चैप्टर 8 नकली नाक : इब्ने सफ़ी का उपन्यास हिंदी में | Chapter 8 Nakli Naak Ibne Safi Novel In Hindi

Chapter 8 Nakli Naak Ibne Safi Novel

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फ़रीदी गिरफ्तार

अपने कमरे में बैठा फ़रीदी दो किताबों को देखने में लगा था। कलमी खाके वाली किताब पर नवाबजादा शाकिर ने कुछ निशान लगा रखे थे। दूसरी किताब पढ़ते हुए उसने कुछ नोट लिखें। दफ्ती वाला कागज फटा हुआ था। उसने कुछ सोचा और फिर दोनों किताबें उठाई और उन्हें अपने अलमारी में बंद कर दिया। थोड़ी देर बाद उसे अलमारी खोली। किताबें अलमारी में नहीं थी।

“ठीक है!” वह बड़बड़ाया, “मैं जानता था जाबिर कि तुम यहाँ आओगे…इन किताबों के लिए… तुम्हें मेरी सख्त ज़रूरत है और ये किताबें सब न मिल सकेंगी। यह बहुत दूर चली गई है।”

जैसे तस्वीर निकाल कर उसके गौर से देखा और फिर उसे जेब में रखते हुए बाहर निकल गया।

शाम हो चुकी थी। हमीद का कहीं पता ना था। फ़रीदी ने उसे लेफ्टिनेंट बाकिर के घर पर निगरानी के लिए तैनात कर दिया था। उसके ख़याल से उसे अब वापस आ जाना चाहिए था। वह होटल के बरामदे में इंतज़ार करता रहा और आखिर तंग आकर लेफ्टिनेंट बाकिर के घर की तरफ रवाना हो गया।

लेफ्टिनेंट बाकिर के घर पर बिल्कुल सन्नाटा था। पुलिस के दो सिपाही बैठे रहे थे। लाइब्रेरी में शीशे से छन-छन का रोशनी आ रही थी। फ़रीदी ने झांककर देखा। लेफ्टिनेंट साहब कमरे में किताबों में लगे थे…थोड़ी देर तक पर किताबें देखते रहे,  फिर उन्होंने दराज़ से पिस्तौल निकालकर अपनी जेब में रखी और दरवाज़े की तरफ बढ़े। फ़रीदी ने फौरन अपने को छुपा लिया…लेफ्टिनेंट साहब जैसे ही बाहर निकले, वे मैं कुछ अजीब तरीके से खांसे…उन्होंने जेब से रुमाल निकाला और अपने मुँह को एक बार पोंछा, कमरे का दरवाजा बंद किया, ताला लगाया और सिपाहियों को देखते हुए बाहर चले।

फ़रीदी उनके जाते ही लपका। जिस जगह पर रुके थे, वहाँ पर पड़े हुए कागज के टुकड़े को उसने उठाया और लाइब्रेरी के दरवाजे के निचले पट पर उसने अपने डब्बे से पाउडर निकालकर छिड़क दिया…देखते ही देखते लकड़ी का वह टुकड़ा धुआं उगलने लगा। जल्दी से फ़रीदी ने अपनी उंगलियाँ रुमाल से बांधकर उन्हें अंदर की तरफ दबाना शुरू किया। लकड़ी का तख्ता एक हल्की आवाज के साथ नीचे आ गिरा और फ़रीदी उसी रास्ते से अंदर चला गया। बातचीत करने की हल्की-हल्की माध्यम सी आवाज आ रही थी। फ़रीदी ने कान लगाकर सुना। तारिक अपनी सैलानी ज़िन्दगी के किस्से सुना रहा था। कभी-कभी नवाब रशीददुज्जमा के बोलने की आवाज भी आ जाती। गज़ाला के कहकहे की आवाज उसने साफ पहचान ली।

उसने सोचा कि उन लोगों को यहाँ से हटा दें, मगर एक जानी पहचानी आवाज फिर से सुनाई दी। माथुर साहब बोल रहे थे, “ये भी…यही है, तब ठीक है।”

कागज से निकालकर फ़रीदी ने एक बार पढ़ा और फिर उसे जेब में रख लिया। अलमारी की बगल में रखे हुए स्कूल पर एक मूर्ति रखी हुई थी। फ़रीदी की उंगलियाँ उस मूर्ति पर कुछ तलाश करती रही। अचानक उसका हाथ मूर्ति के पिछले हिस्से पर पड़ा और हल्की सी आवाज के साथ मूर्ति का सर बीच से खुल गया। अंदर एक छोटे से संदूक में बहुत से खत रखे थे। फ़रीदी  ने उन्हें निकाला और देखता रहा। एक तस्वीर देख ते ही उसका मुँह खुला का खुला रह गया। “मैं इतना नहीं समझा था…इतनी शानदार अदाकारी और ऐसा भेष।” फ़रीदी दिल ही दिल में बोला।

खतों को भी इकट्ठा करने के बाद उसने उन्हें अलमारी में बिल्कुल ऊपर रख दिया, सामने एक किताब खुली हुई थी। ऐसा मालूम होता था, जैसे अभी इस पर कोई शख्स कुछ लिख रहा था और फिर अधूरा छोड़ कर उठ गया है।

किताब के बहुत से पन्ने सादे थे। सरसरी तौर पर फ़रीदी ने पन्ने उल्टे….जिस्म की बनावट…शरीर के अलग-अलग अंगों, उनकी हरकत और रोगों के बारे में एक ब्यौरेवार मज़मून था। आखिर उसे वह चीज दिखाई दे ही गई। मेज के नीचे कबूतरों के पंजे में डाले जाने वाले तीन छल्ले एहतियात और हिफ़ाज़त के साथ छोटे से बक्से में रखे थे। बक्स पर धूल जमी हुई थी, मगर ऐसा मालूम होता था जैसे उस बक्स पर से ध्यान हटाने और उसे मामूली सा दिखाने के लिए धूल मिट्टी डाली गई है। बक्स के ऊपर दो जूते और सामने बहुत ही चप्पलें रखी हुई थी। बगल में एक डिब्बा उसी हालत में था। सिगरेट की तंबाकू उसमें भरी हुई थी…फ़रीदी ने चुटकी से तंबाकू सूंघा…, “अरे!” उसके मुँह से अचानक निकला।

तंबाकू और छल्ले वाले खत लेकर वह दरवाजे की तरफ बढ़ा। उसकी आँखों में दमदार चमक थी।

अचानक उसे लगा कि वह आगे नहीं बढ़ पा रहा। उसने झुककर देखा…पैरों में तार से ज्यादा महीन चीज जकड़ी हुई थी…मगर गर्दन में भी ऐसी ही एक मुसीबत थी…सामने ज़ाबिर थोड़ा मुस्कुरा रहा था।

“फंस गए ना आखिर… तुमने मुझे फंसाना चाहा और खुद फंस गए…. अगर मुझे पांच मिनट की भी देर होती, तो तुमने तो मुझे खत्म कर दिया था….वह कुछ धीमी आवाज में बोला।

फ़रीदी ने हाथ से पिस्तौल निकालने की कोशिश की, मगर पिस्तौल निकालने से पहले हाथों की ताकत खत्म हो गई…ज़ाबिर हँसा।

“यह अनाड़ीपन छोड़ो। मैं इतना गधा नहीं हूँ कि तुम्हें पिस्तौल निकालने का भी मौका दूं….यह देखो बड़ी मैंने तैयार किया मैंने….इनसे इंसानी जिस्म की ताकत खत्म हो जाती है। तुम देख सकते हो, सोच सकते हो, मगर न बोल सकते हो न हरकत कर सकते हो…इस तार का नुस्खा जर्मनी में डॉक्टर वानरीच से हासिल किया गया था।”

वह बोलता रहा…गुस्से में उसकी भवें तन गई थी…उसने अपनी नाक उठाई और अपना मुँह फ़रीदी के बिल्कुल सामने ले आया। फ़रीदी की आँखें खौफ़ से बंद हो गई…मुँह के अंदर उसने एक थैली लटका रखी थी।

“फ़रीदी बेटे!” वह चुमकारते हुए बोला, “दो-चार से भिड़ गए और अपने को तीस मार खां समझ लिया…यह थैली देखते हो। मैं इसे निकाल लूं, तो मेरी आवाज सुनते ही तुम बेहोश हो जाओ…इसमें एक गोली छोड़ो…आवाज टाइट होगी…दो… औसत…तीन….नरम…चार…टाइट जनाना…पांच…सुरीली जनाना आवाज…समझे!

“मगर देखो…तुम बेहोश होने का इरादा कर रहे हो…यह बड़ी बुरी बात है…खैर… यह बताओ…किताबें मुझे दोगे या कुत्ते की मौत करना चाहते हो? बोलो…अच्छा लो…मैं तुम्हें तुम्हारे एक हाथ की ताकत वापस देता हूँ।”

ज़ाबिर ने एक हाथ का तार निकाल लेने से पहले पिस्तौल और खतों को अपने पास रख लिया और फिर फ़रीदी से बोला, “इशारों से बता दो…किताबें दोगे या नहीं।”

फ़रीदी ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया।

“बिल्कुल घामड़ समझते हो…मैं तुम्हारे पास आऊं…तुम मार ही दो…कौन जाने? ज़िद्दी तो हो ही…किताब दोगे।”

फ़रीदी ने इंकार किया…तीन बार उससे पूछा और फ़रीदी इंकार ही करता रहा।

“खैर तुम अक्ललमंद आदमी हो और हिंदुस्तान में ऐसे आदमी की कमी है इसलिए तुम्हें मारना नहीं चाहता….क्या फायदा…बता दो…अच्छा चलो, मैं तुम्हें ज़ाबिर की एक हमशक्ल की लाश दूंगा…शायद चीफ कमिश्नर बना दिए जाओ…इसलिए कि तुम्हारी हुकूमत के कुछ अहम तिज़ारती कागजात भी मेरे पास है। बड़ा नाम होगा तुम्हारा…मैं वादा करता हूँ कि फिर हिंदुस्तान नहीं आऊंगा…अब देते हो।”

फ़रीदी ने फिर इंकार किया।

“देखो ज़िद न करो…तुम मुझसे बहुत पीछे हो…मैं हजारों साल ज़िन्दा रहने का तजुर्बा कर रहा हूँ। उस किताब से मुझे बड़ी मदद मिलेगी। इंसानी खून की जितनी मुझे ज़रूरत थी, वह मुझे मिल चुका है। मुझे बता दो…मैं तुम्हारा एतबार करता हूँ। मैं तुम्हें छोड़ दूंगा…मेरे पास वक्त नहीं है। अभी इसी कमरे में पहले तारिक आयेगा…फिर तुम्हारे दोस्त माथुर आयेंगे…फिर जज सिद्दीक अहमद आयेंगे। उस छोकरे को अच्छी ट्रेनिंग दे रहे हो। खैर…अगर किताब न दोगे, तो यह सब मर जायेंगे।”

अफरीदी ने फिर इंकार किया।

“तुम्हें बेवकूफ आदमी हो और बेवकूफ के लिए यही जगह हो सकती है।” ज़ाबिर ने एक ठोकर मारी और लाइब्रेरी के बीच का हिस्सा फटा….और फ़रीदी अंदर धंसता चला गया। उसने तख्ता रखा और कालीन बिछा दी। कमरे में बेहोशी की गैस भर रही थी।

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