चैप्टर 11 बिराज बहू : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 11 Biraj Bahu Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 11 Biraj Bahu Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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भोर होते-होते आकाश में घने मेघ छा गये थे। टप्-टप् पानी बरसने लगा था। बीती रात खुले हुए दरवाजे की चौखट पर सिर रखकर नीलाम्बर सो गया था। अचानक उसके कानों में आवाज आई – “बहू माँ!”

नीलाम्बर बड़बड़ाकर जाग गया। इसी तरह की मेघाच्छन्न आकाश से हो रही वर्षा में भी श्याम की तान सुनकर राधा व्याकुल होकर उठ बैठी थी। वह आँखें मलता हुआ बाहर आया।

उसने आँगन में तुलसी को खड़ा देखा। सारी रात नीलाम्बर जंगल-जंगल, नदी किनारे अपनी पत्नी को ढूंढकर घण्टे-भर पहले ही लौटा था। थककर चूर होने की वजह से उसे कब नींद आ गई थी, यह वह स्वयं नहीं जान सका।

तुलसी ने कहा – “बाबूजी, माँ कहाँ हैं?”

नीलाम्बर ने आश्चर्य से पूछा – “फिर तू किसे पुकार रहा था?”

तुलसी ने बताया – “मांजी को ही बुला रहा था। कली गहरी काली रात में मेरे घर आकर मोटा भात मांग लाई थीं। अभी दरवाजा खुला देखकर यह पूछने चला आया कि उन मोटो भात से काम चल गया क्या?”

नीलाम्बर बिराज के जाने का मकसद मन-ही-मन समझ गया।, किन्तु वह बोला नहीं। तुलसी ने फिर कहा – “फिर इतने तड़के सुबह खिड़की किसने खोली? क्या बहू जी घाट गई हैं?” कहकर तुलसी चला गया।

नदि के किनारे-किनारे जितने झाड़-झंखाड़, गड्‌ढे, मोड़ और स्थान थे, नीलाम्बर बिराज को खोजता रहा। उसने न तो स्नान किया था और न गी कुछ खाया-पीया था। सहसा वह रुका। सोचा-यह कैसी मूर्खता मेरे माथे सवार हुई? क्या अभी तक उसे इतना भी याद न होगा कि मैंने दिन-भर कुछ खाया नहीं? यदि यह याद हो आया तो वह पल-भर भी नहीं रुक सकती। तो फिर मैं सुबह से ही यह गड़बड़ काम क्यों कर रही हूँ? इस विचार से उसे इतनी सांत्वना मिली कि उसे साफ-साफ दिखाई देने लगा और उसकी चिन्ता-फिक्र मिट गई? वह नाले लांघता हुआ जल्दी-जल्दी घर की ओर दौड़ पड़ा।

दिन ढलने लगा था। पश्चिम आकाश से बादलों के झरोखों से सूर्य की लाल किरणें चमक रही थीं। वह सीधा रसोईघर में जाकर खड़ा हो गया। देखा-रात का भोजन पड़ा हुआ था। चूहे दौड़ रहे थे। आसन बिछा हुआ था। अंधेरे में तब उसने ध्यान नहीं दिया था, पर अब वह समझ गया था कि तुलसी के दिए हुए मोटे चावल यही है। ज्वर-पीड़ित उसकी बिरज अपने पति के लिए भीख मांगकर लाई थी। इसी के कार‌ण उसने मार खाई, लांछन सुनकर लज्जा व क्षोभ के कारण वह वर्षा की भयंकर रात में घर छोड़कर चली गई।

नीलाम्बर दोनों हाथों में अपना मुँह छुपाकर बैठ गया और स्त्रियों तरह चिल्लाकर रो पड़ा। आभी तक लौटकर नहीं आयी तो अब उसे उसकी आशा भी नहीं रही। अपनी पत्नी को वह मन से जानता था। वह मानिनी अपने प्राण दे सकती है, पर दूसरे के आश्रय में रहने के कलंक को झेल नहीं सकती। नीलाम्बर का अन्तस् हाहाकार कर उठा। उसके पश्चात वह उल्टा गिर पड़ा और बार-बार पुकारने लगा – “बिराज! तू लौट आ, मैं यह सब नहीं सब पाऊंगा।”

सांझ हो गई। घर में न तो किसी ने दिया-बत्ती की और न कोई रसोईघर में घुसा। रोते-रोते नीलाम्बर की आँखें सूज गईं, किन्तु किसी ने कुछ भी नहीं पूछा। दो दिन के भूखे-प्यासे नीलाम्बर को किसी ने खाने के लिए नहीं बुलाया। बाहर वर्षा होने लगी थी। घनघोर अंधेरे में बिजली की तड़क गूंज जाती थी, मानो वह किसी दुर्योग की खबर दे रही हो, फिर भी नीलाम्बर मुँह गड़ाये इसी तरह विलाप करता रहा।

***

जब उसकी आँख खुली को प्रभात हो गया था। बाहर अस्पष्ट शोरगुल सुनकर वह दौड़ आया। देखा – दरवाज़े पर एक बैलगाड़ी खड़ी थी। उसको देखते ही छोटी बहू मोहिनी घूंघट निकालकर गाड़ी से नीचे उतर आई। भाई पर वक्र-दृष्टि डालकर पीताम्बर उसकी ओर चला गया। छोटी बहू ने समाप आकर माथा टेककर उसे प्रणाम किया।

नीलाम्बर ने बुदबुदाकर कुछ आशीर्वद दिया और रो पड़ा। बहू आश्चर्य में डूब गई। उसके मुँह उठाने से पहले ही नीलाम्बर खिसक गया।

छोटी बहू पहली बार अपने पति से नाराज होकर खड़ी हो गई। उसने आँसूओं के बोझ से दबी अपनी पलकों को उपर उठाकर कहा- “तुम क्या पत्थर हो? दीदी ने लज्जा व दु:ख के मारे आत्महत्या कर ली और हम सब अब भी पराये बने रहेंगे? तुम अलग रह सको तो रहो, पर मैं आज से उस घर का सारा काम करूंगी।”

पीताम्बर चौंक पड़ा – “क्या कह रही हो?”

मोहिनी ने तुलसी के मुँह से जो भी सुना, उस पर सोचकर सारी घटना बता दी।

पीताम्बर सरलता के किसी पर विश्वास करने वाला नहीं था, बोला – “मगर उसकी लाश तो पानी में नहीं मिली!”

छोटी बहू ने अपने नयन-अश्रुओं को पोंछकर कहा – “मिल भी नहीं सकती, तीव्र प्रवाह में कहीं बह गई होगी। यह भी संभव है कि गंगा माता ने उसे अपनी गोद में ले लिया हो, आखिर वह सती लक्ष्मी थी… फिर खोजा भी किसने है?”

पीताम्बर को विश्वास नहीं हुआ, बोला – “अच्छा, मैं पहले खोजता हूँ।”

फिर जरा सोचकर उसने कहा – “कहीं भाभी अपने मामा के घर न चली गई हों?”

मोहिनी ने सिर हिलाकर कहा – “वह वहाँ कभी नहीं जा सकती। बड़ी स्वाभिमानी है, मुझे लग रहा है कि उसने नदी में कूदकर जान दे दी है।”

“ठीक है, मैं उसका भी पता लगाता हूँ।” पीताम्बर उदास मुंह लेकर बाहर निकल पड़ा। अचानक आज भाभी के लिए उसका मन दु:खी हो गया। भाभी को ढूंढने के लिए उसने आदमी दौड़ाए। जीवन में पहली बार उसने ऐसा करके पुण्य-कार्य किया। अपनी पत्नी को बुलाकर कहा- “यदु से कहो कि वह आंगन के बीच लगा बेड़ा तोड़ दे, और तुमसे जो कुछ हो सके करो। दादा की ओर तो देखा भी नहीं जाता।”

फिर वह उदास हो गया। थोड़ा-सा गुड़ खाकर तथा पानी पीकर वह बस्ता दबाकर काम पर चला गया। चार-पाँच दिनों से वह परेशान था। इतने दिनों का नागा उसके लिए काफी नुकसानदेह था।

छोटी बहू काम करते-करते सोच रही थी और आँसू भी बहा रही थी। जेठकी की दशा क्या हुई होगी, यह तो देखना भी कठिन है।

***

नीलाम्बर चण्डी-मण्डप में आँखे बंद किए निश्चल बैठा था। सामने दीवार पर राधा-कृष्ण का चित्र टंगा था। यह चित्र बेहद सजीव था। उसकी ओर देखकर वह बोल पड़ा – “अंतर्यामी प्रभु! तुम तो सर्वदर्शी हो। जब उसने कोई अपराध नहीं किया है तो सारे अपराध मुझ पर डालकर उसे स्वर्ग जाने दो। यहाँ उसने बड़ा दु:ख पाया है, अब कोई दु:ख न पाने दो!” उसकी बंद आँखों के कोरों से नीर झरने लगा।

***

“पिताजी!”

नीलाम्बर ने चौंककर देखा तो उसके सामने छोटी बहू थोड़ा-सा घूंघट निकाले खड़ी थी। उसने सहज स्वर में फिर कहा- “पिताजी! आज से मैं आपकी बेटी हूँ। भीतर चलिए। आज आपको नहा-धोकर पूजा-वन्दना करके कुछ खाना ही होगा।”

नीलाम्बर हतप्रभ हो गया। वह छोटी बहू को निरंतर देखता रहा, मानो उसे सालों से किसी ने भोजन पर नहीं बुलाया है।

छोटी बहू ने फिर कहा – “पिताजी! भोजन तैयार है, चलिए।”

इस बार नीलाम्बर सब कुछ समझ गया। उसका शरीर बुरी तरह कांप गया। फिर औंधा होकर वह रो पड़ा – “हाँ… हाँ… बेटी, भोजन तैयार है।”

***

जिन-जिन लोगों ने सुना, उन्हें पक्का विश्वास हो गया कि बिराज नदी में डूबकर मर गई है। विश्वास केवल चालाक पीताम्बर को नहीं था। वह सदा इस बात को लकर मन-ही-मन तर्क-कुतर्क किया करता था। आखिर नदी में इतने मोड़ हैं, झाड़-झंखाड़ हैं…कहीं-न-कहीं भाभी की लाश तो मिलती।

मोहिनी अब नीलाम्बर से बोलने लगी थी। थाली परोसकर वह आड़ में बैठ जाती थी। उसने पूछ-पूछकर सब जान लिया था कि सच क्या है और झूठ क्या है! केवल उसने ही जाना कितनी मर्मभेदी व्यथा उसके जेठ के सीने में दबी है।

नीलाम्बर ने कहा – “बेटी! चाहे मेरा कितना ही अपराध क्यों न हो, पर मैंने जान-बूझकर कुछ नहीं किया। फिर वह माया-ममता भुलाकर कैसे चली गई? क्या वह इसी कारण चली गई कि अब उसकी और अधिक सहने की क्षमता मर गई थी?”

मोहिनी भी बहुत अधिक जानती थी। एक बार उसके जी में आया कि सब कुछ बता दे। कह दे कि दीदी एक दिन जाने की बात कह रही थी और आपका भार मुझे सौंप गई थी, पर वह कुछ भी नहीं कह सकी। चुपचाप खड़ी रही।

***

पीताम्बर ने एक दिन पूछा – “क्या तुम दादा से वार्तालाप करती हो?”

मोहिनी ने उत्तर दिया – “हाँ, मैं उन्हें पिता कहती हूँ, इस लिहाज से वातचीत करती हूँ।”

पीताम्बर ने कहा – “लोग निन्दा-स्तुति करते हैं।”

“लोग इसके अलावा कर भी क्या सकते हैं? वे अपना काम करें और मैं अपना काम करुंगी। ऐसी दशा में मैं उन्हें बचा सकी तो सारी लोक निंदा सह लूंगी।” इतना कहकर वह अपने काम में व्यस्त हो गई।

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