Chapter 3 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda
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“गंगा! माधुरी से कहो शीघ्र आये।”
माधुरी ने वासुदेव की आवाज सुनी और गंगा की सूचना देने से पूर्व ही बाहर आंगन में आ गई। गंगा ने लपक कर उसके हाथों से टिफिन और टोकरी ले ली। बाहर ड्योढ़ी पर वासुदेव और राजेंद्र दोनों उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।
आज उनका पिकनिक का प्रोग्राम था। माधुरी उनके साथ नहीं जाना चाहती थी, किंतु वासुदेव की आज्ञा और राजेंद्र के आग्रह के सामने वह नहीं ना कर सकी। गंगा ने सामान चौकीदार को दे दिया और घर की देखभाल के लिए पीछे ठहर गई।
राजेंद्र को यहाँ आए आज तीसरा दिन था। इस बीच उसे कई बार माधुरी से अकेले मिलने का अवसर मिला और उसने हर बार उससे बातचीत करना चाहा। हर बार माधुरी कोई बहाना बनाकर टाल गई। वह यही यत्न करती कि वासुदेव की उपस्थिति में ही उसने भेंट हो। न जाने क्यों राजेंद्र की निकटता से उसे कुछ भय सा अनुभव होता।
आज भी उनके साथ आती हुए डर रही थी। वह दोनों आगे-आगे बातों में चल रहे थे और वह चुपचाप उनके पीछे अपनी ही चिंताओं में खोई आ रही थी, जब कभी वह मुड़ कर उस पर कोई प्रश्न करते, तो वह यूं उनकी ओर देखने लगती, मानो किसी ने स्वप्न भंग कर दिया हो, निंद्रा से झंझोड़ कर जगा दिया हो।
चौकीदार को उन्होंने किनारे पर ही छोड़ दिया और स्वयं नाव में बैठकर झील को पार करने लगे। तीनों मौन थे। केवल चप्पुओं की ध्वनि सन्नाटे को तोड़ रही थी। यूं प्रतीत हो रहा था, मानो तीन विपरीत दिशाओं के यात्री एक अनजान स्थान पर एकत्र हो गए हों और एक-दूसरे से अपरिचित असमंजस में हों कि किससे क्या कहें?
वासुदेव नाव के एक किनारे पर और राजेंद्र दूसरे किनारे पर बैठा था। माधुरी बीच में बैठी खुद को सामान्य रखने का प्रयत्न कर रही थी। कुछ घबराई सी, कुछ लजाई सी, पसीना-पसीना, सिमटी बैठी थी। उसकी यह दशा राजेंद्र से छुपी ना रह सकी और वह कभी-कभार दृष्टि घुमाकर मुस्कुरा देता। शीतल पवन के झोंके माधुरी की दो-एक चंचल लटों से खिलवाड़ कर रहे थे। वह बांह उठाकर उन्हें संवारती और जब वह बांह नीचे करती, तो वह फिर लहराने लगती। ऐसा करते हुए उसकी दृष्टि राजेंद्र की दृष्टि से टकरा जाती है और वह झेंप कर गर्दन झुका लेती।
“माधुरी!”
“जी!” वह एकाएक चौंक गई और वासुदेव की ओर देखने लगी।
“यह आज असाधारण किस सोच में खोई हो?”
“मैं…नहीं तो!”
“मैं भी यही पूछने वाला था।” राजेंद्र ने मित्र की बात का समर्थन करते हुए माधुरी से कहा।
राजेंद्र की बात सुनकर माधुरी घबराहट को दूर करने के लिए होठों पर फीकी मुस्कान ले आई।
“किंतु तुम भी तो एक आगंतुक के समान गुमसुम बैठे हो।“ वासुदेव ने राजेंद्र को संबोधन करके कहा।
“इन्हीं के संबंध में सोच रहा था!”
“क्या?” वासुदेव ने झट प्रश्न किया। माधुरी के कान खड़े हो गये। राजेंद्र क्षणभर रुक कर बोला, “”यू जान पड़ता है…बरसों पहले इन्हें कहीं देखा है।”
“तभी तो यह यूं घबराई सी…”
वासुदेव बात पूरी भी ना कर पाया था कि माधुरी ने तीखी दृष्टि से राजेंद्र को देखा और बोली, “आप यह पहेलियों में बातें क्यों कर रहे हैं? स्पष्ट कह दीजिए कि हम कॉलेज में सहपाठी थे।”
उसके कांपते स्वर को सुनकर राजेंद्र अनायास हँसने लगा और फिर कठिनता से हँसी रोकते हुए वासुदेव से बोल, “देखा मैंने कहा था कि तुम्हारी पत्नी को मैंने पहले भी देखा है।”
“यह अच्छी रही…दो दिन से यह तुम दोनों अपरिचित से क्यों बने रहे?”
“मैंने सोचा यह पहचान जायेंगी।”
“और मैं सोचती रही शायद यह पहचान नहीं पाये, अब क्या स्मरण कराऊं।” माधुरी ने गंभीर बातें करने मुस्कान उत्पन्न करते हुए उत्तर दिया।
दोनों की हँसी छूट गई। वासुदेव ने मित्र की ओर देखते हुए कहा, “क्या मिलन रहा, तुम मेरे मित्र बनकर आये और माधुरी से मुझसे पहले से ही परिचित निकले।”
“मेरा सौभाग्य है, अब तो अपने आवभगत का पात्र हूँ। एक तुम्हारी ओर से, दूसरी इनकी ओर से, क्यों भाभी?”
“भाभी” का शब्द सुनते माधुरी ने गर्दन उठाई और अपने पति और पुराने सहपाठी दोनों की ओर बारी-बारी देखा। दोनों के होंठ पर मुस्कान फैली हुई थी – एक में अतीत की झलक थी और दूसरे में भविष्य की। वह फिर चुप हो गई और झील के तल पर नाव के बहाव से बनती और मिटती लहरों को देखने लगी।
आकाश पर छोटी-छोटी तैरती बदलियाँ, झील के स्वच्छ जल पर लहरों की आँख-मिचोली और उड़ती हुई श्वेत बगलों की पंक्तियाँ अति सुंदर दृश्य उत्पन्न कर रही थी। तीनों अब आपस में खुल रहे थे। अब दोनों मित्र कोई और बात करते, तो माधुरी को भी सम्मिलित होना पड़ता।
एक घंटे की नाव यात्रा के बाद नाव पेड़ों के एक सुंदर झुरमुट के पास रुकी। तीनों पिकनिक की सामग्री उठाकर पास ही सरकंडों से ढके एक चबूतरे पर ले आये। नीचे हरी-हरी मखमली दूब की चादर थी। ऐसे कई और चबूतरे भी यहाँ बने हुए थे, जो लोगों को धूप और वर्षा से बचाते थे।
सामान रखकर झील में नहाने का कार्यक्रम बना। माधुरी को भी साथ चलने के लिए कहा, परंतु उसने इंकार कर दिया।
राजेंद्र ने तुरंत पूछा, “आप क्यों नहीं चलती?”
“मुझे तैरना नहीं आता!” उसने धीरे से उत्तर दिया।
“वासुदेव ने भी तैरना नहीं सिखाया क्या?”
“जो स्वयं डूब रहा हो, वह भला दूसरे को तैरना क्या सिखाया था?” वासुदेव ने दोनों की बात काट दी। उससे गंभीर स्वर से दोनों चौंक गये।
कुछ देर चुप रहने के पश्चात राजेंद्र फिर बोला, “कुछ समझ नहीं आता।”
“क्या?” वासुदेव ने पूछा।
“जब से आया हूँ, तुम दोनों के मध्य एक बड़ा अंतर देख रहा हूँ।”
“राजी! तुम नहीं जानते…अंतर देखने वाले को लगता है, वास्तव में मन मिले होते हैं…क्यों माधुरी?” वासुदेव ने बात का विषय बदल दिया और माधुरी का हाथ थाम कर उसे अपनी ओर खींचते हुए बोला, “तैरना सीखोगी?”
“ऊं हूं!”
“नहीं भाभी! तुम्हें साथ चलना ही होगा।”
“मैंने कहा ना मुझे पानी में जाते डर लगता है।”
“मैं तो तुम्हारे साथ हूँ, डूबने नहीं दूंगा।” वासुदेव ने उसे और अपने निकट खींच लिया और दोनों हँसते हुए उसे अपने साथ घसीट कर ले गये।
किनारे पर माधुरी फिर रुक गई। किंतु वासुदेव ने उसे पानी में खींच लिया। झील में पांव पड़ते ही माधुरी की चीख निकल गई और वह डुबकियाँ खाने लगी। दोनों मित्रों ने अपने हाथ मिलाकर उसे सहारा दिया और ऊपर खींच लिया। वह घबराहट में हाथ पैर चलाने लगी। यह देख वो दोनों जोर से हँसने लगे। वासुदेव ने आगे गहरे पानी में जाने की इच्छा प्रकट की, पर माधुरी न मानी और वह उसे राजेंद्र के पास छोड़कर आगे बढ़ गया। राजेंद्र उसे कंधों का सहारा धीरे-धीरे तैरना सिखाने लगा। माधुरी की सांस फूल रही थी और वह मुँह से पानी के बुलबुले छोड़ रही थी। फूली हुई सांस से उसने प्रार्थना की, “बस कीजिए ना!”
“अभी से?” धीरज ना धरोगी, तो तैरना क्यों कर पाओगी।”
“वह अकेले तैर रहे हैं!”
“उसे सहारे की आवश्यकता नहीं, सहारा तो तुम्हें चाहिए।”
कुछ क्षण चुप रहने के पश्चात माधुरी ने पूछा, “आपने यह क्यों कर कहा कि हमारे मध्य में एक बड़ा अंतर है।”
“मेरा अनुमान है और तुम जानती हो, मेरा अनुमान सदा ठीक होता है।” राजेंद्र ने हाथ बढ़ाकर किनारे को पकड़ लिया और पानी से बाहर आया। माधुरी ने भी किनारे से बाहर आने की इच्छा प्रकट की, परंतु राजेंद्र ना माना और माधुरी का हाथ पकड़कर उसे पानी में किनारे-किनारे तैरान का प्रयास करवाने लगा।
“माधुरी! एक बात बताओगी?”
“क्या?”
“मुझे यहाँ पहले पहल देख कर तुम गंभीर क्यों हो गई थी?”
“नहीं तो?”
“वासुदेव से डर गई क्या?”
“आप तो जानते हैं कि ब्याह के पश्चात स्त्री का क्या कर्तव्य और विवशता होती है।”
“तो मैं कब कर्तव्य को भुलाने की बात कहता हूँ?”
“किंतु ऐसा करना ही पड़ता है। पुरुषों का क्या भरोसा?”
“क्यों?”
“यूं ही शंका कर बैठे।”
“मन शुद्ध होना चाहिए, किसी का साहस नहीं कि कोई उंगली भी उठा सके। अब तुम ही देखो कि तुम मेरे पास हो, अकेली हो और तुम्हारे पति दूर दृष्टि से ओझल तैर रहे हैं।”
“आप क्या जाने, उनके मन में कौन सा भंवर उठ रहा होगा?”
“क्यूं?”
“इस शीतल जल में वह जल रहे होंगे।” माधुरी का यह कहना था कि राजेंद्र के हाथ ढीले पड़ गए और वह डूबने लगी। राजेंद्र ने झट से उसका हाथ थाम लिया और उसे खींचकर किनारे पर ले आया। हरी-हरी दूब पर उसका श्वेत कोमल शरीर भीगे वस्त्र में यूं लग रहा था, मानो संगमरमर की शिला को पानी से धो डाला हो। राजेंद्र ने उसे देखा और दूर झील की ओर देखते बोला, “माधुरी! जाओ!! तुरंत कपड़े बदल डालो, कहीं ठंडा लग जाये।”
यह कहकर वह झील में कूद पड़ा। माधुरी ने अपने शरीर को समेटते हुए उसे देखा। वह तैरता हुआ दृष्टि से दूर शायद वासुदेव के पास जा रहा था।
आकाश पर नन्ही-नन्ही बदलियाँ मिलकर घनी होती जा रही थी, जिनके एक ओर से काली घटा उठ रही थी, जो कि घनघोर वृष्टि की भावी सूचना थी। माधुरी सिमटती हुई सरकंडे के चबूतरे पर पहुँची और तौलिये से शरीर को पोंछने लगी।
जब दोनों थके-हारे तैयार को लौटे, तो माधुरी कॉफी तैयार कर रही थी। उसके भीगे हुए काले केश कंधों पर नागों की भांति बल खा रहे थे और वह शरीर को ढांपे हुए स्टोव के पास बैठी छींक रही थी।
माधुरी ने तीन प्यालों में कॉफी उड़ेली और सब बैठ कर पीने लगे। राजेंद्र को ऐसे लग रहा था, जैसे कॉलेज के बाद भी माधुरी में कोई अंतर नहीं आया। वह आज भी पुरानी कॉलेज गर्ल दिखाई दे रही थी। हाँ, चंचलता का स्थान गंभीरता ने ले लिया था।
जब से वह यहाँ आया था, उसके मस्तिष्क में एक ही विचार घूम रहा था, “वह क्या बात है जिसने दोनों के मध्य खाई सी उत्पन्न कर दी है? वह एक-दूसरे से नव-दंपति के समान पूरे मिले क्यों नहीं?” उसने दो – एक बार बातों-बातों में माधुरी से पूछने का प्रयत्न किया, किंतु वह कोई बात बनाकर टाल गई। एकाएक वर्षा आरंभ हो गई। सरकंडों की छप्पर से वर्षा की बौछार रुक न सकी। वो अपना सामान संभाल के सामने पुराने खंडहर में घुस गये। खंडहर कोई प्राचीन महल था, जो पहाड़ों को काटकर बनाया गया था।
राजेंद्र खंडहर को देखने की इच्छा प्रकट की और वासुदेव को साथ चलने का आग्रह किया। वासुदेव तैरने से काफी थक चुका था। वह माधुरी से बोला, “तुम चली जाओ ना साथ।”
“आप भी तो चलिए ना!” माधुरी ने कहा।
“तुम तो जानती हो कि मुझे यह खंडहर अच्छे नहीं लगते।”
“क्यों?” राजेंद्र ने पूछा।
“बहुत देख चुका हूँ। मैं यहाँ बैठकर बरखा को देखता हूँ। तुम महलों का उजड़ापन देखो।”
राजेंद्र कपड़े बदले और जाने को तैयार हो गया। वह कुछ देर माधुरी की प्रतीक्षा करता रहा, पर जब अपने स्थान से ना हिली, तो उसे बिना कुछ कहे अकेला ही चल पड़ा। वासुदेव ने पहले उसे और फिर माधुरी को देखते हुए कहा, ” जाओ ना! वह अकेला ही जा रहा है, क्या कहेगा?”
“मैं क्या करूं?”
“हमारा अतिथि है और फिर पराया भी नहीं। जैसे वह मेरा मित्र है वैसे तुम्हारा।”
“उफ्फ?” माधुरी अपने स्थान छोड़कर उठी और राजेंद्र के पीछे चल दी। यद्यपि वह स्वयं उसके साथ जाना चाहती थी, किंतु अपने पति पर वह अपनी उत्सुकता प्रकट न करना चाहती थी। खंडहर के भीतरी भाग में प्रवेश करने से पूर्व एक बार फिर उसने अपने पति को देखा और धीरे-धीरे पांव बढ़ा ती चली गई। वासुदेव वर्षा की धारों को देखने लगा।
भीतर अंधेरा था, परंतु दीवारों के छोटे-छोटे झरोखों से कुछ प्रकाश छनकर भीतर आ रहा था। राजेंद्र शायद बहुत आगे निकल चुका था। वह आँखें फाड़-फाड़ कर इधर उधर देखती, पर उसे नहीं दिख न पड़ा।
एकाएक वह एक मोड़ पर रुक गई। कुछ ऐसा लगा कि कोई छाया अंधेरे में उसके पास खड़ी हो। भय से उसका मुँह सूख गया। वह धीरे से मुड़ी ही थी कि सिगरेट के धुएं ने इस छाया को छुपा लिया।
माधुरी की हल्की सी चीख निकल गई।
“डर गई क्या?”
“ओह आप! मैं समझी…”
“कोई भूत होगा, क्यों?”
“आप यहाँ खड़े क्या कर रहे हैं?”
“तुम्हारी प्रतीक्षा!”
“आपने कैसे जाना कि मैं आऊंगी?”
“मन कह रहा था!”
“उन्होंने बलपूर्वक भेज दिया, मैं तो न आ रही थी।”
“झूठ…तुम्हारे शरीर को भेजा गया है, किंतु मन तो आने को पहले ही व्याकुल था।”
माधुरी उसकी बात सुनकर ऐसे झेंप गई, जैसे चोरी पकड़ ली गई हो। उसने मुँह मोड़ लिया। राजेंद्र ने उसे धुंधले प्रकाश में देखा और उसके निकट आकर धीरे से बोला, “क्या यह झूठ है?”
“हो सकता है!”
“किंतु मुझे यह विश्वास नहीं कि तुम मुझे इतना शीघ्र भुला बैठी हो, यह कैसे संभव है?”
“देखिए, चलिए! मेरी सांस घुटी जा रही है।” माधुरी ने कहा और जाने को मुड़ी। राजेंद्र ने उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे जाने से रोक लिया। वह सिर से पांव तक कांप कर रह गई। राजेंद्र ने उसकी आँखों में आँखें डालकर अपना प्रश्न दोहराया।
“आपको आप ऐसी बातें न करनी चाहिए। अब मैं किसी की पत्नी हूँ।” माधुरी ने उससे अलग होते हुए कहा।
“इसे मैं कभी इंकार करता हूँ? किंतु तुम मुझसे इतना रुखा व्यवहार क्यों करती हो?”
“कैसे?”
“अपनी मन की दशा छिपाकर…”
“मन की दशा ? वहाँ हो ही क्या सकता है?”
“कोई रहस्य…कोई पीड़ा…”
“पीड़ा!” माधुरी के मुख से एक नि:श्वास सा निकला।
“हाँ माधुरी! जब से आया हूँ, तुम्हें भी विषादग्रस्त ही पा रहा हूँ। एक विषाद की छाया…”
“चलिए! आपको खंडहर दिखा लाऊं।”
“नहीं! पहले तुम्हारे मन का सूनापन देखना चाहता हूँ।”
“अभी तो आप यहाँ कुछ दिन है ना!”
“हाँ!”
“तो धीरे-धीरे स्वयं ही सब जान जायेंगे।”
“किंतु तुम कुछ ना कहोगी?”
“कहूंगी, किंतु अभी नहीं। अब चलिये।”
माधुरी अपना हाथ राजेंद्र के हाथ में दे दिया। हाथ का स्पर्श होना था कि दोनों के शरीर में सिरहन दौड़ गई और वह आगे बढ़ गये।
वह खंडहर सम्राट बाबर के समय का था। पहाड़ी को काटकर एक ऐसा दुर्ग बना दिया गया था, जिसमें एक विशाल सेना छिपाई जा सकती थी। दूर से यह स्थान एक पहाड़ी सी दिखाई पड़ती थी। माधुरी इस दुर्ग का सैनिक तथा ऐतिहासिक महत्व समझा रही थी और वह उसके मुख पर दृष्टि जमाये धीरे-धीरे उसके साथ बढ़ रहा था। राजेंद्र कल्पना द्वारा उस समय का अनुमान लगा रहा था, जब माधुरी वासुदेव के साथ इन्हीं अंधेरी गुफाओं में प्रथम बार आई होगी। यह अंधेरा या एकांत और विवाहित युवा ह्रदय – इससे बढ़कर मिलन का और कौन सा स्थान है! वह अवश्य इस खंडहर के किसी कोने में एक दूसरे के आलिंगन में बंधे होंगे।
एकाएक किसी पत्थर से टकरा कर राजेंद्र की विचारधारा टूट गई। माधुरी मौन खड़ी उसे ताक रही थी। उसे यूं खोया सा देख कर बोली, “क्या सोच रहे थे आप?”
“कुछ नहीं! क्यों कहा था तुमने यह महल सम्राट अशोक ने…”
“अशोक ने…” वह अनायास हँस पड़ी। राजेंद्र भी अपनी भूल को समझ कर सकपकाया।
माधुरी बोली, “आप किस विचार में डूबे थे?”
“तुम्हारे ही विषय में सोच रहा था!”
“क्यों?” उसने उत्सुकतापूर्वक पूछा।
“सोचता हूँ कितनी भाग्यशाली हो, जो इस स्वर्ग में जीवन व्यतीत कर रही हो।”
“आपका क्या विचार है, इस स्वर्ग में मेरा जीवन कैसा कट रहा होगा?”
“अति सुंदर…यह एकांत, यह मनमोहक दृश्य, यह सुंदर साथ और क्या चाहिए तुम्हें?”
“बस एक बात का अभाव…”
“क्या?”
“मृत्यु!” माधुरी ने कहा और मुख मोड़ कर दूसरी ओर देखने लगी। फिर धीरे-धीरे पग उठाती गुफा की उस दीवार के पास जा खड़ी हुई, जिसमें रिस-रिस कर पानी नीचे टपक रहा था। वह उंगलियों से उस गीली दीवार पर चित्र बनाने लगी। राजेंद्र को उसके इस उत्तर पर आश्चर्य हुआ। वह उसके मन को कुरेदने का प्रयत्न कर रहा था। उसे उससे ऐसे ही उत्तर की आशा थी। उसे यह समझ ना आ रहा था कि वह कौन सी ऐसी विवशता है, जो दोनों के जीवन को दूभर बनाए हुए हैं। वह धीरे से उसके निकट जा खड़ा हुआ और उसके कंधे को उंगलियों से छूते हुए बोला, “माधुरी!”
माधुरी ने मुड़कर उसकी ओर देखा। राजेंद्र ने देखा कि उसकी आँखों में आँसू यूं ही टपक रहे थे, जैसे सामने की दीवार से। वह भी सदियों से घाव छिपाये मौन थी और माधुरी वर्षों की पीड़ा लिए चुप!
उसने ध्यान से दीवार को देखा और वहाँ लिखा मृत्यु का शब्द पढ़कर बोला, “यह क्या माधुरी? तुम रो क्यों रही हो?”
“कुछ नहीं!” उसने आंचल से गालों पर आये आँसुओं को पोंछते हुए कहा और बाहर जाने को मुड़ी। राजेंद्र ने उसका मार्ग रोके कर कहा, “मैं यूं ना जाने दूंगा।”
“चलिए! बहुत देर हो गई। वह प्रतीक्षा में होंगे।”
“नहीं! तुम्हारे दुख का कारण बिना मैं न जाऊंगा।”
“क्या कर लीजिएगा सुनकर?”
“तुम्हारी आँखों में यह उदासी अच्छी नहीं लगती।”
“अब नहीं फिर कभी सुन लीजिएगा!”
“इतनी प्रतीक्षा कौन करेगा?”
“वह मेरे नहीं!” माधुरी ने ये शब्द भर्राये हुए स्वर में मुँह फेरकर कहे।
“मैं समझा नहीं?”
“न जाने क्यों वो मुझसे दूर-दूर रहते हैं, जैसे घृणा करते हो।”
“क्या कभी कोई बात…?”
“नहीं! ब्याह के दूसरे दिन ही हम यहाँ आए और तब से इसी स्थान पर हैं।”
“तुमने इसका कारण जानने का यत्न किया है।”
“कुछ समझ नहीं आता, इतना जानती हूँ कि वह ब्याह के लिए सहमत नहीं थे। घर वालों ने विवश कर के ब्याह कर डाला।”
“ऐसा ही सही, किंतु तुम जैसा जीवन साथी पाकर उसके दुखी होने का कोई कारण नहीं!”
“संभव है कि वह किसी और को चाहते हो। मन की कुछ कहते भी तो नहीं!”
“ओह!” वह क्षण पर चुप रहने के पश्चात बोला, “मैं समझा..”
“क्या?” माधुरी ने समीप आते उत्सुकता से पूछा।
“दोष तुम्हारा ही है, जो तीन वर्षों में भी उनके प्रेम को जीत न सकी। तुम कैसी स्त्री हो?”
“आप क्या जाने, मैंने क्या क्या यतन नहीं किये। वह तो पत्थर हैं।”
“तब तो तुम्हें ऐसे साथी की आवश्यकता है, जिसमें तुम दोनों का स्नेह हो।”
“कैसा साथी?”
“कोई नवजीवन…कोई नन्ना मुन्ना, जो तुम दोनों के प्यार का केंद्र बन सके और तुमको एक-दूसरे के निकट ला सकते हैं।”
“मेरे भाग्य में यह कहाँ?” आँचल मुँह में ठूंस कर उसने गर्दन फेर ली।
“क्यों? ऐसी क्या बात है?”
“राजी!” उसने उसने हुए सांस में उसके नाम से संबोधित किया और बोली, “अब तुमसे क्यों कर कहूं। वह पराये हैं, मेरा उन पर कोई अधिकार नहीं। मैं अब तक बिन ब्याही दुल्हन हूँ। सागर के किनारे खड़ी अतृप्त हूँ। केवल नाम मात्र के सुहाग का क्या अर्थ? मैं पूछती हूँ मैं किससे ब्याह कर लाई गई हूँ…तुम कह रहे हो मेरी कोख हरी हो और वह तो आज तीन बरस से प्रेम तो अलग मेरे कमरे तक में नहीं सोये। कभी तो मन करता है कि झील में कूदकर प्राण दे दूं।”
यह बातें कहते हुए माधुरी ने तनिक भी संकोच प्रकट नहीं किया। न जाने किस भावना के अधीन उसबे सब कुछ कह डाला और रोती हुई बाहर निकल गई। राजेंद्र खड़ा उसे देखता ही रहा। माधुरी ने अपने दु:खी विवाहित जीवन इस तरह से उसे क्यों बता दिया? उसे वासुदेव पर क्रोध आने लगा।
कॉलेज के समय में माधुरी से प्रेम करता था हार्दिक प्रेम…इन पाँच वर्षों में उसे बिल्कुल भुला भी ना सका था और अब अकस्मात उनकी फिर भेंट हो गई। वह उसकी दशा देखकर तड़प गया…दिल में फिर से प्रेम ने अंगड़ाई ली।
जब वह गुफा से बाहर निकला, तो माधुरी वासुदेव के पास बैठी बातें कर रही थी। वासुदेव के मुख से दु:ख झलक रहा था और वह उसके बालों से खेल रहा था। राजेंद्र दूर से खड़ा उसे देखता रहा। यह विचित्र पहेली उसकी बुद्धि में न आ रही थी।
बाहर निरंतर वर्षा हो रही थी।
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