चैप्टर 5 नकली नाक : इब्ने सफ़ी का उपन्यास हिंदी में | Chapter 5 Nakli Naak Ibne Safi Novel In Hindi

Chapter 5 Nakli Naak Ibne Safi Novel

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Chapter 5 Nakli Naak Ibne Safi Novel

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बनावटी बीवी

सईदा के घर से वापसी पर ही हमीद के पेट में चूहे कूदने लगे थे कि आखिर ये कुंवर साहब कौन थे? सईदा की उखड़ी-उखड़ी बातचीत ने उसे यकीन करने पर मजबूर कर दिया था कि बरहलाल शाकिर के क़त्ल में कहीं ना कहीं सईदा का हाथ ज़रूर है। इसके बावजूद, उसके ज़ेहन में सईदा की तस्वीर नाचने लगती थी, मगर फिर भी उसमें बेपनाह रोमांटिक खिंचाव था। उसके कान की लवें… उसके तमतमाते गाल… और सबसे बढ़कर उसकी सुडौल कलाइयाँ… वह गुम हो गया। खामोशी से उकताकर उसने फ़रीदी से पूछा, “सईदा के बारे में क्या ख़याल है?”

“गनीमत है तुम्हारे लिए…” फ़रीदी ताना मारते हुए बोला।

“नहीं.. नहीं… किस खच्चर के पट्ठे का ख़याल भी उस तरफ गया हो। मैं तो शाकिर के ख़याल के बारे में पूछ रहा था।” हमीद ने झेंपते हुए कहा।

“तुमने कुछ कुछ तो ठीक सोचा है…बहरहाल, शाकिर के घर चल रहे हैं, शायद कोई काम की बात निकल आये।”

“शाकिर की कोठी पर पुलिस का सख्त पहरा था। पूछताछ से मालूम हुआ कि कोई साहब लेफ्टिनेंट बाकिर आए थे और अपने को सौतला भाई बता गए हैं। आज रात को वे बंबई जा रहे हैं और परसों तक वापस आ जायेंगे। अदालत से वे शाकिर की विरासत के सिलसिले में इज़ाज़त निकलवा चुके हैं। इसकी खबर शायद सईदा खातून को मिल चुकी होगी।

इतनी बातें जानने के बाद फ़रीदी घर में दाखिल हुआ। लाइब्रेरी में दो हजार के करीब किताबे थीं। उनमें से थोड़ी सी तादाद अंग्रेजी और उर्दू के शायरों पर थी, बाकी किताबे शैतानों, काला जादू, हिकमत और फिलॉसफी वगैरह पर थी। कबूतरों की पहचान, कबूतरों के फायदे पर एक बड़ा सा नुस्खा था। किताबें कुछ जर्मन, कुछ फ्रेंच, कुछ लातिनी ज़बान में थी। सामने एक बड़ा सा सेफ़ था। मेज़ पर रूह  और उसकी जानकारी के बारे में एक किताब पड़ी थी। किताब के कवर पर कुंवर ज़फर अली खां का नाम लिखा था। अंदर का एक पन्ना फटा हुआ था।

फ़रीदी चौंका और पलक झपकते में वह किताब उसकी जेब के अंदर थी। हमीद ख़ामोशी से अपने उस्ताद के काम का तरीका देख रहा था। उसे उलझन हो रही थी कि आखिर इस उलट-पुलट का क्या मतलब है और इससे क्या नतीजा मिल सकता है।

उसने झल्ला कर फ़रीदी से कहा, “मेरे ख़याल में किताबें खूनी हैं।”

“ऊं…हूं…हैं, बिल्कुल ठीक कहते हो।” फ़रीदी ने अपनी उलट-पुलट जारी रखते हुए कहा।

“जी हाँ….देखिए….कुछ मोटी सी किताब ने अपने पंजों से शाकिर का गला घोंट दिया। वह मर गया…मगर…मगर….यह क्या!” झल्लाहट में एक मोटी सी किताबों पलटते हुए हमीद ने यह जुमले कहे थे। मगर वह किताब बिल्कुल सादी थी। अलबत्ता बीच-बीच में तस्वीरें बनी हुई थी। एक जगह खूनी पंजा था और उसके नीचे कुछ लिखा हुआ था, जिसे हमीद ना पढ़ सका। उसने किताब उठाते हुए फ़रीदी से कहा, “यह भूतखाने का नायाब नुस्खा  देखिए…”

फ़रीदी उसे देखते ही दंग रह गया। उसे ऐसा लगा जैसे उसे किसी सांप ने काट लिया हो। वह चीखा, “हमीद फौरन आओ।”

“मैं नहीं आता” उसने भागते हुए फ़रीदी के पीछे दौड़ते हुए कहा।

फ़रीदी बाहर निकला। उसने सिपाहियों को हिदायत की कि किसी शख्स को अंदर न घुसने दिया जाए और फिर तेजी से पैदल स्टेशन की तरफ भागने लगा।

इस तमाम खोज और तफ्तीश में रात के दस बज चुके थे। काफ़ी रात हो जाने की वजह से रामगढ़ का पहाड़ी इलाका सुनसान पड़ा था। सड़क पर सिर्फ हमीद और फ़रीदी के दौड़ने की आवाज आ रही थी। अचानक उनकी रफ्तार सुस्त हो गई। सामने दोनों तरफ के पेड़ों से मिलाकर रस्सी बांध दी गई थी। किनारे से बचके फ़रीदी निकला और हांफते हुए हमीद से बोला।

“दुश्मन को मुँह की खानी पड़ी…ख़ुदा के लिए तेज चलो.. अगर मुंबई एक्सप्रेस छूट गई तो मुसीबत ही आ जायेगी।”

दोनों तेजी से भाग रहे थे। स्टेशन सिर्फ आधा मील रह गया। फ़रीदी ने सड़क के किनारे से लगे हुए खंबे की रोशनी में देखा। घड़ी में ग्यारह  बजने में दस मिनट बाकी थे और एक्सप्रेस 11:05 पर छूटती थी। उसने रफ्तार थोड़ी धीमी कर दी। हमीद बेचारा हांफ रहा था। उसके कदम जवाब दे रहे थे कि अचानक उसका सर किसी चीज से टकराया और वह बैठ गया और चीखा।

फ़रीदी मुड़ा…एहतियात से वह बीच सड़क पर आ गया था, ताकि पेड़ों की ओट या सहारा लेकर उस पर हमला ना किया जा सके। हमीद इसका ख़याल ना कर सका। सड़क के किनारे एक पेड़ की डाली से चारपाई बांध दी गई थी और चारपाई से तो इंसान ही सूरतें बंधी हुई थी।

फ़रीदी ने टॉर्च जलाई।

“उफ्फ…! ” उसके मुँह से निकला और उसने हमीद से कहा, “मैं इन्हें उतारता हूँ.. तुम ठहरो।”

चारपाई एक झूले की तरह लटका दी गई थी और सईदा और गजाला, दोनों उस चारपाई पर रस्सियों से बांधी गई थी। उतारने के बाद उसने कोशिश की कि उन्हें होश आ जाये, मगर उन्हें बुरी तरह से बेहोश किया गया था। ग्यारह बज चुके थे। फ़रीदी ने गज़ाला और हमीद ने सईदा को लादा और चलना शुरू किया। वह दौड़ खत्म हो चुकी थी। उसका बस चलता, तो वह सईदा को पटक देता, मगर फ़रीदी… दबी आवाज में उसने फिर पूछा, “यह क्या किस्सा है?”

“ट्रेन में बताऊंगा…यह समझ लो…अभी तक हम बाज़ी नहीं हारे।”

स्टेशन की बिल्डिंग दिखने लगी थी। ट्रेन का अभी तक पता नहीं था। मगर सिग्नल हो चुका था…फ़रीदी ने ख़ुश होकर हमीद से कहा, “हम जीत गये। पांच मिनट बाद दुश्मन हमारे हाथ में होगा।”

“ठहरो…पहले मुझसे फैसला कर लो।” एक रौबदार आवाज़ सुनाई दी।

फ़रीदी ने देखा…बगल से कुंवर ज़फ़र अली खां पिस्तौल लिए चले आ रहे थे। उनका चेहरा गुस्से से लाल हो रहा था। उन्होंने फिर कहा, “इन्हें रख दो।”

हमीद ने चाहा कि कम से कम फरीदी की तरफ़ गर्दन घुमा कर देख सके…मगर कुंवर साहब ने देख लिया।

“तुम सब बदमाश हो..मैं आज तुम्हें शूट कर दूंगा…फ़रीदी साहब अब कहाँ गई तुम्हारी अकड़?”

फ़रीदी खामोशी से कुंवर साहब की तरफ देखता रहा। ‘बदमाश’ शब्द सुनते ही हमीद ने झल्ला कर चाहा कि बढ़कर कुंवर साहब का गला घोंट दे, मगर कुंवर साहब ने इरादा भांपते हुए कहा, “ज़रा सी हरकत हुई, तो फ़रीदी इस दुनिया में न होंगे।”

फिर उसने फ़रीदी को मुखातिब किया और कहा, “हाँ फरीदी साहब! तो कल आप पुलिस को कह देंगे कि शाकिर का कातिल मैं हूँ। आप मेरी वह तहरीर भी पेश कर देंगे, जिसमें उसे धमकी दी गई थी कि अगर वह किताब मुझे न देगा, तो मैं उसे मार डालूंगा।”

अचानक ट्रेन की सीटी सुनाई दी। अपनी पूरी गड़गड़ाहट और शोर के साथ ट्रेन आ रही थी। रेल की पटरियाँ दूर से चमकती हुई साफ दिखाई दे रही थी।

फ़रीदी के मुँह से एक खौफ़नाक आवाज निकली और कुंवर साहब एकदम पीछे हट गये।

आँख झपकते ही पिस्तौल फ़रीदी के हाथ में था। उसने जल्दी से कहा, “आपने मेरा बहुत कीमती वक्त बेकार किया…इन लड़कियों को ले जाइये। आप किसी गलतफ़हमी में हैं। हमीद जल्दी करो।” कहते हुए फ़रीदी ने फिर दौड़ना शुरू कर दिया। स्टेशन के सीधे दरवाजे के बजाय अब उसका रुख रेलवे लाइन की तरफ था…ट्रेन ने प्लेटफार्म से हरकत की। रेलवे लाइन और फ़रीदी में सिर्फ पचास गज का फ़ासला रह गया था।

ट्रेन प्लेटफार्म छोड़ चुकी थी… फ़ासला दस गज…ट्रेन औसत रफ्तार पर थी.. फ़ासला पांच गज…ट्रेन फ़रीदी की बगल से गुज़र रही थी। अचानक वह उछला और सामने से गुज़रने वाले अंधेरे डिब्बे के पायदान पर खड़ा हो गया। हमीद से उसने चीखकर कहा, “फौरन किसी डिब्बे में घुस जाओ..” और ख़ुद उसी डिब्बे में घुस गया।

हमीद जिस डिब्बे पर खड़ा था, उसका दरवाजा अंदर से बंद था। उसने गर्दन उठा कर देखा…डिब्बे के ऊपर बनी हुई दो लकीरें ज़ाहिर कर रही थीं कि यह सेकंड क्लास है। उसने ज़ोर-ज़ोर से दरवाजा पीटना शुरू किया। सामने पुल आ रहा था और घाघरा नदी के किनारे कगारों के टूटने की तेज आवाजों का ज़ोर बढ़ता जा रहा था। भयानक सुनसान रात…उसे डर लगने लगा। फ़रीदी के ऊपर उसे गुस्सा आ रहा था। ख़ुद तो मज़े में होंगे…मेरी भला उन्हें क्या फ़िक्र? अजीब सनकी आदमी है…दौड़ा डाला…बैठे बिठाये मुसीबत…ज़बरदस्ती…झल्लाहट में उसने खिड़की पर इतने मुक्के बरसाये कि खिड़की का एक खाना टूट गया। अंदर से बड़बड़ाने कि आवाज़ सुनाई दी और किसी ने उठकर दरवाजा खोल दिया। डिब्बे में दाखिल होकर उसने देखा…सिर्फ चार बर्थ थीं।

एक तरफ मोटी सी औरत, जिसकी उम्र बीस साल से ज्यादा न रही होगी, लेटी हुई थी। सामने एक साहब सो रहे थे। उनके ऊपर वाली बर्थ पर सर से पैर तक चादर ताने कोई पड़ा था।

अलबत्ता औरत की ऊपरी बर्थ खाली थी। डिब्बे में अंधेरा था। लेकिन दूर एक छोटा सा बल्ब जल रहा था, जिसकी रोशनी में हमीद देख सकता था। हमीद ने चारों तरफ देखा और ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गया।

उसकी आँख खुली, तो दिन अच्छा खासा निकल आया था। ट्रेन विंध्याचल की खूबसूरत पहाड़ियों के बीच से गुजर रही थी। रात की इस मोटी सी औरत ने नज़र उठाई और उसे मुस्कुराते देखकर खिलखिला कर हँस पड़ी और अजीब अंदाज़ में बोली, “अब नीचे आओ ना…?” हमीद को भला कहाँ बर्दाश्त..? इतने दिनों बाद एक शिकार मिला था। क्या वह उसे भी छोड़ देगा। वह फ़ौरन कूद पड़ा।

जैसे ही उसने चाहा कि बैठे…औरत ने कहा, “ना…ना…पहले मुँह धोकर चाय पी लो, फिर बातें करना।”

हमीद को उसकी बात पर झटका लगा, मगर सामने बैठे हुए बंगाली को मुस्कुराते हुए देखकर उसे ऐसा लगा जैसे उसकी मुस्कुराहट कह रही हो, ‘क्यों बे, डर गया ना आखिर… बुद्धू…डरपोक” और वह झट से बॉथरूम चला गया। मुँह धोकर जब वह बाहर निकला…औरत थर्मस में से चाय निकाल रही थी। रस से भरी जलेबी और टोस्ट एक प्लेट में रखे हुए थे। भुने हुए आलुओं के टुकड़े दूसरी प्लेट में थे। सेब की कुछ फांके और अंगूर के दाने भी पड़े थे। हमीद के मुँह में पानी भर आया। शाम को लाइब्रेरी में दो उनके अंडों और चाय के अलावा उसे कुछ न मिल सका था। बैठकर उसने खाते हुए कहा कि

“आप कहाँ से..?”

लेकिन जुमला पूरा होने के पहले ही टी.टी. की आवाज़ ने उसे चौंका दिया।

“टिकट प्लीज..!” वह टिकट न दे सकता था। सिवा चार्ज देने के और चारा ही क्या था। फिर जब चार्ज ही देना है, तो जल्दी क्या है। खाकर दे देंगे, उसने सोचा और टी.टी. से कहा, “अभी देता हूँ।”

औरत की तरफ बढ़कर जब टी.टी. ने हाथ बढ़ाया, तो उसने हमीद की तरफ इशारा कर दिया। जिसे हमीद न देख सका। खूब पेट भर खाने के बाद उसने टी.टी. से कहा, “पिछले जंक्शन से चार्ज कर लीजिए। जल्दी में टिकट न खरीद सका।“

चार्ज शीट बनाने के बाद टी.टी. बोला, “बारह सौ रुपये”

“कितने..?” हमीद ने उछलकर कहा, “ज़रा देखूं कहाँ से चार्ज कर रहे हैं आप?”

“जी…जबलपुर से…दो आदमी…सेकंड क्लास…।” टी.टी. बोला।

“दो कौन?” हमीद गुर्राया।

“आप और आपकी….आपकी…!” टी.टी. ने कहा।

“धर्मपत्नी..” औरत कुछ झेंपते हुए बोली। फिर हमीद की तरफ देखकर कहने लगी, “अरे टी.टी. साहब को चाय पानी के लिए कुछ दे दो…इतना न लेंगे।”

हमीद को जैसे हजारों बिच्छुओं ने डंक मार दिया हो। बटुए में सिर्फ एक हजार रुपए और जबरदस्ती की मुसीबत अलग सर पर।

उसने बिफरते हुए कहा, “यह औरत झूठी है…मेरा उससे कोई नाता नहीं।”

बंगाली बाबू जोश में खड़े हो गए, “शर्म नहीं आता…अपनी बीवी को छोड़ता है…छी थू…”

ऊपर वाला आदमी वहीं से लेटे लेटे बोला, “अगर बीवी नहीं तो फिर कौन है…अभी तो साथ बैठकर खा रहा था.. कहता है कोई नाता नहीं..चार सौ बीस।” ट्रेन अब स्टेशन पर पहुँच रही थी। टी.टी. ने डांटकर औरत से पूछा, “सच सच बता तेरा यह कौन है?”

“हाय…हाय…टी.टी. साहब…मेरे पति हैं। पर सो हमारा…!’ वह कुछ रोते हुए बोली, “लो मेरे पैर देख लो।” उसके रंगे हुए पैर और चांदी के छल्ले गवाही दे रहे थे कि अभी-अभी उसकी शादी हुई है।

उसने फिर हमीद का हाथ पकड़ते हुए, “रुपए के डर से कंगन भी छिपा दिए। हाँ… हाय मेरी तकदीर फूट गई।” कहते हुए उसने ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर रोना शुरू कर दिया। ट्रेन स्टेशन पर खड़ी हो गई थी। अच्छी खासी भीड़ जमा हो गई थी। हमीद की जान अजीब मुसीबत में फांस गई थी…उसकी तलाशी पर जेब से एक बटुआ जिसमें एक हजार रुपए, एक कंगन और चार-पांच विजिटिंग कार्ड मिले, जिस पर लिखा था “धर्मदास बी.ए. कमर्शियल आर्टिस्ट” औरत ने जब नाम पूछा गया, तो उसने कहा, “मैं उनका नाम नहीं ले सकती।” बड़ी मुश्किल से उसने एक पर्चे में वही नाम लिख दिया, जिस नाम के विजिटिंग कार्ड बने थे। हमीद चकरा गया था। चारों तरफ से लोग टूट पड़ रहे थे और उस बुरा भला कह रहे थे। हमीद की निगाहें फ़रीदी को ढूंढ रही थी, उसने कई बहाने करके सिपाहियों के साथ ट्रेन के कई चक्कर लगा डाले, मगर फ़रीदी न मिला। इधर ट्रेन ने सीटी दी, हमीद ने लाख चाहा कि उसे फिर से ट्रेन में बैठने दिया जाये, मगर टी.टी. किसी हालत में न माना…वह बार बार कहे जा रहा था, “पूरा चार्ज दीजिए और बैठिये।”

ट्रेन धीरे धीरे रेंगने लगी। हमीद ने आखिर बार कोशिश की कि वह बैठ सके, मगर नाकाम रहा और ट्रेन चली गई। भीड़ कम हो गई थी और वह औरत गायब थी।

उसने मुड़कर टी.टी. से कहा, “चार्ज लीजिए…मगर मेरी बीवी ढूंढ लाइये।”

टी.टी. हैरत में पड़ गया। अभी एक सेकंड पहले वह उसकी नर्-नर्म हथेलियों से मज़ा लेता हमीद से बहस में उलझा हुआ था…”वह औरत कहाँ गई?”

शर्मिंदा होकर उसने हमीद से कहा, “मुझसे गलती हुई।”

हमीद ने जेब से अपना कार्ड निकालना चाहा, तो वह गायब था।

एक कागज पर अलबत्ता लिखा हुआ था –  “पहली और हल्की सी चोट अपने हमीद के लिए…उस्ताद की भी खबर लेना।”

हमीद बौखला गया, जैसे ख्वाब की लहरें…सिनेमा की तस्वीर या पूरी रेल गाड़ी उसके सिर से गुजर गई। वह सिर थाम कर बैठ गया…उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे कि इतने में उसी टी.टी. ने उसे आकर कहा, “आपको ट्रंककॉल आया है हमीद साहब।” उसने रिसीवर से सुना। फ़रीदी कह रहा था, “रामगढ़ लौट आओ।”

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