चैप्टर 19 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 19 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 19 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 19 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 19 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 19 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

ठाकुर हरिसेवकसिंह दावत खाकर घर पहुंचे, तो डर रहे थे कि लौंगी पूछेगी तो क्या जवाब दूंगा। अगर यह कहूँ कि मुंशीजी ने मेरे साथ चाल चली, तो जिन्दा न छोड़ेगी, तानों से कलेजा छलनी कर देगी। जो कहूँ कि मनोरमा को पसंद है, तो मैं क्या करता, तो भी न बचने पाऊंगा। चुडैल वकीलों की तरह तो बहस करती है। बस, उसे राजी करने की एक ही तरकीब है। किसी पण्डित को फांसना चाहिए, जो उसके सामने यह कह दे कि राजा साहब की आयु एक सौ पचीस वर्ष की है। जब तक इस बात का उसे विश्वास न आ जाएगा, वह किसी तरह न राजी होगी।

ज्यों ही ठाकुर साहब घर में पहुंचे, लौंगी ने पूछा-वहां क्या बातचीत हुई?

दीवान-शादी ठीक हो गई, और क्या !

लौंगी-और मैंने इतना समझा जो दिया था?

दीवान-भाग्य भी तो कोई चीज है !

लौंगी-भाग्य पर वह भरोसा करता है, जिसमें पौरुष नहीं होता। लड़की को डुबो दिया, ऊपर से शरमाते नहीं, कहते हो भाग्य भी कोई चीज है?

दीवान-तुम मुझे जैसा गधा समझती हो, वैसा गधा नहीं हूँ। मैंने राजा साहब की कुंडली एक बड़े विद्वान ज्योतिषी को दिखलाई और जब उसने कह दिया कि राजा साहब की उम्र बहुत बड़ी है, कोई संकट नहीं है, तब जाकर मैने मंजूर कर लिया।

लौंगी-राजा ने किसी पंडित को सिखा-पढ़ाकर खड़ा कर दिया होगा। दीवान-क्या मुझे बिलकुल अनाड़ी ही समझ लिया है?

लौंगी-अनाड़ी तो तुम हो ही, न जाने किस तरह दीवानी कर लेते हो। अच्छा बताओ, वह कौन पंडित था?

दीवान-इसी शहर का नामी पंडित है। मेरी उनसे पुरानी मुलाकात है। वह मुझे कभी धोखा न देंगे। अगर कोई गड़बड़ होती, तो वह साफ-साफ कह देते। हम और वह अलग एक कमरे में बैठे थे। उन्होंने बड़ी देर तक कुंडली को देखकर कहा-कोई शंका की बात नहीं, आप भगवान का नाम लेकर विवाह स्वीकार कर लीजिए। राजा साहब की आयु एक सौ पच्चीस वर्ष की है।

लौंगी-तुम कल उन पंडितजी को यहां बुला देना। जब तक मेरे सामने न कह देंगे, मुझे विश्वास न आएगा।

दूसरे दिन प्रात:काल लौंगी ने पंडित की रट लगाई और दीवान साहब को विवश होकर मुंशी वज्रधर के पास जाना पड़ा।

वज्रधर सारी कथा सुनकर बोले-आपने यह बुरा रोग पाल रखा है। एक बार डांटकर कह दीजिए-चुपचाप बैठी रह, तुझे इन बातों से क्या मतलब? फिर देखू वह कैसे बोलती है !

दीवान-भाई, इतनी हिम्मत मुझमें नहीं है। वह कभी जरा रूठ जाती है, तो मेरे हाथपांव फूल जाते हैं। मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता कि उसके बिना मैं जिंदा कैसे रहूँगा। मैं तो उससे बिना पूछे भोजन भी नहीं कर सकता। वह मेरे घर की लक्ष्मी है। आपकी किसी ज्योतिषी से जान-पहचान है?

मुंशी-जान-पहचान तो बहुतों से है; लेकिन देखना तो यह है कि काम किससे निकल सकता है। कोई सच्चा आदमी तो यह स्वांग भरने न जाएगा। कोई पंडित बनाना पड़ेगा।

दीवान-यह तो बड़ी मुश्किल हुई।

मुंशी-मुश्किल क्या हुई ! मैं अभी बनाए देता हूँ। ऐसा पंडित बना दूंगा कि कोई भांप न सके। इन बातों में क्या रखा है?

यह कहकर मुंशीजी ने झिनकू को बुलाया। वह एक ही छंटा हुआ था। फौरन तैयार हो गया। घर जाकर माथे पर तिलक लगाया। गले में रामनामी चादर डाली, सिर पर एक टोपी रखी और एक बस्ता बगल में दबाए आ पहुंचा। मुंशीजी उसे देखकर बोले-यार, जरा-सी कसर रह गई। तोंद के बगैर पंडित कुछ जंचता नहीं। लोग यही समझते हैं कि इनको तर माल नहीं मिलते, जभी तो तांत हो रहे हैं। तोंदल आदमी की शान ही और होती है; चाहे पंडित बने, चाहे सेठ, चाहे तहसीलदार ही क्यों न बन जाए। उसे सब कुछ भला मालूम होता है। मैं तोंदल होता तो अब तक न जाने किस ओहदे पर होता। सच पूछो, तो तोंद न रहने के कारण अफसरों पर मेरा रोब न जमा। बहुत घीदूध खाया पर तकदीर में बड़ा आदमी होना न बदा था, तोंद न निकली; न निकली। तोंद बना लो, नहीं तो उल्लू बनाकर निकाल दिए जाओगे, या किसी तोंदूमल को पकड़ो।

झिनकू-सरकार, तोंद होती, तो आज मारा-मारा क्यों फिरता? मुझे भी न लोग झिनकू उस्ताद कहते! कभी तबला न होता तो तोंद ही बजा देता; मगर तोंद न रहने में कोई हरज नहीं है, यहां कई पंडित बिना तोंद के भी हैं।

मुंशी-कोई बड़ा पंडित भी है बिना तोंद का?

झिनकू-नहीं सरकार, कोई बड़ा पंडित तो नहीं है। तोंद के बिना कोई बड़ा कैसे हो जाए गा? कहिए तो कुछ कपड़े लपेटूं?

मुंशी-तुम तो कपड़े लपेटकर पिंडरोगी से मालूम होगे। तकदीर पेट पर सबसे ज्यादा चमकती है, इसमें कोई शक नहीं; लेकिन और अंगों पर भी तो कुछ न कुछ असर होता ही है, यह राग न चलेगा, भाई किसी और को फांसो।

झिनकू-सरकार, अगर मालकिन को खुश न कर दूं तो नाक काट लीजिएगा। कोई अनाड़ी थोड़े ही हूँ!

खैर, तीनों आदमी मोटर पर बैठे और एक क्षण में घर जा पहुंचे। दीवान साहब ने जाकर कहा-पंडितजी आ गए, बड़ी मुश्किल से आए हैं।

इतने में मुंशीजी भी आ पहुंचे और बोले-कोई नया आसन बिछाइएगा। कुर्सी पर नहीं बैठते। आज न जाने क्या समझकर इस वक्त आ गए, नहीं तो दोपहर के पहले कोई लाख रुपए दे, तो नहीं जाते।

पंडितजी बड़े गर्व के साथ मोटर से उतरे और जाकर आसन पर बैठे। लौंगी ने उनकी ओर ध्यान से देखा और तीव्र स्वर में बोली-आप जोतसी हैं? ऐसी ही सूरत होती है जोतसियों की? मुझे तो कोई भांड से मालूम होते हो !

मुंशीजी ने दांतों तले जबान दबा ली; दीवान साहब ने छाती पर हाथ रखा और झिनकू के चेहरे पर तो मुर्दनी छा गई। कुछ जवाब देते ही न बन पड़ा। आखिर मुंशीजी बोले-यह क्या गजब करती हो, लौंगी रानी! अपने घर पर बुलाकर महात्माओं की यह इज्जत की जाती है?

लौंगी-लाला, तुमने बहुत दिनों तहसीलदारी की है, तो मैंने भी धूप में बाल नहीं पकाए हैं। एक बहरूपिए को लाकर खड़ा कर दिया, ऊपर से कहते हैं, जोतसी हैं! ऐसी ही सूरत होती है जोतसी की? मालूम होता है, महीनों से दाने की सूरत नहीं देखी। मुझे क्रोध तो इन दीवान पर आता है, तुम्हें क्या कहूँ?

झिनकू-माता, तूने मेरा बड़ा अपमान किया है। अब मैं यहां एक क्षण भी नहीं ठहरूंगा। तुमको इसका फल मिलेगा, अवश्य मिलेगा।

लौंगी-लो, बस चले ही जाओ मेरे घर से! धूर्त, पाखंडी कहीं का! बड़ा जोतसी है तो बता मेरी उम्र कितनी है? लाला, अगर तुम्हें धन का लोभ हो, तो जितना चाहो, मुझसे ले जाओ। मेरी बिटिया को कुएं में न ढकेलो। क्यों उसके दुश्मन बने हुए हो? जो कुछ कर रहे हो, उसका दोष तुम्हारे ही सिर जाएगा। तुम इतना भी नहीं समझते कि बूढ़े आदमी के साथ कोई लड़की कैसे सुख से रह सकती है ! धन से बूढ़े जवान तो नहीं हो जाते।

झिनकू-माताजी राजा साहब की ज्योतिष विद्या के अनुसार-

लौंगी-तू फिर बोला? चुपका खड़ा क्यों नहीं रहता।

झिनकू-दीवान साहब, अब नहीं ठहर सकता।

लौंगी-क्यों, ठहरोगे क्यों नहीं? दच्छिना तो लेते जाओ!

यह कहते हुए लौंगी ने कोठरी में जाकर कजलौटे से काजल निकाला और तुरंत बाहर आ, एक हाथ से झिनकू को पकड़, दूसरे से उसके मुंह पर काजल पोत दिया। बहुत उछले-कूदे, बहुत फड़फड़ाए; पर लौंगी ने जौ भर भी न हिलने दिया, मानो बाज ने कबूतर को दबोच लिया हो। दीवान साहब अब अपनी हंसी न रोक सके। मारे हंसी के मुंह से बात तक न निकलती थी। मुंशीजी अभी तक झिनकू की विद्या का राग अलाप रहे थे और लौंगी झिनकू को दबोचे हुए चिल्ला रही थी-थोड़ा चूना लाओ, तो इसे पूरी दच्छिना दे दूं। मेरे धन्य भाग कि आज जोतसीजी के दर्शन हुए !

आखिर मुंशीजी को गुस्सा आ गया। उन्होंने लौंगी का हाथ पकड़कर चाहा कि झिनकू का गला छुडा दें। लौंगी ने झिनकू को तो न छोड़ा; एक हाथ से तो उसकी गर्दन पकड़े हुए थी, दूसरे हाथ से मुंशीजी की गर्दन पकड़ ली और बोली-मुझसे जोर दिखाते हो, लाला? बड़े मर्द हो, तो छुड़ा लो गर्दन ! बहुत दूध-घी बेगार में लिया होगा। देखें वह जोर कहाँ है !

दीवान-मुंशीजी, आप खड़े क्या हैं, छुड़ा लीजिए गर्दन।

मुंशी-मेरी यह सांसत हो रही है और आप खड़े हंस रहे हैं।

दीवान-तो क्या कर सकता हूँ। आप भी तो देवनी से जोर अजमाने चले थे। आज आपको मालूम हो जाएगा कि मैं इससे क्यों इतना दबता हूँ।

लौंगी-जोतसीजी, अपनी विद्या का जोर क्यों नहीं लगाते? क्यों रे, अब तो कभी जोतसी न बनेगा?

झिनकू-नहीं माताजी, बड़ा अपराध हुआ, क्षमा कीजिए।

लौंगी ने दीवान साहब की ओर सरोष नेत्रों से देखकर कहा-मुझसे यह चाल चली जाती है, क्यों? लड़की को राजा से ब्याहकर तुम्हारा मरतबा बढ़ जाएगा, क्यों? धन और मरतबा सन्तान से भी ज्यादा प्यारा है, क्यों? लगा दो आग घर में। घोंट दो लड़की का गला। अभी मर जाएगी. मगर जन्म-भर के दु:ख से तो छूट जाएगी । धन और मरतबा अपने पौरुष से मिलता है। लडकी बेचकर धन नहीं कमाया जाता। यह नीचों का काम है, भलेमानसों का नहीं। मैं तुम्हें इतना स्वार्थी न समझती थी, लाला साहब! तुम्हारे मरने के दिन आ गए हैं, क्यों पाप की गठरी लादते हो? मगर तुम्हें समझाने से क्या होगा ! इसी पाखंड में तुम्हारी उम्र कट गई, अब क्या संभालोगे! अब मरती बार भी पाप करना बदा था। क्या करते ! और तुम भी सुन लो, जोतसीजी ! अब कभी भूलकर भी यह स्वांग न भरना। धोखा करके पेट पालने से मर जाना अच्छा है। जाओ।

यह कहकर लौंगी ने दोनों आदमियों को छोड़ दिया। झिनकू तो बगटुट भागा, लेकिन मुंशीजी वहीं सिर झुकाए खड़े रहे। जरा देर के बाद बोले-दीवान साहब, अगर आपकी मरजी हो, तो मैं जाकर राजा साहब से कह दूं कि दीवान साहब को मंजूर नहीं है।

दीवान-अब भी आप मुझसे पूछ रहे हैं? क्या अभी कुछ और सांसत कराना चाहते हैं? मुंशी-सांसत तो मेरी यह क्या करती, मैंने औरत समझकर छोड़ दिया।

दीवान-आप आज जाके साफ-साफ कह दीजिएगा।

लौंगी-क्या साफ-साफ कह दीजिएगा? अब क्या साफ-साफ कहलाते हो? किसी को खाने का नेवता न दो, तो वह बुरा न मानेगा; लेकिन नेवता देकर अपने द्वार से भगा दो, तो तुम्हारी जान का दुश्मन हो जाएगा। अब साफ-साफ कहने का अवसर नहीं रहा। जब नेवता दे चुके, तब तो खिलाना ही पड़ेगा, चाहे लोटा-थाली बेचकर ही क्यों न खिलाओ। कहके मुकरने से बैर हो जाएगा।

दीवान-बैर की चिंता नहीं। नौकरी की मैं परवा नहीं करता।

लौंगी-हां, तुमने तो कारूं का खजाना घर में गाड़ रखा है। इन बातों से अब काम न चलेगा। अब तो जो होनी थी, हो चुकी। राम का नाम लेकर ब्याह करो। पुरोहित को बुलाकर साइत-सगुन पूछ-ताछ लो और लगन भेज दो। एक ही लड़की है, दिल खोलकर काम करो।

मुंशीजी को अपनी सांसत का पुरस्कार मिल गया। मारे खुशी के बगलें बजाने लगे। विरोध की अंतिम क्रिया हो गई।

आज ही से विवाह की तैयारियां होने लगीं। दीवान साहब स्वभाव से कृपण थे, कम से कम खर्च में काम निकालना चाहते थे, लेकिन लौंगी के आगे उनकी एक न चलती थी। उसके पास रुपए न जाने कहाँ से निकलते आते थे, मानो किसी रसिक के प्रेमोद्गार हों। तीन महीने तैयारियों में गुजर गए। विवाह का मुहूर्त निकट आ गया।

सहसा एक दिन शाम को खबर मिली कि जेल में दंगा हो गया और चक्रधर के कंधे में गहरा घाव लगा है। बचना मुश्किल है।

मनोरमा के विवाह की तैयारियां तो हो ही रही थीं और यों भी देखने में वह बहुत खुश नजर आती थी; पर उसका हृदय सदैव रोता रहता था। कोई अज्ञात भय, कोई अलक्षित वेदना, कोई अतृप्त कामना, कोई गुप्त चिंता, हृदय को मथा करती थी। अंधों की भांति इधर-उधर टटोलती थी; पर न चलने का मार्ग मिलता था, न विश्राम का आधार। उसने मन में एक बात निश्चय की थी और उसी में संतुष्ट रहना चाहती थी, लेकिन कभी-कभी वह जीवन इतना शून्य, इतना अंधेरा, इतना नीरस मालूम होता कि घंटों वह मूर्छित-सी बैठी रहती; मानो कहीं कुछ नहीं है, अनंत आकाश में केवल वही अकेली है।

यह भयानक समाचार सुनते ही मनोरमा को हौलदिल-सा हो गया। आकर लौंगी से बोली-लौंगी अम्मां, मैं क्या करूं? बाबूजी को देखे बिना अब नहीं रहा जाता। क्यों अम्मां, घाव अच्छा हो जाए गा न?

लौंगी ने करुण नेत्रों से देखकर कहा-अच्छा क्यों न होगा, बेटी ! भगवान चाहेंगे, तो जल्द अच्छा हो जाए गा।

लौंगी मनोरमा के मनोभावों को जानती थी। उसने सोचा, इस अबला को कितना दुःख है ! मन-ही-मन तिलमिलाकर रह गई। हाय ! चारे पर गिरनेवाली चिड़िया को मोती चुगाने की चेष्टा की जा रही है। तड़प-तड़पकर पिंजड़े में प्राण देने के सिवा वह और क्या करेगी ! मोती में चमक है, वह अनमोल है; लेकिन उसे कोई खा तो नहीं सकता। उसे गले में बांध लेने से क्षुधा तो न मिटेगी।

मनोरमा ने फिर पूछा-भगवान् सज्जन लोगों को क्यों इतना कष्ट देते हैं, अम्मां? बाबूजी का-सा सज्जन दूसरा कौन होगा ! उनको भगवान् इतना कष्ट दे रहे हैं ! मुझे कभी कुछ नहीं होता; कभी सिर भी नहीं दुखता। मुझे क्यों कभी कुछ नहीं होता, अम्मां?

लौंगी-तुम्हारे दुश्मन को कुछ हो बेटी, तुम तो कभी घड़ी भर चैन न पाती थीं। तुम्हें गोद में लिए रात भर भगवान् का नाम लिया करती थी।

सहसा मनोरमा के मन में एक बात आई। उसने बाहर आकर मोटर तैयार कराई और दम-के-दम में राजभवन की ओर चली। राजा साहब इसी तरफ आ रहे थे। मनोरमा को देखा, तो चौंके। मनोरमा घबरायी हुई थी।

राजा-तुमने क्यों कष्ट किया? मैं तो आ रहा था।

मनोरमा-आपको जेल के दंगे की खबर मिली?

राजा-हां, मुंशी वज्रधर अभी कहते थे।

मनोरमा-मेरे बाबूजी को गहरा घाव लगा है।

राजा-हां, यह भी सुना।

मनोरमा-तब भी आपने उन्हें जेल से बाहर अस्पताल में लाने के लिए कार्रवाई नहीं की? आपका हृदय बड़ा कठोर है।

राजा ने कुछ चिढ़कर कहा-तुम्हारे जैसा उदार हृदय कहाँ से लाऊं!

मनोरमा-मुझसे मांग क्यों नहीं लेते? बाबूजी को बहुत गहरा घाव लगा है, और अगर यत्न न किया गया, तो उनका बचना कठिन है। जेल में जैसा इलाज होगा, आप जानते ही हैं। न कोई आगे, न कोई पीछे न मित्र, न बन्धु। आप साहब को एक खत लिखिए कि बाबूजी को अस्पताल में लाया जाए ।

राजा-साहब मानेंगे?

मनोरमा-इतनी जरा-सी बात न मानेंगे?

राजा-न जाने दिल में क्या सोचें।

मनोरमा-आपको अगर बहुत मानसिक कष्ट हो रहा हो तो रहने दीजिए। मैं खुद साहब से मिल लूंगी।

राजा साहब यह तिरस्कार सुनकर कांप उठे। कातर होकर बोले-मुझे किस बात का कष्ट होगा। अभी जाता हूँ।

मनोरमा-लौटिएगा कब तक?

राजा-कह नहीं सकता।

यह कहकर राजा साहब मोटर पर जा बैठे और शोफर से मिस्टर जिम के बंगले पर चलने को कहा। मनोरमा की निष्ठुरता से उनका चित्त बहुत खिन्न था। मेरे आराम और तकलीफ का इसे जरा भी खयाल नहीं। चक्रधर से न जाने क्यों इतना स्नेह है। कहीं उससे प्रेम तो नहीं करती? नहीं, यह बात नहीं। सरल हृदय बालिका है। ये कौशल क्या जाने ! चक्रधर आदमी ही ऐसा है कि दूसरों को उससे मुहब्बत हो जाती है। जवानी में सहृदयता कुछ अधिक होती ही है। कोई मायाविनी स्त्री होती, तो मुझसे अपने मनोभावों को गुप्त रखती। जो कुछ करना होता, चुपके-चुपके करती; पर इसके निश्छल हृदय में कपट कहाँ? जो कुछ कहती है, मुझी से कहती है; जो कष्ट होता है, मुझी को सुनाती है। मुझ पर पूरा विश्वास करती है। ईश्वर करे, साहब से मुलाकात हो जाए और वह मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लें। जिस वक्त मैं आकर यह शुभ समाचार कहूँगा, कितनी खुश होगी!

यह सोचते हुए राजा साहब मिस्टर जिम के बंगले पर पहुंचे। शाम हो गई थी। साहब बहादुर सैर करने जा रहे थे। उनके बंगले में वह ताजगी और सफाई थी कि राजा साहब का चित्त प्रसन्न हो गया। उनके यहां दर्जनों माली थे, पर बाग इतना हरा-भरा न रहता था। यहां की हवा में आनंद था। इकबाल हाथ बांधे हुए खड़ा मालूम होता था। नौकर-चाकर कितने सलीकेदार थे, घोड़े कितने समझदार, पौधे कितने सुंदर, यहां तक कि कुत्तों के चेहरे पर भी इकबाल की आभा झलक रही थी।

राजा साहब को देखते ही जिम साहब ने हाथ मिलाया और पूछा-आपने जेल में दंगे का हाल सुना?

राजा-जी हां! सुनकर बड़ा अफसोस हुआ।

जिम-सब उसी का शरारत है, उसी बागी नौजवान का।

राजा-हुजूर का मतलब चक्रधर से है?

जिम-हां, उसी से! बहुत ही खौफनाक आदमी है। उसी ने कैदियों को भड़काया है।

राजा-लेकिन अब तो उसको अपने किए की सजा मिल गई। अगर बच भी गया, तो महीनों चारपाई से न उठेगा।

जिम-ऐसे आदमी के लिए इतनी ही सजा काफी नहीं। हम उस पर मुकदमा चलाएगा।

राजा-मैंने सुना है कि उसके कंधे में गहरा जख्म है और आपसे यह अर्ज करता हूँ कि उसे शहर के बड़े अस्पताल में रखा जाए , जहां उसका अच्छा इलाज हो सके। आपकी इतनी कृपा हो जाए तो उस गरीब की जान बच जाए , और जिले में आपका नाम हो जाए । मैं इसका जिम्मा ले सकता हूँ कि अस्पताल में उसकी पूरी निगरानी रखी जाएगी ।

जिम-हम एक बागी के साथ कोई रिआयत नहीं कर सकता। आप जानता है, मुगलों या मरहठों का राज होता, तो ऐसे आदमी को क्या सजा मिलता? उसका खाल खींच लिया जाता, उसके दोनों हाथ काट लिए जाते। हम अपने दुश्मन को कोई रिआयत नहीं कर सकता।

राजा-हुजूर, दुश्मनों के साथ रिआयत करना उनको सबसे बड़ी सजा देना है। आप जिस पर दया करें, वह कभी आपसे दुश्मनी नहीं कर सकता। वह अपने किए पर लज्जित होगा और सदैव के लिए आपका भक्त हो जाएगा।

जिम-राजा साहब, आप समझता नहीं। ऐसा सलूक उस आदमी के साथ किया जाता है, जिसमें कुछ आदमियत बाकी रह गया हो। बागी का दिल बालू का मैदान है। उसमें पानी का बूंद भी नहीं होता, और न उसे पानी से सींचा जा सकता है। आदमी में जितना धर्म और शराफत है, उसके मिट जाने पर वह बागी हो जाता है। उसे भलमनसी में आप नहीं जीत सकता।

राजा साहब को आशा थी कि साहब मेरी बात आसानी से मान लेंगे। साहब के पास वह रोज ही कोई-न-कोई तोहफा भेजते रहते थे। उनकी जिद पर चिढ़कर बोले-जब मैं आपको विश्वास दिला रहा हूँ कि उस पर अस्पताल में काफी निगरानी रखी जाएगी ; तो आपको मेरी अर्ज मानने में क्या आपत्ति है?

जिम ने मुस्कराकर कहा-यह जरूरी नहीं कि मैं आपसे अपनी पालिसी बयान करूं।

राजा-मैं उसकी जमानत करने को तैयार हूँ।

जिम-(हंसकर) आप उसकी जबान की जमानत तो नहीं कर सकते? हजारों आदमी उसे देखने को रोज आएगा। आप उन्हें रोक तो नहीं सकते? गंवार लोग यही समझेगा कि सरकार इस आदमी पर बड़ा जुल्म कर रही है। उसे देख-देखकर लोग भड़केगा। इसको आप कैसे रोक सकते हैं?

राजा साहब के जी में आया कि इसी वक्त यहां से चल दूं और फिर इसका मुंह न देखू। पर खयाल किया, मनोरमा बैठी मेरी राह देख रही होगी। यह खबर सुनकर उसे कितनी निराशा होगी। ईश्वर ! इस निर्दयी के हृदय में थोड़ी-सी दया डाल दो ! बोले-आप यह हुक्म दे सकते हैं कि उनके निकट संबंधियों के सिवा कोई उनके पास न जाने पाए !

जिम-मेरे हुक्म में इतनी ताकत नहीं है कि वह अस्पताल को जेल बना दे। यह कहते-कहते मिस्टर जिम फिटन पर बैठे और सैर करने चल दिए।

राजा साहब को एक क्षण के लिए मनोरमा पर क्रोध आ गया। उसी के कारण मैं यह अपमान सह रहा हूँ, नहीं तो मुझे क्या गरज पड़ी थी कि इसकी इतनी खुशामद करता। जाकर कहे देता हूँ कि साहब नहीं मानते, मैं क्या करूं। मगर उसके आंसुओं के भय ने फिर कातर कर दिया। आह ! उसका कोमल हृदय टूट जाए गा। आंखों में आंसू की झड़ी लग जाएगी । नहीं, मैं कभी इसका पिंड न छोडूंगा। मेरा अपमान हो, इसकी चिंता नहीं। लेकिन उसे दुःख न हो।

थोड़ी देर तक तो राजा साहब बाग में टहलते रहे। फिर मोटर पर जा बैठे और घंटे भर इधर-उधर घूमते रहे। आठ बजे वह लौटकर आए, तो मालूम हुआ, अभी साहब नहीं आए। फिर लौटे, इसी तरह घंटे -घंटे भर के बाद वह तीन बार आए, मगर साहब बहादुर अभी तक न लौटे थे।

सोचने लगे, इतनी रात गए अगर मुलाकात हो भी गई, तो बातचीत करने का मौका कहाँ? शराब के नशे में चूर होगा। आते-ही-आते सोने चला जाए गा। मगर कम-से-कम मुझे देखकर इतना तो समझ जाएगा कि यह बेचारे अभी तक खड़े हैं। शायद दया आ जाए।

एक बजे के करीब बग्घी की आवाज आई। राजा साहब मोटर से उतरकर खडे हो गए। जिम भी फिटन से उतरा। नशे से आंखें सुर्ख थीं। लड़खड़ाता हुआ चल रहा था। राजा को देखते ही बोला-ओ, ओ ! तुम यहां क्यों खड़ा है? बाग जाओ, अभी जाओ, बागो !

राजा-हुजूर, मैं हूँ राजा विशालसिंह।

जिम-ओ ! डैम राजा, अबी निकल जाओ। तुम भी बागी है। तुम बागी का सिफारिश करता है, बागी को पनाह देता है। सरकार का दोस्त बनता है। अबी निकल जाओ। राजा और रैयत सब एक है। हम किसी पर भरोसा नहीं करता। अपने जोर का भरोसा है। राजा का काम बागियों को पकड़वाना, उनका पता लगाना है। उनका सिफारिश करना नहीं। अबी निकल जाओ।

यह कहकर वह राजा साहब की ओर झपटा। राजा साहब बहुत ही बलवान् मनुष्य थे। वह ऐसे-ऐसे दो को अकेले काफी थे; लेकिन परिणाम के भय ने उन्हें पंगु बना दिया था। एक चूंसा भी लगाया और पांच करोड़ रुपए की जायदादहाथ से निकली। वह घूसा बहुत महंगा पड़ेगा। परिस्थिति भी उनके प्रतिकूल थी। इतनी रात को उसके बंगले पर आना इस बात का सबूत समझा जाए गा कि उनकी नीयत अच्छी नहीं थी। दीन भाव से बोले-साहब, इतना जुल्म न कीजिए। इसका जरा भी खयाल न कीजिएगा कि मैं शाम से अब तक आपके दरवाजे पर खड़ा हूँ? कहिए तो आपके पैरों पडूं। जो कहिए, करने को हाजिर हूँ। मेरी अर्ज कबूल कीजिए।

जिम-कबी नईं होगा, कबी नई होगा। तुम मतलब का आदमी है। हम तुम्हारी चालों को खूब समझता है।

राजा-इतना तो आप कर ही सकते हैं कि मैं उनका इलाज करने के लिए अपना डॉक्टर जेल के अंदर भेज दिया करूं?

जिम-ओ डैमिट! बक-बक मत करो। सुअर, अभी निकल जाओ, नहीं तो हम ठोकर मारेगा।

अब राजा साहब से जब्त न हुआ। क्रोध ने सारी चिंताओं को, सारी कमजोरियों को निगल लिया। राज्य रहे या जाए , बला से ! जिम ने ठोकर चलाई ही थी कि राजा साहब ने उसकी कमर पकड़कर इतने जोर से पटका कि वह चारों खाने चित्त जमीन पर गिर पड़ा। फिर उठना चाहता था कि राजा साहब उसकी छाती पर चढ़ बैठे और उसका गला जोर से दबाया। कौड़ी-सी आंखें निकल आईं, मुंह से फिचकुर बहने लगा। सारा नशा, सारा क्रोध, सारा रौब, सारा अभिमान, रफूचक्कर हो गया।

राजा ने गला छोड़कर कहा-गला घोंट दूंगा, इस फेर में मत रहना। कच्चा ही चबा जाऊंगा। चपरासी या अहलकर नहीं हूँ कि तुम्हारी ठोकरें सह लूंगा।

जिम-राजा साहब, आप सचमुच नाराज हो गया। मैं तो आपसे दिल्लगी करता था। आप तो पहलवान हैं। आप दिल्लगी में बुरा मान गया !

राजा-बिल्कुल नहीं। मैं भी दिल्लगी कर रहा हूँ। अब तो आप फिर मेरे साथ दिल्लगी न करेंगे?

जिम-कबी नई, कबी नईं।

राजा-मैंने जो अर्ज की थी, वह आप मानेंगे या नहीं?

जिम-मानेंगे, मानेंगे; हम सुबह होते ही हुक्म देगा।

राजा-दगा तो न करोगे?

जिम-कभी नई, कभी नईं। आप भी किसी से यह बात न कहना।

राजा-दगा की, तो इसी तरह फिर पटकूंगा, याद रखना। यह कहकर राजा साहब मिस्टर जिम को छोड़कर उठ गए। जिम भी गर्द झाड़कर उठा और राजा साहब से बड़े तपाक के साथ हाथ मिलाकर उन्हें रुखसत किया। जरा भी शोरगुल न हुआ। जिम साहब के साईस के सिवा और किसी ने मल्लयुद्ध नहीं देखा था, और उसकी मारे डर के बोलने की हिम्मत न पड़ी।

राजा साहब दिल में सोचते जाते थे कि देखें, वादा पूरा करता है या मुकर जाता है। कहीं कल कोई शरारत न करे। उंह, देखी जाएगी । इस वक्त तो ऐसी पटकनी दी है कि बचा याद करते होंगे। यह सब वादे के तो सच्चे होते हैं। सुबह को देखूगा। अगर हुक्म न दिया, तो फिर जाऊंगा। इतना डर तो उसे भी होगा कि मैंने दगा की, तो वह भी कलई खोल देगा। सज्जनता से तो नहीं, पर इस भय से जरूर वादा पूरा करेगा। मनोरमा अपने घर चली गई होगी। तड़के ही जाकर उसे यह खबर सुनाऊंगा। खिल उठेगी। आह ! उस वक्त उसकी छवि देखने ही योग्य होगी!

राजा साहब घर पहुंचे, तो डेढ़ बज गए थे; पर अभी तक सोता न पड़ा था। नौकर-चाकर उनकी राह देख रहे थे। राजा साहब मोटर से उतरकर ज्योंही बरामदे में पहुंचे, तो देखा मनोरमा खड़ी है। राजा साहब ने विस्मित होकर पूछा-क्या तुम अभी घर नहीं गईं? तब से यहीं हो? रात तो बहुत बीत गई।

मनोरमा-एक किताब पढ़ रही थी। क्या हुआ? ।

राजा-कमरे में चलो, बताता हूँ।

राजा साहब ने सारी कथा आदि से अंत तक बड़े गर्व के साथ नमक-मिर्च लगाकर बयान की। मनोरमा तन्मय होकर सुनती रही। ज्यों-ज्यों वह वृत्तांत सुनती थी, उसका मन राजा साहब की ओर खिंच जाता था। मेरे लिए इन्होंने इतना कष्ट, इतना अपमान सहा। वृत्तांत समाप्त हुआ, तो वह प्रेम और भक्ति से गद्गद होकर राजा साहब के पैरों पर गिर पड़ी और कांपती हुई आवाज से बोली-मैं आपका यह एहसान कभी न भूलूंगी।

आज ज्ञात रूप से उसके हृदय में प्रेम का अंकुर पहली बार जमा। वह एक उपासक की भांति अपने उपास्य देव के लिए बाग में फूल तोड़ने आई थी; पर बाग की शोभा देखकर उस पर मुग्ध हो गई। फूल लेकर चली, तो बाग की सुरम्य छटा उसकी आंखों में समाई हुई थी। उसके रोम-रोम से यही ध्वनि निकलती थी-आपका एहसान कभी न भूलूंगी। स्तुति के शब्द उसके मुंह तक आकर रह गए।

वह घर चली, तो चारों ओर अंधकार और सन्नाटा था; पर उसके हृदय में प्रकाश फैला हुआ था और प्रकाश में संगीत की मधुर ध्वनि प्रवाहित हो रही थी। एक क्षण के लिए वह चक्रधर की दशा भी भूल गई, जैसे मिठाई हाथ में लेकर बालक अपने छिदे हुए कान की पीडा भूल जाता है।

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