चैप्टर 7 बिराज बहू : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 7 Biraj Bahu Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 7 Biraj Bahu Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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नीलाम्बर बार-बार यही सोचता था कि बिराज के मन में यह बात कैसे आई कि वह उसे मारेगा? कई बार उसने सोचा कि ऐसे दुर्दिनों में वह बिराज को लेकर कहीं चला जाएगा। मगर उसे फिर पूंटी की यादों ने घेर लिया। वही बहन, जिसे उसने कंधों पर चढ़ाकर पाला-पोसा था! बहन के बारे में जानने के लिए उसका दिल तड़प उठा।

दुर्गा-पूजा आ गई थी। बिराज से छुपाकर उसने कुछ पैसा इकट्ठा किया था उसने उससे कुछ मिठाई व एक धोती खरीदी और वह सुंदरी  के पास जा पहुंचा।

सुन्दरी ने उसके बैठने के लिए आसन बिछा दिया। तम्बाकू चढ़ा लाई। नीलाम्बर ने बैठकर अपनी जीर्ण-जीर्ण धोती के भीतर से एक नई धोती निकालकर कहा – “सुंदरी! पूंटी को तुमने बच्ची की तरह पाला-पोसा है न! उसे एक बार जाकर देख आ।” बस, इसके आगे उसका गला अवरुद्ध हो गया। वह अपनी आँखे पोंछने लगा।

गाँव के सारे लोग कष्ट को समझते थे। सुंदरी  ने पूछा – “वह कैसी है बड़े बाबू?”

“नहीं जानता।”

सुंदरी  चालाक थी। उसने आगे कोई प्रश्न नहीं किया। दूसरे दिन ही जाने के लिए राजी हो गई। नीलाम्बर ने उसे राह-खर्च के लिए पैसे देने चाहे पर उसन इंकार करते हुए कहा – “बड़े बाबू! मैंने उसे पाला-पोसा है, आप धोती ले आए, यही बहुत है, वरना मैं ही ले आती।”

नीलाम्बर फिर अपनी आँखें पोंछने लगा। किसी ने उसके प्रति सहानुभूति प्रकट नहीं की। सब यही कहते थे कि उसने गलती की, अन्याय किया, पूंटी के कारण उसकी बरबादी हो गई।

नीलाम्बर ने जाते-जाते सुंदरी को आगाह किया कि उसकी दीनता व कष्ट की बातें पूंटी को मालूम न हो। उसके जाने के बाद सुंदरी रो पड़ी। सोच बैठी-सभी इस व्यक्ति को प्रेम करते हैं, श्रद्धा करते हैं।

***

उस दिन विजयादशमी थी। तीसरे पहर बिराज कमरे में जाकर सो गई और उसने दरवाजा बंद कर लिया। सांझ होते ही कोई ‘चाचा-चाचा’ कहकर घर में घुस आया। कोई नीलू दा… नीलू दा बाहर से पुकारने लगा।

नीलाम्बर अनमना-सा चण्डी-मण्डप से बाहर निकल आया। शिष्टता के नाते किसी को गले लगाया और किसी का चरण-स्पर्श किया। उसके बाद आगन्तुक भाभी को प्रणाम करके भीतर घुस गए। नीलाम्बर उनके साथ था। बिराज रसोईघर में नहीं थी। सोने के कमरे के दरवाजे को धक्का देकर उसने कहा – “बिराज! लड़के तुम्हें प्रणाम करने आए हैं।”

बिराज ने कहा – “मुझे ज्वर है, मैं उठ नहीं सकती।”

सब चले गए तो किसी ने धीरे-से दरवाजा खटखटाया, बोली – “दीदी! मैं हूँ मोहिनी। दरवाजा खोलो!”

बिराज मूक रही।

मोहिनी ने फिर कहा – “दीदी! यह नहीं होने दूंगी। यदि मुझे दरवाजे के आगे खड़ा ही रहना पड़ा तो भी मैं खड़ी रहूँगी। मैं बिना आशीर्वाद लिए नहीं जाऊंगी।”

लाचार बिराज को दरवाजा खोलना पड़ा। छोटी बहू उसके सामने जाकर खड़ी हो गई। उसने देखा कि मोहिनी के एक हाथ में खाने की वस्तु है और दूसरे हाथ में छनी हुई भांग! उसने दोनों वस्तुयें उसके चरणों में रख दी। उसके चरण छूकर वह श्रद्धा-भाव से बोली – “मुझे आशीष दो कि मैं तुम्हारी जैसी बन सकूं। उसके अलावा मुझे कुछ नहीं चाहिए।”

बिराज बहू ने सजल नयनों से छोटी बहू की ओर देखकर उसके सिर पर हाथ रख दिया

मोहिनी खड़ी हो गई, बोली – “दीदी! उत्सव पर आँसू नहीं बहाना चाहिए। परंतु तुम्हें तो ऐसी बात नहीं कह सकती। यदि तुम्हारे तन की मुझे हवा भी छू गई तो उसी के ताप से मैं यह बात कह सकती हूँ कि आगामी वर्ष भी इसी दिन मैं यह बात कहूँ!”

बिराज ने वे चीजें रख दीं। उसे विश्वास हो गया था कि मोहिनी उसके लिए बहुत ही चिंतित है।

इसके उपरांत कितने ही लड़के आए-गए पर उसका द्वार खुला रहा, उन्हीं चीजों की आज की रीति-नीति को निभाया गया।

अगले दिन…।

वह थकी-हारी सब्जी काट रही थी कि सुंदरी आ धमकी। बैठते ही कहने लगी – “कल रात अधिक हो गई थी, इसलिए आ नहीं सकी। अब जागते ही आई हूँ। हाँ, यहि मुझे मालू होता तो मैं कदापि न जाती।”

बिराज चुपचाप-सी उसकी ओर देखती रही।

सुंदरी  ने कहा – “घर में कोई नहीं था। सारे लोग घूमने के लिए पश्चिम गए हुए हैं। केवल एक बुढ़िया बुआ थी। उसकी जली-कटी बातें मैं आपको क्या बताऊं, बोली- इसे वापस ले जा। अपने दामाद के लिए एक धोती भी नहीं भेजी। सिर्फ एक सूती धोती लेकर पूजा की रीति निभाने आ गई।। इसके बाद न जाने क्या-क्या बक-बक करती रही। नीच-चमार… निर्लज्ज… छ:!”

बिराज ने आश्चर्य से कहा – “किसने क्या कहा, मैं नहीं समझी।”

सुंदरी को कुछ आश्चर्य हुआ, कहा – “सब बताए देती हूँ। अपनी पूंटी की बुआ-सासू बड़ी ही अभिमानी है। हमारी धोती भी लौटा दी।” उसने धोती रख दी।

बिराज सब समझ गई। वह भीतर-ही-भीतर जल उठी।

***

दोपहर को भोजन करते समय बिराज ने वह धोती सामने रख दी, कहा- “सुंदरी वापस दे गई है।”

नीलाम्बर भयभीत हो गया। उसने सोचा भी नहीं था कि बिराज यह सब जान जायेगी।

बिराज ने कहा – “उसकी बुआ-सास ने क्या-क्या गालियाँ दी है, जाकर पूछ आना।”

नीलाम्बर की भूख-प्यास मिट गई। वह सुंदरी के पास गया। उससे बार-बार सवाल करता रहा। बार-बार पूछता रहा कि पूंटी कैसी है, वह मोटी हो गई होगी… स्वस्थ होगी…बड़ी हो गई होगी। ऐसी हो गई होगी, वैसी हो गई होगी।

जब सुंदरी ने उसे बताया कि उसने न तो उसे देखा और न उससे बात की तो वह उदास हो गया। सुंदरी ने भी उसे जाने के लिए कह दिया।

***

सुंदरी की घबराहट का एक विशेष कारण था। उस मुहल्ले के निताई गांगुली प्राय: इसी वक्त उसको चरण-धूलि दे जाते थे। स्वामी के समक्ष ही वे चरण न आ जायें, इसी का भय था। सुंदरी के भाग्य जमींदार की अनुकम्पा के कारण चमक गए थे। वह इतने सीधे-सादे और कलंकहीन सच्चरित्र पुरुष के सामने अपनी हीनता छुपाना चाहती थी।

नीलाम्बर के जाते ही वह खुशी-खुशी दरवाजाबंद करने लगी कि नीलाम्बर वापस आता हुआ दिखाई दिया। वह खीज पड़ी। दरवाजे के बीच में ही खड़ी हो गई। बारहवीं काचाँद चमक रहा था। उसकी रोशनी उसकी आकृति पर पड़ रही थी।

नीलाम्बर समीप आकर खड़ा हो गया। उसे बड़ी हिचकिचाहट हो रही थी। चादर के पल्लू से एक अठन्नी निकालकर उसने संकोच से कहा – “सुंदरी! तुम मेरी सारी दशा जानती हो। ये लो अठन्नी।”

सुंदरी जीभ काटकर पीछे हट गई।

नीलाम्बर ने कहा – “तुम्हें बड़ा कष्ट दिया। आने-जाने का खर्च भी नहीं दे सका।” उसका गला अवरुद्ध हो गया। वह आगे बोल नहीं सका।

“आप मेरे स्वामी हैं, आपको न कहना मुझे शोभा नहीं देता।” अठन्नी को सिर से छुआकर उसे आंचल में बांधा, कहा – “ज़रा भीतर आइए न!”

नीलाम्बर आकर उसके आंगन में खड़ा हो गया। सुंदरी ने तुरंत वापस आकर उसकी चरण-धूलि ली और मुट्‌ठी-भर रुपये रख दिए।

नीलाम्बर विस्मित ठगा-सा खड़ा रहा। सुंदरी ने मुस्कराते हुए कहा – “इस तरह से खड़े होकर देखने से काम नहीं चलेगा। मैं आपकी पुरानी दासी हूँ… शुद्र होने के बावजूद यह जोर केवल मेरा ही है।”

उसने रुपये उठाकर नीलाम्बर की चादर के पल्लू से बांध दिए। मीठे स्वर में बोली – “बाबूजी! ये रुपये आपके दिए हुए हैं। तीर्थयात्रा के समय ईश्वर के नाम से अलग रखा था, आज ईश्वर स्वयं आ गए।”

नीलाम्बर अब भी चुप था। सुंदरी बोली – “अब आप जाइए। मगर इतना ध्यान रखिए कि यह बात बिराज बहू को मालूम न हो।”

नीलाम्बर के होंठ कुछ कहने के लिए फड़फड़ाए, पर सुंदरी पहले ही बोल पड़ी – “मैं आपकी एक भी नहीं सुनूंगी। आज आपने मेरा मान नहीं रखा तो मौं सिर पटक-पटककर अपने प्राण दे दूंगी।”

सुंदरी के हाथ में अब भी चादर का पल्लू था। तभी निताई गांगुली ने प्रवेश करते हुए कहा – “क्या हो रहा है?” खुला दरवाजा देखकर सीधे आंगन में खड़े हो गए। नीलाम्बर सीधा आंगन के पार चला गया।

“यह छोकरा तो नीलू था न? निताई ने कहा।”

सुंदरी को गुस्सा तो बहुत आया, पर उसने अपने को संयत करते हुए कहा – “हाँ, मेरे स्वामी है।”

निताई ने भौंहें चढ़ाकर कहा – “सुना है घर में दाना-पानी नहीं है और इतनी रात यहाँ?”

“विशेष काम से आए थे।”

“अच्छा।”

सुंदरी उन्हें एकटक देखने लगी।

“इस तरह क्या देख रही हो?”

“देख रही हूँ, तुम भी ब्राह्मण हो और वे भी चो चले गए हैं, किंतु दोनों में कितना अंतर है!”

निताई भड़क गए, भुनभुनाते हुए बोले- “तेरा सर्वनाश हो जाए, तू चूल्हे में जल… भाड़ में जा↔!” और वे चले गए।

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