चैप्टर 7 गोदान : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 7 Godan Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 7 Godan Novel By Munshi Premchand

 

Chapter 7 Godan Novel By Munshi Premchand

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यह कहती हुई वह बाग़ की तरफ़ चल दी। आम गदरा गये थे। हवा के झोंकों से एकाध ज़मीन पर गिर पड़ते थे, लू के मारे चुचके, पीले; लेकिन बाल-वृन्द उन्हें टपके समझकर बाग़ को घेरे रहते थे। रूपा भी बहन के पीछे हो ली। जो काम सोना करे, वह रूपा ज़रूर करेगी। सोना के विवाह की बातचीत हो रही थी, रूपा के विवाह की कोई चचार् नहीं करता; इसलिए वह स्वयं अपने विवाह के लिए आग्रह करती है। उसका दूल्हा कैसा होगा, क्या-क्या लायेगा, उसे कैसे रखेगा, उसे क्या खिलायेगा, क्या पहनायेगा, इसका वह बड़ा विशद वर्णन करती, जिसे सुनकर कदाचित् कोई बालक उससे विवाह करने पर राज़ी न होता।

सांझ हो रही थी। होरी ऐसा अलसाया कि ऊख गोड़ने न जा सका। बैलों को नांद में लगाया, सानी-खली दी और एक चिलम भरकर पीने लगा। इस फ़सल में सब कुछ खलिहान में तौल देने पर भी अभी उस पर कोई तीन सौ क़रज़ था, जिस पर कोई सौ रूपये सूद के बढ़ते जाते थे। मंगरू साह से आज पाँच साल हुए बैल के लिए साठ रूपये लिए थे, उसमें साठ दे चुका था; पर वह साठ रूपये ज्यों-के-त्यों बने हुए थे। दातादीन पण्डित से तीस रूपये लेकर आलू बोये थे। आलू तो चोर खोद ले गये, और उस तीस के इन तीन बरसों में सौ हो गये थे। दुलारी विधवा सहुआइन थी, जो गाँव में नोन तेल तमाखू की दुकान रखे हुए थी। बंटवारे के समय उससे चालीस रूपये लेकर भाइयों को देना पड़ा था। उसके भी लगभग सौ रूपये हो गये थे, क्योंकि आने रूपये का ब्याज था। लगान के भी अभी पच्चीस रूपये बाक़ी पड़े हुए थे और दशहरे के दिन शगुन के रूपयों का भी कोई प्रबंध करना था। बांसों के रूपये बड़े अच्छे समय पर मिल गये। शगुन की समस्या हल हो जायेगी; लेकिन कौन जाने। यहाँ तो एक धेला भी हाथ में आ जाये, तो गाँव में शोर मच जाता है, और लेनदार चारों तरफ़ से नोचने लगते हैं, ये पाँच रूपये तो वह शगुन में देगा, चाहे कुछ हो जाये; मगर अभी ज़िन्दगी के दो बड़े-बड़े काम सिर पर सवार थे। गोबर और सोना का विवाह। बहुत हाथ बांधने पर भी तीन सौ से कम ख़र्च न होंगे। ये तीन सौ किसके घर से आयेंगे? कितना चाहता है कि किसी से एक पैसा क़रज़ न ले, जिसका आता है, उसका पाई-पाई चुका दे; लेकिन हर तरह का कष्ट उठाने पर भी गला नहीं छूटता। इसी तरह सूद बढ़ता जायेगा और एक दिन उसका घर-द्वार सब नीलाम हो जायेगा, उसके बाल-बच्चे निराश्रय होकर भीख मांगते फिरेंगे। होरी जब काम-धंधे से छुट्टी पाकर चिलम पीने लगता था, तो यह चिंता एक काली दीवार की भांति चारों ओर से घेर लेती थी, जिसमें से निकलने की उसे कोई गली न सूझती थी। अगर संतोष था तो यही कि यह विपित्त अकेले उसी के सिर न थी। प्रायः सभी किसानों का यही हाल था। अधिकांश की दशा तो इससे भी बदतर थी। शोभा और हीरा को उससे अलग हुए अभी कुल तीन साल हुए थे; मगर दोनों पर चार-चार सौ का बोझ लद गया। झींगुर दो हल की खेती करता है। उस पर एक हज़ार से कुछ बेसी ही देना है। जियावन महतो के घर-भिखारी भीख भी नहीं पाता; लेकिन करजे का कोई ठिकाना नहीं। यहाँ कौन बचा है।

सहसा सोना और रूपा दोनों दौड़ी हुई आयीं और एक साथ बोलीं – ‘भैया गाय ला रहे हैं। आगे-आगे गाय, पीछे-पीछे भीया हैं।‘

रूपा ने पहले गोबर को आते देखा था। यह ख़बर सुनाने की सुर्ख़रूई उसे मिलनी चाहिए थी। सोना बराबर की हिस्सेदार हुई जाती है, यह उससे कैसे सहा जाता। उसने आगे बढ़कर कहा – ‘पहले मैंने देखा था। तभी दौड़ी। बहन ने तो पीछे से देखा।‘

सोना इस दावे को स्वीकार न कर सकी। बोली – ‘तूने भैया को कहाँ पहचाना। तू तो कहती थी, कोई गाय भागी आ रही है। मैंने ही कहा, भैया हैं। दोनों फिर बाग़ की तरफ़ दौड़ीं, गाय का स्वागत करने के लिए।‘

धनिया और होरी दोनों गाय बांधने का प्रबंध करने लगे। होरी बोला – ‘चलो, जल्दी से नांद गाड़ दें।‘

धनिया के मुख पर जवानी चमक उठी थी – ‘नहीं, पहले थाली में थोड़ा-सा आटा और गुड़ घोलकर रख दें। बेचारी धूप में चली होगी। प्यासी होगी। तुम जाकर नांद गाड़ो, मैं घोलती हूँ।‘

‘कहीं एक घंटी पड़ी थी। उसे ढूंढ ले। उसके गले में बांधेंगे।’

‘सोना कहाँ गयी। सहुआइन की दुकान से थोड़ा-सा काला डोरा मंगवा लो, गाय को नज़र बहुत लगती है।’

‘आज मेरे मन की बड़ी भारी लालसा पूरी हो गयी।’

धनिया अपने हार्दिक उल्लास को दबाये रखना चाहती थी। इतनी बड़ी संपदा अपने साथ कोई नयी बाधा न लाये, यह शंका उसके निराश हृदय में कंपन डाल रही थी। आकाश की ओर देखकर बोली – ‘गाय के आने का आनंद तो जब है कि उसका पौरा भी अच्छा हो।‘

भगवान् के मन की बात है। मानो वह भगवान् को भी धोखा देना चाहती थी। भगवान् को भी दिखाना चाहती थी कि इस गाय के आने से उसे इतना आनंद नहीं हुआ कि ईर्ष्यालु भगवान् सुख का पलड़ा ऊँचा करने के लिए कोई नयी विपत्ति भेज दें। वह अभी आटा घोल ही रही थी कि गोबर गाय को लिये बालकों के एक जुलूस के साथ द्वार पर पहुँचा। होरी दौड़कर गाय के गले से लिपट गया। धनिया ने आटा छोड़ दिया और जल्दी से एक पुरानी साड़ी का काला किनारा फाड़कर गाय के गले में बांध दिया। होरी श्रद्धा-विह्वल नेत्रों से गाय को देख रहा था, मानो साक्षात् देवीजी ने घर में पदार्पण किया हो। आज भगवान ने यह दिन दिखाया कि उसका घर गऊ के चरणों से पवित्र हो गया। यह सौभाग्य! न जाने किसके पुण्य-प्रताप से। धनिया ने भयातुर होकर कहा – ‘खड़े क्या हो, आँगन में नांद गाड़ दो। आँगन में, जगह कहाँ है? ‘

‘बहुत जगह है। ‘

‘मैं तो बाहर ही गाड़ता हूँ।’

‘पागल न बनो। गाँव का हाल जानकर भी अनजान बनते हो।’
‘अरे बित्ते-भर के आँगन में गाय कहाँ बंधधेगी भाई?’

‘जो बात नहीं जानते, उसमें टांग मत अड़ाया करो। संसार-भर की बिद्या तुम्हीं नहीं पढ़े हो।’

होरी सचमुच आपे में न था। गऊ उसके लिए केवल भक्ति और श्रद्धा की वस्तु नहीं, सजीव संपत्ति भी थी। वह उससे अपने द्वार की शोभा और अपने घर का गौरव बढ़ाना चाहता था। वह चाहता था, लोग गाय को द्वार पर बंधे देखकर पूछें – ‘यह किसका घर है?’

लोग कहें – ‘होरी महतो का।‘

तभी लड़कीवाले भी उसकी विभूति से प्रभावित होंगे। आँगन में बंधी, तो कौन देखेगा? धनिया इसके विपरीत सशंक थी। वह गाय को सात परदों के अंदर छिपाकर रखना चाहती थी। अगर गाय आठों पहर कोठरी में रह सकती, तो शायद वह उसे बाहर न निकालने देती। यों हर बात में होरी की जीत होती थी। वह अपने पक्ष पर अड़ जाता था और धनिया को दबना पड़ता था, लेकिन आज धनिया के सामने होरी की एक न चली। धनिया लड़ने पर तैयार हो गयी। गोबर, सोना और रूपा, सारा घर होरी के पक्ष में था; पर धनिया ने अकेले सब को परास्त कर दिया। आज उसमें एक विचित्र आत्म-विश्वास और होरी में एक विचित्र विनय का उदय हो गया था। मगर तमाशा कैसे रुक सकता था। गाय डोली में बैठकर तो आयी न थी। कैसे संभव था कि गाँव में इतनी बड़ी बात हो जाये और तमाशा न लगे। जिसने सुना, सब काम छोड़कर देखने दौड़ा। यह मामूली देशी गऊ नहीं है। भोला के घर से अस्सी रूपये में आयी है। होरी अस्सी रूपये क्या देंगे, पचास-साठ रूपये में लाये होंगे। गाँव के इतिहास में पचास-साठ रूपये की गाय का आना भी अभूतपूर्व बात थी। बैल तो पचास रूपये के भी आये, सौ के भी आये, लेकिन गाय के लिए इतनी बड़ी रक़म किसान क्या खा के ख़र्च करेगा। यह तो ग्वालों ही का कलेजा है कि अंजुजुलियों रूपये गिन आते हैं। गाय क्या है, साक्षात् देवी का रूप है। दर्शकों, आलोचकों का तांता लगा हुआ था, और होरी दौड़-दौड़कर सबका सत्कार कर रहा था। इतना विनम्र, इतना प्रसन्न चित्त वह कभी न था। सत्तर साल के बूढ़े पण्डित दातादीन लठिया टेकते हुए आये और पोपले मुँह से बोले – ‘कहाँ हो होरी, तनिक हम भी तुम्हारी गाय देख लें। सुना बड़ी सुंदर है।‘

होरी ने दौड़कर पालागन किया और मन में अभिमानमय उल्लास का आनंद उठाता हुआ, बड़े सम्मान से पण्डितजी को आँगन में ले गया। महाराज ने गऊ को अपनी पुरानी अनुभवी आँखों से देखा, सींगे देखीं, थन देखा, पुट्ठा देखा और घनी सफ़ेद भौंहों के नीचे छिपी हुई आँखों में जवानी की उमंग भरकर बोले – ‘कोई दोष नहीं है बेटा, बाल-भौंरी, सब ठीक। भगवान् चाहेंगे, तो तुम्हारे भाग खुल जायेंगे, ऐसे अच्छे लच्छन हैं कि वाह! बस रातिब न कम होने पाये। एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा।‘

होरी ने आनंद के सागर में डुबकियाँ खाते हुए कहा – ‘सब आपका असीरबाद है, दादा!’ दातादीन ने सुरती की पीक थूकते हुए कहा – ‘मेरा असीरबाद नहीं है बेटा, भगवान् की दया है। यह सब प्रभु की दया है। रूपये नगद दिये?’

होरी ने बे-पर की उड़ाई। अपने महाजन के सामने भी अपनी समृद्धि-प्रदर्शन का ऐसा अवसर पाकर वह कैसे छोड़े। टके की नयी टोपी सिर पर रखकर जब हम अकड़ने लगते हैं, ज़रा देर के लिए किसी सवारी पर बैठकर जब हम आकाश में उड़ने लगते हैं, तो इतनी बड़ी विभूति पाकर क्यों न उसका दिमाग़ आसमान पर चढ़े। बोला – ‘भोला ऐसा भलामानस नहीं है महाराज! नगद गिनाये, पूरे चौकस। अपने महाजन के सामने यह डींग मारकर होरी ने नादानी तो की थी; पर दातादीन के मुख पर असंतोष का कोई चिह्न न दिखायी दिया। इस कथन में कितना सत्य है, यह उनकी उन बूझी आँखों से छिपा न रह सका, जिनमें ज्योति की जगह अनुभव छिपा बैठा था। प्रसन्न होकर बोले – ‘कोई हरज़ नहीं बेटा, कोई हरज़ नहीं। भगवान सब कल्यान करेंगे। पाँच सेर दूध है इसमें बच्चे के लिए छोड़कर।‘

धनिया ने तुरन्त टोका – ‘अरे नहीं महाराज, इतना दूध कहाँ। बुढ़िया तो हो गयी है। फिर यहाँ रातिब कहाँ धरा है।‘

दातादीन ने मर्म-भरी आँखों से देखकर उसकी सतकर्ता को स्वीकार किया, मानो कह रहे हों, ‘गृहिणी का यही धर्म है, सीटना मरदों का काम है, उन्हें सीटने दो।’

फिर रहस्य-भरे स्वर में बोले – ‘बाहर न बांधना, इतना कहे देते हैं।‘

धनिया ने पति की ओर विजयी आँखों से देखा, मानो कह रही हो – ‘लो अब तो मानोगे।‘

दातादीन से बोली – ‘नहीं महाराज, बाहर क्या बाँधेंगे, भगवान दें तो इसी आँगन में तीन गायें और बंध सकती हैं।‘

सारा गाँव गाय देखने आया। नहीं आये तो सोभा और हीरा जो अपने सगे भाई थे। होरी के हृदय में भाइयों के लिए अब भी कोमल स्थान था। वह दोनों आकर देख लेते और प्रसन्न हो जाते तो उसकी मनोकामना पूरी हो जाती। साँझ हो गयी। दोनों पुर लेकर लौट आये। इसी द्वार से निकले, पर पूछा कुछ नहीं। होरी ने डरते-डरते धनिया से कहा – ‘न सोभा आया, न हीरा। सुना न होगा?’

धनिया बोली – ‘तो यहाँ कौन उन्हें बुलाने जाता है।‘

‘तू बात तो समझती नहीं। लड़ने के लिए तैयार रहती है। भगवान् ने जब यह दिन दिखाया है, तो हमें सिर झुकाकर चलना चाहिए। आदमी को अपने संगों के मुँह से अपनी भलाई-बुराई सुनने की जितनी लालसा होती है, बाहरवालों के मुँह से नहीं। फिर अपने भाई लाख बुरे हों, हैं तो अपने भाई ही। अपने हिस्से-बखरे के लिए सभी लड़ते हैं, पर इससे ख़ून थोड़े ही बंट जाता है। दोनों को बुलाकर दिखा देना चाहिए। नहीं कहेंगे गाय लाये, हमसे कहा तक नहीं।’

धनिया ने नाक सिकोड़कर कहा – ‘मैंने तुमसे सौ बार हज़ार बार कह दिया मेरे मुँह पर भाइयों का बखान न किया करो, उनका नाम सुनकर मेरी देह में आग लग जाती है। सारे गाँव ने सुना, क्या उन्होंने न सुना होगा? कुछ इतनी दूर भी तो नहीं रहते। सारा गाँव देखने आया, उन्हीं के पाँवों में मेंहदी लगी हुई थी; मगर आये कैसे? जलन हो रही होगी कि इसके घर गाय आ गयी। छाती फटी जाती होगी।‘

दिया-बत्ती का समय आ गया था। धनिया ने जाकर देखा, तो बोतल में मिट्टी का तेल न था। बोतल उठा कर तेल लाने चली गयी। पैसे होते, तो रूपा को भेजती, उधार लाना था, कुछ मुँह देखी कहेगी; कुछ लल्लो-चप्पो करेगी, तभी तो तेल उधार मिलेगा। होरी ने रूपा को बुलाकर प्यार से गोद में बैठाया और कहा – ‘ज़रा जाकर देख, हीरा काका आ गये कि नहीं। सोभा काका को भी देखती आना। कहना, दादा ने तुम्हें बुलाया है। न आये, हाथ पकड़कर खींच लाना।‘

रूपा ठुनककर बोली – ‘छोटी काकी मुझे डाँटती है।‘

‘काकी के पास क्या करने जायगी। फिर सोभा-बहू तो तुझे प्यार करती है? ‘

‘सोभा काका मुझे चिढ़ाते हैं, कहते हैं … मैं न कहूँगी। ‘

‘क्या कहते हैं, बता? ‘

‘चिढ़ाते हैं।’

‘क्या कहकर चिढ़ाते हैं? ‘

‘कहते हैं, तेरे लिए मूस पकड़ रखा है। ले जा, भूनकर खा ले। ‘

होरी के अंतस्तल में गुदगुदी हुई।’ तू कहती नहीं, पहले तुम खा लो, तो मैं खाऊंगी।’

‘अम्मा मने करती हैं। कहती हैं उन लोगों के घर न जाया करो।’

‘तू अम्मा की बेटी है कि दादा की?’

रूपा ने उसके गले में हाथ डालकर कहा – ‘अम्मा की, और हँसने लगी।‘

‘तो फिर मेरी गोद से उतर जा। आज मैं तुझे अपनी थाली में न खिलाऊंगा।’

घर में एक ही फूल की थाली थी, होरी उसी थाली में खाता था। थाली में खाने का गौरव पाने के लिए रूपा होरी के साथ खाती थी। इस गौरव का परित्याग कैसे करे? हुमककर बोली – ‘अच्छा, तुम्हारी।‘

‘तो फिर मेरा कहना मानेगी कि अम्मा का? ‘

‘तुम्हारा।’

‘तो जाकर हीरा और सोभा को खींच ला। ‘
‘और जो अम्मा बिगड़ें।’

‘अम्मा से कहने कौन जायेगा।’

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