
बलराज – हम दरिद्र सही, किसी से माँगने तो नहीं जाते ?
बिलासी – अरे जा बैठ, आया है बड़ा जोधा बनके। ऊँट जब तक पहाड़ पर नहीं चढ़ता तब तक समझता है कि मुझसे ऊँचा और कौन ? जमींदार से बैर कर गाँव में रहना सहज नहीं है। (मनोहर से) सुनते हो महापुरुष; कल कारिंदा के पास जाके कह सुन आओ।
मनोहर – मैं तो अब नहीं जाऊँगा।
बिलासी – क्यों ?
मनोहर – क्यों क्या, अपनी खुशी है। जाएँ क्या, अपने ऊपर तालियाँ लगवाएँ ?
बिलासी – अच्छा, तो मुझे जाने दोगे ?
मनोहर – तुम्हें भी नहीं जाने दूँगा। कारिन्दा हमारा कर ही क्या सकता है ? बहुत करेगा अपना सिकमी खेत छोड़ा लेगा। न दो हल चलेंगे, एक ही सही।
यद्यपि मनोहर बढ़-बढ़ कर बातें कर रहा था, पर वास्तव में उसका इन्कार अब परास्त तर्क के समान था। यदि बिना दूसरों की दृष्टि में अपमान उठाए बिगड़ा हुआ खेल बन जाए तो उसे कोई आपत्ति नहीं थी। हाँ, वह स्वयं क्षमा प्रार्थना करने में अपनी हेठी समझता था। एक बार तनकर फिर झुकना उसके लिए बड़ी लज्जा की बात थी। बलराज की उद्दण्डता उसे शान्त करने में हानि के भय से भी अधिक सफल हुई थी।
प्रात: काल बिलासी चौपाल जाने को तैयार हुई; पर न मनोहर साथ चलने को राजी होता था, न बलराज। अकेली जाने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। इतने में कादिर मियाँ ने घर में प्रवेश किया। बूढ़ा आदमी थे, ठिंगना डील, लंबी दाढ़ी, घुटने के ऊपर तक धोती, एक गाढे की मिरजई पहने हुए थे। गाँव के नाते वह मनोहर के बड़े भाई होते थे बिलासी ने उन्हें देखते ही थोड़ा-सा घूँघट निकाल लिया।
कादिर ने चिन्तापूर्ण भाव से कहा, अरे मनोहर, कल तुम्हें क्या सूझ गई ? जल्दी जाकर कारिन्दा साहब को मना लो, नहीं तो फिर कुछ करते-धरते न बनेगी। सुना है वह तुम्हारी शिकायत करने मालिकों के पास जा रहे हैं। सुक्खू भी साथ जाने को तैयार है। नहीं मालूम, दोनों में क्या साँठ-गाँठ हुई है।
बिलासी – भाई जी, यह बूढ़े हो गए; लेकिन इनका लड़कपन अभी नहीं गया। कितना समझाती हूँ, बस अपने ही मन की करते हैं। इन्हीं की देखा-देखी एक लड़का है वह भी हाथ से निकला जाता है। जिससे देखो उसी से उलझ पड़ता है। भला इनसे पूछा जाए कि सारे गाँव ने घी के रुपये लिये तो तुम्हें नाहीं करने में क्या पड़ी थी ?
कादिर – इनकी भूल है और क्या ? दस रुपये हमें भी लेने पड़े, क्या करते ? और यह कोई नयी बात थोड़ी ही है ? बड़े सरकार थे तब भी तो एक-न-एक बेगार लगी ही रहती थी।
मनोहर-भैया, तब की बातें जाने दो तब साल-दो-साल की देन बाकी पड़ जाती थी। मुदा मालिक कभी कुड़की बेदखली नहीं करते थे। जब कोई काम-काज पड़ता था, तब हमको नेवता मिलता था। लड़कियों के ब्याह के लिए उनके यहाँ से लकड़ी, चारा और 25 रु. बंधा हुआ था। यह सब जानते हो कि नहीं? जब वह अपने लड़कों की तरह पालते थे तो रैयत भी हँसी-खुशी उनकी बेगार करती थी। अब यह बातें तो गईं, बस एक-न-एक पच्चड़ लगा ही रहता है। तो जब उनकी ओर से यह कड़ाई है तो हम भी कोई मिट्टी के लोंदे थोड़े ही हैं?
कादिर-तब की बातें छोड़ो, अब जो सामने है उसे देखो । चलो, जल्दी करो, मैं इसीलिए तुम्हारे पास आया हूँ। मेरे बैल खेत में खड़े हैं।
मनोहर-दादा, मैं तो न जाऊँगा।
बिलासी-इनकी चूड़ियाँ मैली हो जायेंगी, चलो मैं चलती हूँ।
कादिर और बिलासी दोनों चौपाल चले। वहाँ इस वक्त बहुत से आदमी जमा थे। कुछ लोग लगान के रुपये दाखिल करने आए। कुछ घी के रुपये लेने के लिए और केवल तमाशा देखने और ठकुरसुहाती करने के लिए। कारिन्दे का नाप गुलाम गौस खौँ था। वह बृहदाकार मनुष्य थे, सावला रंग, लम्बी दाढ़ी, चेहरे से कठोरता झलकती थी। अपनी जवानी में वह पलटन में नौकर थे और हवलदार के दरजे तक पहुँचे थे। जब सीमा प्रान्त में कुछ छेड़छाड़ हुई तब बीमारी की छुट्टी लेकर घर भाग आए और यहीं से इस्तीफा पेश कर दिया। वह अब भी अपने सैनिक जीवन की कथाएँ मजे ले-ले कर कहते थे। इस समय वह तख्त पर बैठे हुए हुक््का पी रहे थे। सुक्खू और दुखरन तख्त के नीचे बैठे हुए थे।
सुक्खू ने कहा, हम मजदूर ठहरे, हम घमण्ड करें तो हमारी भूल है। जमींदार की जमीन में बसते हैं, उसका दिया खाते हैं, उससे बिगड़ कहाँ जाएँगे-क्यों दुखरन?
दुखरन-हाँ, ठीक ही है।
सुक्खू-नारायण हमें चार पैसे दें, दस मन अनाज दें तो क्या हम अपने मालिकों से लड़ें, मारे घमण्ड के धरती पर पैर न रखें?
दुखरन-यही मद तो आदमी को खराब करता है। इसी मद ने रावण को मिटाया, इसी के कारण जरासंध और दुरयोधन का सर्वनाश हो गया। तो भला हमारी-तुम्हारी कौन बात है?
इतने में कादिर मियाँ चौपाल में आए। उनके पीछे-पीछे बिलासी भी आई। कादिर ने कहा, खाँ साहब, यह मनोहर की घरवाली आई है, जितने रुपये चाहें घी के लिए दे दें। बेचारी डर के मारे आती न थी।
गौस खाँ ने कटु स्वर से कहा, वह कहाँ है मनोहर, क्या उसे आते शरम आती थी?
बिलासी ने दीनता पूर्वक कहा, सरकार उनकी बातों का कुछ ख्याल न करें आपकी गुलामी करने को मैं तैयार हूँ?
कादिर-यूँ तो गऊ है, किन्तु आज न जाने उसके सिर कैसे भूत सवार हो गया। क्यों सुक्खू महतो, आज तक गाँव में किसी से लड़ाई हुई है?
कादिर-अब बैठा रो रहा है। कितना समझाया कि चल के खाँ साहब से कसूर माफ करा ले; लेकिन शरम से आता नहीं है।
गौस खाँ-शर्म नहीं, शरारत है। उसके सिर पर जो भूत चढ़ा हुआ है उसका उतार मेरे पास है। उसे गरूर हो गया।
कादिर-अरे खाँ साहब, बेचारा मजूर गरूर किस बात पर करेगा? मूरख उजड्ड आदमी है, बात करने का सहूर नहीं है।
गौस खाँ-तुम्हें वकालत करने की जरूरत नहीं। मैं अपना काम खूब जानता हूँ। इस तरह दबने लगा तब तो मुझसे कारिन्दागिरी हो चुकी। आज एक ने तेवर बदले हैं, कल उसके दूसरे भाई शेर हो जाएँगे। फिर जमींदारी को कौन पूछता है। अगर पलटन में किसी ने ऐसी शरारत की होती तो उसे गोली मार दी जाती। जमींदार से आँखें बदलना खाला जी का घर नहीं है।
यह कहकर गौस खाँ टाँगन पर सवार होने चले। बिलासी रोती हुई उनके सामने हाथ बाँधकर खड़ी हो गई और बोली, सरकार कहीं की न रहूँगी। जो डाँड़ चाहें लगा दीजिए, जो सजा चाहे दीजिए, मालिकों के कान में यह बात न डालिए। लेकिन खाँ साहब ने सुक्खू महतो को हत्थे पर चढ़ा लिया था। वह सूखी करुणा को अपनी कपट-चाल में बाधक बनाना नहीं चाहते थे। तुरन्त घोड़े पर सवार हो गए और सुक्खू को आगे-आगे चलने का हुक्म दिया। कादिर मियां ने धीरे से गिरधर महाराज के कान में कहा, क्या महाराज, बेचारे मनोहर का सत्यानाश करके ही दम लोगे?
गिरधर ने गौरवयुक्त भाव से कहा, जब तुम हमसे आँखें दिखलाओगे तो हम भी अपनी-सी करके रहेंगे। हमसे कोई एक अंगुल दबे तो हम उससे हाथ भर दबने को तैयार हैं। जो हमसे जौ भर तनेगा हम उससे गज भर तन जाएँगे।
कादिर- यह तो सुपद ही है, तुम हक से दबने लगोगे तो तुम्हें कौन पूछेगा? मुदा अब मनोहर के लिए कोई राह निकालो। उसका सुभाव तो जानते हो। गुस्सैल आदमी है। पहले बिगड़ जाता है, फिर बैठकर रोता है। बेचारा मिट्टी में मिल जाएगा।
गिरधर-भाई, अब तो तीर हमारे हाथ से निकल गया।
कादिर-मनोहर की हत्या तुम्हारे ऊपर ही पड़ेगी।
गिरधर-एक उपाय मेरी समझ में आता है। जाकर मनोहर से कह दो कि मालिक के पास जाकर हाथ-पैर पड़े। वहाँ मैं भी कुछ कह-सुन दूँगा। तुम लोगों के साथ नेकी करने का जी तो नहीं चाहता, काम पड़ने पर घिघियाते हो, काम निकल गया तो सीधे ताकते भी नहीं। लेकिन अपनी-अपनी करनी अपने साथ है। जाकर उसे भेज दो।
कादिर और बिलासी मनोहर के पास गए। वह शंका और चिन्ता की मूर्ति बना हुआ उसी रास्ते की ओर ताक रहा था। कादिर ने जाते ही यहाँ का समाचार कहा और गिरधर महाराज का आदेश भी सुना दिया। मनोहर क्षण भर सोचकर बोला, वहाँ मेरी और भी दुर्गति होगी। अब तो सिर पर पड़ी ही है। जो कुछ भी होगा देखा जाएगा।
कादिर-नहीं, तुम्हें जाना चाहिए। मैं भी चलूँगा।
मनोहर-मेरे पीछे तुम्हारी भी ले-दे होगी।
बिलासी ने कादिर की ओर अत्यन्त विनीत भाव से देखकर कहा, दादा जी, वह न जाएँगे, मैं ही तुम्हारे साथ चली चलूँगी।
कादिर-तुम क्या चलोगी, वहाँ बड़े आदमियों के सामने मुँह तो खुलना चाहिए।
बिलासी-न कुछ कहते बनेगा, रो तो लूँगी।
कादिर-यह न जाने देंगे?
बिलासी-जाने क्यों न देंगे, कुछ माँगती हूँ? इन्हें अपना बुरा-भला न सूझता हो, मुझे तो सूझता है।
कादिर-तो फिर देर न करनी चाहिए, नहीं तो वह लोग पहले से ही मालिकों का कान भर देंगे।
मनोहर ज्यों का त्यों मूरत की तरह बैठा रहा | बिलासी घर में गई, अपने गहने निकालकर पहने, चादर ओढ़ी और बाहर निकलकर खड़ी हो गई। कादिर मियाँ संकोच में पड़े हुए थे। उन्हें आशा थी कि अब भी मनोहर उठेगा; किन्तु जब वह अपनी जगह से जरा भी न हिला तब धीरे-धीरे आगे चले। बिलासी भी पीछे-पीछे चली। पर रह कर कातर नेत्रों से मनोहर की ओर ताकती जाती थी। जब वह गाँव के बाहर निकल गए, तो मनोहर कुछ सोचकर उठा और लपका हुआ कादिर मियाँ के समीप आकर बिलासी से बोला, जा घर बैठ, मैं जाता हूँ।
क्रमश:
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