Chapter4 Pratigya Novel By Munshi Premchand
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लाला बद्रीप्रसाद की सज्जनता प्रसिद्ध थी। उनसे ठग कर तो कोई एक पैसा भी न ले सकता था, पर धर्म के विषय में वह बड़े ही उदार थे। स्वार्थियों से वह कोसों भागते थे, पर दीनों की सहायता करने में भी न चूकते थे। फिर पूर्णा तो उनकी पड़ोसिन ही नहीं, ब्राह्मणी थी। उस पर उनकी पुत्री की सहेली। उसकी सहायता वह क्यों न करते? पूर्णा के पास हल्के दामों के दो-चार गहनों के सिवा और क्या था। षोडसी के दिन उसने वे सब गहने ला कर लाला जी के सामने रख दिए, और सजल नेत्रों से बोली – “मैं अब इन्हें रख कर क्या करूंगी।“
बद्रीप्रसाद ने करुण-कोमल स्वर में कहा – “मैं इन्हें ले कर क्या करूंगा, बेटी? तुम यह न समझो कि मैं धर्म या पुण्य समझ कर यह काम कर रहा हूँ। यह मेरा कर्तव्य है। इन गहनों को अपने पास रखो। कौन जाने किस वक्त इनकी ज़रूरत पड़े! जब तक मैं जीता हूँ, तुम्हें अपनी बेटी समझता रहूंगा। तुम्हें कोई तकलीफ़ न होगी।“
षोडसी बड़ी धूम से हुई। कई सौ ब्राह्मणों ने भोजन किया। दान-
दक्षिणा में भी कोई कमी न की गई।
रात के बारह बज गए थे। लाला बदरीप्रसाद ब्राह्मणों को भोजन करा के लेटे, तो देखा, प्रेमा उनके कमरे में खड़ी है। बोले – “”यहाँ क्यों खड़ी हो, बेटी? रात बहुत हो गई, जा कर सो रहो।“
प्रेमा – “आपने अभी कुछ भोजन नहीं किया है न?”
बद्रीप्रसाद – “अब इतनी रात गए मैं भोजन न करूंगा। थक भी बहुत गया हूँ। लेटते ही लेटते सो जाऊंगा।“
यह कह कर बदरीप्रसाद चारपाई पर बैठ गए और एक क्षण के बाद बोले – “क्यों बेटी, पूर्णा के मैके कोई नहीं है? मैंने उससे नहीं पूछा कि शायद उसे कुछ दुःख हो।“
प्रेमा – “मैके में कौन है? माँ-बाप पहले ही मर चुके थे, मामा ने विवाह कर दिया। मगर जब से विवाह हुआ, कभी झांका तक नहीं। ससुराल में भी सगा कोई नहीं है। पंडित जी के दम से नाता था।“
बद्रीप्रसाद ने बिछावन की चादर बराबर करते हुए कहा – “मैं सोच रहा हूँ, पूर्णा को अपने ही घर में रखूं, तो क्या हर्ज़ है? अकेली औरत कैसे रहेगी?”
प्रेमा – “होगा तो बहुत अच्छा, पर अम्मा जी मानें, तब तो?”
बद्रीप्रसाद – “मानेगी क्यों नहीं, पूर्णा तो इंकार न करेगी?”
प्रेमा – “पूछूंगी। मैं समझती हूँ, उन्हें इंकार न होगा।“
बद्रीप्रसाद – “अच्छा मान लो, वह अपने ही घर में रहे, तो उसका खर्च बीस रुपए में चल जाएगा न?”
प्रेमा ने आर्द्र नेत्रों से पिता की ओर देख कर कहा – “बड़े मजे से। पंडित जी पचास रुपए ही तो पाते थे।“
बद्रीप्रसाद ने चिंतित भाव से कहा – “मेरे लिए बीस, पच्चीस, साठ सब बराबर हैं, लेकिन मुझे अपनी ज़िंदगी ही की तो नहीं सोचनी है। अगर आज मैं न रहूं, तो कमलाप्रसाद कौड़ी फोड़ कर न देगा, इसलिए कोई स्थायी बंदोबस्त कर जाना चाहता हूँ। अभी हाथ में रुपए नहीं हैं, नहीं तो कल ही चार हज़ार रुपए उनके नाम किसी अच्छे बैंक में रख देता। सूद से उसकी परवरिश होती रहती। यह शर्त कर देता कि मूल में से कुछ न दिया जाए।“
सहसा कमलाप्रसाद आँखें मलते हुए आ कर खड़े हो गए और बोले – “अभी आप सोये नहीं? गरमी लगती हो, तो पंखा ला कर रख दूं। रात तो ज़्यादा हो गई।“
बद्रीप्रसाद – “नहीं गरमी नहीं है। प्रेमा से कुछ बातें करने लगा था। तुमसे भी कुछ सलाह लेना चाहता था, तो तुम आप ही आ गए। मैं यह सोच रहा हूँ कि पूर्णा यहीं आ कर रहे तो क्या हर्ज़ है?”
कमलाप्रसाद ने आँखें फाड़ कर कहा – “यहाँ! अम्मा जी कभी न राज़ी होंगी।“
बद्रीप्रसाद – ‘अम्मा जी की बात छोड़ो, तुम्हें तो कोई आपत्ति नहीं है? मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ।“
कमलाप्रसाद ने दृढ़ता से कहा – “मैं तो कभी इसकी सलाह न दूंगा। दुनिया में सभी तरह के आदमी हैं, न जाने क्या समझें। दूर तक सोचिए।“
बद्रीप्रसाद – “उसके पालन-पोषण का तो कुछ प्रबंध करना ही होगा।“
कमलाप्रसाद – “हम क्या कर सकते हैं?”
बद्रीप्रसाद – “तो और कौन करेगा?”
कमलाप्रसाद – “शहर में हमीं तो नहीं रहते। और भी बहुत से धनी लोग हैं। अपनी हैसियत के मुताबिक हम भी कुछ सहायता कर देंगे।“
बद्रीप्रसाद ने कटाक्ष-भाव से कहा – “तो चंदा खोल दिया जाए, क्यों? अच्छी बात है, जाओ घूम-घूम कर चंदा जमा करो।“
कमलाप्रसाद – “मैं क्यों चंदा जमा करने लगा।“
बद्रीप्रसाद – “तब कौन करेगा?’
कमलाप्रसाद इसका कुछ जवाब न दे सके। कुछ देर के बाद बोले – “आखिर आपने क्या निश्चय किया है?”
बद्रीप्रसाद – ‘मैं क्या निश्चय करूंगा? मेरे निश्चय का अब मूल्य ही क्या? निश्चय तो वही है, जो तुम करो। मेरा क्या ठिकाना? आज मैं कुछ कर जाऊं, कल मेरी आँख बंद होते ही तुम उलट-पुलट दो, व्यर्थ में बदनामी हो।“
कमलाप्रसाद ने बहुत दुःखित हो कर कहा – “आप मुझे इतना नीच समझते हैं। यह मुझे न मालूम था।“
बद्रीप्रसाद बेटे को बहुत प्यार करते थे, यह देख कर कि मेरी बात से उसे चोट लगी है, तुरंत बात बनाई – “नहीं-नहीं मैं तुम्हें नीच नहीं समझता। बहुत संभव है कि आज हम जो बात कर सकते हैं, वह कल स्थिति के बदल जाने से न कर सकें।“
कमलाप्रसाद – “ईश्वर न करे कि मैं वह विपत्ति झेलने के लिए बैठा रहूं, लेकिन इतना कह सकता हूँ कि आप जो कुछ कर जायेंगे, उसमें कमलाप्रसाद को कभी किसी दशा में आपत्ति न होगी। आप घर के स्वामी हैं। आप ही ने यह संपत्ति बनाई है। आपको इस पर पूरा अधिकार है। निश्चय करने के पहले मैं जो चाहे कहूं, लेकिन जब आप एक बात तय कर देंगे, तो मैं उसके विरुद्ध जीभ तक न हिलाऊंगा।“
बद्रीप्रसाद – ‘तो कल पूर्णा के नाम चार हज़ार रुपए बैंक में जमा कर दो और यह शर्त लगा दो कि मूल में से कुछ न ले सके। उसके बाद रुपए हमारे हो जायेंगे।“
कमलाप्रसाद को मानो चोट-सी लगी। बोले – “खूब सोच लीजिए।“
बद्रीप्रसाद ने निश्चयात्मक स्वर में कहा – “खूब सोच लिया है। देखना केवल यह है कि इसे स्वीकार करती है या नहीं।“
कमलाप्रसाद – “क्या उसके स्वीकार करने में भी कोई संदेह है?”
बद्रीप्रसाद ने तिरस्कार-भाव से कहा – “तुम्हारी यह बड़ी बुरी आदत है कि तुम सब को स्वार्थी समझने लगते हो। कोई भला आदमी दूसरों का एहसान सिर पर नहीं लेना चाहता। मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है। गए घरों की बात जाने दो, लेकिन जिसमें आत्म-सम्मान का कुछ भी अंश है, वह दूसरों की सहायता नहीं लेना चाहता। मुझे तो संदेह ही नहीं, विश्वास है कि पूर्णा कभी इस बात पर राजी न होगी। वह मेहनत-मजूरी कर सकेगी, तो करेगी, लेकिन जब तक विवश न हो जाए, हमारी सहायता कभी न स्वीकार करेगी।“
प्रेमा ने बड़ी उत्सुकता से कहा – “मुझे भी यह संदेह है। राजी होगी भी तो बड़ी मुश्किल से।“
बद्रीप्रसाद – “तुम उससे इसकी चर्चा करना। कल ही।“
प्रेमा – “नहीं दादा, मुझसे न बनेगा। वह और मैं दोनों ही अब तक बहनों की तरह रही हैं, मुझसे इस ढंग की बात अब न करते बनेगी। मैं तो रोने लगूंगी।“
बद्रीप्रसाद – “तो मैं ही सब ठीक कर लूंगा। हाँ, कल शाम मुझे अवकाश न मिलेगा, तब तक तुम्हारी अम्मा जी से भी बातें होंगी। शायद वह उसके यहाँ रहने पर राजी हो जायें।“
कमलाप्रसाद गृह-प्रबंध में अपने को लासानी समझते थे। यों तो बुद्धि विकास में वह अपने को अफलातूं से रत्ती-भर भी कम न समझते थे। पर गृह-प्रबंध में उनकी सिद्धि सर्वमान्य थी। सिनेमा रोज देखते थे, पर क्या मज़ाल थी कि जेब से एक पैसा भी खर्च करें। मैनेजर से दोस्ती कर रखी थी, उल्टे उसके यहाँ कभी-कभी दावत खा आते थे। पैसे का काम धेले में निकालते थे और बड़ी सुंदरता से कभी-कभी लाला बद्रीप्रसाद से इस विषय में उनकी ठन भी जाया करती थी। बूढ़े लाला जी बेटे की इस कुत्सित मनोवृत्ति पर कभी-कभी खरी-खरी कह डालते थे। कमलाप्रसाद समझ गए कि लाला जी इस वक्त कोई आपत्ति न सुनेंगे, बल्कि आपत्ति से उल्टा असर होने की संभावना थी। इसलिए उन्होंने कूटनीति से काम लेने का निश्चय किया। प्रातःकाल पूर्णा के द्वार पर जा कर आवाज़ दी। पूर्णा पहले तो उनसे परदा करती थी, पर अब बहुरिया बन कर बैठने से कैसे काम चल सकता था। उन्हें अंदर बुला लिया। बरामदे में चारपाई पड़ी हुई थी। कमलाप्रसाद बाबू उस पर जा बैठे। एक क्षण में पूर्णा आ कर उनके सामने खड़ी हो गई। पूर्णा का माथा घूंघट से ढका हुआ था, पर दोनों सजल आँखें कृतज्ञता और विनय से भरी हुई भूमि की ओर ताक रही थीं। कमलाप्रसाद उसे देख कर अवाक-सा रह गया। वह इस इरादे से आया था कि इसे किसी भांति यहाँ से टाल दूं। मैके चले जाने की प्रेरणा करूं। उसे इसकी ज़रा भी चिंता न थी कि इस अबला का भविष्य क्या होगा। उसका निर्वाह कैसे होगा, उसकी रक्षा कौन करेगा, इसका उसे लेश-मात्र भी ध्यान न था। वह केवल इस समय उसे यहाँ से टाल कर अपने रुपए बचा लेना चाहता था, पर विधवा की सरल, निष्कलंक, दीन-मूर्ति देख कर उसे अपनी कुटिलता पर लज्जा आ गई। कौन प्राणी ऐसा हृदय-हीन है जो किसी कोमल पुष्प को तोड़ कर भाड़ में फेंक दे। जीवन में पहली बार उसे सौंदर्य का आकर्षण हुआ। अंधेरे घर में दीपक जल उठा। बोले – “तुम्हें यहाँ अब अकेले रहने में तो बड़ा कष्ट होगा। उधर प्रेमा भी अकेले घबराया करती है। उसी घर में तुम भी क्यों न चली जाओ। क्या कोई हर्ज़ है?”
पूर्णा सिर नीचा किए एक क्षण तक सोचने के बाद बोली- “हर्ज़ तो कुछ नहीं है, बाबूजी यहाँ भी तो आप ही लोगों के भरोसे पड़ी हूँ।“
कमलाप्रसाद – “तो आज चली चलो। बाबूजी की भी यही इच्छा है। मैं जा कर आदमियों को असबाब ले जाने के लिए भेज देता हूँ।“
पूर्णा – “नहीं बाबूजी, इतनी जल्दी न कीजिए। ज़रा सोच लेने दीजिए।“
कमलाप्रसाद – “इसमें सोचने की कौन-सी बात है? अकेले कैसे पड़ी रहोगी?”
पूर्णा – “अकेली तो नहीं हूँ, महरी भी तो यहीं सोने को कहती है।“
कमलाप्रसाद – “अच्छा, वह बिल्लो। हाँ बुढ़िया है तो सीधी; लेकिन टर्री है। आखिर मेरे घर चलने में तुम्हें क्या असमंजस है?”
पूर्णा – “कुछ नहीं, असमंजस क्या है?”
कमलाप्रसाद – “तो आदमियों को जा कर भेज दूं।“
पूर्णा – “भेज दीजिएगा, अभी जल्दी क्या है?”
कमलाप्रसाद – “तुम व्यर्थ ही इतना संकोच कर रही हो पूर्णा, क्या तुम समझती हो तुम्हारा जाना मेरे घर के प्राणियों को बुरा लगेगा?”
कमलाप्रसाद का अनुमान ठीक था। पूर्णा को वास्तव में यही आपत्ति थी, पर वह संकोच-वश इसे प्रकट न कर सकती थी। उसने समझा, बाबू जी ने मेरे मन की बात ताड़ ली। इससे वह लज्जित भी हो गई। बाबू साहब के घर वालों के विषय में ऐसी धारणा उसे न करनी चाहिए थी, पर कमलाप्रसाद ने उसके संकोच का शीघ्र ही अंत कर दिया, बोले – “तुम्हारा यह अनुमान बिल्कुल स्वाभाविक है, पूर्णा लेकिन सोचो, मेरे घर में ऐसा कौन-सा आदमी है, जो तुम्हारा विरोध कर सके। बाबू जी की स्वयं यह इच्छा है। मुझे तुम खूब जानती हो। पं. वसंत कुमार से मेरी कितनी गहरी दोस्ती थी, यह तुमसे छिपा नहीं, प्रेमा तुम्हारी सहेली ही है, अम्मा जी को तुमसे कितना प्रेम है, वह तुम खूब जानती ही हो, रह गई सुमित्रा, उसे ज़रा कुछ बुरा लगेगा। तुमसे कोई परदा नहीं, लेकिन उसकी बातों की परवाह कौन करता है? उसे खुश रखने का भी तुम्हें एक गुर बताए देता हूँ। कभी-कभी यह मंत्र फूंक दिया करना, फिर वह कभी तुम्हारी बुराई न करेगी। बस उसकी सुंदरता की तारीफ़ करती रहना। यह न समझना कि रंभा या उर्वशी कहने से वह समझ जाएगी कि यह मुझे बना रही है। तुम चाहे जितना बढ़ाओ, वह उसे यथार्थ ही समझेगी। इसी मंत्र से मैं उसे नचाया करता हूँ, यही मंत्र तुम्हें बताए देता हूँ।“
पूर्णा को हँसी आ गई, बोली – “आप तो उनकी हँसी उड़ा रहे हैं, भला ऐसा कौन होगा, जिसे इतनी समझ न हो।“
कमलाप्रसाद – “इतनी समझ को तुम साधारण बात समझ रही हो, पर यह साधारण बात नहीं। तुमको यह सुन कर आश्चर्य तो होगा, पर अपनी तारीफ़ सुनकर हम इतने मतवाले हो जाते हैं कि फिर हममें विवेक की शक्ति ही लुप्त हो जाती है। बड़े-से-बड़ा महात्मा भी अपनी प्रशंसा सुन कर फूल उठता है। हाँ, प्रशंसा करने वाले शब्दों में भक्ति का भाव रहना आवश्यक है। यदि ऐसा न होता, तो कवियों को झूठी तारीफों के पुल बांधने के लिए हमारे राजे-महाराजे पुरस्कार क्यों देते? बताओ? राजा साहब तमंचे की आवाज़ सुन कर चौंक पड़ते हैं, कानों में उंगली डाल लेते हैं और घर में भागते हैं, पर दरबार का कवि उन्हें वीरता में अर्जुन और द्रोणाचार्य से दो हाथ और ऊँचा उठा देता है, तो राजा साहब की मूँछें खिल उठती हैं, उन्हें एक क्षण के लिए भी यह ख़याल नहीं आता कि यह मेरी हँसी उड़ाई जा रही है। ऐसी तारीफों में हम शब्दों को नहीं, उनके अंदर छिपे हुए भावों को ही देखते हैं। सुमित्रा रंग-रूप में अपने बराबर किसी को नहीं समझती। न जाने उसे यह खब्त कैसे हो गया? यह कहते बहुत दु:ख होता है पूर्णा, पर इस स्त्री के कारण मेरी ज़िंदगी ख़राब हो गई। मुझे मालूम ही न हुआ कि प्रेम किसे कहते हैं। मैं संसार में सबसे अभागा प्राणी हूँ और क्या कहूं। पूर्व जन्म के पापों का प्रायश्चित कर रहा हूँ। सुमित्रा से बोलने को जी नहीं चाहता, पर मुँह से कुछ नहीं कहता कि कहीं घर में कुहराम न मच जाए। लोग समझते हैं, मैं आवारा हूँ, सिनेमा और थिएटर में प्रमोद के लिए जाता हूँ, लेकिन मैं तुमसे सत्य कहता हूँ पूर्णा, मैं सिनेमा में केवल अपनी हार्दिक वेदनाओं को भुलाने के लिए जाता हूँ, अपनी अतृप्त अभिलाषाओं को और कैसे शांत करूँ, दिल की आग को कैसे बुझाऊं। कभी-कभी जी मे आता है, सन्यासी हो जाऊं और कदाचित एक दिन यही करना पड़ेगा। तुम समझती होगी, यह महाशय कहाँ का पचड़ा ले बैठे। क्षमा करना, न जाने आज क्यों तुमसे ये बातें करने लगा। आज तक मैंने इन भावों को किसी से प्रकट नहीं किया था। व्यक्ति हृदय ही से सहानुभूति की आशा होती है, बस यही समझ लो। तो मैं जा कर आदमियों को भेजे देता हूँ, तुम्हारा असबाब उठा ले जायेंगे।“
पूर्णा को अब क्या आपत्ति हो सकती थी? उसका जी अब भी इस घर को छोड़ने को न चाहता था, पर वह इस अनुरोध को टाल न सकी। उसे यह भय भी हुआ कि कहीं यह मेरे इंकार से और भी दुःखी न हो जायें। आश्रयविहीन अबला के लिए इस समय तिनके का सहारा ही बहुत था, तो वह नौका की कैसे अवहेलना करती, पर वह क्या जानती थी कि वह उसे उबारने वाली नौका नहीं, वरन एक विचित्र जल-जंतु है, जो उसकी आत्मा को निगल जाएगा?
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