चैप्टर 7 : प्रतिज्ञा ~ मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 7 Pratigya Novel By Munshi Premchand In Hindi Read Online

Chapter7 Pratigya Novel By Munshi Premchand

Chapter7 Pratigya Novel By Munshi Premchand

Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 67891011121314151617 

Prev | Next | All Chapter

लाला बद्रीप्रसाद को दाननाथ का पत्र क्या मिला, आघात के साथ ही अपमान भी मिला। वह अमृतराय की लिखावट पहचानते थे। उस पत्र की सारी नम्रता, विनय और प्रण, उस लिपि में लोप हो गए। मारे क्रोध के उनका मस्तिष्क खौल उठा। दाननाथ के हाथ क्या टूट गए, जो उसने अमृतराय से यह पत्र लिखाया। क्या उसके पाँव में मेंहदी लगी थी, जो यहाँ तक न आ सकता था? और यह अमृतराय भी कितना निर्लज्ज है। वह ऐसा पत्र कैसे लिख सकता है! जरा भी शर्म नहीं आई।

अब तक लाला बद्रीप्रसाद को कुछ-कुछ आशा थी कि शायद अमृतराय की आवेश में की हुई प्रतिज्ञा कुछ शिथिल पड़ जाये। लिखावट देख कर पहले वह यही समझे थे कि अमृतराय ने क्षमा मांगी होगी, लेकिन पत्र पढ़ा, तो आशा की वह पतली-सी डोरी भी टूट गई। दाननाथ का पत्र पाकर शायद वह अमृतराय को बुलाकर दिखाते और प्रतिस्पर्धा को जगा कर उन्हें पंजे में लाते। यह आशा की धज्जी भी उड़ गई। इस जले पर नमक छिड़क दिया अमृतराय की लिखावट ने। क्रोध से कांपते हुए हाथों से दाननाथ को यह पत्र लिखा –

लाला दाननाथ जी, आपने अमृतराय से यह पत्र लिखाकर मेरा और प्रेमा का जितना आदर किया है, उसका आप अनुमान नहीं कर सकते। उचित तो यही था कि मैं उसे फाड़ कर फेंक देता और आपको कोई जवाब न देता, लेकिन…

यहीं तक लिख पाए थे कि देवकी ने आकर बड़ी उत्सुकता से पूछा – ‘क्या लिखा है बाबू अमृतराय ने?’

बद्रीप्रसाद ने काग़ज़ की ओर सिर झुकाए हुए कहा – ‘अमृतराय का कोई खत नहीं आया।’

देवकी – ‘चलो, कोई खत कैसे नहीं आया। मैंने कोठे पर से देखा उनका आदमी एक चिट्ठी लिए लपका आ रहा था।’

बद्रीप्रसाद – ‘हाँ, आदमी तो उन्हीं का था, पर खत दाननाथ का था। उसी का जवाब लिख रहा हूँ। महाशय ने अमृतराय से खत लिखाया है और नीचे अपने दस्तखत कर दिए हैं। अपने हाथ से लिखते शर्म आती थी, बेहूदा, शोहदा…’

देवकी – ‘खत में था क्या?’

बद्रीप्रसाद- ‘यह पड़ा तो है, देख क्यों नहीं लेती?’

देवकी ने खत पढ़ कर कहा – ‘तो इसमें इतना बिगड़ने की कौन-सी बात है? जरा देखूं सरकार ने इसका क्या जवाब लिखा है।’

बद्रीप्रसाद – ‘तो देखो। अभी तो शुरू किया है। ऐसी खबर लूंगा कि बच्चा सारा शोहदापन भूल जाये।’

देवकी ने बद्रीप्रसाद का पत्र पढ़ा और फाड़ कर फेंक दिया।

बद्रीप्रसाद ने कड़क कर पूछा – ‘फाड़ क्यों दिया। तुम कौन होती हो मेरा खत फाड़नेवाली?’

देवकी – ‘तुम कौन होते हो ऐसा खत लिखनेवाले? अमृतराय को खो कर क्या अभी संतोष नहीं हुआ, जो दानू को भी खो देने की फ़िक्र करने लगे? तुम्हारे खत का नतीजा यही होगा कि दानू फिर तुम्हें अपनी सूरत कभी न दिखाएगा। ज़िन्दगी तो मेरी लड़की की ख़राब होगी, तुम्हारा क्या बिगड़ेगा?’

बद्रीप्रसाद – ‘हाँ और क्या, लड़की तो तुम्हारी है, मेरी तो कोई होती ही नहीं।’

देवकी – ‘आपकी कोई होती, तो उसे कुएँ में ढकेलने को यों न तैयार हो जाते। यहाँ दूसरा कौन लड़का है प्रेमा के योग्य, जरा सुनूं।’

बद्रीप्रसाद – ‘दुनिया योग्य वरों से ख़ाली नहीं, एक-से-एक पड़े हुए हैं।’

देवकी – ‘पास के दो-तीन शहरों में तो कोई दिखता नहीं। हाँ, बाहर की मैं नहीं कहती। सत्तू बांधकर खोजने निकलोगे, तो मालूम होगा। बरसों दौड़ते गुजर जायेंगे। फिर बे-जाने पहचाने घर लड़की कौन ब्याहेगा और प्रेमा क्यों मानने लगी?’

बद्रीप्रसाद – ‘उसने अपने हाथ से क्यों खत नहीं लिखा? मेरा तो यही कहना है। क्या उसे इतना भी मालूम नहीं कि इसमें मेरा कितना अनादर हुआ? सारी परीक्षायें तो पास किये बैठा है। डॉक्टर भी होने जा रहा है, क्या उसको इतना भी नहीं मालूम? स्पष्ट बात है दोनों मिल कर मेरा अपमान करना चाहते हैं।’

देवकी – ‘हाँ, शोहदे तो हैं ही, तुम्हारा अपमान करने के सिवा उनका और उद्यम ही क्या है। साफ़ तो बात है और तुम्हारी समझ में नहीं आती। न जाने बुद्धि का हिस्सा लगते वक्त तुम कहाँ चले गए थे। पचास वर्ष के हुए और इतनी मोटी-सी बात नहीं समझ सकते।’

बद्रीप्रसाद ने हँसकर कहा – ‘मैं तुम्हें तलाश करने गया था।’

देवकी अधेड़ होने पर भी विनोदशील थी, बोली – ‘वाह, मैं पहले ही पहुँच कर कई हिस्से उड़ा ले गई थी। दोनों में कितनी मैत्री है, यह तो जानते ही हो। दाननाथ मारे संकोच के खुद न लिख सका होगा। अमृतबाबू ने सोचा होगा कि लालाजी कोई और वर न ठीक करने लगें, इसलिए यह खत लिख कर दानू से जबरदस्ती हस्ताक्षर करा लिया होगा।’

बद्रीप्रसाद ने झेंपते हुए कहा – ‘इतना तो मैं भी समझता हूँ, क्या ऐसा गंवार हूँ?’

देवकी – ‘तब किसलिए इतना जामे से बाहर हो रहे थे। बुला कर कह दो, मंजूर है। बेचारी बूढ़ी माँ के भाग खुल जाएँगे। मुझे तो उस पर दया आती है।’

बद्रीप्रसाद – ‘मुझे अब यह अफ़सोस हो रहा है कि पहले दानू से क्यों न विवाह कर दिया। इतने दिनों तक व्यर्थ में अमृतराय का मुँह क्यों ताकता रहा। आखिर वही करना पड़ा।’

देवकी – ‘भावी कौन जानता था? और सच तो यह है कि दानू ने प्रेमा के लिए तपस्या भी बहुत की। चाहता तो अब तक कभी का उसका विवाह हो गया होता। कहाँ-कहाँ संदेश नहीं गए, माँ कितना रोई, संबंधियों ने कितना समझाया, लेकिन उसने कभी हामी न भरी। प्रेमा उसके मन में बसी हुई है।’

बद्रीप्रसाद – ‘लेकिन प्रेमा उसे स्वीकार करेगी, पहले यह तो निश्चय कर लो। ऐसा न हो, मैं यहाँ हामी भर लूं और प्रेमा इंकार कर ले। इस विषय में उसकी अनुमति ले लेनी चाहिए।’

देवकी – ‘फिर तुम मुझे चिढ़ाने लगे। दानू में कौन-सी बुराई है, जो वह इंकार करेगी? लाख लड़कों में एक लड़का है। हाँ, यह ज़िद हो कि करूंगी, तो अमृतराय से करूंगी, नहीं तो कुवांरी रहूंगी, तो जनम भर उनके नाम पर बैठी रहे। अमृतराय तो अब किसी विधवा से ही विवाह करेंगे, या संभव है करें ही न। उनका वेद ही दूसरा है। मेरी बात मानो, दानू को खत लिख दो। प्रेमा से पूछने-पाछने का काम नहीं। मन ऐसी वस्तु नहीं है, जो काबू में न आये। मेरा मन तो अपने पड़ोस के वकील साहब से विवाह करने का था। उन्हें कोट-पतलून पहने बग्घी पर कचहरी जाते देखकर निहाल हो जाती थी, लेकिन तुम्हारे भाग जागे, माता-पिता ने तुम्हारे पल्ले बांध दिया, तो मैंने क्या किया, दो-एक दिन तो अवश्य दुःख हुआ, मगर फिर उनकी तरफ ध्यान भी न गया। तुम शक्ल-सूरत, विद्या-बुद्धि, धन-दौलत किसी बात में उनकी बराबरी नहीं कर सकते, लेकिन कसम लो, जो मैंने विवाह के बाद कभी भूल कर भी उनकी याद की हो।’

बद्रीप्रसाद – ‘अच्छा, तभी तुम बार-बार मैके जाया करती थी। अब समझा।’

देवकी – ‘मुझे छेड़ोगे तो कुछ कह बैठूंगी।’

बद्रीप्रसाद – ‘तुमने अपनी बात कह डाली, तो मैं भी कहे डालता हूँ, मेरा भी एक मुसलमान लड़की से प्रेम हो गया था। मुसलमान होने को तैयार था। रंगरूप में अप्सरा थी, तुम उसके पैरों की धूल को भी नहीं पहुँच सकती। मुझे अब तक उसकी याद सताया करती है।’

देवकी – ‘झूठे कहीं के, लबाड़िए। जब मैं आई, तो महीने भर तक तो तुम मुझसे बोलते लजाते थे, मुसलमान औरत से प्रेम करते थे। वह तो तुम्हें बाज़ार में बेच लाती और फिर तुम लोगों की बात मैं नहीं चलाती। सच भी हो सकती है।’

बद्रीप्रसाद – ‘ज़रा प्रेमा को बुला लो, पूछ लेना ही अच्छा है।’

देवकी – (झुंझलाकर) ‘उससे क्या पूछोगे और वह क्या कहेगी, यही मेरी समझ में नहीं आता। मुझसे जब इस विषय में बातें हुई हैं, वह यही कहती रही है कि मैं कुंवारी रहूंगी। वही फिर कहेगी। मगर इतना मैं जानती हूँ कि जिसके साथ तुम बात पक्की कर दोगे, उसे करने में उसे कोई आपत्ति न होगी। इतना वह जानती है कि गृहस्थ की कन्या कुंवारी नहीं रह सकती।’

बद्रीप्रसाद – ‘रो-रो कर प्राण तो न दे देगी।’

देवकी – ‘नहीं, मैं ऐसा नहीं समझती। कर्तव्य का उसे बड़ा ध्यान रहता है और यों तो फिर दुःख है ही, जिसे मन में अपना पति समझ चुकी थी, उसको हृदय से निकाल कर फेंक देना क्या कोई आसान काम है? यह घाव कहीं बरसों मे जाके भरेगा। इस साल तो वह विवाह करने पर किसी तरह राजी होगी।’

बद्रीप्रसाद – ‘अच्छा, मैं ही एक बार उससे पूछूंगा। इन पढ़ी-लिखी लड़कियों का स्वभाव कुछ और हो जाता है। अगर उनके प्रेम और कर्तव्य में विरोध हो गया, तो उनका समस्त जीवन दुःखमय हो जाता है। वे प्रेम और कर्तव्य पर उत्सर्ग करना नहीं जानती या नहीं चाहती। हाँ, प्रेम और कर्तव्य में संयोग हो जाए, तो उनका जीवन आदर्श हो जाता है। ऐसा ही स्वभाव प्रेमा का भी जान पड़ता है। मैं दानू को लिखे देता हूँ कि मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन प्रेमा से पूछ कर ही निश्चय कर सकूंगा।’

सहसा कमलाप्रसाद आ कर बोले – ‘आपने कुछ सुना? बाबू अमृतराय एक वनिता आश्रम खोलने जा रहे हैं। कमाने का यह नया ढंग निकाला है।’

बद्रीप्रसाद ने जरा माथा सिकोड़ कर पूछा – ‘कमाने का ढंग कैसा, मैं नहीं समझा?’

कमलाप्रसाद – ‘वही जो और लीडर करते हैं! वनिता-आश्रम में विधवाओं का पालन-पोषण किया जाएगा। उन्हें शिक्षा भी दी जाएगी। चंदे की रकमें आयेंगी और यार लोग मजे करेंगे। कौन जानता है, कहाँ से कितने रुपए आये। महीने भर में एक झूठा-सच्चा हिसाब छपवा दिया। सुना है कई रईसों ने बड़े-बड़े चंदे देने का वचन दिया है। पाँच लाख का तखमीना है। इसमें कम-से-कम पचास हज़ार तो यारों के ही हैं। वकालत में इतने रुपए कहाँ इतनी जल्द मिल जाते थे।’

बद्रीप्रसाद – ‘पचास ही हज़ार बनाए, तो क्या बनाए, मैं तो समझता हूँ, एक लाख से कम पर हाथ न मारेंगे।’

कमलाप्रसाद – ‘इन लोगों को सूझती खूब है। ऐसी बातें हम लोगों को नहीं सूझती।’

बद्रीप्रसाद – ‘जा कर कुछ दिनों उनकी शागिर्दी करो, इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।’

कमलाप्रसाद – ‘तो क्या मैं कुछ झूठ कहता हूँ।’

बद्रीप्रसाद – ‘ज़रा भी नहीं। तुम कभी झूठ बोले ही नहीं, भला आज क्यों झूठ बोलने लगे। सत्य के अवतार तुम्हीं तो हो।’

देवकी – ‘सच कहा है, होम करते हाथ जलते हैं। वह बेचारा तो परोपकार के लिए अपना सर्वस्व त्यागे बैठा है और तुम्हारी निगाह में उसने लोगों को ठगने के लिए यह स्वाँग रचा है। आप तो कुछ कर नहीं सकते, दूसरों के सत्कार्य में बाधा डालने को तैयार। उन्हें भगवान ने क्या नहीं दिया है, जो यह मायाजाल रचते?’

कमलाप्रसाद – ‘अच्छा, मैं ही झूठा सही, इसमें झगड़ा काहे का, थोड़े दिनों में आपकी कलई खुल जाएगी। आप जैसे सरल जीव संसार में न होते तो ऐसे धूर्तों की थैलियाँ कौन भरता?’

देवकी – ‘बस चुप भी रहो। ऐसी बातें मुँह से निकालते तुम्हें शर्म नहीं आती? कहीं प्रेमा के सामने ऐसी बे-सिर-पैर की बातें न करने लगना। याद है, तुमने एक बार अमृतराय को झूठा कहा था, तो उसने तीन दिन तक खाना नहीं खाया था।’

कमलाप्रसाद – ‘यहाँ इन बातों से नहीं डरते। लगी-लिपटी बातें करना भाता ही नहीं। कहूंगा सत्य ही, चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा। वह हमारा अपमान करते हैं, तो हम उनकी पूजा न करेंगे। आखिर वह हमारे कौन होते हैं, जो हम उनकी करतूतों पर परदा डालें? मैं तो उन्हें इतना बदनाम करूंगा कि वह शहर में किसी को मुँह न दिखा सकेंगे।’

यह कहता हुआ कमलाप्रसाद चला गया। उसी समय प्रेमा ने कमरे में क़दम रखा। उसकी पलकें भीगी हुई थीं, मानो अभी रोती रही हो। उसका कोमल गाल ऐसा कृश हो गया था, मानो किसी हास्य की प्रतिध्वनि हो, मुख किसी वियोगिनी की पूर्वस्मृति की भांति मलिन और उदास था।

उसने आते ही कहा – ‘दादाजी, आप ज़रा बाबू दाननाथ को बुला कर समझा दें, वह क्यों जीजा जी पर झूठा आक्षेप करते फिरते हैं।’

बद्रीप्रसाद ने विस्मित हो कर कहा – ‘दाननाथ! वह भला क्यों अमृतराय पर आक्षेप करने लगा। उससे जैसे मैत्री है, वैसी तो मैंने और कहीं देखी नहीं।’

प्रेमा – ‘विश्वास तो मुझे भी नहीं आता, पर भैयाजी ही कह रहे हैं। वनिता-आश्रम खोलने का तो जीजाजी का बहुत दिनों से विचार था, कई बार मुझसे उसके विषय में बातें हो चुकी हैं। लेकिन बाबू दाननाथ अब यह कहते फिरते हैं कि वह इस बहाने से रुपए जमा करके जमींदारी लेना चाहते हैं।’

बद्रीप्रसाद – ‘कमलाप्रसाद कहते थे?’

प्रेमा – ‘हाँ, वही तो कहते थे। दाननाथ ने द्वेष-वश कहा हो, तो आश्चर्य ही क्या आप जरा उन्हें बुला कर पूछें।’

बद्रीप्रसाद – ‘कमलाप्रसाद झूठ बोल रहा है, सरासर झूठ! दानू को मैं खूब जानता हूँ। उसका-सा सज्जन बहुत कम मैंने देखा है। मुझे तो विश्वास है कि आज अमृतराय के हित के लिए प्राण देने का अवसर आ जाए, तो दानू शौक़ से प्राण दे देगा। आदमी क्या हीरा है। मुझसे जब मिलता है, बड़ी नम्रता से चरण छू लेता है।’

देवकी – ‘कितना हँसमुख है। मैंने तो उसे जब देखा हँसते ही देखा। बिल्कुल बालकों का स्वभाव है। उसकी माता रोया करती है कि मैं मर जाऊंगी, तो दानू को कौन खिला कर सुलाएगा। दिन भर भूखा बैठा रहे, पर खाना न मांगेगा और अगर कोई बुला-बुला कर खिलाए, तो सारा दिन खाता रहेगा। बड़ा सरल स्वभाव है, अभिमान तो छू नहीं गया।

बद्रीप्रसाद – ‘अबकी डॉक्टर हो जाएगा।

लाला बद्रीप्रसाद उन आदमियों में थे, जो दुविधा में नहीं रहना चाहते थे, किसी-न-किसी निश्चय पर पहुँच जाना, उनके चित्त की शांति के लिए आवश्यक है। दाननाथ के पत्र का ज़िक्र करने का ऐसा अच्छा अवसर पा कर वह अपने को संवरण न कर सके बोले – ‘यह देखो प्रेमा, उन्होंने अभी-अभी यह पत्र भेजा है। मैं तुमसे इसकी चर्चा करने जा ही रहा था कि तुम खुद आ गईं।’

पत्र का आशय क्या है, प्रेमा इसे तुरंत ताड़ गई। उसका हृदय ज़ोर से धड़कने लगा। उसने कांपते हुए हाथों से पत्र ले लिया, पर कैसा रहस्य! लिखावट तो साफ़ अमृतराय की है। उसकी आँखें भर आईं। लिखावट पर यह लिपि देख कर एक दिन उसका हृदय कितना फूल उठता था। पर आज! वही लिपि उसकी आँखों में कांटों की भांति चुभने लगी। एक-एक अक्षर, बिच्छू की भांति हृदय में डंक मारने लगा। उसने पत्र निकाल कर देखा – वही लिपि थी, वही चिर-परिचित सुंदर स्पष्ट लिपि, जो मानसिक शांति की द्योतक होती है। पत्र का आशय वही था, जो प्रेमा ने समझा था। वह इसके लिए पहले ही से तैयार थी। उसको निश्चय था कि दाननाथ इस अवसर पर न चूकेंगे। उसने इस पत्र का जवाब भी पहले ही से सोच रखा था, धन्यवाद के साथ साफ़ इंकार। पर यह पत्र अमृतराय की कलम से निकलेगा, इसकी संभावना ही उसकी कल्पना से बाहर थी। अमृतराय इतने हृदय-शून्य हैं, इसका उसे गुमान भी न हो सकता था। वही हृदय जो अमृतराय के साथ विपत्ति के कठोरतम आघात और बाधाओं की दुस्सह यातनायें सहन करने को तैयार था, इस अवहेलना की ठेस को न सह सका। वह अतुल प्रेम, वह असीम भक्ति, जो प्रेमा ने उसमें बरसों से संचित कर रखी थी, एक दीर्घ शीतल विश्वास के रूप में निकल गई। उसे ऐसा जान पड़ा, मानो उसके संपूर्ण अंग शिथिल हो गए हैं, मानो हृदय भी निस्पंद हो गया है, मानो उसका अपनी वाणी पर लेशमात्र भी अधिकार नहीं है। उसके मुख, से ये शब्द निकल पड़े – ‘आपकी जो इच्छा हो, वह कीजिए, मुझे सब स्वीकार है। वह कहने जा रही थी – जब कुएँ में गिरना है, तो जैसे पक्का वैसे कच्चा, उसमें कोई भेद नहीं। पर जैसे किसी ने उसे सचेत कर दिया। वह तुरंत पत्र को वहीं फेंक कर अपने कमरे में लौट आई और खिड़की के सामने खड़ी हो कर फूट-फूट कर रोने लगी।’

संध्या हो गई थी। आकाश में एक-एक करके तारे निकलते आते थे। प्रेमा के हृदय में भी उसी प्रकार एक-एक करके स्मृतियाँ जागृत होने लगीं। देखते-देखते सारा गगन-मंडल तारों से जगमगा उठा। प्रेमा का हृदयाकाश भी स्मृतियों से आच्छन्न हो गया, पर इन असंख्य तारों से आकाश का अंधकार क्या और भी गहन नहीं हो गया था?

Prev | Next | All Chapter

Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 67891011121314151617 

मुंशी प्रेमचंद के अन्य उन्पयास यहाँ पढ़े :

~ निर्मला मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

~ प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

समस्त  हिंदी उपन्यासों का संग्रह यहाँ पढ़ें : Click here

समस्त  उर्दू-हिंदी उपन्यासों का संग्रह यहाँ पढ़ें : Click here

Leave a Comment