Chapter 5 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda
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Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11
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“माधुरी!”
“ओह! आप?”
“वासुदेव कहाँ है?”
“चले गये!”
“कहाँ?” राजेंद्र विस्मय से बोला।
“झील के उस पार। आधी रात को कोई व्यक्ति आया था। कोचवान की दशा कुछ बिगड़ गई है, शायद उसे शहर ले जाना पड़े।
“कब लौटेगा?”
“कुछ कह नहीं गये..यदि शहर चले गए, तो संभव है रात हो जाये।”
राजेंद्र उसकी बात सुनकर चुप हो गया। वह अभी-अभी बिस्तर से उठा था और वासुदेव को ढूंढता हुआ माधुरी के कमरे में आया था। वह उस समय ड्रेसिंग टेबल को ठीक लगा रही थी। राजेंद्र ने मेज पर रखा अखबार उठाया और बालकनी में कुर्सी बिछा कर उसको पढ़ने लगा।
सवेरे का सुहाना समय था। झील की ओर से आती हुई शीतल पवन शरीर में नव जीवन भर रही थी। आरंभ के दिनों में वासुदेव के चले जाने पर राजेंद्र को बड़ा विचित्र सा लगता था। उसकी अनुपस्थिति में वह बड़ा एकाकीपन सा अनुभव करता और दिन भर खोया-खोया सा रहता, किंतु अब उसे उसकी अनुपस्थिति ना अखरती। माधुरी के साथ अकेले में बोलने-चालने और हँसने-खेलने में उसे एक मानसिक तृप्ति मिलती। उसके होते दोनों में कोई भी खुलकर बातें न कर सकता। माधुरी ऐसी स्थिति में क्या सोचती होगी, क्या अनुभव करती होगी, वह इसका ठीक अनुमान न लगा सकता।
उसकी पीठ पर आहट हुई, किंतु वह मुड़ा नहीं। आने वाले के पैरों की चाप उसकी जानी-पहचानी थी। बालकनी का पर्दा हटा और माधुरी चाय का प्याला लिए उसके सामने आ खड़ी हुई। राजेश ने सरसरी दृष्टि उस पर डाली और कहा, “गंगा से कह दिया होता।”
“अतिथि का ध्यान जितना हम रख सकते हैं, नौकर नहीं रख सकते हैं।”
“तो क्या तुम अभी तक मुझे अतिथि ही समझ रही हो?”
“जी! आपका अपना व्यवहार ही कुछ अतिथियों सरीखा है।”
“क्यों? मैंने ऐसी क्या बात की है?”
“जब से मन की बात कही है, आप अनजान से बन बैठे हैं और अपरिचितों सा व्यवहार करने लगे हैं। दोष मेरा ही है। मुझे आपसे यह सब कुछ ना कहना चाहिए था।”
“नहीं माधुरी! ऐसी बात नहीं, सोचता हूँ भावना में आकर भूल से कुछ ऐसी बात ना कर बैठूं कि मित्र की दृष्टि में मुझे हीन होना पड़े।”
“आप तो बड़ी दूर की सोचने लगे।”
राजेंद्र ने कोई उत्तर न दिया और चाय पीने लगा। कुछ देर बाद बोला, “आज दिन क्यों कर कटेगा?”
“कुछ हँसते और कुछ रोते!”
“वह कैसे?”
“यही तो जीवन है। कुछ हँसकर कट जाता है और कुछ रो कर।”
“जब रोने लगो, तो मुझे पहले से बता देना। मुझे रोना कठिनता से आता है।”
राजेंद्र की बात सुनकर माधुरी खिलखिला कर हँस पड़ी। आज उसकी मुस्कान में कुछ विशेष मोहनी थी, जो इसके पहले उसने कभी अनुभव ना की थी। उसका मुँह पहले से खिला हुआ था, जैसे से कोई कली फूट पड़ी हो।
उसी समय चौकीदार वासुदेव का संदेश लेकर आया, “मालिक रात तक ना पायेंगे।”
“क्यों? सब कुशल तो है?”
“कोचवान के शरीर में विष फैल गया है और वह उसे शहर में बड़े अस्पताल ले गए हैं।”
चौकीदार सूचना देकर चला गया। राजेंद्र ने देखा, उसका मुख क्षण भर के लिए मलिन हुआ और फिर खिल उठा। राजेंद्र से आँखें मलते हुए धीरे से कहा, “”चलो यह कष्ट भी दूर हुआ!”
“कैसा कष्ट?”
“प्रतीक्षा का…वह रात से पहले ना लौटेंगे।”
“तब तो दिन मेरे लिए पहाड़ बन जायेगा।” राजेंद्र ने बनते हुए कहा।
“क्यों? क्या मैं आपके पास नहीं हूँ?”
“तुम हो तो क्या? उनकी और बात है। वह पुरुष, तुम ठहरी स्त्री। किसी से तो मन खोल कर बात भी नहीं कर सकते।”
राजेंद्र की व्यंग्यात्मक बात सुनकर वह गंभीर हो गई और मुँह बनाकर बाहर जाने लगी। राजेंद्र ने उसे रोककर कहा, “बिगड़ गई?”
“मैं कोई पुरुष तो नहीं हूँ, जो आप मेरे साथ को साथ समझे। मैं कौन होती हूँ आपकी?”
“इसलिए तो कहता हूँ कि स्त्री का मन बहुत छोटा होता है।”
“कहिए तो चौकीदार को भिजवा दूं। पुरुष है और शरीर से तगड़ा भी। आपका दिन अच्छा कट जायेगा।”
माधुरी की बात सुनकर वह जोर से हँसने लगा। उसने देखा कि वह भी दबे होठों से मुस्कुरा रही है। राजेंद्र ने उसे बांह से थामते हुए कहा, “एक बात कहूं, मानोगी?”
“कहिए?”
“चलो कहीं पिकनिक को चलें!”
उसका प्रश्न सुनकर माधुरी घबरा गई थी कि वह न जाने क्या कहेगा; किंतु पिकनिक का प्रस्ताव सुनकर उसका मुख चमक उठा। क्षण भर के लिए उसने कुछ सोचा और स्वीकृति में सिर हिलाते भीतर भाग गई।
कुछ समय पश्चात दोनों झील के किनारे हाथ में हाथ दिए बढ़ते जा रहे थे। पिकनिक के सामान के झोले उन्होंने कंधों से लटका रखे थे।
उन्होंने पिकनिक के लिए वही स्थान चुना, जहाँ एक दिन वह तीनों आए थे। उस दिन की अपेक्षा आज वह अति प्रसन्न थे, आज उन्हें कोई भय ना था, वह स्वतंत्र थे। उन्हें ऐसा लग रहा था कि विधि ने उन्हें एक ऐसे गोलाकार में रख दिया, जो धीरे-धीरे छोटा होता जा रहा है। यहाँ तक कि वह शीघ्र एक दूसरे से मिल जायेंगे, एक हो जायेंगे।
“आज तैरना ना सिखाओगे?” माधुरी ने बैठते हुए धीरे से राजेंद्र को कहा।
“एक वचन पर!”
“क्या?” माधुरी सोच में पड़ गई कि वह कौन सा वचन मांगने वाला है। उसका मुख् फिर गंभीर पड़ गया।
“मेरे साथ मझधार तक चलना पड़ेगा।”
“यदि डूब गई तो?_
“नहीं , मैं किस लिए हूँ?”
“आपका क्या विश्वास, कहीं हाथ छोड़ दे तो!”
“तो मैं कहाँ जाऊंगा?” हँसते हुए राजेंद्र बोला।
“धोखा दिया तो?”
राजेंद्र ने उसकी बांह पकड़ ली और उसे उठाते हुए बोला, “धोखा तो स्त्री देती है, पुरुष नहीं।”
यह कहते हुए वह उसे खींच कर अपने साथ पानी में ले गया। स्थिर पानी में हलचल सी मच गई और दूर-दूर तक लहरें वृत्ताकार सी बनाती चली गई। हाथ पैर चलाने से पानी उछलने लगा। माधुरी की चीखों से और फिर दोनों की मिलीजुली हँसी से वातावरण गूंजने लगा। राजेंद्र हाथों से उसकी पीठ को सहारा दिए हुए था और वह धीरे-धीरे तैरती हुई गहरे पानी की ओर जा रही थी। कभी कोई मछली धीरे से उसके शरीर को छू जाती, तो एक बिजली सी दौड़ जाती और वह एक गुदगुदी सा अनुभव करने लगती।
तैरते-तैरते वह थक गई। उसके हाथ शिथिल पड़ गए और राजेंद्र ने दोनों हाथों में उसके कोमल शरीर को थाम लिया। माधुरी ने शरीर को बिल्कुल ढीला छोड़ दिया और गठरी सी बनी उसकी बाहों में आ गई। उस शीतल जल में उसके गोरे शरीर की हल्की सी गर्मी उसे रोमांचित कर रही थी। उसने प्यार भरी दृष्टि से उसको देखा और उसके अतृप्त जीवन पर उसे तरस सा आने लगा।
पानी से निकालकर उसने धीरे से उसे झील के किनारे की हरी दूब पर खड़ा कर दिया। उसके शरीर से चिपके हुए कपड़ों से पानी निचुड़ रहा था और वह आँखें बंद किए अपने शरीर का बोझ उस पर डाले खड़ी थी। राजेंद्र ने हल्के से उसके गालों को थपथपाया। उन्मादित पंखुड़ियाँ धीरे से खुली और वह अपने पांव पर खड़ी हो गई। राजेंद्र ने सहारा देकर उसे घास पर बिठा दिया और स्वयं कुछ दूर औंधा लेट कर सुस्ताने लगा।
न जाने कितनी देर तक दोनों बेसुध पड़े रहे। राजेंद्र अभी तक कुछ गुदगुदाहट का आनंद ले रहा था, जो माधुरी के शरीर के स्पर्श से अनुभव हुआ था।
बहुत देर तक मौन के पश्चात राजेंद्र ने धड़ उठाकर माधुरी को कुछ कहने के लिए उसकी ओर देखा, अभी उसका नाम ही उसके होठों से निकला था कि एकाएक चुप हो गया और भौंचक इधर-उधर देखने लगा। वह अपने स्थान पर न थी।
बहुत तेजी से उठा और चबूतरे की ओर देखने लगा। सामान ज्यों का त्यों वहाँ रखा था, किंतु माधुरी वहाँ न थी। उसने सिर में दृष्टि दौड़ाई, किंतु वहाँ भी कुछ दिखाई ना दिया। अचानक जहाँ पर लेटी थी, वहाँ धरती पर खुदे कुछ शब्द देख कर वह रुक गया। गीली धरती पर अंग्रेजी में खुदा लिखा था – love you.
राजेंद्र ने फिर एक बार चारों ओर ध्यानपूर्वक देखा। घूमती हुई उसकी दृष्टि सामने झाड़ियों पर जा रूकी, जहाँ माधुरी के कपड़े फैले सूख रहे थे। उसने एक बार फिर धरती पर खुदे हुए शब्दों को पढ़ा और उस ओर बढ़ने के लिए पांव उठाये, किंतु कुछ सोच कर रुक गया और गर्दन मोड़ कर दूसरी ओर देखने लगा। थोड़ी देर बाद उसने फिर मुड़कर झाड़ियों की ओर देखा। अब कपड़े वहाँ न थे। अभी वह सोच ही रहा था कि माधुरी झाड़ियों से निकली। राजेंद्र ने उसे देखा और दूसरी ओर गर्दन मोड़ ली, मानो अभी तक उसे देखा ही न हो।
माधुरी ने चोर दृष्टि से उसे अपनी ओर देखते हुए भांप लिया था और उस ओर आने के स्थान पर खंडहर की गुफा की ओर मुड़ गई, जहाँ राजेंद्र के यहाँ आने पर एकांत में उसकी प्रथम भेंट हुई थी और माधुरी ने अपने दु;खी मन का रहस्य उससे कह डाला था। गुफा के भीतर जाने से पूर्व उसने एक बार फिर मुड़कर राजेंद्र की ओर देखा। वह अभी तक वहीं बैठा हुआ था, जाने किस कल्पना, किस सोच में था।
वह गुफा के भीतर ओट में खड़ी होकर उसकी प्रतीक्षा करने लगी। उसे विश्वास था कि वह अवश्य आयेगा, इस एकांत में वह उसके पास अवश्य आयेगा और उसके मन की धड़कन धरती पर लिखे हुए शब्दों को स्वयं उभार देगी। वास्तव में राजेंद्र से वह प्रेम करती थी। वासुदेव उसके प्रेम को न जीत सका था।
उसने गुफा में से झांककर फिर बाहर देखा। अभी तक अपनी स्थान पर बैठा था। माधुरी के मन को चोट सी लगी। वह अधीर हो रही थी और वह उसकी भावनाओं से अनभिज्ञ वहीं बैठा था। वह सोचने लगी, “क्या उसे निराश होना पड़ेगा? पर ऐसे क्यों कर हो सकता है? वह स्वयं भी तो कई बार बातों-बातों में उसे प्रेम जता चुका है।”
एक बार उसने फिर चोर दृष्टि से उधर देखा। राजेंद्र अपने स्थान से उठकर उसकी ओर आ रहा था। उसके मन में गुदगुदी होने लगी और शरीर में सिरहन सी दौड़ गई। वह सांस रोके थोड़ा और आगे बढ़ गई और आगे अंधेरे में छुपकर उसकी प्रतीक्षा करने लगी। उसकी दृष्टि गुफा के प्रवेश द्वार पर लगी हुई थी।
“माधुरी!” किसी ने धीरे से पुकारा। वह अंधेरे में दीवार से चिपक कर खड़ी हो गई। फिर पुकार सुनाई दी और वह सांस रोककर और सिमट गई। राजेंद्र अब गुफा में प्रवेश कर चुका था और अंधेरे में उसे टटोलता हुआ उससे आगे बढ़ गया। अब उसने ऊँचे स्वर में उसका नाम लेकर पुकारा। माधुरी छिपी हुई उसे साफ देख रही थी। यह वही स्थान था, जहाँ कुछ दिन पहले उसने राजेंद्र से अपने मन की बात कही थी। आज फिर वह वही इकट्ठे हो गए थे और वह उसे प्रेम का संदेश देने के लिए व्याकुल हो रही थी। उसके होंठ मन की भावनाओं को उगल देने के लिए बेचैन थे। आज मैं अपने मन में कुछ गुप्त न रखना चाहती थी।
राजेंद्र विस्मय में खड़ा अपने सामने देख रहा था। माधुरी धीरे-धीरे दबे पांव उसके पीछे खड़ी हो गई। उसने एक बार फिर जोर से पुकारा, “माधुरी!” आवाज की गूंज लौटकर उसके कानों से टकराई। वातावरण में गूंज से एक थरथराहट सी हुई। माधुरी ने पीछे से अपना हाथ उसके कंधे पर रख दिया। राजेंद्र चौक कर मुड़ा और उसने दोनों हाथ उसके गले में डालकर सिर उसके वक्ष से टिका दिया। उसका शरीर अंगारों सा तप रहा था और उखड़े हुए स्वर में धीरे-धीरे बुदबुदाने लगी –
“राजी! मेरे राजी! मुझ में और धैर्य नहीं। परीक्षा देने की शक्ति मुझमें नहीं रही। देखो तो मेरा कलेजा धड़क रहा है। अब और मत तरसाओ। मैं कहाँ तक ज्वाला में जलती रहूं।”
वह कहे रही थी और राजेंद्र सुने जा रहा था। इसके अपने रोयें-रोयें में बिजली सी भर गई। उसने अपनी बाहें उसकी कमर में डालकर उसे भींच लिया…और भींच लिया, यहाँ तक कि दोनों हृदयों की धड़कन एक हो गई, सांसे एक-दूसरे से मिल गई। इस मिलन में शांति थी, सुख था, जिसके लिए वह लगभग तीन वर्षों तड़प रही थी। राजेंद्र ने अपने जलते हुए होंठ उसकी केशों की घनी छाया में रख दिए।
माधुरी एक उन्माद में धीरे-धीरे रुककर कहे जा रही थी…वही शब्द जो शायद वर्षों पहले भी उसने राजेंद्र से कहे थे। परंतु फिर भी इसमें नवीनता थी, अछूतापन था, प्रेम दोहराने का पुराना नहीं हो जाता, परंतु परिस्थिति बदल चुकी थी। क्या उसे यह शब्द दोहराने का अधिकार था? कोई नहीं जानता।
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