चैप्टर 3 बिराज बहू : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 3 Biraj Bahu Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 3 Biraj Bahu Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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तीन साल बाद…

हरिमती को ससुराल गए तीन माह हो चुके थे। पीताम्बर ने अपने खाने-पीने का हिसाब एक घर में रहते हुए भी अलग कर लिया है। सांझ हो गई है। चण्डी-मण्डप के बरामदे में एक पुरानी खाट पर नीलाम्बर बैठा था। बिराज उसके पास आकर मौन खड़ी हो गोई।

नीलाम्बर उसे देखकर चौंका,

“एक बात पूछूं?”

“पूछो।”

बिराज ने कहा – “क्या खाने से मृत्यु आ जाती है?”

नीलाम्बर खामोश।

बिराज ने फिर कहा – “तुम दिन-प्रतिदिन दुर्बल क्यों होते जा रहे हो?”

“कौन कहता है?”

बिराज ने पति को गौर से देखा, कहा – “कोई कहेगा तभी मैं जानूंगी? क्या वास्तव में तुम यह मन की बात कह रहे हो?”

नीलाम्बर हँसा। संभलकर बोला, “नहीं रे, ऐसी कोई बात नहीं है। तुम्हें भ्रम है। हाँ, यह बात तुम्हें किसी ने कही है या तुम खुद सोच रही हो?”

बिराज ने उसकी बात पर ध्यान न देकर कहा – “तुम्हें कितना कहा था कि पूंटी की शादी ऐसी जगह न करो, लेकिन तुमने कुछ नहीं सुना। जो कुछ पैसा था, वह गया, मेरे तन के सारे गहने गए… जमीन गिरवी रख दी और दो बाग बेच दिए। फिर दो वर्ष से निरन्तर अकाल। जरा सोचो, दामाद की पढ़ाई का खर्च हर माह कैसे दोगे? तनिक भी देर हुई कि पूंटी को भला-बुरा सुनना पड़ेगा। वह बड़ी ही स्वाभिमानी है, तुम्हारी निंदा सुन नहीं सकेगी। भगवान जाने कि अंत में क्या होगा।”

नीलाम्बर निरुत्तर रहा।

बिराज फिर कहने लगी – “मैं समझती हूँ कि तुम पूंटी की चिंता में रात-दिन घुल-घुलकर अपना सत्यानाश कर रहे हो। पर में ऐसा नहीं होने दूंगी। इससे तो अच्छा यह होगा कि थोड़ी जमीन बेचकर चार-पाँच सौ रुपये एक-साथ देकर समधी को कहो कि हमारा पीछा छोड़ें। इससे ज्यादा हम गरीब कुछ नहीं दे सकते। फिर पूंटी के भाग्य! जो उसे भुगतना है, भुगतना पड़ेगा।”

नीलाम्बर फिर भी चुप रहा। बिराज ने उसकी आँखों-में-आँखें डालकर कहा – “ऐसा नहीं कहोगे?”

नीलाम्बर ने लंबी सांस लेकर कहा – “कह सकता हूँ… पर बिराज, हम अपना सब कुछ बेच डालें तो हमारा क्या होगा?”

बिराज ने कहा, “होगा क्या? महाजन की अकड़ और सूद की चिन्ता से तो वहचिंता अधिक नहीं है। मेरे कोई संतान भी नहीं जिसके लिए चिंता की जाये। हम दोनों जने किसी भी तरह जीवन बसर कर लेंगे। यदि न हुआ तो तुम तो बोष्टम ठाकुर हो ही।”

***

ठीक इसके पाँच-छ: दिनों के बाद…

रात के दस बजे। नीलाम्बर बिस्तर पर पड़ा-पड़ा हुक्के की नली को मुंह में दबाए तम्बाकू पी रहा था। बिराज घर का काम खत्म करके अपने लिए एक बड़ा-सा पान लगा रही थी कि उसने पूछा – “क्यों जी, शास्त्र की सारी बातें सच होती हैं?”

नीलाम्बर ने हुक्के की नली को मुँह से निकालकर कहा – “सच नहीं तो क्या झूठ होती हैं?”

“पर वे पहले की तरह क्या सच होती हैं?”

“पर वे पहले की तरह क्या सच होती है?”

नीलाम्बर ने दार्शनिक की तरह कहा – “मेरी समझ में सत्य सदा सत्य ही रहा है। सत्य पहले भी सत्य था, आज भी सत्य है और कल भी सत्य रहेगा।”

बिराज ने कहा – “सावित्री और सत्यवान की ही कहानी लो। सावित्री के पति के प्राण यमराज ने लौटा दिए, क्या यह सच है?”

“हाँ, जो सावित्री की तरह सती है, वह पति के प्राण अवश्य लौटा सकती है।”

“फिर तो मैं भी लौटा सकती हूँ।”

“अरे, वे तो देवता ठहरे।

बिराज ने पान का डिब्बा एक ओर खिसकाकर कहा – “सतीत्व में मैं भी किसी से कम नहीं हूँ। चाहे सीता हो चाहे सावित्री।”

नीलाम्बर ने कोई उत्तर नहीं दिया। अपलक पत्नी की ओर देखता रहा। दीये की रोशनी में बिराज की आँखों में एक पवित्र आलोक दपदपा रहा था।

नीलाम्बर ने डरते हुए कहा – “फिर तो तुम कुछ भी कर सकती हो।”

बिराज ने डरते हुए कहा – “फिर तो तुम कुछ भी कर सकती हो।”

बिराज ने भावावेश में पति के चरणों में सिर टेक दिया, कहा – “तुम मुझे यही आशीर्वाद दो। होश संभालने के बाद मैंने तुम्हारे इन दो जरणों के अलावा किसी का ध्यान भी नहीं किया है। मैं सचमुच सती हूँ तो बुरे दिनों में मैं तुम्हें लौटा सकूंगी। मेरी हार्दिक इच्छा है कि इन्हीं चरणों में मांग में सिंदूर भरकर और हाथों में चूड़ियाँ  पहनकर मैं मर जाऊं।” बिराज का गला भर आया।

नीलाम्बर ने कांपते हुए उसे अपने सीने से लगा लिया, कहा – “क्या बात है? आज किसी ने तुम्हें कुछ कहा है?”

बिराज उसी के सीने में मुँह छुपाए रोती रही…चुपचाप।

नीलाम्बर ने फिर कहा – “बिराज! आज तुम्हें क्या हो गया है?”

बिराज ने अपनी आँखें पोंछकर कहा – “यह फिर कभी पूछना।”

नीलाम्बर ने कुछ नहीं पूछा। वह उसके बालों में उंगलियाँ उलझाता रहा। वह जानता था कि पूंटी की शादी के बाद जो विषम परिस्थितियां पैदा हुई थीं, उनसे वह परिचित थी, चिंतित थी।

सहस बिराज ने मुस्कराकर कहा – “एक बात पूछूं?”

बिराज की सबसे बड़ी सुंदरता थी उसकी मुग्ध मनोहारिणी हँसी, जो एक बार देख लेता, वह कभी न भूलता।

बोली – “क्या मैं काली-कलूटी हूँ?”

नीलाम्बर ने झट से कहा – “ना… ना…।”

बिराज ने पूछा – “यदि मैं सुंदर नहीं होती, तो क्या तुम मुझे इतना ही प्यार करते?”

इस विचित्र सवाल पर वह विस्मित हो गया। हलकान-सा महसूस करते हुए उसने मुस्कराकर कहा – “जिस परम सुंदरी को मैं छोटेपन से प्रेम करता आया हूँ, यदि वह असुंदर होती, तो मैं क्या करता, यह कैसे बतलाऊं?”

बिराज अपने पति के गले में झूलती हुई बोली – “मैं बताऊं…तुम मुझे ऐसे ही प्यार करते। यह मैं ऐसे कह रही हूँ कि मैं तुम्हें जितना जानती हूँ, उतना तुम खुद अपने को नहीं जानते। तुम अन्याय और पाप नहीं कर सकते। अपनी पत्नी को प्रेम न करना पाप है, अन्याय है, इसलिए तुम मुझे हर दशा में प्यार करते, चाहे मैं काली-कुबड़ी ही क्यों न होऊं?”

नीलाम्बर मौन रहा।

बिराज ने लेटे-लेटे उसके गालों को स्पर्श किया। उसने गीलेपन का अहसास हुआ तो चौंक पड़ी – “तुम्हारी आँखों में आँसू?”

“कैसे जाना?”

“तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि मेरी शादी नौ साल की उम्र में हुई थी और मैंने तुम्हें दोबारा पाया है। मैं तुम्हारे शरीर में घुल-मिल गई हूँ।”

नीलाम्बर की आँखों से आँसू टपकने लगे।

बिराज अपने आंचल से उसके आँसू पोंछकर बोली – तुम चिंता न करो। तुमने पूंटी की शादी करके अपना कर्तव्य निभाया। माँ हमें स्वर्ग से आशीर्वाद देगी बस, तुम स्वस्थ हो जाओ और कर्ज से मुक्ति पाओ, भले ही तुम्हारा सर्वस्व चला जाए।”

नीलाम्बर ने भरे गले से कहा – “तुम नहीं जानती बिराज कि मैंने क्या किया है। मैंने तुम्हारा…।”

बिराज ने अपने पति के मुँह पर हाथ रखते हुए कहा – “मैं सब जानती हूँ। चाहे और कुछ जानूं या न जानूं, पर मैं इतना अवश्य जानती हूँ कि तुम्हें बीमार नहीं पड़ने दूंगी। जिसका जो देना है, उसे देकर निश्चिंत हो जाओ। फिर उपर भगवान और चरणों में मैं।”

नीलाम्बर ने लंबा श्वास लिया, बोला कुछ नहीं।

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