Chapter 4 Biraj Bahu Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay
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छ: माह बीत गये। पूंटी की शादी के समय ही छोटा भाई अपना हिस्सा लेकर अलग हो गया था। नीलाम्बर कर्ज आदि लेकर बहनोई की पढ़ाई व अपना घर का खर्च चलाता रहा। कर्ज का बोझ दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया। हाँ, बाप-दादों की जमीन वह नहीं बेच सका।
तीसरे प्रहर भालानाथ मुकर्जी को लेकर जली-कटी सुना गए थे। बिराज ने सब सुन लिया था। नीलाम्बर के भीतर आते ही चुपचाप उसके सामने खड़ी हो गई। नीलाम्बर धबरा गया। हालांकि वह क्रोध व अपमान से धुंआ-धुंआ हा रही थी, पर उसने अपने को संयत करके कहा – “यहाँ बैठो!”
नीलाम्बर पलंग पर बैठ गया। बिराज उसके पायताने बैठ गई, बोली – “कर्ज चुकाकर मुझे मुक्त करो, वरना तुम्हारे चरण छूकर मैं सौगंध खा लूंगी।”
नीलाम्बर समझ गया कि बिराज सब कुछ जान चुकी है। उसने बिराज को अपने पास बिठाया और कोमल स्वर में कहा – “छि: बिराज, इतनी साधारण बात पर तुम इतनी नाराज हो जाती हो!”
बिराज ने भड़ककर कहा – “इस पर भी मनुष्य नाराज नहीं होता है तो फिर कब नाराज होता है?”
नीलाम्बर तुरंत इसका उत्तर नहीं दे पाया।
“चुप क्यों हो?”
नीलाम्बर ने धीरे से कहा – “बिराज, क्या जवाब दू? किंतु…”
“किंतु-परंतु से काम नहीं चलेगा। मेरे होते हुए तुम्हारा कोई अपमान कर जाए और मैं चुप रहूँ, यह नहीं हो सकता। आज ही इसकी व्यवस्था करो, वरना मैं अपने प्राण दै दूँगी।”
नीलाम्बर ने डरते हुए कहा – “एक ही दिन में यह सब उपाय कैसे होंगे बिराज?”
“फिर दो दिन बाद।”
नीलाम्बर चुप।
भोला मुकर्जी की बाते बिराज को अब भी शूल की तरह चुभ रही थीं। बोली – “एक अपूर्ण आशा के पीछे अपना-आपसे छल न करो। मुझे बरबाद न करो। जैसे-जैसे दिन बीतेंगे, वैसे-वैसे तुम इस कर्ज के जाल में फंसते जाओगे। मैं तुमसे भीख मांगती हूँ कि इससे उबर जाओ।”
वह रो पड़ी! नीलाम्बर ने उसके आँसू पोंछते हुए कहा – “बिराज क्यों बेचैन ही रही हो! किसी साल संपूर्ण फसल हो गई, उस दिन तीन-चौथाई जमीन-जायदाद छुड़वा लूंगा।”
बिराज आर्द्र स्वर में बोली – “यह ज़रूरी नहीं कि फसल सही हो। सूनो, में लोगों के तगादे सह सकती हूँ, पर तुम्हार अपमान नहीं। सोचो, तुम मेरी आँखों के सामने सूखते जा रहे हो। तुम्हारी स्वर्ण-काया काली हो, यह मैं नहीं सह सकती। अच्छा अब योगेन (पूंटी का पति) की पढ़ाई का खर्च और कितने दिन देना पड़ेगा?”
“एक साल के बाद वह डॉक्टर हो जायेगा।”
एक पल चुप होकर बिराज फिर बोली – “पूंटी को राजरानी की तरह पाला। यदि मैं जानती कि उसके कारण हमें इतना दु:ख मिलेगा तो मैं उसे बचपन में नदी में बहा देती… हे भगवान! पूंटी के ससुरालवाले भी कैसे लोग हैं? बड़े आदमी होकर भी हमारी छाती पर मूंग दल रहे हैं… चारों ओर अकाल का छायायें मंडरा रही है! लोग भूखे मर रहै हैं, ऐसे समय हम कैसे दूसरे की पढ़ाई का खर्च उठा सकते हैं?”
नीलाम्बर ने उसे समझाते हुए कहा – “बिराज! मैं सब समझता हूँ मगर शालिग्राम के सामने जो सौगंध खाई है, उसका क्या होगा?”
“शालिग्राम सच्चे देवता हैं, वे हमारा कष्ट हरेंगा। फिर मैं तुम्हारी अर्धांगिनी हूँ। तुम्हारे पापों को अपने सिर पर लेकर जन्म-जन्मान्तर तक नरक भाग लूंगी, पर तुम कर्ज मत लो।” वह फूट-फूटकर रोने लगी। बड़ी देर तक रोती रही। फिर छाती में मुँह छुपाए हुए बोली – “मैंने कभी तुम्हें उदास वह दु:खी नहीं देखा। मेरी ओर देखो! क्या अन्त में मुझे राह की भिखारिन बना दोगे?”
नीलाम्बर कुछ बोला नहीं। केवल उसके बालों को सहलाता रहा।
बाहर से नौकरानी सुंदरी ने पुकारा – “बहू माँ, चूल्हा जला दूं?”
बिराज ने बाहर आकर कहा – “जला दो। मैं खाना नहीं खाऊंगी। तुम अपने लिए बना लो।”
“अरे बहू माँ! आपने तो आपने तो रात का खाना भी छोड़ दिया।” सुंदरी ने जोर से कहा ताकि नीलाम्बर भी सुन ले।
सुंदरी 35-36 साल की थी। काफी सुन्दर थी। उस बेचारी को यह पता नहीं कि उसका विवाह कब हुआ और कब वह विधवा हुई। माँ, उसकी ख्याति पूरे कृष्णपुर में फैली हुई थी।
बिराज ने भड़ककर कहा – “मुझे उपदेश मत दिया कर, समझी!”
सुंदरी ढीठ व चालाक थी, खामोश रही।
***
दो साल पहले ही यह हलका कलकत्ते के एक जमींदार ने खरीदा था। उसका छोटा लड़का राजेन्द्र कुमार बहुत ही चरित्रहीन और उद्दण्ड था। उसके बाप ने कलकत्ता के बाहर रखने के बहाने उसे यहाँ भेजा था, पर वह जमींदारी के काम में जरा भी रुचि नहीं लेता था। हिवस्की फ्लास्क लटकाए तथा बंदूक लिए चिड़ियों का शिकार करता रहता था। उसके साथ उसके पाँच कुत्ते रहते थे। इसी बीच एक दिन उसकी नज़र नहाकर घड़ा लेकर जाती हुई बिराज पर पड़ी। वह मंत्रमुग्ध हो गया। सोचने लगा कि कोई इतना सुंदर भी हो सकता है? वह उस अतुल रुपराशि को मग्न होकर निहारता रहा। उससे बिराज की दो बार दृष्टि भी मिली।
घर पहुँचते ही बिराज ने सुंदरी को बुलाकर कहा – “सुंदरी! घाट पर जो आदमी खड़ा है, उसे जाकर कह दे कि वह हमारे बगीचे में न आया करे।”
सुंदरी उसे मना करने गई, पर उसे देखते ही बोल पड़ी – “अरे आप!”
“मुझे पहचानती हो?”
“आपको कौन नहीं पहचानता?”
“फिर एक बार डेरे पर आना!” कहकर राजेन्द्र चल पड़ा।
उस दिन के बाद सुंदरी कई बार राजेन्द्र के डेरे में गई-आई। बिराज को मालूम था। एक दिन बिराज ने रसोई में चूल्हें में लकड़ी डालकर कहा – “तुम वहाँ बार-बार जाती हो अनेक बातें करती हो, पर तुमने मुझे कुछ नहीं बताया?”
“आपको किसने बताया?”
“किसी ने नहीं बताया। मैंने खुद जाना। बता कल तुझे कितने रुपये इनाम के मिले… दस?”
सुंदरी के होंठ चिपक गए। उसका चेहरा पीला पड़ गया।
बिराज ने मुस्कराकर फिर कहा – “तुझमें वह साहस नहीं है कि तू मुझे कुछ कह सके। अपने आँचल में बंधे इस दस रुपये के नोट को लौटा आ। तू गरीब है, कहीं काम-धंधा करके पेट पाल… अब तू वह नहीं कर सकती, जो जवानी में किया है। क्यों चार भले आदमियों का सर्वनाश कर रही है। कल से मेरे घर में तेरा प्रवेश बंद!”
दारुण आश्चर्य से सुंदरी निःशब्द खड़ी रही। वह इस घर की पुरानी नौकरानी थी। उसने बिराज की शादी देखी और पूंटी को हाथों में पाला था। घर की स्वामिनी के साथ तीर्थयात्रा की। वह इस परिवार की एक सदस्या है। आज बिराज ने उसका इस घर में प्रवेश बंद कर दिया। विह्वल-सी खड़ी रही सुंदरी ।
पतीली का पानी कम हो गया था। सुंदरी ने देना चाहा, पर बिराज ने न लेते हुए कहा – “तेरे हाथ का जल छूने से भी उनका अकल्याण होगा। तूने इसी हाथ से रुपये लिए थे।”
सुंदरी इस अपमान का भी कोई जवाब नहीं दे सकी। बिराज ने दूसरी लालटेन जलाई और स्वयं ही कलसी लेकर घनघोर रात्रि में पानी लेने चल पड़ी।
सुंदरी स्तब्ध रह गई।
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